निर्माण के देवता शिल्पचार्य विश्वकर्मा भगवान की पूजा का दिन है, आज का दिन समस्त सृजनशील हाथों को समर्पित हैं।
अर्थपरक संस्कृति के जनक, अर्थवेद के मंत्र दृष्टा भगवान विश्वकर्मा की पूजा सभी निर्माण से संबधित व्यवसायों में की जाती है तथा उनके प्रति कृतज्ञता प्रगट की जाती है कि उन्होंने हमारे हाथ में जो हुनर दिया है उससे हम निरंतर जीविकोपार्जन कर सकें।
प्राचीन काल ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से कितना समृध्द था इसका अनुमान तब के सुविकसित यन्त्र उपकरणों एवं वास्तु शास्त्र से सम्बंधित निर्माणों से लगाया जा सकता हैं, जिनकी आज हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं।
यथार्थ रचना तथा विज्ञान को समझने में शायद सदियाँ लग जाएँ। वैदिक काल में उच्च कोटि के यंत्रों का निर्माण हुआ था,जिसकी तकनीक को लेकर आज भी विश्व अचम्भित हैं।
ग्रहों की चाल जानने के लिए वेधचक्र और तुरीय यन्त्र (दूरबीन) था, इसी तरह उनके पास कम्पास भी था, कणाद मुनि लिखते हैं"मणिगमनं सूच्यभिसर्पनमदृष्टकरणम्" चुम्बक की सूई की ओर लोहे का दौड़ने का कारण अदृष्ट हैं।
शिल्प संहिता में थर्मामीटर ओर बैरोमीटर बनाने की विधि लिखी हैं। वहां लिखा है कि पारा, सूत, तेल और जल के योग से यह यन्त्र बनता था, इस यन्त्र से ग्रीष्म आदि ऋतुओं का निर्णय होता था। इसी तरह वैदिक काल में बालुका घडी, धुप घडी का भी निर्माण कर लिया गया था।
आज कल जिसको इंडस्ट्रीज कहते हैं, वैदिक काल में उसी को शिल्पशास्त्र अथवा कलाज्ञान कहते थे। इसी को
जानने वाले विश्वकर्मा या शिल्पी उपाधि से अलंकृत किये जाते थे।
इन्होंने विविध यंत्रों का निर्माण किया, हम उन यंत्रों का वर्णन करते हैं जो सवारी, मनोरंजन, तथा युद्ध के काम आते थे।
भोज प्रबंध में लिखा है कि राजा भोज के पास एक ऐसा काठ का घोड़ा था जो एक घडी में ११ कोस जाता था और एक पंखा था जो बिना किसी मनुष्य की सहायता से अपने आप चलता था और खूब हवा देता था।
इसी तरह धम्मपाद के विशाखावत्थु में पृष्ठ १९५ में लिखा है कि विशाखा के लिए "महालता" नाम का एक आभूषण बनवाया गया, ये सर से पैर तक था, चार महीनो में ५०० सुतारों ने इसे बनाया, इसकी कीमत उस समय के सिक्कों के हिस्साब से ९ करोड़ थी।
इस आभूषण में एक मोर लगा था जो विशाखा के मस्तक पर नाचा करता था।
इसी तरह महाभारत के आदिपर्व में उतूंग घोडे का वर्णन है वह भी यन्त्र के सहारे चलता था। शाहबाजगढ़ी (पेशावर) में एक पत्थर पे रेल का भी इशारा है।
विमान नामक यन्त्र तो इस देश में वैदिक काल से ही प्रचलित रहा है। वेद में विमान बनाने की विधि बताते हुए लिखा है कि "जो आकाश में पक्षियों के उड़ने कि स्थिति को जानता है, वह समुद्र, आकाश की नाव विमान को जानता है। इसीलिए विमान का अर्थ "पक्षी के सदृश्य होता है।
इन विमानों से सम्बन्ध रखने वाली एक पुस्तक है "अंशुबोधिनी" यह भारद्वाज ऋषि की बनाई हुई है। इस पुस्तक में अनेक विधाओं का वर्णन है।
प्रत्येक विधा के लिए एक अधिकरण रखा गया है। इस अधिकरण में एक विमान अधिकरण भी है इस अधिकरण में आए हुए भारद्वाज ऋषि के "शक्त्युद्ग्मोद्यष्टो" सूत्र पर बोधयान ऋषि कि वृत्ति इस प्रकार है-
इन विमानों की आठ प्रकार की आकाश संचारी गति के विभाग इस प्रकार है,
१.शक्त्युदगम - बिजली से चलने वाला
२.भूत्वाह - अग्नि,जल व वायु से चलने वाला
३.धूमयान - वाष्प से चलने वाला
४.शिखोद्ग्म - पंचशिखी के तेल से चलने वाला
५.अन्शुवाह - सूर्य कि किरणों से चलने वाला
६.तारामुख - उल्कारस(चुम्बक) से चलने वाला
७.मणिवाह - सूर्यकांत,चन्द्रकान्ता आदि मणियों से चलने वाला
८.मरुत्सखा - केवल वायु से चलने वाला
इस प्रकार से विमान बनाने के और भी अन्य प्रमाण मिलते हैं, इसमें पुष्पक विमान का भी वर्णन मिलता है।
विश्वकर्मा के वंशजों ने नित नए आविष्कार किए तथा आज के मानव को सभ्य बनाने में एवं सभ्यता को विकसित करने में इनकामहत्वपूर्ण योगदान है।
मैं कर्मशील भाइयों को विश्वकर्मा पूजा के अवसर पर प्रणाम करता हूँ।
उद्धरण=वैदिक संपत्ति (पं.रघुनन्दन शर्मा) से साभार
जय विस्वकर्मा महराज !
जवाब देंहटाएं