शुक्रवार, 2 मई 2014

किल्ला बंदर : वसई फ़ोर्ट की सैर -1

मुंबई की चाल ही निराली है, दिन रात बस चलती ही रहती है। 27 तारीख का दिन फ़ुरसत का था और हमारे पास कोई काम भी नहीं था। आज मुझे वसई फ़ोर्ट देखने जाना था। सिसोदिया साहब भी तैयार हो गए साथ चलने के लिए। मुझे खंडहरों में ही आनंद का अनुभव होता है। हमने वसई फ़ोर्ट जाने का रास्ता पता किया। दर्शन जी के घर से 10-10 रुपए में आटो वाले ने हमें स्टेशन रोड़ पर छोड़ दिया, वहाँ से "पार नाका" जाने के लिए आटो वाले ने 7-7 रुपए लिए। पार नाका मतलब पुराना वसई गाँव। यहाँ से समुद्र के किनारे तक जाने के लिए आटो वाले ने 20-20 रुपए लिए और सीधा ले जा कर किल्ले बंदर छोड़ा। यहाँ से हमारी वसई फ़ोर्ट यात्रा प्रारंभ हुई।
वसई तट पर यार्ड
ऑटो वाले ने हमें जहां छोड़ा, वह स्थान मुझे शिपयार्ड लगा। क्योंकि पुराने कुछ नावें खड़ी थी और उनकी मरम्मत हो रही थी। पास ही एक चाय स्नेक्स का छोटा सा होटल है। आज धूप बहुत चटक है, डायरेक्ट खोपड़ी को गर्म कर रही है। हवा में चिपचिपाहट के साथ धूप आँखों को चुभ रही थी। मेरे पास धूप का चश्मा नहीं था, वरना कुछ राहत मिल जाती। 
एक सेल्फ़ी विद राधेश्याम जी
पिछले साल ही 3 चश्मों की वाट लग गई और वर्तमान में कोई भी ढंग का धूप का चश्मा 500 रुपए से कम में नहीं मिलता। मंहगाई को देखते हुए चश्मा लेना स्थगित कर रखा है, कहना चाहिए नीयत ही नहीं हो रही लेने की। उम्र बढने के साथ पढने वाले चश्मे की भी जरुरत रहती है। अब दो चश्मे लटका के घूमना रास नहीं आ रहा। इसलिए धूप का चश्मा खरीदने की योजना खटाई में पड़ जाती है।
किल्ले बंदर का समुद्रतटीय द्वार
समुद्र के किनारे से किले का द्वार दिखाई देता है, हमने अपने साथ एक पानी की बोतल बैग में रख ली थी, कुछ स्नेक्स एवं कोल्ड ड्रिंक भी। पता नहीं कुछ खाने को मिले या न मिले, इसलिए पहले से ही व्यवस्था कर लेनी चाहिए। वैसे भी आज सुबह का नाश्ता नहीं किया था। नहा धोकर वसई फ़ोर्ट ही चले आए। किले के इस द्वार  की ऊंचाई लगभग 20 फ़ुट होगी। बाहर से दरवाजे में लगे हुए सभी पत्थर गुनिए में दिखाई दे रहे थे। 
द्वार के किवाड़

किले का द्वार मोटी फ़ट्टों से बना हुआ है, फ़्ट्टों की मोटाई लगभग 3 इंच होगी तथा बाहरी तरफ़ से उसे लोहे की पट्टियों से ढका गया है। प्रत्येक पट्टी में नें 9-9 इंच पर मोटी कीलें लगी हुई है। निर्माण की दृष्टि से दरवाजा मजबूत बना हुआ है। पर दरवाजे में कोई झरोखा नहीं है, जिससे आना जाना हो सकता। आवा गमन के लिए पुरा दरवाजा ही खोलना पड़ता होगा और आमदरफ़्त भी कम ही होगी।
द्वार के समीप हनुमान जी का मंदिर और पाठ करते हुए राधे श्याम जी
इस दरवाजे से लगा हुआ आम्र वृक्ष के नीचे हनुमान जी का मंदिर है। जिसकी छत कवेलू की बनी हुई है, लगता है किसी ने व्यक्तिगत अपने घर पर पूजा करने के लिए स्थापित किया होगा, बाद में सार्वजनिक हो गया होगा। सिसोदिया जी बजरंगबली का दर्शन करके वहीं बैठ गए और हनुमान चालिसा एवं बजरंग बाण का पाठ करने लग गए। उनके पाठ करते तक मुझे इंतजार करना पड़ा। 
पुर्तगाली चर्च
आगे बढने पर चर्च का खंडहर दिखाई दिया, खंडहर से पता चल रहा था कि यह चर्च भव्य रहा होगा। चर्च का भ्रमण करने के पश्चात मुझे पता चला कि इस स्थान पर पुर्तगालियों एवं अंग्रेजों का भी कब्जा रहा है। अन्यथा मैं इसे हिन्दू राजाओं का किला समझ कर ही आया था। हम आगे बढते गए और किले के इतिहास की परतें धीरे-धीरे खुलती गई।
किले के भीतर किला
थोड़ा आगे बढने पर किले के भीतर एक दुर्ग का परकोटा दिखाई दिया। इस द्वार पर पुर्तगाली वास्तुशिल्प की छाप स्पष्ट दिखाई दे रही थी।  द्वारा शीर्ष पर बांई तरफ़ क्रास बना हुआ है, मध्य में राजचिन्ह तथा दांई तरफ़ ग्लोब बना हुआ है। इन चिन्हों से जाहिर होता है कि शासक की मंशा क्या थी। शासक ईसाई धर्म के मार्ग पर चलकर पूरी दुनिया को जीतने की अभिलाषा रखता था, चक्रवर्ती सम्राट होने की लालसा रखता था। अपने धर्म को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करना चाहता था यह संदेश वह आगंतुकों को अपने प्रवेश द्वार से ही देना प्रारंभ कर देता था। परकोटे से भीतर प्रवेश करने पर भवनों के अवशेष दिखाई दे रहे थे। साथ ही कुछ भवन बहुमंजिला भी थे। एक दुमंजिला भवन के समीप चिमनी बनी हुई है। इस स्थान पर बड़ा चूल्हा रहा होगा, इससे प्रतीत होता है कि यह स्थान पाकशाला के रुप में प्रयुक्त होता था। 
किले के भीतर मंच एवं कुंआ
दुर्ग के मध्य में लगभग 4 फ़ुट ऊंचा चबूतरा बना हुआ है, जाहिर है दुर्ग के भीतर इस चबूतरे का मंच के रुप में प्रयोग होता होगा। यहाँ पर शासक संध्याकालीन सभा लगाता होगा था नृत्यांगनाओं के नृत्य देखता होगा। इस दुर्ग के भीतर तीन-चार कुंए हैं, जिसमें से एक कुंआ तो वर्तमान में भी निस्तारी के लिए उपयोग किया जा रहा है। दुर्ग से बाहर निकलने के लिए बांई तरफ़ एक द्बार है तथा एक द्वार चर्च में जाकर निकलता है। इस दुर्ग के साथ भी एक भव्य चर्च बना हुआ है। 
अन्य चर्च
यह किला वीरान है तथा चारों तरफ़ झाड़ झंखाड़ उगे हुए हैं। समुद्र के किनारे होने से हवाएं चलते रहती है मिट्टी में नमी होने के कारण हरियाली बनी रहती है। यह सुनसान किला प्रेमालाप करने वालों को उन्मुक्त वातावरण प्रदान करता है। हमें एक स्त्री एवं पुरुष की आवाज सुनाई दे रही थी पर वे कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। ध्यान देने पर पता चला कि वे गुंबंद के भीतर सीढियों पर कोका सिद्ध कर रहे हैं। इस चर्च से बाहर निकलने पर हम पक्की सड़क पर आ जाते हैं,  जहाँ आम के पेड़ के नीचे लकड़ी के दो लट्ठे पड़े हैं। साथ ही बर्फ़ गोले वाले का ठेला खड़ा है। मुझे इससे उपयुक्त स्थान विश्राम के लिए अन्य कोई दिखाई नहीं दिया। हम लट्ठे पर बैठे और साथ में लाया हुआ नाश्ता करते हुए आते जाते मुसाफ़िरों को देखते रहे, इसका एक फ़ायदा यह हुआ कि हमें सिटी बसें चलती हुई दिखाई दी। इनका अंतिम स्टॉप किल्ले बंदर ही है और यहाँ से चलकर ये बसें वसई रोड़ स्टेशन पहुंचाती है। 
वृक्ष की छांव में स्वानपुत्र संग

पेड़ की छांव में राहत मिली, वरना धूप तो झुलसा रही थी। यहाँ हमने लगभग 1 घंटा विश्राम किया, नाश्ता करने के बाद बर्फ़ गोला वाले से दो गोले बनवाए, दो गोले के उसने 40 रुपए लिए, पर खाने के बाद मजा आ गया। अब हम यहाँ से वापसी की जुगत लगा रहे थे। सोचा कि बस के अंतिम स्टाप तक पैदल ही घूम आएं। हम टहलते हुए बस स्थानक तक पहुंच गए। पर यहाँ स्थानक जैसा कुछ नहीं था। बस आती थी और यहाँ से घूम कर लौट जाती थी। 


9 टिप्‍पणियां:

  1. इतिहास से लेकर वर्तमान तक की जानकारी के साथ रोचक अनुभव और सुन्दर चित्र...

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  2. सुन्दर आलेख. आज से छै वर्ष पूर्व की स्थिति गंभीर थी.. अब काफ़ी साफ़ सुथरा लग रहा है. कृपया इसे देखें
    http://goo.gl/jwBKk2

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  3. ललित जी आप ने वसई फोर्ट मे सरल भाषा के साथ भ्रमण करवाया इसकी लिये धन्यवाद ……

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  4. . कहीं नयी जगह की सैर करने के बाद ही वहां के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ जाती हैं
    ..किल्ले बंदर की रोचक प्रस्तुति।

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  5. सुन्दर वर्णन, सहायक पढ़ने वालों के लिये।

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  6. नाश्ता तो तैयार था पर आये कौन ? ये किला हमेशा देखा है पर इतिहास आज पह्ली बार पता चला --वैसे आपकी जानकारी के लिये बता दु क़ी यहॉँ कईं फिल्मोँ क़ी शूटिंग हो चूकि है -----

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