बुधवार, 31 मार्च 2010

लिव इन रिलेशनशिप: एक चिंतन

लिव इन रिलेशनशिप पर बहस चल रही है, इसमें हम भी अपनी देहाती, गंवई सोच के साथ सम्मिलित हो गये हैं अब यह बहस सार्थक है कि व्यर्थ अभी इस पर फ़ैसला समय करेगा। लेकिन फ़िर भी हम गाल बजाए जा रहे हैं।

इस विषय पर हम शहरों के बारे में तो कुछ नही कह सकते क्योंकि वहां तो पड़ोसी को भी पड़ोसी पहचानता नही है। कौन, कैसे, और किसके साथ रह रहा है,  इससे किसी को कोई मतलब नही है, लेकिन गांव कस्बे में इसका असर जरुर पड़ता है,

लगभग सभी लोग एक दूसरे को जानते हैं। लिव इन रिलेशनशिप संबंधों को एक नया नाम दिया जा रहा है। बिना विवाह के एक साथ पति पत्नी की तरह रहना अर्थात एक बेनामी रिश्ते में बंधना।

बंधन शब्द विवाह संस्था के लिए उपयोग में लाया जाता है तथा यंहा पर भी कहा जाएगा एक बेनामी रिश्ते में बंध गए। लेकिन बंधना जरुर है। 

यह सब कहने-सुनने तक अच्छा लगता है, इस पर जोरदार बहस हो सकती है, इसमें शरीक होकर हम अपनी बुद्धिमता प्रकट कर सकते हैं, अपना ज्ञान बघार सकते हैं, लेकिन जब घर का कोई बच्चा सामाजिक दायरे से बाहर निकल कर बे्नामी रिश्ते रखता है तो क्या उसके परिजन और माँ बाप उसे स्वीकार कर पाएंगे?

कौन माँ -बाप चाहेगा उसकी लड़की या लड़का बिगड़ जाए, जब गांव समाज में इसकी जानकारी होगी तो क्या वे शान और सम्मान से रह पाएंगे? क्या बिरादरी उसे बख्श देगी?

लिव इन रिलेशनशिप से क्या  सहस्त्राब्दियों से बना हुआ सामाजिक ढांचा बदल जाएगा? क्या इसे सामाजिक मा्न्यता मिल पाएगी? बहुत सारे सवाल जेहन मे आते हैं।

लिव इन रिलेशनशिप के मायने क्या हैं?

भारत की जन संख्या का एक बड़ा भाग गांवों मे निवास करता हैं। हमारे संस्कारों में यह बताया गया है कि जन्म से जातक पर तीन ॠण चढे रहते हैं, 1-पितृ ॠण, 2-ॠषि ॠण तथा 3-राष्ट्र ॠण्। जिसे हम पुरुषार्थ चतुष्टय के द्वारा चुकाते हैं। इन पुरुषार्थ चतुष्टय का जीवन में महत्वपुर्ण स्थान है।

पूरा सामाजिक ताना बाना इसके इर्द-गिर्द ही बुना गया है। रिश्तों की पहचाने के लिए प्रत्येक रिश्ते को अलग अलग नाम दिया गया है। पुरुषार्थ चतुष्टय में गृहस्थ आश्रम को महत्वपुर्ण स्थान दिया गया है। गृहस्थ आश्रम ही बाकी के तीनों आश्रमों को चलाता हैं।

अब कहते हैं कि बिना किसी नाम के तथा काम के एक साथ रहा जाए उसे मान्यता दिजिए और मान्यता मिल भी गई तो उससे क्या होगा? जवानी के दिन तो उछल कूद में निकल जाएंगे लेकिन जब बुढापा आएगा तो कौन संभालेगा?

मैने देखा है कि इस तरह की हरकत करने वालों का बुढापा बहुत खराब हो जाता है। अगर परिवार रहे तो नाती पोतों के साथ समय कट जाता है लेकिन नही तो फ़िर पागल खाना ही नजर आता है, वह व्यक्ति सामाजिक न रहकर असामाजिक तत्व हो जाता है, तथा समाज भी स्वीकार नही करता।

आज पश्चिम के देश भी हमारी सामाजिक व्यवस्था से प्रभावित हैं, वहां की औरते भारतीय पति चाहती हैं क्योंकि ये टिकाउ होते हैं। शादी को पवित्र कार्य माना गया है इसे सात जन्मों का साथ कहा गया है। लेकिन पश्चिम की गंदगी को हम सर पर उठाकर घुमने की सोच रहे हैं। जबकि वहां के लोग इससे त्रस्त हो चुके हैं।

टीवी में एक सिरियल आता था जिसमें पति पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका बेवफ़ाई पकड़ने के लिए जासुसों का प्रयोग किया गया था, वे उन्हे कैमरे पर सबुत के साथ पकड़ते थे।

इससे पता चलता है कि पश्चिम मे विवाह जैसे संबंधों के प्रति लोग गंभीर नही हैं, लेकिन जो गंभी्र हैं अगर उनके साथ बेवफ़ाई होती है तो वे अवसाद तथा पागल पन की बिमारी से ग्रसित होकर गंभीर अपराधों को जन्म दे रहे हैं।

विवाह करना सिर्फ़ यौन तुष्टि ही नही हैं। इसे सम्पुर्ण जीवन में जीना पड़ता है अपने परिवार का निर्माण कर उसका पालन पोषण और निर्वहन करना पड़ता है।

अब हमारी प्राचीन समाजिक व्यस्था की बात करें तो वह हमारी जांची परखी तथा देखी भाली ब्यवस्था है। जिसके प्रति हमें कोई संदेह नही है, ऐसा नही है कि कोई एक पुरुष या महिला भारत के सवा सौ करोड़ लोगों के विचारों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं तथा सभी लोग उससे सहमत हैं।

इन रिश्तों से जो समस्याएं खड़ी होगीं उनका समाधान किसी के पास नही है। इन रिश्तों का समर्थन करने वाले आधुनिक और समर्थन न करने वाले पुरातनपंथी कहला रहे हैं।

अगर अपने संस्कारों को साथ जीना पुरातन पंथी है तो यह भी स्वीकार्य हैं, हमें गर्व है हमारी संस्कृति तथा सामाजिक व्यवस्था पर जिसे हमारे पुर्वजों ने कायम किया है।

एक सत्य घट्ना की ओर ले चलता हुँ जो आज से लगभग 10 वर्षों पुर्व घटित हुई थी, हमारे गांव के पास एक शिक्षक परिवार रहता था, उसके परिवार में 6 सदस्य थे, एक लड़का और तीन लड़कियां और स्वयं पति-पत्नी, बस इसी समय की बात है। परिक्षांए चल रही थी, घर की बड़ी लड़की परीक्षा दिलाने गयी थी और उधर से ही आकर उसी गांव में अपने प्रेमी के घर में उसके साथ रहने चली गयी। शिक्षक ने जब यह बात सुनी तो उसने उसी वक्त अपने परिवार के चारों सदस्यों समेत आत्म हत्या कर ली।

एक लोम हर्षक कांड कुछ ही घंटों में घट गया। लेकिन उस समय वह लड़की अपने परिवार के सद्स्यों की मौत पर भी नही आयी। जिसको भी जानकारी मि्ली वह स्तब्ध हो गया। एक साल बाद समाचार मिला की उस लड़की ने भी अपने प्रेमी के घर में फ़ांसी लगाकर आत्म हत्या कर ली। इस तरह के क्षणिक संबंधों के कारण एक परिवार पुरी तरह समाप्त हो गया।

लिव इन रिलेशनशिप का आधार पारस्परिक प्रेम या प्रगाढ संबंध नही है यह तो एक अघोषित अनुबंध जैसा है कि हमें जब तक अच्छा लगे एक दुसरे के साथ रहना है। जब कुछ खटपट हो तो अपना बोरिया बिस्तर समेटो और दुसरा घर देखो।

इस तरह के रिश्ते खतरनाक हो सकते हैं जो यौनिक उच्श्रृंखलता को जन्म देगें। इससे पैदा होने वाले भीषण संकट का सामना करना आसान नही होगा। भले ही इसे कानुनी मान्यता मिल जाए लेकिन समाज मान्यता नही देगा।

यह कोई समाज सुधार आन्दोलन तो नही है जो समाज इसे मान्यता देने के लिए सील मुहर लेकर बैठा है। एक बिगड़ैल परम्परा की शुरुवात अवश्य हो जाएगी जिससे समाज का युवा वर्ग उच्चश्रृंखल हो सकता है।

अब कोई एक दो लोग रह भी लें तो क्या फ़रक पड़ता है। हमारा तो यही देहाती चिंतन है। यही विचार हमारे मन में आए और हमने आपके सामने रख दि्ए और विचार उमड़ेंगे घुमड़ेंगे तो और लिखेंगे।

मंगलवार, 30 मार्च 2010

अनाथ आश्रम को बचाने में ब्लाग जगत की भी महती भूमिका

हते हैं "निर्बल के बल राम" जिसका कोई सहाय नही उसके सहाय भगवान हैं, कहीं न कहीं से निर्बल को ईश्वरीय मदद मिल जाती है, वही रायपुर के गुरुकुल आश्रम के अनाथ बच्चों के मामले में हुआ।

यहाँ मीडिया में एक खबर आई थी की अनाथ आश्रम में एक २० दिन के बच्चे को आश्रम संचालक ने ढाई लाख रूपये में बेचा है..... मैने इस प्रकरण से संबधित समाचारों को पढा, इस पर विवाद हो रहा था कि दोषी कौन है?

यह सत्य घटना है कि कोई षड़यंत्र है.... लेकिन इन सब के बीच मैं यह सोच रहा था कि प्रकरण के बाद आश्रम के बच्चों का क्या होगा?

उन्हे आश्रम से बेदखल करने का समाचार मिला, आश्रम के संचालक को जेल भेज दिया गया, आश्रम बिखरने के कगार पर था। इस शहमात की खेल में जिन बच्चों ने अपने माँ बाप तथा परिजनों को गंवा दिया उनका भविष्य अंधकारमय होने वाला था। 

इस प्रकरण को मीडिया और समाचार पत्रों ने अपने अपने नजरिए से देखा, इस प्रकरण के एक पक्ष को सामने रख कर ही खबरें आई जिसमें एक पक्ष को ही दो्षी मानते हुए आश्रम संचालक को मुद्राराक्षस घोषित कर दि्या गया।

मैं आश्रम संचालक से कभी मिला नहीं हूँ तथा यह भी नही जानता था कि यह आश्रम कहां पर और क्यों और कौन संचालित कर रहा है।  इसकी जानकारी इस बच्चा बेचने जैसे प्रकरण से ही सामने आई। ब्लाग जगत पर भी हंगामा हुआ पक्ष-विपक्ष मे पोस्ट लिखी गयी।

सबसे पहली पोस्ट राजकुमार सोनी की बिगुल पर आई "चमगादड़ की तरह लटका हुआ सवाल" इससे पढने से पता चला कि कहीं पर कुछ हुआ है। इसके बाद इस प्रकरण पर एक वेब साईट पर भी लिखा गया। विद्रोही पर वरुण झा ने पोस्ट लिख कर अपनी प्रतिक्रिया दी.

कुछ अखबारों ने बच्चों के समर्थन में मुहिम चलाई, कांकेर से प्रकाशित होने वाले अखबार ने ब्लाग में प्रकाशित इस समाचार की 10,000 प्रतियाँ पाठकों को उपलब्ध कराई, 

AINS.. वेब साईट ने 10,000 sms करके इसकी सुचना लोगों तक पहुँचाई, काफ़ी हंगामा हुआ, राजकुमार सोनी ने इस प्रकरण से संबधित पोस्ट लगाकर खुलासा करने की कोशिश की जिस पर आए हुए कमेंट से पता चला कि इस मामले पर पाठकों का क्या मंतव्य है।

इस मसले पर राजकुमार सोनी द्वारा लिखी गयी पोस्ट कमीनों से मुकाबला 1, कमीनों से मुकाबला 2, राहुल गांधी के नाम एक खतरनाक चिट्ठी, उफ़ यह भयानक साजिश, उसके बाद अंतिम पोस्ट से भंडाफ़ोड़ हो जाता है।

कुल मिलाकर बच्चों को राहत मिलती है, इसमें ब्लाग जगत की भी महती भुमिका है, इन पोस्टों पर आई टिप्पणियों को लेकर राजकुमार सोनी जी के साथ पत्रकारों का एक दल आश्रम संचालक की पत्नी सहित मुख्यमंत्री रमन सिंह जी से मि्लता है तथा इस प्रकरण ब्लाग जगत से प्राप्त प्रतिक्रियाओं की एक प्रति उन्हे अवलोकन के लिए प्रस्तुत करता है।

इससे यह स्पष्ट होता है कि ब्लाग जगत भी इस संवेदन शील मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। मुख्यमंत्री जी ने इस पर कार्यवाही के तुरंत आदेश दिए। जिससे आश्रम जो उजाड़ने की साजिश नाकाम रही, आश्रम नहीं उजाड़ा जा सका, सरकार ने तय किया कि बच्चे यहीं रहेंगे.

इनके भरण पोषण के लिए समाज कल्याण विभाग ने 30 ,000   की राशि  दी  तथा  अब प्रति माह उपलब्ध कराई जाएगी. आश्रम में अवांछनीय तत्व प्रवेश ना करे इस लिए पुलिस का पहरा भी लगा दिया गया है. फलस्वरूप आश्रम के सारे बच्चे अब अपनी पढाई में लग चुके है तथा परीक्षा दे रहे हैं.

आश्रम की दैनिक दिनचर्या सुचारू रूप से चल रही है..... सुना है इस आश्रम के अनाथ बच्चों की गुहार राहुल गाँधी जी तक भी पहुँच गई है.......चर्चा में है कि राहुल गाँधी जी भी अपने आगामी दौरे में इस आश्रम में बच्चों से मिलने आ सकते हैं.

कुछ दिन पहले मुझे आश्रम से सम्बंधित एक पोस्ट और पढ़ने मिली.... इस प्रकरण से मुझे यह लगता है कि इस धरा पर अभी मानवता शेष है. अनाथ बच्चों को बेदखल करने का प्रयास नाकाम रहा............ सत्य तो एक दिन खुल कर सामने आता है.... आश्रम संचालक ने जो भी सही या गलत किया हो उसे संचालक को भोगना है......उसे ही भुगतना है,

लेकिन अनाथ बच्चों ने किसी का क्या बिगाड़ा है? जो उन्हें बेदखल होने की सजा मिले......अभी इस प्रकरण में क्या सामने निकल कर आता है इसका तो मुझे पूर्वाभास नही है. लेकिन अनाथ बच्चों को पुन: बसाने हेतु  जिन्होंने ने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से भूमिका अदा की वे साधुवाद के पात्र हैं.......

सोमवार, 29 मार्च 2010

जैंगो बिस्किट और काजु बादाम

कुत्ता स्वामी भक्त माना जाता है, सदियों से उसकी तारीफ़ होते आई है तो साथ ही साथ उसकी बुराई करने वाले लोग भी मिले हैं।

कुत्तों के विषय में बहुत सारी कहावतें भी कही गई हैं, कल रात को जब मैं जब अवधिया जी के घर पहुँचा तो एक कुत्ता उन्हे देख कर लपक कर आया,

अवधिया जी बोले चल "जेंगो" अंदर, बस कहने की देर थी वह अंदर चला गया, हम भी कुकुर के पी्छे पीछे अंदर पहुंचे, तो वहां दरबार लगा हुआ था, अवधिया जी के अन्य मित्र भी पहुंच चुके थे।  
एक बार फ़िर वही कुकुर कमरे में घुस गया तो अवधि्या जी बोले अरे यार जैंगो तेरे लिए आज बिस्कुट नहीं ला पाया, भुल गया, आज सिर्फ़ काजु से काम चला ले।

वाह कुकुर देव भी धन्य हो गए, मांगा था बिस्कुट और मिल रहे हैं काजु-क्या बात है?

बाद में चर्चा के दौरान पता चला कि इन्हे कुकुर से बहुत प्रेम है। वैसे जैंगो इनका पालतु कुत्ता है लेकिन जहां पर भी इनकी नियुक्ति हुई, वहां के सारे कुकुरों को बिगाड़ डाला,

मोहल्ले के आवारा कुत्तों का भी डेरा इनके घर सामने ही लगा रहता हैं। जब ये धान के देश में होते हैं तो वे सारे मिल कर इनके मोहल्ले की देख भाल करते हैं और फ़िर पाते हैं बिस्कुट के बदले में काजु बादाम।

लेकिन उसके बाद भी कुकुर ने उन्हे चाट ही लिया.......... इसीलिए कहा गया है ना .................काटे चाटे स्वान के......................

रविवार, 28 मार्च 2010

अल्पना के ग्रीटिंग्स की प्रदर्शनी आर्ट गैलरी रायपुर मे

ललित शर्मा द्वारा निर्मित

सृजनशील हाथ सृजन कार्य मे निरंतर लगे रहते हैं, यह एक साधना है, इस साधना से नई कृतियों का जन्म होता है, जिसमें सृजनकर्ता की वर्षों की मेहनत लगी रहती है।

जब उचित समय आता है तभी वह संसार के सामने आती हैं। आज एक ऐसी जुनूनी महिला सृजनकर्ता श्रीमति अल्पना देशपांडे जी से आपका परिचय कराते हैं, अल्पना जी जो हैंडमेड (हस्त निर्मि्त) ग्रीटिंग कार्ड के संग्रहण एवं निर्माण का दीवानगी की हद तक शौक है।

इनके संग्रह में अभी तक 12,345 के लगभग हस्त निर्मित ग्रीटिंग कार्ड हैं, जिसमें कुछ हजार इनके द्वारा निर्मित हैं, बाकी मित्रों द्वारा निर्मित हैं।

अल्पना जी के ग्रीटिंग कार्डस में इतनी विभिन्नताएं हैं कि अगर हम उन्हे निर्माण सामग्री एवं उनकी विशेषताओं के आधार पर विभाजित करें तो कई हजार विभाग बन जाते हैं।

कल 27/03/2010 शनिवार को छत्तीसगढ शासन के संस्कृति विभाग के तत्वाधान मे गुरु घासीदास संग्रहालय की आर्ट गैलरी में इनकी प्रदर्शनी प्रांरभ हुई, जिसका शुभारभ प्रख्यात रंग कर्मी राजीव रंजन पाण्डेय जी ने किया,
इस अवसर काफ़ी संख्या में दर्शक, प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोग उपस्थित थे।
इनके हस्त निर्मित बधाई संदेशों की प्रदर्शनी 31 मार्च रात प्रतिदिन सांय 5 बजे से 9 रात्रि बजे तक चलेगी,

रायपुर के आस-पास के मित्रों से नि्वेदन हैं कि आप प्रदर्शनी में अवश्य ही आएं, तथा कला के प्रति समर्पित सुश्री अल्पना देशपांडे जी का उत्साह वर्धन करें।


अल्पना जी अपने शौक के प्रति पुर्णत: समर्पित हैं, मै जब से इन्हे जानता हुँ तब से इनमें मैने एक जीवटता देखी है, घर-परिवार, बच्चों, एवं अपने असिस्टेंट प्रोफ़ेसर(आप कालेज में गृह विज्ञान की व्याख्याता हैं) के पेशे के साथ, अपने शौक को भी जीवित रखना एक बहुत ही बड़ी बात हैं। हम इनके जज्बे को सलाम करते हैं तथा उज्ज्वल भविष्य की कामना करतें।

एक निवेदन और है मेरी तरफ़ से, अगर आप अल्पना जी के बधाई संदेश संग्रहण मे अपना योगदान देना चाह्ते हैं तो अपने हाथों से बनाकर कम से कम 5-5 ग्रीटिंग कार्ड अवश्य भेजे,

जिससे आपका भी योगदान स्थाई रुप से इनके संग्रहण के लिए हो सके। जो भाई बहन विदेशों में रहते हैं उनसे भी मेरा आग्रह है कि वे भी अपना बहुमुल्य समय निकाल कर योगदान दें।

पता हैं-- अल्पना देशपाण्डे C/o ललित शर्मा, अभनपुर जिला रायपुर छ ग- पिन 493 661

शनिवार, 27 मार्च 2010

शब्द नहीं चित्र---मौसम है विचित्र

शब्द नहीं चित्र---मौसम है विचित्र  

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

चिरौजी लाल उवाच: नहाने से पर्यावरण प्रदूषण

ल सुबह चिरौंजी लाल पांडे के घर से कुछ धमा चौकड़ी की आवाजें आ रही थी। वे चिल्ला रहे थे......."आज से नही नहाउंगा,..... सालों ने रोज रोज परेशान कर रखा है,.... अरे जब मेरा नहाने का मुड ही नही है .........तो फ़िर जबरिया नहलाने का क्या मतलब है?"

पंडियाईन कह रही थी-......."स्नान करो चाहे मत करो........... लेकिन नल से पानी भर के लाना पड़ेगा, ....... मै जान गयी हूँ तुम्हारी चाल को।"

"हम नही लाएगें पानी नल से जिसको नहाना हो वो ले आए....... वो तुम्हारे भाई साले आए हुए हैं........ उनको लगाओ पानी लाने के लिए,........ 20 दिनों से पड़े हुए हैं मुस्टन्डे...... काम के ना काज के बारा मन अनाज के............ हम पानी लाएं तो साहबजादे स्नान करें,"

"जब से आएं हैं हमारे भैया....... तब से आपको बहुतै तकलीफ़ हो गई है,....... अरे! 6-7 पीपा पानी ही तो ज्यादा लगता हैं बस,.......... इतना नहीं कर सकते अपने सालों के लिए,...... देखो ना कितने दुबले हो गए हैं बेचारे।"

"हां क्यों नहीं होगें दुबले?....... जब आए थे दो-दो मन मैल चढा हुआ था,......... सारा यहीं उतार कर जाएंगे। ..........वजन तो हल्का होगा न।"

"देखो अब बहुत हो गया!...... अब आगे कुछ कहा मेरे भाईयों को तो....... मेरी बर्दास्त के बाहर हो जाएगा।....  मैं मायके चली जाउंगी.......... एक तो इतनी गर्मी है,.......... उपर से कुलर भी चालु नही हैं........ उसके भी तार चुहे काट गए हैं........ कितने दिनों से करमों को रो रही हूँ कि उसे सुधरवा दो......... लेकिन यहां मेरी सुनता कौन है?"

"उसे सुधरवा दुंगा तो पानी तो मुझे ही भरना पड़ेगा और ठंडी हवा का मजा लेंगे सालिगराम जी......मैं भी यही चाहता हूँ,...... चली जाओ तुम मायके, कम से कम दो महीने गर्मी के सुख से तो बीतेंगे........ ये गर्मी तो मेरी जान ही निकाल लेती है........ पानी की जो किल्लत होती है कि यहां रहने को ही मन नही करता....... आफ़िस जाने से पहले पानी भरो,..... आफ़िस से आकर पानी भरो....... बस हमारा तो दम निकल जाता है,....... पानी भराई में, .........अब इसका हल हमने यही निकाला है कि हमने स्नान बंद कर दि्या, ........अब जिसको स्नान करना हो अपना पानी स्वयं भरे"

इतने में अखबार वाला अखबार फ़ेंक कर जाता है चिरोंजी लाल तु्रते लपकते हैं धोनी जैसे,...... और पढना शुरु करते हैं........ ज्यों ज्यों पढते जाते हैं त्यों त्यों उनके चेहरे पर मुस्कान तैरती जाती हैं ........ अब पंडियाईन तो चिढ़ी बैठी हैं उन्हे यह मुस्कान नागवार गुजरती है,

"कौन सी लाटरी खुल गयी जो दांत निपोर रहे हो?"

हमारे लिए तो लाटरी ही खुल गई,......... गांव का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध....... तुम्हारी तो उल्टी खोपड़ी में कुछ घुसता ही नही हैं,........... इधर हमने स्नान करने से मना किया,.......... उधर इतनी जल्दी अमेरिका वालों ने स्नान करने के फ़ायदे और नुकसान पर शोध भी कर लिया,............. सबसे तेज चैनल है। उन्होने हमारे स्नान न करने को सही कदम ठहराते हुए कहा है कि ...............रोज स्नान करने से प्रदूषण फ़ैल रहा हैं।

क्यों सुबह सुबह बकवास किए जा रहे हो ऐसा कभी हो्ता है क्या?........ कि स्नान करने से प्रदूषण फ़ैलता है, अरे स्नान करने से तन और मन का मैल साफ़ होता है....... ताजगी आती है, काम में मन लगता है,.... इसमें ऐसा क्या लिखा है?....... जिससे प्रदूषण फ़ैलता है?

ये कह रहे हैं जब हम रोज नहाते हैं......... तो साबुन सोडा शैम्पु का प्रयोग करते हैं ........इससे वह जाकर जल में मिल जाता है, और जल प्रदूषित होने से पर्यावरण को नुकसान हो रहा है।

अरे यह तो बड़े नु्कसान की बात बताई इन लोगन ने,

आगे कहते हैं कि जब जलस्रोतों के पानी की जांच की गयी उसमें गर्भनिरोधक गोलियाँ, अवसाद नाशक दवाएं, और कई दवाओं के अवशेष मिले हैं,........ इनमें से तो कुछ पेयजल में जाकर मिल गए हैं। इसके अलावा त्वचा की देखभाल करने वाले क्रीम, लोशन, शैम्पु आदि के भी रासायनिक तत्व मिले हैं........... अब तुम ही बताओ नहाने से कितना नुकसान हो रहा है पर्यावरण का?

नहाने से नुकसान कैसे होगा?

अरे तुम्हारी तो समझ में आता ही नही है? एक बात बताओ तो उस पर सवाल पर सवाल दागे चली जाती हो। अमेरिका की एक डॉक्टर है इलीन रुहाय, उसने कहा है कि इन सामग्रियों का इस्तेमाल करने वाले के पसीने से रासायनिक तत्वों का रिसाव होता है.......... जो नहाते समय पानी में मिल जाता है समझे,......... अब हमारी नहाने से छुट्टी.........हम ठहरे पर्यावरण प्रेमी....... नही चाहते कि पर्यावरण को नुकसान हो।

तुम्हारे को तो अच्छा बहाना मिल गया कि नल से पानी भर के ना लाना पड़े,...... बाबा जी की बात क्यों नही मानते.......... देशी साबुन आर्युवैदिक स्नान किजिए इससे पर्यावरण का नुकसान नही होगा?

इतनी बातें सुनकर हम भी बाहर निकल आते हैं " अरे भाई सुबह सुबह झगड़ा बंद करों और इस समस्या का एक ही हल हैं "काग स्नान" करो।"

गुरुवार, 25 मार्च 2010

मंहगी दवाई, मंहगा इलाज-कौन पोंछे गरीबों के आंसु?

सुबह अस्पताल पहुँचा एक मित्र का हाल-चाल पूछने तो देखा कि अस्पताल के गेट पर सुखवंतिन खड़ी-खड़ी रो रही थी। मै उसे पूर्व से परिचित था, वह गांव की रहने वाली थी। मैने उसे रोने और अस्पताल आने का कारण पूछा तो उसने बताया कि उसके पति का एक्सीडेंट हो गया है,

शाम को छुट्टी होने पर सायकिल से घर आ रहा था तो किसी मेम साहब ने कार से उसे टक्कर मार दी और फ़रार हो गयी। इधर उसे पुलिस वालों ने लाकर सरकारी अस्पताल मे भर्ती कर दिया। उसके दोनो पैर टुट गए थे। डॉक्टरों ने तत्काल आपरेशन की जरुरत बताई तथा 15 हजार का खर्चा बताया।

सुखवंतिन ने तुरंत गहने बेच कर कर्ज लेकर पैसे उपलब्ध कराए। उसका आपरेशन हो गया लेकिन अब दवाई के पैसे नही थे। उसने किसी से पैसे मांगे थे तो वह लेकर नहीं आया था।

अब यह एक बहुत बड़ी समस्या थी, इलाज के साथ दवाईयाँ भी मंहगी हो गयी, एक कमाते खाते आदमी पर अचानक विपत्ति आ जाए तो वह क्या करे? किसके पास जाए?

सरकारी अस्पतालों का रवैया तो कभी सुधरने वाला नही है। हमेशा सामान एवं दवाइयों की कमी का रोना रोते रहते हैं। निजी अस्पताल तो मरीज की मौत के बाद बिना पैसे लिए लाश नही देते, मुर्दे को ही ग्लुकोश चढाते रहते हैं,

इस विषय पर कई जगह हंगामा भी हो चुका है। दवाओं की कीमते बेलगाम हो गयी हैं, सभी का कमीशन दवाई कम्पनियों से बंधा हुआ हैं। 50 पैसे की गोली 10 रुपये में बेची जा रही है, दवाई कम्पनियों, रिटेल काउंटरो एव डॉक्टरों का गिरोह दोनो हाथों से मरीजों को लूट रहा है।

औसतन 2000 रुपये प्रतिमाह कमाने वाले परिवार को लगभग 300 से 400 रुपये बीमारी पर खर्च करने पड़ रहें हैं। बाकी बची हुई कसर नकली दवाएं पूरी कर रही हैं।

स्वास्थ्य पर कमाई का ज्यादा हिस्सा खर्च होने के कारण गरीबी और बढती ही जा रही है। योजना आयोग की रिपोर्ट (2009) में बताया गया है कि ग्रामीण भारत के जो लोग गरीबी रेखा के नी्चे आ रहे हैं उसमे आधे लोगों  के लिए इसका बड़ा कारण स्वास्थ्य पर खर्च है

अनुमान है कि वर्ष 2004-2005 में इस कारण लगभग 3करोड़ 90लाख लोग गरीबी की चपेट में आ गए। अब ये आंकड़े तो पुराने हैं आज के हालात का आप अंदाजा लगा सकते हैं।एक अध्ययन के अनुसार 1987-88 में इलाज करवाने के लिए 60%लोग सरकारी अस्पतालों में जाते थे। पर अब 40%लोग ही सरकारी अस्पतालों में जा रहे हैं।

जब कोई प्राईवेट डॉक्टर नही मिलता तभी हम सरकारी अस्पताल का रुख करते हैं। स्पष्ट है कि सरकारी अस्पताल और निजी अस्पताल दोनों में इलाज मंहगा हुआ है।

दवा कम्पनियों ने कीमतों में तेजी से वृद्धि की है। इन कीमतों पर तो सरकार का नियंत्रण समाप्त हो गया है। बड़ी कम्पनियों की मनमानी बढ गयी है।

हमारे देश में दवाईयों की कीमतों पर नियंत्रण करने के लिए एक आदेश 1995में जारी किया गया था। उस समय इसकी आलो्चना भी हुई थी कि यह अधुरा है अनेक जरुरी दवाएं इसकी दायरे में नहीं आती। इसकी बजाय दुसरा आदेश लाने पर विचार हुआ लेकिन 15वर्षों के बाद भी दवाओं की कीमतों पर नियंत्रण करने वाला आदेश लाया नही जा सका है।

इससे स्पस्ट है कि दवाई कम्पनियों का सरकार पर कितना दबाव है। सरकारी तंत्र की इच्छा शक्ति में कमी के कारण गरीब पिस रहे हैं बीमारी और मंहगाई के दो पाटों के बीच।

पता नही कितनी सुखवंतिन अस्पतालों के गेट के पास खड़ी अपने दुर्भाग्य को रो रही हैं। अपने सुहाग को बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं लेकिन नक्कार खाने में तूती की आवाज कौन सुनता है?

सिक्कों की खनक के सामने उसके करुण रुदन की कोई कीमत नही। मानवता मरते जा रही है, बाजारीकरण सब लील गया है और छोड़ गया है गरीबों को भगवान भरोसे मरने के लिए.............।

बुधवार, 24 मार्च 2010

भये प्रकट कृपाला दीन दयाला : रामनवमी पर्व

भए प्रगट कृपाला दीन दयाला
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे------ भगवान राम के जन्मदिन के लिए प्रकृति ने साज श्रृंगार धारण कर लिए हैं, आम्रवन के बौर खुश्बु से महक रहे हैं पलास के फ़ुल के रंगों से वन दहक रहे हैं,  

कोयल की कुक से वातावरन सुरभित हो रहा है, वानरों की टोली आम एवं महुवा के वृक्षों पर धमा चौकड़ी मचा रही है, इस प्रकार प्रकृति के साथ-साथ रामजी की सेना भी तैयार है उनका स्वागत करने के लिए। नवरात्र पर जस गीत के मांदर और मंजीरों का संगीत गुंजाएमान है। इस प्रकार सभी राम जन्मोत्सव की प्रतीक्षा में हैं।

रामनवमी का दिन अबुझ है किसी भी मंगल कार्य के लिए। बेटी का विवाह हो या गृह प्रवेश बिना किसी पंडित के पोथी पत्रा देखे शुभ माना गया है। राम जन्म हेतु तुलसी दास जी कहते हैं " नवमी तिथि मधुमास ॠतु, मध्यदिवस अति शीत न घामा, अखिल लोकदायक विश्रामा।" बस हम प्रति वर्ष मर्यादा पुरुषोत्तम के जन्मदिवस के उत्सव मनाने की प्रतीक्षा करते हैं-आज वह घड़ी आ गई है।

राम कथा निरंतर चलते ही रहती है, उत्तर कांड मे गोस्वामी तुलसी दास जी ने राज्य अभिषेक का वर्णन किया है। भगवान राम का राज्याभिषेक हो गया, सभी जन हर्षित हुए, भगवान शिव आए देवता आए सभी ने स्तुति की। अयोध्या के नर नारी सुखी हो गए। घर-घर राम कथा होने लगी। तुलसी दास जी राम कथा को समाप्त नही किया बल्कि घर-घर में बांट दिया। सब राम कथा कहने सुनने लगे-- 

मर्यादा पुरुषोत्तम
सबके गृह-गृह होही पुराना।
राम चरित पावन विधि नाना।।

नर अरु नारि राम गुन गावंहि।
करहि दिवस निसि जात न जानहि॥

एक राम अवधेस कुमारा।
तिन्ह कर चरित विदित संसारा।।

नारि विरह दु:ख लहेउ अपारा।
भयेउ रोष रन रावण मारा।।

राम के राज्य में कोई अनाथ नही, क्योंकि जिनके माता-पिता नही थे वे भगवान राम जैसे प्रजा पालक पिता को प्राप्त कर सनाथ हो गए थे। राम पुत्र हीनों को पुत्र का सुख देते थे। पुत्र पिता के दु:ख शोक का हरण करता है, सुख देता है। राम सबके दु:ख शोक को हर कर पुत्र जैसा सुख देते हैं। गोस्वामी जी ने भी राम रामराज्य का यही रुप दिखाया है,----

श्री रामचंद्र की जय
राम राज बैठे त्रैलोका।
हरषित भए गए सब सोका॥

दैहिक दैविक भौतिक तापा।
रामराज नहि काहुहिं व्यापा॥

सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति रीती॥

भगवान राम का जन्मोत्सव चैत्र के शुक्ल पक्ष मे बसंत के आहलाद भरे मौसम मे होता है-शक्ति की आराधना के दिवस मे राम का प्राक्टय उत्सव होता है,

आज राम नवमी है विश्व के करोड़ों लोगों के आराध्य का जन्मदिवस, इस अवसर पर हम मंगल कामना करते हैं कि आपके जीवन में निरंतर सुखों का अम्बार लगे।

आपका जीवन आनंदमय हो इसी आशा के साथ - सिया पति रामचंद्र की जय-- पवन सुत हनुमान की जय्। आप सभी को रामनवमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।

मंगलवार, 23 मार्च 2010

,पानी बेकार ना बहाएं, इसे बचाएं.

पानी का जितना उपयोग हम करते हैं उससे कहीं ज्यादा बरबाद हो जाता है। अवश्य ही  अगला विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा, अगर यही स्थिति बनी रही तो, इसलिए सभी का कर्तव्य बनता हैं की पानी का सही इस्तेमाल किया जाए।

पानी के अनावश्यक खर्च से बचना चाहिए। सबसे ज्यादा पानी का अपव्यय बड़े घरों मे होता हैं, नल खुले रहते हैं। बाथटब, फ़व्वारे एवं कमोड के इस्तेमाल मे ज्यादा पानी लगता हैं। गरीबों को तो नल पर लाईन लगा कर खड़ा रहना पड़ता है। इसलिए उन्हे पता है पानी की एक एक बुंद का महत्व। 

बाजार वाद ने यह पाप भी करा डाला, पानी पिलाना जहाँ बहुत बड़ा पुण्य का कार्य समझा जाता था वहां हमने कभी सोचा भी नही था कि पानी भी खरीदना पड़ेगा मिनरल वाटर के नाम से। वह भी 12-15 रुपए लीटर में।

धनी मानी लोग प्याऊ बनाते थे, पानी की स्थाई व्यवस्था राहगीरों के लिए की जाती थी आज उन्हे पानी खरीदना पड़ रहा है।

कहते हैं कि अभी तक पानी के नाम पर 50 वर्षों मे 37 भी्षण हत्याकांड हो चुके हैं। हमारे ही मोहल्ले की एक बस्ती मे बहुत ही शर्मनाक स्थिति पैदा हो गयी थी जिसका वर्णन भी मै नही कर सकता।

पानी के लिए यही कमोबेश स्थिति गर्मी के दिनों मे सभी जगह बन जाती है।

भारतीय नारी पीने के पानी के लिए रोजाना औसतन 4 मील पैदल चलती है। पानी जन्य रोगों से प्रतिवर्ष पुरे विश्व मे 22 लाख मौतें हो जाती है।

विश्व में 10 व्यक्तियों में से 2 को पीने का साफ़ पानी नही मिल पाता। प्रति वर्ष 6 अरब लीटर बोतल पैक पानी मनु्ष्य द्वारा पीने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

नदियाँ पानी का सबसे बड़ा स्रोत है वह भी कल कारखानों के कारण प्रदुषण का शिकार हो रहा है। ऐसे मे गंभीर संकट आने वाला है यह समझना चाहिए। अब अधिक लोग दुषित पानी के कारण महामारी के शिकार होंगे। 

पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का 97% महासागरों में, 2% हिमखंडों के रुप मे ध्रुवीय चोटियों पर, शेष 1% नदियों, झीलों, तालाबों मे तथा पृथ्वी की सतह के नीचे पाया जाता है। इस भुमिगत जल का उपयोग हम कुंए खोद कर करते हैं।

महासागरों के जल मे कई लवण घुले होते हैं, इसलिए वह खारा पानी पीने-नहाने, कपड़े धोने एवं सिंचाई के लिए उपयोगी नही होता है। हिमखंडो के रुप मे उपस्थित जल शुद्ध होता है, किंतु इसका आसानी से उपयोग नही कि्या जा सकता।

पृथ्वी पर उपलब्ध जल मे से मनुष्यों के लिए उपयोग मे आने वाले जल की मात्रा बहुत ही कम हैं। यह लगभग 10 लीटर जल में 1 मिली लीटर (कुल जल का 0.01%) के बराबर है। अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि हमारे उपयोंग के iलिए कितना कम जल उपलब्ध है तथा यह इतना महत्वपुर्ण क्यों हैं?

--------बिनु पानी सब सून--------

सोमवार, 22 मार्च 2010

21 मार्च मेरा जन्मदिवस

21 मार्च का दिन भी खास है-इस तारीख को दिन और रात दोनो बराबर होते हैं--खगोल शास्त्र तथा ज्योतिष  की गणना के परिप्रेक्ष्य में यह तारीख महत्वपुर्ण है. जिस तरह हमे सुबह होने की सूचना सूर्य से मिलती है उसी तरह ब्लाग जगत में जन्मदिन की सूचनाएं बीएस पाबला जी के ब्लाग'जन्मदिन'के उदय होने से मिलती हैं। इनका ब्लाग भी मुझे सूर्य के मानिंद लगता है।  

सूर्य और जन्मदिन ब्लाग मे कुछ समानताएं मुझे नजर आई। सूर्योदय नित्य होता है-इनका ब्लाग भी जन्मदिन की सूचनाएं नित्य ही लाता है। सूर्य का उदय होना निश्चित है--इनके ब्लाग का भी जन्मदिन की सूचना देना निश्चित है। 

सूर्य अपने आकर्षण में समस्त ब्रह्माण्ड को बांधे रखता है तो इनका ब्लाग भी समस्त ब्लाग जगत को जन्मदिन की सूचनाओं द्वारा बांधे रखता है। सूर्य अडिग है--अभी तो इनका ब्लाग भी अडिग है। सूर्य प्रकाशित है तथा इनका ब्लाग भी प्रकाशित होता है। 

कल हमारे जन्म दिन की सूचना यहीं से जारी हुई। 21 मार्च का सुर्योदय होते ही प्रथम हमारे पुत्र चंदु ने जन्म दिन की शुभकामनाएं दी। मुझे सबसे पहले आशीष जन्मदिवस का राज भाटिया जी से प्राप्त हुआ- आज से 10 दिनों पहले जी फ़ोन पर उन्होने मुझे रात को 12बजे जन्मदिवस की बधाई दी। तो मै भी चौंक पड़ा, अभी 10दिन पड़े हैं और राज जी बधाई अभी से दे रहे हैं। मैने उन्हे बताया कि जन्मदिन तो 21तारीख को है तो उन्होने कहा अभी तो रखिए शुभकामनाएं 21तारीख को और दे देगें। ये हुई ना कोई बात्।

ब्लाग जगत के साथियों का स्नेह प्राप्त  कर मैं अभिभूत हुँ। सभी का आशीष और स्नेह मुझे भरपुर प्राप्त हुआ जिसे मै चुका नही सकता। पाबला जीदीपक 'मशाल' जी, , ताऊ रामपुरिया जी , अनुप शुक्ल जीप्रवीण पथिक जी, पंकज मिश्रा जी, गिरीश बिल्लौरे जी, खुशदीप सहगल जी,राजकुमार सोनी जी, डॉ महेश सिन्हा जी, अवधिया जी, राजकुमार ग्वालानी जी, आदि ने फ़ोन पर बधाई दी। अवधिया जी ने तो एक पोस्ट ही लगा दी हमारे जन्मदिन पर, जिस पर पद्म सिंहजी ने अच्छी टिप्पणी की है ,मै उनका आभारी हुँ, जो अपना अनमोल स्नेह मुझे प्रदान किया।

मेल-एस एम एस-फ़ोन-टिप्पणियों एवं चैट द्वारा सभी मित्रों एवं भाई-बहनो का अपार स्नेह प्राप्त हुआ। अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करके मुझे---'अदा'जी , एम वर्मा जी, हरकीरत ' हीर'जी, संजय भास्कर जी, अरविन्द मिश्र जी, वाणी गीतजी, गिरिजेश रावजी, डॉ. रूपचन्द्र शास्त्रीजी, रजनीश परिहार जी, अलबेला खत्री जी, अजय कुमार झाजी, दिनेशराय द्विवेदी जी, संगीता पुरी जी , अविनाश वाचस्पति जी दोबारा भी आए टिप्पणी के लिए--दे्खिए आप भी, कुलवंत हैप्पी, डॉ.श्रीमति अजित गुप्ता जी, धीरू सिंह जी, दीपक 'मशाल'जी, विवेक रस्तोगी जी, श्रीश पाठक 'प्रखर' S B तमारे जी, राजू मिश्र जी, पी.सी.गोदियाल जी, उड़न तश्तरी समीर लाल जी, प्रीति जी, अनीता कुमार जी, संजीत त्रिपाठी जी, विजय प्रकाश सिंहजी, राज भाटिय़ाजी, पं.डी.के.शर्मा"वत्स" जी, मनोज कुमारजी, खुशदीप सहगल जी, संगीता स्वरुप जी, इरफ़ान भाई कार्टुनिस्ट, रतन सिंह शेखावत जी, शिखा वार्ष्णेय जी, इंदु पूरी जी, विजय तिवारी " किसलय" जी, गगन शर्मा जी,संजीव तिवारी जी, डॉ टी एस दराल, गिरीश पंकज, अना, यशवन्त मेहता "फ़कीरा", राजी्व तनेजा जी,, Bhavesh (भावेश )ने अपना स्नेह प्रदान किया।

इधर आरकुट तथा फ़ेस बुक पर भी शुभकामनाएं आई उनमें अनिल पुसदकर जी,कान्हा मेरा यार,: ADITYA....... (A:,महेन्द्र मिश्रा:, राज जी,जतिंदर:, अंजन:, राजेश जी, संजीव सलिल जी,  HS:, शेफाली पाण्डे जी, पोद्दार जी, ▪▪विपिन▪▪:,शहरोज भाई, kash aap mere:, पंडित प्रभाकर:जी, उत्तम कुमार जी, सुभाष शर्मा जी,रजत नरुला, डॉ.पंकज, मानव मेहता, UMI:,देवांशु, अजीत शर्मा, बेमेतरा, Star News Agency:,पियूष गुप्ता, अरुण कुमार झा, राजेश, अमित क सागर, समीर भाई, मनसा आनद जी , रश्मि जी , arun kumar:, missões iza:एवं अन्य लोगों के भी बधाई सन्देश प्राप्त हुए......और एक बार फ़िर पाबला जी ने फ़ोन करके बधाई दी।
समापन पर बहन शोभना चौधरी जी का भी सन्देश मेल के माध्यम से प्राप्त हुआ- ---

ये माटी के चोला के कोई ठिकाना नही है----एक गीत हमारे छत्तीसगढ मे गाया जाता है --बईहा झन करबे गरब गुमान भरोसा एक पल के नईए--जब भरोसा एक पल का नहीं है तो फिर किस चीज का गर्व और गुमान लेकर हम बैठे हैं--इस गीत में यही कहा जा रहा है. मै भी यही सो्चता हुँ तथा चिंतन करता हुँ--हमेशा लोगों को खुश देखना चाहता हुँ जिससे मैं भी खुश रह सकुं। यही जीवन का सार है-आप खुशी देकर ही खुशी प्राप्त कर सकते हैं, जो देंगे वही मिलता है। यह प्रकृति का नियम हैं।

आपने मुझे अपना स्नेह खुशी दी, मेरे जन्मदिवस मे शरीक होकर अपना आशीष दिया इसके लिए मै आप सभी का आभार व्यक्त करता हुँ तथा धन्यवाद देता हुँ। आशा करता हुँ कि इसी तरह आपका सहयोग मिलता रहेगा। अगर  गलती से किसी के भी नाम का उल्लेख करना मै भुल गया हुँ तो कृपया मुझे क्षमा करेगें तथा अपना स्नेह बनाए रखेंगें।

रविवार, 21 मार्च 2010

बनवासी बनगे रे मोर राम बेटा--एक जस गीत

यह जसगीत बहुत ही सुंदर बना है। 36गढ मे परम्परा से गाए जाने वाले गीतों मे इसका शुमार है। रचयिता कौन है? इसकी जानकारी तो मुझे नही मिल पायी, लेकिन आप इस गीत का आनंद अवश्य ले। प्रस्तुत है---
 बनवासी बनगे रे मोर राम बेटा


बनवासी बनगे रे मोर राम बेटा
कैकई के कारने उदासी बनगे रे

गुरु वशिष्ठ जी हां बताईस, पुत्र जग कराईन
उही जग के खीर प्रसादे, हमन तोला पायेन
तोला कैइसे छोड़ो रे मोर बेटा, तोला घर दुवार के
कैकई के कारने उदासी बनगे रे

महल अटारी के रहवैया, बन मा कइसे रहिबे
कांटा सही तोर काया सुखाही, भुख प्यास ला सहिबे
अड़बड़ दुख पाबे रे हीरा बेटा तैहा मोर दुलार के
कैकई के कारने उदासी बनगे रे

तैं जाथस तोर संग जाबो, कहिथे लछमन सीता
तीनो परानी के जाए ले, घर हो जाही रीता
बनवासी बनगे राम बेटा, मोर दुलार के
कैकई के कारने उदासी बनगे रे

तोर जाएके बात ला सुनके, आंखी मा आगे पानी
मैं हां दुखियारी कही डारेंव, तोर बनवास कहानी
तोला कईसे छेकों रे, किलकइया बेटा, तोला घर दुवार के
कैकई के कारने उदासी बनगे रे

शनिवार, 20 मार्च 2010

जीवन में हँसना भी जरुरी है अच्छे स्वास्थ्य के लिए

च्छे स्वास्थ्य के लिए चलिए कुछ हँस लिया जाए और हो सके तो ठहाके ही लगाए जाएं जिससे सप्ताह भर की थकान मिट जाए। हँसना भी जरुरी है। घर में हँस नही सकते तो लोगो ने लाफ़्टर क्लब ज्वाईन कर लिए हैं। हँसी ना आए तो जबरदस्ती हँसो।

एक बार हम भी गए थे लेकिन जबरिया हँसने की कोशिश की, लेकिन हँसी नही आई तभी हमने एक मित्र का चेहरा देखा वो मुँह बना के बड़ा जोर लगा के हँस रहे थे। उनकी इस हरकत से जो हँसी आई आज तक रुकी ही नही। जब भी वो वाकया याद आता है जी भर के हँस लेता हुँ। 

एक बार का किस्सा आपको सुनाता हूँ। हमारे घर के पीछे एक मोहल्ला है। उसमे कुछ शिक्षक लोग रहते हैं। हम सब मिल कर सुबह 4 बजे उठ कर सैर मे जाते हैं।

उनमे एक गुरुजी को बहुत कम सुनाई देता था और वे मजाकिया किस्म के इंसान है उन्हे श्रवण दोष था। तो जब हम बोलते थे तो वे हमारी तरफ़ देखते रहते थे लिप्स रिडिंग कर समझने की कोशिश करते थे।

अब उनकी सुनने की समस्या के कारण उन्हे सुनाने के लिए हमे जोर से बोलना पड़ता था। नही तो बार-बार पुछ्ते थे कि क्या बोला? अब यह जोर से बोलना हमारी आदत में शुमार होने लगा था। 

सैर से आने के बाद भी हम जिस किसी से बात करते तो जोर से बोल कर बात करते। सामने वाला सोचता कि हम डांट रहे हैं या गुस्से में हैं वह सटक लेता।

एक दिन हम चाचाजी से बात कर रहे थे। तो उन्होने कहा कि तुम इतनी जोर से क्यों बो्ल रहे हो क्या मै बहरा हूं?

तब हमारी समझ मे आया कि कुछ तो कहीं समस्या हैं, मास्टर जी के कारण हम भी बहरे होते जा रहे हैं। हम हर आदमी को ही बहरा मान कर बात कर रहे हैं, अब तो  सामने वाला हमे बहरा समझने लगेगा। क्योंकि बहरे लोग जोर से बोलते हैं या एक दम धीमा बोलते हैं बीच का स्वर तो उनसे निकल ही नही पाता।

अब इससे बचने के लिए हमने अपनी सैर का रास्ता बदल लिया। एक दिन सभी पुराने साथी चार बजे ही गेट पर पहुँच गए और हमे जगाने के लिए चिल्लाने लगे। हम ने उठकर फ़िर उनका संग धर लिया।

एक मजेदार घटना घट गयी। यह किसी चुटकुले से कम नही है तथा बहरे आदमी से बात करने में क्या समस्या आती है इसका प्रमाण है। यह भी देखने में आता है कि बहरे को भले और कोई बात समझ में नही आए वह गाली तुरंत समझ लेता है। आप उसे जोर से काम की बात कहोगे तो नही सुनेगा लेकिन सिर्फ़ होठ हिला कर गाली दे दो तुरंत समझ जाएगा और उसका जवाब भी दे देगा।

हम पैदल चले जा रहे थे तो बहरा मास्टर जी बोले-" महाराज काली मैं अपन भैंसी ला चराए बर लेगे रहेवं।" (महाराज! मै अपनी भैंस को कल चराने के लिए ले गया था) 

हमारे साथ एक गुरुजी और थे तो मैने कहा " काली इहु हां अपन पड़िया ला पानी देखाए बर लेगे रिहिस" (कल ये भी अपनी पड़िया को पानी पिलाने ले गए थे)"

फ़िर बहरा गुरुजी ने जवब दिया " लेकिन एवरेज कम देवत हे" (लेकिन एवरेज कम दे रही है) अब जवाब सुन कर हम सोचने लग गए की यह क्या बला है? भैंस के साथ तो एवरेज का संबंध कहीं से बैठता नही है। 

दोनो गुरुजी मे किसी के पास भैंस और पड़िया नही है, मैने तो सोचा था कि मजाकिया इंसान है जरुर यह अपनी बीवी को भैंस कह रहा है। लेकिन उसका भी एवरेज से क्या संबंध है?

कल शाम को एक गुरुजी को बीवी बच्चों के साथ जाते देखा था इसलिए मैने सोचा कि यह भी अपनी बीवी को कहीं घुमाने ले गया होगा तो मैने भी कह दिया कि यह भी पड़िया को पानी देखाने ले गया था।

तभी भैरा गुरुजी ने खुलासा किया--कि वे भैंस अपने स्कुटर को कह रहे हैं। अब ना सुनने के कारण अर्थ का अनर्थ हो गया। 

हमारे यहां कहावत है कि "कनवा पादे भैरा जोहारे' (याने कि काना पाद रहा है तो बहरा समझता है कि वह उसे नमस्कार कर रहा है, इसलिए वह नमस्कार मे जवाब देता है) इसमें गलती दोनो की नही है लेकिन श्रवण दोष के कारण हास्यास्पद स्थिति का निर्माण हो जाता है।

इस घटना के बाद तो हमारी जो हँसी छुटी की घर पहुँचते तक सभी पेट पकड़ कर हँसते ही रहे।आज भी उस वाकये को याद कर जी भर हँस लेते हैं। इसलिए मित्रों जीवन मे हँसना भी बहुत जरुरी है।

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

इन्सान और जानवर मे फ़र्क करना मुश्किल

जादी को छ: दशक बीत चुके हैं, प्रतिवर्ष बजट मे नयी-नयी योजनाओं का आगाज होता है। फ़िर वही नारे लगते हैं गरीबी हटाओ, गरीबी हटाओ। मानवाधिकार की बाते गर्माती हैं वातावरण को 2 रु किलो गेंहुँ-चावल बांटने की योजना का शुभारंभ होता है, कोई भुखा नही मरेगा।

सबको रोटी कपड़ा मकान उपलब्ध होगा। कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली मे उग आई हैं स्वयं सेवी संस्थाएं। जिसे NGO कहा जाता है। सेवा के नाम पर नोट बटोरे जा रहे हैं। वृद्धाश्रम भी खोले जा रहे हैं, जहां पर निराश्रित वृद्ध रह कर अपने जीवन के बाकी दिन काट सकें। लेकिन यह सब सेवा कागजों मे ही हो जाती  है।

मानव और पशु मे कोई अंतर नही है। इसका एक उदाहरण मैने रायपु्र रेल्वे स्टेशन मे देखा जहाँ एक वृद्ध महिला प्लेटफ़ार्म पे पड़ी थी और गाय उसको चाट रही थी और वह गाय को।

लोग भीड़ लगा कर इस दृष्य को देख रहे थे। इन्सान और जानवर मे फ़र्क करना मुश्किल था। यह जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन है।

गुरुवार, 18 मार्च 2010

प्रख्यात चि्त्रकार डॉ डी. डी.सोनी से एक साक्षात्कार-1

मित्रों आज मै आपका परिचय भारत के प्रसिद्ध चित्रकार एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व डॉ.डी.डी. सोनी जी करवा रहा हूँ। इन्होने चित्रकला के क्षेत्र मे नए सोपान गढे हैं तथा अपनी जीवन यात्रा मे काफ़ी संघंर्ष किया है। 

परम्परागत रुप से की जाने वाली चित्रकारी से लेकर आधुनिक चित्रकला के क्षेत्र मे इन्होने हाथ आजमाया तथा सफ़लता भी मि्ली। आज इनकी पेंटिग लाखों में बिकती है। 

इनसे बहुत सारे नए चित्रकार चित्रकला की बारीकियाँ सीखने आते हैं, उन्हे सहज भाव से समझाते हैं। इन्होंने बहुत सारी विधाओं पर काम किया है जैसे लैंड स्केप, पोट्रेट, लाईव, मार्डन पेंटिग,मिनिएचर, ड्राईंग प्रोसेस, पैचवर्क, नाईफ़ पैंटिग इत्यादि। 

जब हम इनके स्टुडियों मे पहुँचे तो देखा पेंटिंग्स का अम्बार लगा है। शायद ही ऐसा कोई विषय होगा जिस पर इनकी तुलिका ने अपना कमाल नही दिखाया होगा। आप चित्र कला के क्षेत्र मे सन्1962 से साधना रत हैं। इन्होने भारत के कई प्रसिद्ध चित्रकारों के साथ काम किया है।

मैने इनका एक साक्षात्कार ही ले लिया जिसे अपने ब्लाग पर प्रसारित कर सकुं। यह साक्षात्कार कुछ लम्बा है इसलिए किश्तों मे ही प्रकाशित कर रहा हूँ ------ इससे पहले चार पंक्तियाँ चित्रकार के विषय मे कहना चाहता हूँ।
दिल का दर्द आंखों से नीचो कर इत्र बनता है,
लाखों में कोई एक हमदर्द,सच्चा मित्र बनता है।
गालिब की गजल,मीरा का विरह रगों मे घोलकर,
कतरा कतरा आंसुओं से ही एक चित्र बनता है।।

उनसे मेरा पहला प्रश्न---
ललित डॉट कॉम--- डी डी सोनी जी आपका स्वागत है-- आपने चित्रकारी कब से प्रारंभ की?
डी डी सोनी जी-- ललित भाई! आज बड़ा सौभाग्य है कि एक आर्टिस्ट दुसरे आर्टिस्ट का ईंटरव्यु ले रहा है, नही तो जहां तक देखा जाता है या तो प्रत्रकार इंटरव्यु लेता या ऐसा व्यक्ति इंटरव्यु लेता है जिसको इस विधा के विषय मे कोई जानकारी नही है। वह ऐसे सवाल पुछ देता है कि जिसका संबंध ही इस विधा से नही है और सही जानकारी समाज तक नही पहुँच पाती -मैं खुश हुँ कि एक कलाकार ही एक कलाकार का इंटरव्यु ले रहा है।  
अब आपके प्रश्न की ओर चलते हैं--जब मै स्कुल मे पढता था तो पाठ्य पुस्तक निगम की किताबों मे चित्र बने होते थे। जो कविताओं के साथ होते थे तो मै सोचता था कि इस कविता के साथ जो चित्र बना है वह सही नही है। इससे भी कुछ अच्छा बन सकता है, कभी गणेश जी मुर्ति देखता था तो लगता था कि यह तो ऐसे बनाई जा सकती थी, कहीं कैलेंडर देखता था तो लगता था कि इससे और भी अच्छा किया जा सकता था, मतलब कहीं संतुष्टि नही मिलती थी, उसको मै जब भी कापी करता था उसमे अपनी सोच भरने का प्रयास करता था, मेरी रुची मुर्ती कला मे भी रही है, मै जब देखता था तो मुझे मुर्त और अमुर्त के बीच एक गहरी खाई दिखाई देती थी। आम दर्शकों को सुगढ मु्र्तियाँ भाती हैं, लेकिन कोई जाने अनजाने अधुरी मुर्ती की भी तारीफ़ कर देता था तो लगता था कि ऐसा क्यों है लेकिन अधुरी मुर्तियाँ सोचने के लिए कई दिशाएं देती है जबकि पुर्ण मुर्ती में तो कार्य खत्म हो चु्का है उसमे आगे सोचने के लिए कुछ बचा ही नही है। फ़िर इस तरह हमे एक बहुत बड़ा मैदान मिल गया काम करने के लिए।
ललित डॉट कॉम--सोनी जी आपने चित्रकला के साथ मुर्तिकला पर काम किया, आपने बहुत सारे सेट भी डिजाइन किए-मेरा सवाल aयह है कि आपने इसकी कही से विधिवत शिक्षा ली है या ईश्वर प्रदत्त कौशल है?
डी डी सोनी जी --जब मै काम करने लगा तो लोग कहते थे कि मैं परम्परा से हट कर कुछ अलग कर रहा हुँ यह ईश्वर का वरदान है जो मुझे प्राप्त हुआ है। चित्रकार के रुप मे आप अपना मुकाम हासिल कर सकते हैं। दुनिया  मे इस क्षेत्र मे क्या हो रहा है इसकी जानकारी मुझे पत्रिकाओं और रेड़ियो से मिल पाती थी। टीवी तो बाद मे आया, मेरा जन्म नैनपुर मंडला जिला मध्यप्रदेश मे हुआ। 
खुशी की बात यह थी कि उस आदि्वासी क्षेत्र मे रेल्वे का विकास हो रहा था, मैं शहर मे रहता था इस तरह मुझे तीनो क्षेत्रों की जानकारी थी। मै तीनो आधुनिक तकनीक, आदिवासी परम्परा तथा कस्बाई रहन-सहन से परिचित था। इस तरह मैने तीनो की चित्रकारी देखी तो पाया कि मुझे विधिवत शिक्षा लेना बहुत जरुरी है, एक ही मंडप के नीचे कितने तरह की विधाएं चल रही हैं आर्टिस्ट क्या-क्या काम कर रहे हैं पुरी दुनिया मे। सबसे पहले तो मेरे गुरु थे स्व: अनादि अधिकारी जो नैन पुर मे थे। जे जे स्कुल ऑफ़ आर्ट से उन्होने 1952मे डिप्लोमा कि्या था। मै उनके कलाजीवन आश्रम मे जाकर सीखता था। उनकी छाप मेरे जीवन मे ऐसी पडी कि घृणा-अपमान-स्वार्थ शब्द को डिक्सनरी से हटा देना चाहिए क्योंकि यह मनोभाव फ़िर आपके काम मे भी परिलक्षित होता है।
ललित डॉट कॉम-- आपने इस क्षेत्र मे बहुत काम किया है तथा मै जानता हुँ कि आपने गणतंत्र दिवस की झांकियों में भी अपने कला कौशल का उल्लेखनीय प्रयोग कि्या है कृपया इस विषय पर जानकारी दें?
डी डी सोनी जी ---बहुत बहुत आनंदित हुँ मै आज जो अपने विचारों को व्यक्त कर पा रहा हुँ, पहले हम गणतंत्र दिवस की परेड मे पोस्टर के माध्यम से जानकारी देते थे। ले्किन छोटे होने के कारण संदेश पु्री जनता तक नही पहुंच पाता था, फ़िर हमने इसे प्लाई बोर्ड पर बनाया तब भी ज्यादा लोगों तक नही पहुंच पाता था इसलिए फ़िर हमने चलित झांकियों का निर्माण शुरु किया। मेरे लिए यह एक बड़ा कैनवास था जिसे लाखों लोग प्रत्यक्ष तथा करोड़ों लोग टीवी के माध्यम से देख पाते थे. अगर कोई हमारी झांकी dekh कर उससे प्रेरणा लेता है तो हमारा उद्देश्य हम सफल मानते हैं.
ललित डॉट कॉम-- लोग जब आर्ट एक्जीबिशन में जाते हैं चित्रकला प्रदर्शिन देखने लिए तो वहां आज कल परम्परागत चित्रों के साथ आधुनिक चित्रकला भी प्रदर्शित होती है. कुछ आदि तिरछी रेखाएं रंगों एवं प्रकाश के संयोजन से कैनवास पर बनाई जाती हैं. जिसे देख कर दर्शक सर हिला कर निकल जाता है. उसकी समझ में नहीं आता है. आप परंपरागत चित्रकला और आधुनिक चित्रकला के संबंध में बताये की हम उन्हें किस तरह समझे?
डी डी सोनी जी ---चित्रकार की पेंटिंग जो होती है वह समाज के लिए अलग, वरिष्ठ चित्रकारों के लिए अलग, आलोचक और समालोचक के लिए अलग होती है. इस तरह चित्रकार को भी कई मुकाम से गुजरना पड़ता है. सबकी अलग अलग डिमांड होती है. इसलिए जब हम एक्जीबिशन लगाते हैं तो एक बच्चे से लेकर वरिष्ठ चित्रकार तक की पसंद का ख्याल रखते हैं कि सबको कुछ तो कुछ पसंद आए. चित्रकार अपनी अनुभूतियों को चित्र के माध्यम से प्रदर्शित करता है आवश्यक नहीं है कि वह सभी को पसंद आये. सबकी पसंद अलग-अलग होती है. उसे पूरा करने का प्रयास किया जाता है.
ललित डॉट कॉम--क्या यह विधाएं पिता से पुत्र को परंपरागत रूप से हस्तांतरित होती हैं? क्या वर्त्तमान में भी गुरु शिष्य परंपरा से चित्रकारी और शिल्पकारी का प्रशिक्षण दिया जाता है?
डी डी सोनी जी----कार्य कुशलता पिता से पुत्र को गुरु से शिष्य जो मिलती है लेकिन अगर हम कहें कि खानदान में चली आ रही है तो मैं नहीं मानता क्योंकि यह ईश्वर प्रदत्त होता है. हमारे जितने भी चित्रकार हैं उन्होंने अपने खानदानी काम से हट कर जगह बनाई है. जो किसी खानदान या घराने से जुड़े लोग है वो नयी चीज को देने में असमर्थ रहे.
साक्षात्कार अभी जारी है------अगली किश्त में.

बुधवार, 17 मार्च 2010

शीशे की सुंदर चित्रकारी-खाटु श्याम मंदिर खरसिया

रायगढ जिले मे खरसिया एक तहसील हैं,बड़ा व्यापारिक केन्द्र भी है। अभी पिछले दिनों मै वहां के प्रवास पर था तो एक बहुत ही खाटु श्याम जी का सुंदर मंदि्र देखा जिसमे कांच की सुंदर पच्चीकारी थी। 

बेल्जियम के कांच से सुंदर चित्र बने हुए थे। कुछ चित्र मैने अपने मोबाईल से लिए हैं। शीशे के चित्र लेना वैसे भी कठिन होता है छवि परिवर्तित होती है। खरसिया 36 गढ  में स्थित है कुछ चित्र आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ   

 खाटुवाले श्याम जी की जय

शिव-पार्वती-गणेश जी

कृष्ण भगवान
 
गोर्वधन पर्वत


यमुना किनारे


 

























राधा कृष्ण

मंगलवार, 16 मार्च 2010

फ़ोकट का चंदन घिस भाई नंदन

भैया हम ठहरे गंवईहा, निपट मुरख. लेकिन संगत हमेशा ज्ञानियों-विज्ञानियों और ध्यानियों का ही किये. कहते हैं ना "सत्संगति किम ना करोति पुंसाम" इनकी संगत करने से हमें बिना पढ़े ही ज्ञान मिल जाता है. .... 


कौन पुस्तकों में मगज खपाए. अपना उल्लू सीधा करने के लायक समझ ही लेते हैं. बस किसी ज्ञानी के पास जाकर पाँव लागी किये और मुंह फार के चेथी खुजाते हुए बैठ गए. फिर धीरे कोई एक प्रश्न ढील दिये. अब ज्ञानी महाराज हमको मुरख जान कर प्रश्न का उत्तर धारा प्रवाह दे देते हैं. अगर उसका उत्तर नहीं मिलता तो हमें चाय पिला कर कह देते हैं कि कल आना यार आज मूड नहीं कर रहा है.....


हम उसनके सामने एक प्रश्नवाचक जिन्न खड़ा करके  रात भर चैन की नींद सोते हैं और उधर ज्ञानी जी रात भर जाग के ग्रंथों के पन्नो में अपना मूड खपाते रहते हैं. क्योकि कल उनको एक मुरख के सवाल का जवाब देना है. अगर नहीं दे पाए तो उनकी विद्वता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जायेगा. इज्ज़त का सवाल है.... 


अगर नहीं दे पाए तो हम तो गंवईहा मुरख ठहरे, पुरे गांव में घूम - घूम के कह आयेंगे सुबह-सुबह लोटा धर के कि ज्ञानी जी को तो कुछ नहीं आता फालतू विद्वान् बनने का ढोंग करते रहते हैं. अब ज्ञानी जी अपनी इज्जत बचाने के लिए रात भर जाग कर हमारे प्रश्न  का उत्तर ढूंढते हैं, हम सुबह सुबह उनके घर जा धमकते हैं और गरमा-ग़रम चाय और पकोड़े के साथ मनवांछित ज्ञान भी पा जाते हैं. ज्ञानी जी की भी इज्जत बच जाती है और हमें भी बिना पढ़े ,बैठे बिठाये गुप्त ज्ञान मिल जाता है. 


भैईया हम तो निपट गंवईहा ठहरे. एक दिन पान की गुमटी के सामने खड़े थे पान लगवाने के लिए. अम्मा ने भेजा था और कहा था सीधा जाना और आना बीच में कहीं रुक मत जाना. हम जब पहुंचे तो कई लोग वहां खड़े थे. 


चंदू बोला- पंडित जी आप तो बहुत ज्ञानी हैं. हमारे भानजों की शादी है और विवाह करने के लिए कोई महाराज नहीं मिल रहे हैं. अक्षय तृतीया है. सभी पंडित-महाराज बुक हो गये हैं. अगर आप ये शादी करवा देते तो हमारा बोझ हल्का हो जाता. ........



हम भी खाली थे. क्योंकि कोई तो हमारे पास आता ही नहीं था. इसलिए कि हम चौथी फेल, बस सुन सुन के याद कर लेते थे और जब कभी मौका मिलता दुसरे गंवारों के बीच अपने ज्ञान का छौंक लगा कर विद्वान् बन जाते थे. हमने भी सोचा कुछ कमाने का मौका मिल रहा है. काहे हाथ से जाने दें. बस हाँ कर दी. 


अगला भी बहुत कांईया जजमान था. ये हम जानते थे. हमने वहीं पर सौदा पॉँच सौ एक रूपये में तय कर लिया. अब अम्मा का पान पंहुचा कर हम पहुँच गये ज्ञानी जी के पास और प्रश्न कर दिया की "विवाह में कितने मंत्र पढ़े जाते हैं और भांवर कैसे कराई जाती है? उन्होंने मुझे दो घंटे समझाया. हम विधि ज्ञान तो ले लिए लेकिन बात अब मंत्र पाठ पर अटक गई. अरे जब पढ़ना आये  तब तो मंत्र पढेंगे. 


तभी हमें शोले फिलम का जय और बीरू का सीन याद आ गया. बीरू कहता है हम एक-एक, दस-दस पे भारी पड़ेंगे और फिर जय से कहता है, "कंही ज्यादा तो नहीं बोल दिया. तब जय कहता है "अरे जब कह ही दिया है तो देख भी लेंगे". जब हमने भांवर का ठेका ले ही लिया तो देखा जायेगा. निपटा के ही आयेंगे. 


अब अक्षय तृतीया को चल दिये विवाह संपन्न कराने. सब तैयारी करके दूल्हा दुल्हन को बैठा कर जैसे ही हमने  मंत्र पढना शुरू किया तभी एक बोला .............
"महाराज क्या पढ़ा रहे हो?" 
हमने कहा "मंत्र पढ़ रहे हैं और क्या?" 
 तो वो बोला " ये मंत्र नहीं है. ये तो आप हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं. इससे क्या शादी  होती है? 


हमने कहा-" भैया पॉँच सौ रूपये में क्या बेद पढने वाला महाराज मिलेगा? अगर तेरे घर में बहु को ठहरना है तो हनुमान चालीसा से ही ठहर जाएगी, नहीं तो गुरु वशिष्ठ के भी मन्त्र पाठ के बाद भी नहीं ठहरेगी.............



जजमान ने सोचा की महाराज नाराज हो कर मत चले जाएँ नहीं तो विवाह कौन करावेगा, जजमान ने बोलने वाले को धमका कर चुप कराया और हमें कहा महाराज आप नाराज ना हों, आपके मुंह से निकला  हुआ हर वाक्य ब्रह्ममंत्र है बस आप पढ़ते रहिये, फिर क्या था! हमने हनुमान चालीसा पढ़ के शादी करवा दी, माल अन्दर किया और खुद बाहर आ गए. जजमान के मुख पर भी बेटी ब्याहने की लाली थी और हमारे मुंह में भी चमन बहार की गिलौरी थी।

तो का बताएं भैया! हम तो निपट गंवईहा ठहरे. 

सोमवार, 15 मार्च 2010

ललित डॉट कॉम यश भारत_जबलपुर मे

ललित डॉट कॉम की एक पोस्ट यशभारत जबलपुर मे प्रकाशित हुई है-पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। बड़ा करके पढने के लिए चित्र पर चटका लगाएं। 

पोस्ट पढने के लिए यहाँ पर चटका लगाएं, ललित डॉट कॉम,

रविवार, 14 मार्च 2010

कुछ चित्र देखिए

ज रविवार है छुट्टी का दिन-------हम भी कुछ लिखने के मुड मे नही हैं----- इसलिए मित्र पदम सिंगजी के सौजन्य से आपके लिए मनगढ गांव मे कृपालु महाराज के आलीशान भव्य आश्रम की तश्वीरें लाएं है। कुछ दिनों पहले इनके आश्रम भगदड़ मची थी और लोटा थाली के वितरण को लेकर 62 लोग मारे गए। यह आश्रम कुन्डा हरनाम गंज तहसील उत्तर प्रदेशमे है। आप तश्वीरों का अवलोकन कीजिए।


शनिवार, 13 मार्च 2010

कान की कहानी, कान की जुबानी

मैं रेल्वे स्टेशन पहुंचा जैसे गाड़ी पार्किंग में लगाने लगा तो एक जोर दार आवाज आई "बजाऊं क्या तेरे कान के नीचे?" मैंने पलट के देखा तो दो लोग एक दुसरे से जूझ रहे थे......... एक-दुसरे का कालर पकड़ कर गरिया रहे थे....... 

हम तो आगे बढ़ लिए ट्रेन का समय होने वाला था. हमारे मेहमान आने वाले थे. फालतू में इनके पंगे में कौन पड़े? लेकिन चलते-चलते कह ही दिया. अरे कान का क्या दोष है? बजाना है तो एक दुसरे को बजाओ."  

अब दो लोग लड़ रहे हैं और पिटाई कान की हो रही है. कान का क्या दोष है? गलती कोई करता है और कान पकड़ा जाता है. माल खाए गंगा राम और मार खाए मनबोध........ कान पकड़ना भी एक मुहावरा है........ हम जब कोई गलती करते थे या बदमाशी करते थे या स्कुल में किसी को पीट देते थे जब उलाहना घर पर आता था तो दादी के सामने पहले ही कान पकड कर खड़े हो जाते थे कि अब से कोई गलती नहीं करेंगे.......... 

अब कोई उलाहना लेकर घर  नहीं आएगा......... इस तरह कान एक हथियार के रूप में काम आ जाता था और हम बच जाते थे.

पर कभी हमारा छोटा भाई दादी के कान भर देता था तो फिर मुसीबत ही खड़ी हो जाती थी. बस फिर कोई सुनवाई नहीं होती थी........ दादी की छड़ी चल ही जाती थी........... लेकिन वो मुझे बहुत ही प्यार करती थी......... सहज ही मेरी खिलाफ किसी की बात पर विश्वास नहीं करती थी....... पहले उसकी सत्यता जांचती थी........ कान की कच्ची नहीं थी. क्योंकि कान का कच्चा आदमी किसी की भी बात पर विश्वास कर लेता है........ 

भले ही वो गलत हो.......... और बाद में भले ही उसका गलत परिणाम आये और पछताना पड़े............. लेकिन एक बार तो मन की कर ही लेता है.......... इसलिए कान के कच्चे आदमी विश्वसनीय नहीं होते और लोग इनसे बचना चाहते है....... 
कुछ लोग कान फूंकने में माहिर होते हैं......... धीरे से कान में फूंक मार कर चल देते हैं फिर तमाशा देखते है........ मौज लेते है........ अब तक की सबसे बड़ी मौज कान फूंक कर मंथरा ने ली थी.......... धीरे से माता कैकई का कान फूंक दिया और फिर राम का बनवास हो गया देखिये कान फूंकने तक मंथरा का उल्लेख है उसके बाद रामायण में सभी दृश्यों से वह गायब हो गई है कहीं कोने छिपकर मौज ले  रही है............. 

ऐसे कान फूंका जाता है...... यह एक परंपरा ही बन गई है....... किसी को गिरना हो या चढ़ाना हो............ दो मित्रों या परिवारों के बीच लड़ाई झगड़ा करवाना हो ......... बस कान फूंको और दूर खड़े होकर तमाशा देखो. कान भरने और फूंकने में वही अंतर है जिंतना पकवान और फास्ट फ़ूड में है.......... 

कान भरने के लिए भरपूर सामग्री चाहिए........... क्योंकि कान इतना गहरा है कि इसे जीवन भर भी व्यक्ति भरे लेकिन पूरा भर ही नहीं पाता है.... कान भरने का असर देर से होता है तथा देर तक रहता है......... लेकिन कान फूंकने के लिए ज्यादा समय और मगज खपाना नहीं पड़ता चलते चलते फूंक मारिये और आपका काम हो गया......

अब कन्फुकिया गुरूजी हैं............... जो कान में ऐसे फूंक मारते है की जीवन भर पुरे परिवार को कई पीढ़ी का गुलाम बना लेते हैं .............. कुल मिला कर कुलगुरु हो गये........ चेले का कान गुरु की एक ही फूंक से भर से भर जाता है......... बस उसके बाद चेले को किसी दुसरे की बात नहीं सुनाई देती क्योंकि कान में जगह ही नहीं है. 

अब वह कान उसका नहीं रहा गुरूजी का हो गया....... अब कान में सिर्फ गुरूजी का ही आदेश सुनाई देगा............. गुरूजी अगर कुंवे में कूदने कहेंगे तो कूद जायेगा........ इसे कहते हैं कान फूंकी गुलामी.......... चेला गुरूजी की सभी बातें कान देकर सुनता है.........

कान फूंकाया चेला कुछ दिनों में पदोन्नत होकर काना बन जाता है........ काना बनाकर योगी भाव को प्राप्त का कर लेता फिर सारे संसार को एक ही आँख से देखता है.............. बस यहीं से उसे समदृष्टि प्राप्त हो जाती है........ 

गीता में भी भगवान कृष्ण ने कहा है स्मुत्वं योग उच्चते...... इस तरह चेला समदृष्टि प्राप्त कर परमगति की ओर बढ़ता है ........ कान लगाने से यह लाभ होता है कि  एक दिन गुरु के भी कान काटने लग जाता है...... उसके चेलों की संख्या बढ़ जाती है.......... गुरु बैंगन और चेला पनीर हो गया ....... गुरु छाछ और चेला खीर हो गया.
कान शरीर का महत्त्व पूर्ण अंग है बड़े-बड़े योगी और महापुरुष इससे जूझते रहे हैं...... 

आप शरीर की सभी इन्द्रियों पर काबू पा सकते हैं उन्हें साध सकते हैं लेकिन कान को साधना मुस्किल ही नहीं असम्भव है.......... क्योंकि कहीं पर भी कानाफूसी होती है बस आपके कान वही पर लग जाते हैं.......क्योकि कानाफूसी सुनने के लिए दीवारों के भी कान होते हैं....... 

भले ही आपके कान में कोई बात ना पड़े लेकिन आप शक करने लग जाते हैं कि मेरे बारे में ही कुछ कह रहा था........ क्योंकि ये कान स्वयम की बुराई सुनना पसंद नहीं करते........... अच्छाई सुनना ही पसंद करते है......... भले ही कोई सामने झूठी प्रशंसा कर रहा हो.... और पीठ पीछे कान के नीच बजाता हो....... इसलिए श्रवण इन्द्री को साधना बड़ा ही कठिन है..........

आज कल कान के रास्ते एक भयंकर बीमारी शरीर में प्रवेश कर रही है.........जिससे लाखों लोग असमय ही मारे जा रहे हैं... किसी ने कुछ कह दिया तथा कान में सुनाई दिया तो रक्त चाप बढ़ जाता है दिल का रोग हो जाता है और हृदयघात से राम नाम सत्य हो जाता है.... 

हमारे पूर्वज इस बीमारी से ग्रसित नहीं होते थे क्योंकि वे बात एक कान से सुनकर दुसरे कान से निकलने की कला जानते थे. उसे अपने दिमाग में जमा नहीं करते थे......... कचरा जमा नहीं होता था और सुखी रहते थे....... वर्तमान युग में लोग दोनो कानो में हेड फोन लगा लेते हैं और बस जो कुछ अन्दर आता है और वह जमा होते रहता है...... 

स्वस्थ  रहने के लिए एक कान से प्रवेश और दुसरे कान से निकास की व्यवस्था जरुरी है............ इसका महत्व भी समझना जरुरी है....  क्योकि अगर आप कहीं पर गलत हो गये तो कान पर जूता रखने के लिए लोग तैयार बैठे हैं............ ऐसा ना हो आपको खड़े खड़े कान खुजाना पड़ जाये......... 

इसलिए कान के महत्त्व को समझे और बिना मतलब किसी के कान मरोड़ना छोड़ दें तो आपके स्वास्थ्य के लिए लाभ दायक ही होगा............  महत्वपुर्ण बातों को कान देकर सुनना चाहिए याने एकाग्र चित्त होकर........हमारे 36गढ में एक गाना है उसकी दो पंक्तियां प्रस्तुत करता हुँ।  

बटकी मा बासी अउ चुटकी मा नुन
मैं गावत हंव ददरिया तैं कान देके सुन
॥इति श्री कान कथा पुराणे समाप्तं ॥ 

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

गांव बसा नहीं डकैत पहले पहुंचे........महिला आरक्षण

भी अभी ही महिला आरक्षण विधेयक पास हुआ है राज्य सभा से और इसे कानून बनने में कुछ समय और लगेगा ....... लेकिन इसमें मिले महिला आरक्षण अधिकारों पर सेंध लगाने की क्या कहें........ सीधे सीधे डाका डालने ने मनसूबे बान्धे जाने लगे हैं......  

एक कहावत है ना गांव बसा ही नहीं डकैत पहले पहुँच गए........ बस कुछ इस तरह ही होने वाला है....... साठ सालों से संघर्ष करने के बाद एक ख़ुशी मिली थी कि हमारी भी माँ-बहनों-बेटी बहुओं को छोटी से लेकर दिल्ली तक की पंचायतों में अपनी बात कहने का मौका मिलेगा... वो भी दृढ़ता से अपनी बात रख सकेंगी....

अब समाचार मिल रहा है की पुरुष सांसद लिंग परिवर्तन कराने की सोच रहे हैं. संभावनाएं टटोल रहे हैं.. अधिकांश सांसद मान कर चल रहे हैं कि देर सबेर यह कानून बन जायेगा....... 

संकेत मिल रहे हैं कि २०१४ के लोकसभा चुनावों में यह आरक्षण अवश्य ही लागु हो जायेगा. इसके लागु होते ही डेढ़ सौ सांसदों का का कैरियर खतरे में दिख रहा है. कुछ तो देश प्रदेश कहीं भी  समायोजित हो  जायेंगे बाकी कहाँ जायेंगे? 

ये बात मजाक की अवश्य लग सकती है..... लेकिन कुछ चर्चाएँ उड़ कर आ रही हैं कि लिंग परिवर्तन जैसे प्रयोग करने में बुराई क्या है? अब इस कला में माहिर डाक्टरों की चाँदी कटने वाली है. अपनी राजनीति बचाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है. कह रहे हैं कि बुजुर्गों को दिक्कत आयेगी पर युवाओं के लिए रास्ता खुला है......

दूसरा खतरा है कि अब किन्नर भी इसका फायदा लेने की भरपूर कोशिश में हैं. अब किन्नरों में स्वयं को महिला लिखने वालों की संख्या तेजी से बढ़ सकती है. किन्नर दोनों लिंगों का उपयोग करते हैं कोई पुरुष लिखता है तो कोई महिला. लेकिन सब महिला ही लिखने की पुरजोर तैयारी में हैं. 

हाल में ही चुनाव आयोग ने इन्हें महिला या पुरुष लिखने के बजाय किन्नर लिखने की छुट दे दी है. इससे पहले इन्हें पुरुष या महिला लिखने की ही छुट रहती थी. अभी चुनाव के नामांकन पत्र में पुरुष या महिला दो ही कालम होते हैं. इससे उनके पास विकल्प है कि वे स्वयं को किस श्रेणी में रखते हैं. अब महिला लिखने पर लाभ दिखाई दे रहा है तो पुरुष लिखा कर कौन उससे वंचित होना चाहेगा.

एक समाचार पत्र नवभारत ने इसकी पुष्टि करते हुए बताया हैं कि कांग्रेस के सांसद और ३६ गढ़ प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष चरण दास महंत को किन्नरों ने रायपुर में हुए अंतर्राष्ट्रीय किन्नर सम्मलेन में अपना संरक्षक बनाया था और वे अभी तक इनके संघ के संरक्षक हैं. 

कई किन्नरों ने आरक्षण से खुश होकर उनसे संपर्क किया तथा आने वाले चुनावों में टिकिट की व्यवस्था करने की मांग की है.अब किन्नर भी महिला आरक्षण का लाभ उठाने के लिए कमर कस चुके हैं........... इससे लगता है कि महिलाओं को आरक्षण का लाभ मिलने का रास्ता इतना आसान नहीं है. अभी और भी कई बाधाओं को पार करना पड़ेगा.

गुरुवार, 11 मार्च 2010

गरमागरम कडक चाय लिप्टन टाइगर वाली

म तो स्वभाव से ही साधू हैं, जैसे मंदिर में रोज भाव भक्ति से अगरबत्ती जला कर फ़ूल चढाते हैं ठीक वैसे ही भिनसारे  उठ कर अपनी पोस्ट लिखते हैं सब काम छोड़ कर....... और फिर बटन दबा कर ब्लाग जगत को अर्पित  कर देते है. 

तत्पश्चात हमें ऐसा लगता है जैसे सेतु बांध निर्माण में गिलहरी सदृश हमने भी कार सेवा कर दी और एक  आत्म-  संतुष्टि का भाव लिए....... कुर्सी पर पसर जाते हैं और फिर लेते हैं एक कप गरमागरम कडक चाय लिप्टन टाइगर वाली, 

कल चाय पीते पीते सोचने लगे कि एक पोस्ट लिखने के लिए कितनी मगजमारी करनी पड़ती है एक घर गृहस्थी वाले ब्लागर को, जरा आप भी सोचिये ? 

इधर बीबी के ताने "ये कम्पूटर ना हुआ मुआ सौत हो गया.....बाहर कब से आकर हमरे बड़े  भैया बैठे हैं.........जरा उनसे राम-राम ही कर लो नहीं तो क्या सोचेंगे? उनका इज्जत करना ही बंद कर दिये... और वो तिवारी जी भी बैठे हैं कब से बेचारे, उनको भी बुलाय लिए हो. अगर आपसे उनका काम  होता है तो करवाइए वरना काहे दरबार लगा रखा है फालतू......"

अब बताइए एक पोस्ट लिखने के चक्कर में हम सब भूले बैठे हैं........ और इनका भी  खटराग सुन रहे हैं. क्योंकि  कंप्यूटर   लेकर बाडी, खलिहान या तालाब नदी के किनारे तो नहीं बैठ सकते....... हम तो बैठ भी जाते लेकिन सूरज के उजाले में स्क्रीन में ठीक से दिखाई नहीं देता है...... नहीं तो किसी भी पेड के नीचे खटिया डाल लेते....... ये सब तो नहीं सुनना पड़ता.....

जब से ब्लागेरिया हुआ  है तब से हम खुद परेशान हैं...... कुछ लिखो तो लोग गरियाते हैं ना लिखो तो उलाहना आता है कि आज कल लिख क्यों नही रहे हो..... और उसके बाद बची खुची इनकी मार........ कैसे कोई बचे?  अब इतनी समस्या के बाद कोई पोस्ट लिख दी तो बड़े गुरूजी को पोस्ट अच्छी नहीं लगी. अब बताईये इसमें हमारा दोष नहीं है. 

वो पोस्ट की गलती है....... कि आपके स्वाद के हिसाब से तैयार नहीं हो सकी.........या फिर आपकी गलती है कि इस उम्र में आपकी स्वाद इन्द्रियां एकांगी हो गयी हैं एक तरह का ही स्वाद ग्रहण कर सकती हैं..... ये तो दुनिया है यहाँ तो रंग बिरंगे स्वाद  मिलेंगे...... और उसके हिसाब से ही आपको अपनी स्वाद इन्द्री का विकास करना पड़ेगा...... इसमें हमारी कौनो गलती नहीं है.

अब देखिये हम यहाँ ब्लोगिंग करने आये अच्छा भी  लिख कर देखा...........  फिर हमने सोचा कि क्यों इतने सारे शब्दों का जमावड़ा किया जाये. पाठक तो उतने ही हैं, क्यों फालतू मेहनत की जाये? कहीं से कोई इनाम तो मिलने वाला नहीं है.... फिर फालतू क्यों हल्दी घाटी का रणक्षेत्र सजाएँ....... लेकिन लोग मानते नहीं हैं......... 

जगह जगह तमाशे होते रहते हैं.......... कहीं भांगड़ा--- कहीं सुवा नाच, कहीं डिस्को.......... कहीं शास्त्रीय संगीत, कहीं नाटक प्ले और कहीं जूतम पैजार....... अब दर्शक की रूचि है कि वो देखना क्या चाहता है?........ जहाँ मनोरंजन होगा वहां दंगा फसाद भी होने की सम्भावना है......  कोई काहू में मगन कोई काहू में मगन......

कहते है कि क्या जमाना आ गया है? मुर्दे बच जाते हैं और कंधे देने वाले जल जाते हैं............. यही होता दंगा फसाद करने वाले तो भाग जाते हैं और देखने वाले फँस जाते हैं........ लाख कहें की हम दर्शक हैं भैया सब्जी लेने बाजार जा रहे थे भीड़ देखे तो रुक गए तमाशा देखने के लिए.......... लेकिन वहां कौन मानता है..... बस भीड़ में खड़े होने का मजा ये होता है कि अब खाखी से अपनी डबल रोटी गरम करवाइए......... और मौज लेने  का मौज लीजिये.......

जब हमने ब्लाग लेखन प्रारंभ किया तो हमारे पास बहुत सारी सामग्री थी जो पाठकों तक लगातार  पहुंचाते रहे. अब आपने ही लिखा था कि एक पोस्ट की उमर २४ घंटे होती है. इससे ज्यादा नहीं होती. तो हमने भी ऐसा ही लिखना शुरू कर दिया. ब्लाग ना हुआ लेटर बॉक्स हो गया........जितना डालो उतना ही खाली.......अब कहाँ से लायें आपके लिए रोज-रोज नयी सामग्री?...........

हमारे गांव के आस पास बहुत सारे नदी नाले हैं......अब उनकी ही सैर करते हैं और वहीं से आपके लिए कुछ-कुछ सामग्री लेकर आ रहे हैं........और आप नाराज हुए जा रहे है........

अब देखिये कल ही हमने अपने गांव से गुजरने वाली स्पेशल ट्रेन की फोटो ली है.........एक फोटो लगा कर दो लाईन लिखेंगे और हमारी पोस्ट तैयार..... ....... .ब्लॉग भी अपडेट हो गया और सक्रियता क्रमांक भी बना रहेगा. क्यों बेवजह मगज मारी करें.. 

अब अपने कहा था गूगल में नोल पर लिखो बातों में दम प्रतियोगिता में, उसमे भी आपकी आज्ञा मान कर लिखा. क्या हुआ? व्यर्थ ही समय  गंवाया.............. खाया पिया कुछ नहीं गिलास तोडा  बारह आना..... .और इधर आप डंडा घुमाये जा रहे हो, हिंदी को आगे बढाओ, अच्छा लिखो अच्छा लिखो. कहाँ से लिखो? कहाँ से लायेंगे इससे अच्छा? 

जो आदमी देखेगा और  उसके समक्ष जो घटेगा उसे ही तो लिखेगा. आप फालतू की हेडमास्टरी किये जा रहे हो....... हमारे से तो ऐसा ही लिखा जायेगा..... अगर अच्छा ही लिखना आता तो ब्लाग पर काहे लिखते......... पहले ही बहुत बड़े लेखक चिन्तक हो जाते....... एक ब्लागर कितनी बाधाओं को पार कर के एक पोस्ट लिख पाता है? जरा सोचिये  जरा हम पर रहम खाईये........... आपकी बड़ी कृपा होगी........