सोमवार, 31 दिसंबर 2012

रतियावन की चेली …………… ललित शर्मा

बेटा! मेरा परिवार बहुत बड़ा  है, हम 3 भाई हैं, मंझला भाई के पास खेती -किसानी के साथ ट्रैक्टर भी है। छोटा भाई भी गाँव में खेती किसानी करता है। जालमपुर के पास हमारा गाँव हैं। मेरे पिताजी के पास बहुत सम्पत्ति थी, खेत-खार, गाड़ी, गाय-गोरु। मेरी  माँ बहुत चाहती थी मुझे, बहुत मया करती थी। बहुत याद आती है मुझे उन दिनों की …… जब कुछ बड़ी हुई तो शहर में आ गई अपने काका-काकी के पास। उनका घर सिंधी और मारवाड़ी मोहल्ले में था। स्कूल से आकर काका की दुकान में बैठती थी। जब भी कोई त्यौहार आता तो मोहल्ले की  महिलाएं मेरे लिए नए कपड़े और चुड़ी-पाटला लेकर आती और मुझे दे जाती थी। मैं काकी से पूछती कि ये सब मेरे लिए क्यों लाती हैं। तो वह कहती ले ले, कोई बात नहीं। तब मुझे  नही मालूम था कि मैं ऐसी हूँ। बचपन के दिन थे वे। उसकी आँखों में आंसू भर आए याद करके। आंसू पोछते हुए पार्वती कहती जा रही थी और मैं सुनता जा रहा था। 

हमारे गाँव के पास बगौद में एक बूढी हिजड़ी रतियावन रहती थी। उसे मेरे बारे में पता चला तो वह मुझे ढूंढते हुए अपनी चेली बनाने के लिए चले आई। काका के घर में तीन दिन रही। मुझे उसने ही बताया कि हिजड़ा क्या होता है और मेरी योनि उसने ही तय की। मेरे में शरीर में स्त्री का अंश बहुत अधिक था। जिसकी जानकारी मुझे धीरे-धीरे बड़े होने पर हुई। रतियावन 3 दिन रहने के बाद चली गयी। दो महीने बाद वह मुझे ले जाने के लिए आई। तुम इस घर में नहीं रह सकती, तुम्हें हमारे साथ रहना होगा। तुम हमारी बिरादरी की हो- रतियावन ने मुझसे कहा। मैं डर के मारे काँप रही थी। कैसे इसके साथ जाऊंगी और कहाँ रहुंगी? … एक अंधेरा सा छा रहा था मेरी आँखों के सामने। पता नहीं उसने क्या जादू किया। दूसरे दिन घर से एक लोटा और एक जोड़ी कपड़े झोले में धर कर निकल गयी। वह दिन था और आज का दिन दुबारा अपने घर नहीं पहुंच सकी।  मन बहुत तड़पता है, घर की याद करके।
शहर से उसके गाँव पहुंची पैदल चल कर। उस दिन 20 किलो मीटर चले होगें। गाँव जाने के लिए मोटर गाड़ी का साधन तो होता  नहीं था इसलिए पैदल ही चलना पड़ता था। कुछ दिन गाँव में रख कर वह मुझे अपने गुरु से मिलाने के लिए रायपुर ले आई। रायपुर आने के लिए हम बगौद से पैदल छाती गाँव तक आए और वहाँ से 2 आने में मोटर चढ कर रायपुर पहुंचे। रतियावन के गुरु का नाम हाजी मुस्ताक था। उसका घर लाखेनगर के पास कहीं पर था।  मुस्ताक हाजी के गुरु का नाम गोयल था। वह बहुत पैसे वाली थी। वह मुझे अपने पास ही रखना चाहती थी। लेकिन उनका रहन-सहन मुझे पसंद नहीं था। मैं हिन्दू और वे मुसलमान। थे तो हिजड़े ही, परन्तु  मैं कभी मुसलमानों के बीच नहीं रही थी। कुछ दिन जैसे-तैसे काटे उनके पास। सुबह होते ही बधाई गाने जाते थे सज धज कर। शाम को वापस लौटते। कोई आना-दो आना देता। अधिक से अधिक सवा रुपया। साथ में चावल-दाल आदि का सीधा भी मिलता।
शहर के हिजड़े बदमाश थे, उनके साथ मेरी पटरी नहीं खाती थी। जो वे चाहते थे वह मैं करती नहीं थी। इसलिए मुझे प्रताड़ित करते थे। एक दिन पंडरी के हिजड़ों ने मिलकर मुझे मारा। जवाब में मैने भी उन्हे  मारा। उन लोगों मिलकर मेरे बाल काट दिए।  मैं भाग कर गाँव आ गयी। शहर का रवैया मुझे अच्छा नहीं लगा। जजमानों से लूट-पाट करना मुझे भाता नहीं है। जो भी मिल जाता है उससे अपना गुजर बसर कर लेती हूँ। रायपुर से आकर पहले अभनपुर में रहती थी। यहाँ पानी की बहुत अधिक समस्या थी। इसलिए मैने अपना डेरा कुरुद में लगा लिया। वहाँ खपरैल का मकान है जहाँ आराम से रहती  हूँ। जिन्दगी के दिन कट रहे हैं। बहुत जिन्दगी निकल गयी अब थोड़ी बाकी है, यह भी कट जाएगी।
मैने अपनी जिन्दगी बहुत तकलीफ़ों में काटी है। कभी खाना मिलता था कभी नहीं। कई-कई दिन भूखे पेट ही सोना पड़ता था। मेरे माँ-बाप मुझे लेने के लिए आते तो सभी हिजड़े मिलकर मुझे छुपा देते और उन्हे कह  देते कि मैं नहीं हूँ वहाँ। वे रोते-कलपते घर चले जाते। कोख का जाया कैसा भी हो, आखिर माँ ने जन्म देते वक्त उतनी ही पीड़ा सही है  जितनी अन्य बच्चों को जन्म देते वक्त हुई। यह तो भगवान तय करता है कि धरती पर किसको स्त्री, किसको पुरुष और किसको हिजड़ा बनना है। हिजड़ों के चंगुल से आजाद होने के बाद मैं अपनी माँ से मिलने के लिए गयी।  वह मुझे बहुत देर तक गले लगा कर रोती रही। उससे मिल कर चली आई मैं। जब तक माँ जिंदा थी तब तक अपने गाँव जाती थी। उसके मरने के बाद नहीं गयी। भाई-भतीजों के बच्चे अब आते हैं मेरे पास। घर पर रहते हैं, कहते हैं दादी को देखे बगैर मन नहीं मानता।

हिजड़ा होने पर समाज का तिरस्कार झेलना पड़ता है तो वही समाज सम्मान भी करता है। मेरे तो भाई-बहन, बेटे-बेटी सब जजमान  ही हैं। मुझे बहुत चाहते हैं, कोई भी उत्सव होता है  मुझे याद करते हैं। अन्य हिजड़ो की हरकतें देख कर उन्हे कोई घर में घुसने नहीं देता। पर मेरे स्वाभाव एवं बर्ताव से लोग मेरे आने की प्रतीक्षा करते हैं। हिजड़ों ने बहुत लूटा है मुझे। कई चेला बनने के लिए आए। चेला बनने के बाद मैं उन्हे अपने जजमानों के यहाँ भेंट करवाने लेकर जाती थी। कुछ दिनों में वे मुझे  और जजमानों को लुट-पाट कर भाग जाते है। कुछ दिनों पहले दो चेले तो मेरे मरने के बाद क्रियाकर्म के लिए मांग कर चंपत हो  गए। अब किसी का विश्वास नहीं रहा। झलप के पास के नरतोरा गाँव का एक चेला बहुत अच्छा है। मेरी बहुत सेवा करता है। कादर चौक रायपुर की ज्योति कहती  है कि माँ तू हमारे पास आकर रह। तेरे हम बधाई मांग कर ला देगें। अब तुझे कुछ करने की जरुरत नहीं है। जब तक शरीर चल रहा है तब तक किसी के आसरे पर मुझे नहीं रहना।
मैने घर में भगवान की स्थापना की है। जब से बूढादेव घर में विराजे हैं तब से मुझे किसी चीज की कमी नहीं है। लोग स्वयं ही आकर बधाई दे जाते हैं। अब कुछ आराम के दिन आ गए हैं। सारी जिन्दगी माँगने में ही निकाल दी। अब तो लोग हजार से लेकर 11 हजार तक दे जाते हैं। कोई सोने की चैन, अंगूठी, पायल आदि देता है। किसी चीज की कमी नहीं है। कभी तो ऐसे दिन थे कि धान कटने के बाद एक नौकर के साथ बोरी लेकर गाँव में मांगने जाती थी। दो-तीन बोरा धान तो एक गाँव से मिल जाता था। रुपया-पैसा किसी के पास नहीं होता था। सब अनाज ही देते थे। अब भगवान की कृपा से भंडार भरपुर है। भगवान जिस परिस्थिति में रखे उसी परिस्थिति में खुश रहना चाहिए। मैंने कभी किसी को बद्दुआ नहीं दी। हमेशा आशीर्वाद ही दिया। जो दे उसका भी भला जो न दे उसका भी भला। कोई बधाई गाने के 11 हजार देता है तो उसके लिए भी गाती हूं कोइ सीधा देता है उसके लिए भी बधाई गाती हूँ।
कहते-कहते पार्वती ने अपना ढोलक संभाल लिया और गाने लगी -ओ हो हो हो हो हो लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण ओ लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण सिंदड़ी दा सेवण दा सखी शाह बाज़ कलन्दर दमादम मस्त कलन्दर अली दम दम दे अन्दर दमादम मस्त कलन्दर अली दा पैला नम्बर हो मेरे बहुत सारे जजमान सिंधी है। सिंधी मारवाड़ी बहुत मानते हैं मुझे। ये जो सोने की अंगूठी है न ये मुट्टु बाबु के नाती हुआ तब मिली मुझे। बोले पार्वती खुश होकर जाना। नाराज नई होना। खूब आशीर्वाद देकर जाना, तेरा आशीर्वाद बहुत फ़लता है हमें। ये जो पायल है न ये फ़लां मारवाड़ी ने दिया है, बेटा होने की खुशी में। फ़िर वह एक बधाई गाने लगती है। देखो अब मैने तीन बधाईयाँ गाई  हैं। सब खुश रहो, आबाद रहो, भगवान बहुत देगा तुम्हे। बड़े महाराज थे तब से आ रही हूँ इस घर में। मुझे कभी कमी नहीं हुई।  पार्वती ने अपना ढोलक, झोला संभाला और अगले घर की तरफ़ चल पड़ी। 

यह पार्वती थी। मेरा जन्म होने पर यह नाच-गाकर दादा जी से बधाई लेकर गयी थी। मैं बचपन से जानता हूँ, बरसों हो गए इसे घर आते हुए। न हमारे घर का व्यवहार बदला इसके प्रति, न पार्वती का व्यवहार बदला अपने जजमानों के प्रति। वही आत्मीय बातें और अपनापन। बचपन में भी इसे देख कर मुझे कभी डर नहीं लगा। इसका व्यवहार अन्य हिजड़ों  जैसा नहीं  है इसलिए हमेशा इसके आने की आने की प्रतीक्षा रहती। कब आएगी और अपने आशीर्वाद से सराबोर करगी। आधी शताब्दी बीत रही है, त्यौहार मनाने के बाद पार्वती के आने का इंतजार सभी को रहता है। इसके लिए साड़ी और बख्शीश हमेशा तैयार रहती है। पार्वती एक वृहन्नला है, समाज में जिसे हिजड़ा-हिजड़ी, करबा-करबिन, छक्का, किन्नर आदि भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। आज वह आई तो देख कर तसल्ली हुई कि अभी जिंदा है। नहीं तो चेले ही इसके मरने की अफ़वाह उड़ा गए थे।

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

लोकतंत्र आज हुआ शर्मिन्दा




लाल किले से लोकतंत्र आज हुआ शर्मिन्दा हैं।
जागो हिन्दवासियों अपराधी अभी तक जिंदा हैं॥

एक दिन ऐसा आएगा,यह न हमने सोचा था
बाड़ ही खेत खाएगा, यह न हमने सोचा था
राज अपना सुराज हो, इसकी किसको चिंता है।
लाल किले से लोकतंत्र आज हुआ शर्मिन्दा हैं।
जागो हिन्दवासियों अपराधी अभी तक जिंदा हैं॥

बेटी के स्कूल जाते ही माँ उसकी खैर मनाती है
सही सलामत आ पाए बाप को चिंता सताती है
सड़कों पर होते बलात्कार, इसकी  किसको चिंता है
लाल किले से लोकतंत्र आज हुआ शर्मिन्दा हैं।
जागो हिन्दवासियों अपराधी अभी तक जिंदा हैं॥

सभ्यता का ढोल पीटके गार्ड पार्टिकल तक जा पहुंचे
ताकत का प्रदर्शन करके तुम परमाणु बम सजा चुके 
आदिमयुग की बर्बरता तुममे अभी तक जिंदा है।
लाल किले से लोकतंत्र आज हुआ शर्मिन्दा हैं।
जागो हिन्दवासियों अपराधी अभी तक जिंदा हैं॥

अत्याचारों की देखो अब तो, हद हो गयी है यारों
अपराधी खुले आम घुमे रहे, यह प्रजातंत्र है यारों
भारत गारत हो रहा है, इसकी किसको चिंता है
लाल किले से लोकतंत्र आज हुआ शर्मिन्दा हैं।
जागो हिन्दवासियों अपराधी अभी तक जिंदा हैं॥

घड़ियाली आंसू बहाकर, सत्ता बेवकूफ़ बनाती है
लाल किले की प्राचीरों से,बेबस सिसकियाँ टकराती हैं
अबलाओं की लाज लुट रही,इसकी किसको चिंता है।
लाल किले से लोकतंत्र आज हुआ शर्मिन्दा हैं।
जागो हिन्दवासियों अपराधी अभी तक जिंदा हैं॥

यह कृष्ण की धरती है,जिसने लाज द्रौपदी की बचाई थी
रण कुरुक्षेत्र सजा भीषण,कौरवों ने मुंह की खाई थी।
 जाग रही है पुन: कौरवी सेना,इसकी किसको चिंता है
लाल किले से लोकतंत्र आज हुआ शर्मिन्दा हैं।
जागो हिन्दवासियों अपराधी अभी तक जिंदा हैं॥

न्याय मांगने इस धरा पर खड़ा हुआ है हर बंदा 
हाथ जोड़ खड़े रहने पर पड़ता है पुलिसिया डंडा
अंग्रेजों सा बर्ताव हो रहा इसकी किसको चिंता है
लाल किले से लोकतंत्र आज हुआ शर्मिन्दा हैं।
जागो हिन्दवासियों अपराधी अभी तक जिंदा हैं॥

समय आ गया है अब, हाथों में तिरंगा उठा लो
गर भुजबल आया हो,तुम रण कुरुक्षेत्र सजा लो
नारा एक बुलंद करो, इस देश की हमको चिंता है
लाल किले से लोकतंत्र आज हुआ शर्मिन्दा हैं।
जागो हिन्द वासियों अपराधी अभी तक जिंदा हैं॥


(C)

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

तिरे मयखाने में ............... ललित शर्मा


वह जानेगा क्या मजा है पीने पिलाने में,
जो हो आया है इक बार तिरे मयखाने में।

दुश्मनों को भी गले मिलते देखा हमने,
दीवानों की महफ़िल लगी तिरे मयखाने में।

ईश्क हकीकी का मजा मिजाजी क्या जाने,
मयकशी ने दिया है पैगाम तिरे मयखाने में।

रफ़ीक भी रकीब जैसे मिलते रहे जहां में,
रकीब भी रफ़ीक हो गए हैं तिरे मयखाने में।

दीवानगी ले आती है रोज यहाँ मुझको,
वरना क्युं आता सर-ए-आम तिरे मयखाने में।

(C) तोप रायपुरी


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गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

नए साल का धमाल-जूतम पैजार बवाल ………… ललित शर्मा

चौपाल में डीजे लगाकर नया साल मनाने के लिए मोहल्ले के नवयूवक मनहरण, लीलू, चंदू, डॉक्टर, तहसीलदार, थानेदार, कोरकु, फ़ागु इत्यादि तैयारियों में जुटे हैं। (डॉक्टर, तहसीलदार, थानेदार नाम है इनके। कहीं पेशे से न समझ लेना। गाँव में जो नाम अच्छा लगता है वह रख लिया जाता है।) आपस में मिलकर चंदा किया और खाने पीने के साथ नाच-गान का पिरोगराम भी बनाया। शाम होते ही डीजे बजा कर नाच गान का रेसल शुरु हो गया। कोलावरी कोलावरी डी, मार धमा धम धमाचौकड़ी शुरु हूई। लखन काका, रमलु लोहार, चमरु यादव समेत के गाँव के मनमौजी बुजुर्ग भी मौज ले रहे थे। चमरु कका ने महुआ ढकेल रखा था। कोलाबारी ने उन्हे भी खींच लिया, धोती को उपर टांग कर वे भी शुरु हो गए छोकरों के साथ। आहो बेंदरा के मारे नइ बांचय कोलाबारी रे। उधर मद्रासी गाना और इधर चमरु कका का ठेठ देशी गाना चल रहा था। दोनों गानों का फ़्युजन हो गया और फ़्युज उड़ गया। छोकरों ने चमरु कका मना किया। अंग्रेजी में देशी मत मिलाओ रिएक्शन हो जाएगा। पर चमरु कका तो चमरु कका ठहरे।

तहसीलदार ने तमक कर चमरु कका को डीजे मंच से उतार दिया। छोकरे की धृष्टता बुढउवों को नागवार गुजरी। परबतिया भौजी भी तमाशा देख रही थी, यह किसी को हंसते-खिलखिलाते मौज करते नहीं देख सकती। उसने लखन कका का कान फ़ूंक दिया और घर की तरफ़ खिसक ली। अब लखना कका और रमलु लोहार भी चढ गए डीजे पर। डीजे वाले को निर्देश देने लगे - गाना लगा तो रे, रोंगोबोती रोंगोबोती कोनो कोरोता। डीजे बजा रहे फ़ागु ने मना कर दिया बोला - ये पुराना गाना नही है उसके पास। दुबारा फ़रमाईश हुई - त लगा पान वाला बाबू रे। अब पान वाला बाबू गीत बजने लगा। चमरु कका फ़िर डीजे पर कूद फ़ांद करने लगे। दो चार डोकरे जो टुन्न होकर बैठे थे वे भी आ लिए डांस-डांस पिरोगराम में। कहते हैं बंदर कितना भी बूढा हो जाए गुंलाटी मारना नही छोड़ता, साथ ही किसी जवान स्त्री का कान फ़ूंका डोकरा और भी खतरनाक हो जाता है। पुरानी रगों में दौड़ता महुआ कुछ अधिक ही काम कर गया। इन बुढउवों से छोकरे हलकान हो गए। चंदा देने के तो 5 रुपए इनसे निकलते नहीं। डीजे का मजा मुफ़्त में ले रहे हैं।

डॉक्टर का मुड खराब हो गया, वह बहुत देर से बुढउवों का तमाशा देख रहा था उसे सहन नहीं हुआ। बंद करो डीजे, बंद करो। इसमें डोकरों का पैसा नही लगा है। खर्चा हम करें और मुफ़्त में मजा लेने के लिए आ गए। चमरु कका ने डीजे बंद होते ही उन्हे गरियाना शुरु कर दिया। …… साले क्या समझते अपने को, तुम्हारा डीजे बंद करवा दुंगा। भिखारी समझते हो क्या मुझे, ऐसे हजार डीजे खरीद कर बजवा सकता हूँ। डीजे वाले की तरफ़ मुखातिब होकर कहा - बोल कितने का है तेरा डीजे, अभी खरीदता हूँ। रंग में भंग होते देख कर छोकरों के क्रोध की सीमा नहीं रही। उन्होने चमरु कका के अन्य बुढउ संगवारियों को डीजे से नीचे ढकेल दिया। इस धक्का मुक्की में लखन काका की धोती खुल गई और वह गिर पड़ा। किवाड़ की ओट से बस इसी समय का इंतजार परबतिया भौजी कर रही थी। जिस तरह ब्लॉग जगत में कुछ घटने के बाद फ़टाफ़ट मेल चल जाती है कमेंट प्रहार का निमंत्रण देने के लिए ठीक उसी तरह फ़ीमेल भी चल पड़ी गाँव में फ़साद करवाने के लिए।

अरे बरातु, ओ बरातु, फ़िरतु कहाँ हो रे तुम लोग। वहाँ तुम्हारे बाप को छोकरे लोगों ने मार डाला, पटक-पटक कर गरुवा जैसे धुन रहे हैं। जल्दी चल रे रोगहा, उसकी जान चली जाएगी। बस फ़िर क्या था चमरु कका टोला के सभी लोग, जिन्हे जो भी लाठी, डंडा, बेलन, चिमटा, टंगिया फ़रसा जो भी मिला, लेकर कार्यक्रम स्थल की ओर दौड़ पड़े। हो हल्ला सुनकर लड़के भी सतर्क हो गए। उन्होने भी अपने हथियार संभाल लिए और परबतिया भौजी की किरपा से नव वर्ष का कार्यक्रम स्थल कुरुक्षेत्र बन गया। जो जिसे पा रहा था, उसे ही पीट रहा था। भीषण युद्ध प्रारंभ हो गया, किसी का सिर फ़ूटा तो किसी की टांग टूटी, मार-पीट गाली गलौज सुनकर गाँव के अन्य लोग भी उठ गए। उन्होने बीच बचाव कर लड़ाई खत्म कराई। परबतिया भौजी कोने में खड़े होकर मन ही मन मुदित थी। वह जो चाहती थी वह हो गया।

सुबह होने पर ग्राम प्रंचायत की बैठक हुई, पंचपरमेश्वर रात की घटना पर सलाह मशविरा करना चाहते थे, गाँव में पहले कभी इस तरह की घटना नहीं हुई थी जिससे आपसी सद्भाव समाप्त हो जाए। सरपंच ने लड़कों से पूरा ब्यौरा लिया। उन्होने बताया कि हमारा कोई इरादा नहीं था। मार पीट करने का, चमरु कका लोग पीने के बाद जान बूझ कर मस्ती कर रहे थे। हमने उन्हे डीजे से नीचे उतारा बस था। कहीं हमने मार पीट धक्का मुक्की नहीं की इनके साथ। चमरु ने भी इस बात की हामी भर ली और दारु पीकर नाचने की अपनी गलती स्वीकार ली। सरपंच ने पूछा - फ़िर मारपीट का कारण क्या था? सभी ने कहा कि हमें नहीं मालूम। बरातू ने बताया कि परबतिया भौजी ही आकर हल्ला मचा कर गयी थी कि तुम्हारे बाप को गरुवा जैसे पटक-पटक मार रहे हैं। अब कैसे सहन होगा? कोई हमारे बाप को मारे और हम खड़े-खड़े देखते रहें।  जोश में आकर हम भी लड़कों पर पिल पड़े।

परबतिया भौजी कहाँ है? सरपंच ने पूछा। परबतिया तो ढूंढने लगे तो वह गायब मिली ठीक उसी तरह जैसे मंथरा गायब हो गई थी। राम को वनवास दिलाने के लिए कैकयी का कान भर कर। ह्म्म! यह आग उस परबतिया की लगाई हुई है। हम अपने कान को न टटोल कर कौंवी के पीछे भागते रहे। उसक दुष्परिणाम भी देख लिया। मनहरण बोला  - परबतिया भौजी का काम यही है। जब देखो तब किसी न किसी की चुगली करके लड़वाते रहती है और अपना उल्लू सीधा करती है। आगे से सभी उसका ध्यान रखना और उसकी बातों के झांसे में न आना वरना किसी की जान भी हरण करवा सकती। नए साल पर सब सकंल्प लो कि कभी आपस में नहीं लड़ेगें और सद्भाव से त्यौहार मनाएगें। डीजे का किराया सरपंच ने देने की घोषणा की और नव वर्ष धूम धाम से मनाया जाएगा। गिले शिकवे दूर कर महफ़िल खूब सजी। परबतिया भौजी की कलई खुल चुकी थी। वह किवाड़ के पीछे छिपकर रंग रंगीला कार्यक्रम देख कर किसी नयी खुराफ़ात की उधेड़ बुन में लगी थी।

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

सिनेमा सिनेमा ............ ललित शर्मा

प्राम्भ से पढ़ें 
सुरंग टीला के बाएं तरफ़ रेस्टाहाऊस के बाजु से कारीडोर बना है। जो दक्षिण दिशा में स्थित सभी उत्खनित भवनों एवं स्थानों तक लेकर जाता है। एक बार कारीडोर से चल पड़े तो बिना गाईड के सभी स्थानों का भ्रमण हो जाता है। हम भी कारीडोर से चल पड़े। बिन जांवर कैइसे भांवर छत्तीसगढी फ़िल्म में आदित्य सिंह ने छोटा सा पात्र निभाया है। बस यहीं से फ़िल्मों पर चर्चा चल पड़ी। छत्तीसगढी फ़िल्मों का सफ़र छोटा ही है। छत्तीसगढी की पहली फ़िल्म कही देबे संदेश सिनेमा घरों में चली तो खूब लेकिन कमाई नहीं कर सकी। 35 बरसों के बाद फ़िर से छत्तीसगढी सिनेमा 2000 में मोर छंईया भूईंया फ़िल्म के आने के बाद जागा। नवीन राज्य के निर्माण का समय था। छत्तीसगढी भावनाओं का जोश उफ़ान पर और उसी समय इस फ़िल्म का प्रदर्शन होना मोर छंइया भूंईया को तगड़ी सफ़लता मिली और 25 हफ़्ते चली। इसके बाद मया इत्यादि एक-दो सफ़ल फ़िल्में आई, जिन्होने व्यावसाय किया। बाकी सभी फ़िल्में पिट गयी और सप्ताह भर में ही टाकिजों से उतर गयी।

हिन्दी फ़िल्मों का भी एक जमाना था, कैसी भी फ़िल्में टाकिज में लग जाए, 25 हफ़्ते तो निकाल ही देती थीं। फ़िल्मों की सफ़लता का पैमाना उसके 25 हफ़्ते तक टाकीज में टिक जाना ही माना जाता था। टाकिजों में टिकिटें ब्लेक होती थी। लोग लुट-पिट कर भी फ़िल्म देखना चाहते थे। कईयों  की तो आदत में शुमार था फ़िल्म का पहला शो देखना। कई तो इतने दीवाने थे कि दिन भर में 4 शो देखकर आधी रात के बाद घर पहुंचते थे। लेकिन वह समय ऐसा था जब फ़िल्में समाज को ध्यान में रख कर बनाई जाती थी। खुलेपन और गंदगी का दौर नहीं था। धार्मिक, पारिवारिक एवं भुतिया फ़िल्मों के 25 हफ़्ते चलने की गारंटी होती थी। रामायण, हर हर महादेव, वीर हनुमान, संत ज्ञानेश्वर, सांई बाबा, जय संतोषी माँ, राजा भरथरी जैसी फ़िल्मों के शो हाऊस फ़ुल हुआ करते थे। साथ ही यह भी था कि धार्मिक, पारिवारिक, ऐतिहासिक फ़िल्में देखने के लिए युवाओं को घर से छूट मिल जाया करती थी साथ ही फ़िल्म की टिकिट के पैसे भी। वयस्कों के लिए रामसे बदर्स की हारर फ़िल्में मर्दानगी दिखाने का अवसर देती थी।

पारिवारिक और साफ़ सुथरी फ़िल्में बना करती थी। राजश्री बैनर्स और जैमिनी की फ़िल्में हुआ करती थी। राजश्री बैनर अब छोटे परदे पर आकर दूरदर्शन के लिए कार्यक्रम बना रहा है।  यशराज बैनर्स की पारिवारिक फ़िल्में टाकीजों में चलने की गारंटी हुआ करती थी। मैने गिनी-चुनी फ़िल्में ही देखी  हैं। जिनके नाम उंगलियों पर ही गिना सकता हूँ। तीसरी कसम, दिल अपना और प्रीत पराई, मुगले आजम, सिकंदर पोरस, धरती कहे पुकार के, गीत गाता चल, बालिका वधु, मदर इंडिया, आवारा, बंदनी, शोले, मेरा नाम जोकर, आग, बरसात(पुरानी) ज्वार भाटा, सूरज, साहब बीबी और गुलाम, काश्मीर की कली, दुश्मन, जंगली, शोले, संत ज्ञान ज्ञानेश्वर, हर हर महादेव, जय संतोषी माता, मै तुलसी तेरे आंगन की, दरवाजा, खूनी हवेली, हिन्दुस्तान की कसम इत्यादि फ़िल्में देखी। 

दूरदर्शन पर रविवार को आने वाली फ़िल्में बिना मध्यान्ह के ही लगातार देखीं। फ़िल्मों का शौक तो था, परन्तु हमारे गाँव में फ़िल्म देखने का साधन नहीं था और न ही मुझे इतनी छूट थी कि अन्य साथियों की तरह रायपुर के टाकीजों में फ़िल्म देख आऊँ। पहले गांव में कभी-कभी टुरिंग टाकिज के द्वारा फ़िल्में दिखाई  जाती थी।  कभी सरकार की तरफ़ से भी फ़िल्म दिखाने वाले आते थे। रात 8 बजे बस स्टैंड में अपनी गाड़ी खडी करके उसके पीछे परदा लगाते और प्रोजेक्टर से फ़िल्में दिखाया करते थे। एक बार तो इस मुफ़्त की फ़िल्म के चक्कर में पिटाई भी खाने की नौबत आ गयी। फ़िल्म और उपन्यास दो ऐसी चीजे हैं कि एक बार शुरु हो जाए फ़िर चाहे कितना ही काम पड़ा हो, जब तक अंजाम तक नहीं पहुच जाए तब तक वह काम होना नहीं है। इसे ही फ़िल्मों और उपन्यासों का चस्का कहते थे।

एक बार रात को पापा के लिए सरदर्द की गोली "आनंदकर" लेने जाना पड़ा रास्ते में फ़िल्म का प्रदर्शन हो रहा था। फ़िल्म का नाम था हिन्दुस्तान की कसम। फ़ौजियों की लड़ाईयाँ और बन्दुक टैंक गोले चल रहे थे। रात के लगभग 8 बजे थे। फ़िल्म देखने के लिए भीड़ लगी हुई थी। मै भी अपनी सायकिल किनारे पर लगा फ़िल्म का आनंद लेने लग गया। हीरो हीरोईन पहचान में नहीं आते थे पर गाने बड़े अच्छे चल रहे थे। हीरो के डायलाग के साथ दर्शक ताली और सीटी बजाते। समय का पता ही न चला। पापाजी मुझे ढूंढते हुए घर से बस स्टैंड आ चुके थे। उनके सिर में दर्द था, इसलिए मुझे रात में टेबलेट लाने के लिए बाड़ा से निकलने की अनुमति मिली थी। फ़िल्म देखने के चक्कर में दुकान भी बंद हो चुकी थी। अब उन्होने गुस्से में आकर दो थप्पड़ लगाए और दोनो घर आ गए। उसके बाद शायद एक सप्ताह मैं उनके सामने नहीं आया।

तब लोगों को फ़िल्मों का चस्का अधिक था। क्योंकि इसके अतिरिक्त सस्ता मनोरंजन का साधन अन्य कोई दूसरा नहीं था। फ़िल्म देखने लिए दाम भी देने पड़ते थे। फ़िर मुफ़्त का सिनेमा आ गया दूरदर्शन के रुप में। दूरदर्शन  की सौगात दिल्ली के बाद सीधे रायपुर को मिली। उस समय सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल थे। जयपुर, मुजफ़्फ़रपुर और रायपुर से एक साथ प्रसारण शुरु हुआ। हमारे गाँव के स्कूल के एक टीवी का सेट मिला। उसे चलाने के लिए एक गुरुजी नियुक्त किया गया। शाम 5 बजे ही टीवी स्कूल के बरामदे में रख दिया जाता। लोग घर से अपनी बोरियाँ, दरी आसन इत्यादि पहले से ही लाकर बिछा देते। कोई अपनी कुर्सियाँ घर से ले आता। इस तरह सारा गाँव सामूहिक रुप से फ़िल्म का आनंद उठाया करता था।

वर्तमान में इतने सारे चैनल आ गए टीवी पर कि दिन भर में सैकड़ों फ़िल्में दिखाई जाती है और आदमी हाथ में रिमोट लिए सिर्फ़ चैनल ही बदलता रहता है। मनोयोग से फ़िल्में भी नहीं देख पाता। जैसे ही कोई विज्ञापन आता है, वह चैनल बदल देता है। फ़िल्मों का चलन भी कम हो गया। शायद ही कोई फ़िल्म हो जिसने 5 हफ़्ते भी टाकिजों में पूरे किए हों। सौ-सौ करोड़ के बजट की फ़िल्में बनती हैं और धूम धाम से टाकिजों में लगती हैं। फ़िर उतरती कब हैं इसका पता ही नहीं चला। कुछ वर्षों पूर्व माधुरी दीक्षित और सलमान खान की हम आपके हैं कौन 25 सप्ताह रायपुर के टाकिज में चली। पहले तीन-चार सप्ताह तो हर हर महादेव या रामायण जैसी फ़िल्में टुरिंग टाकिजों में चल जाया करती थी। टीवी ने सिनेमा के दर्शकों का अपहरण कर लिया।

कुछ दिनों पूर्व फ़ेसबुक पर पानसिंह तोमर फ़िल्म का बहुत हल्ला मचा था। मैने सोचा कि कभी समय मिलेगा तो देख लेगें टाकिज में जाकर। कुछ दिनों के बाद टाकिज में गया तो वह फ़िल्म कब उतरी उसका पता ही नहीं चला। पहले तो फ़िल्में लगने और उसके उतरने की पूर्व सूचना रिक्शे में लगा भोंपू बता जाया करता था कि फ़लां फ़िल्म का अंतिम शो अंतिम दिन कब है? दर्शकों का स्वाद भी बम्बई के निर्माता निर्देशकों ने खराब कर दिया। आज की फ़िल्में तो सपरिवार बैठ कर देखना ही कठिन है। बच्चे देख रहे होते हैं तो माता पिता को देख कर उन्हे चैनल बदलना पड़ता है, अगर माता पिता देख रहे होते  हैं तो बच्चों के आने पर वे चैनल बदल कर समाचार देखने लग जाते हैं। फ़िल्मों का सत्यानाश  हो गया है। न देखो तो ही सुखी रहोगे।

किसी जमाने में निर्माता निर्देशक फ़िल्मों को समाज के चरित्र निर्माण का जरिया समझते थे और फ़िल्में भी उसी मर्यादा में बना करती थी और चला भी खूब करती थी। कई फ़िल्में तो साल भर तक एक ही टाकीज में चली। हिन्दी सिनेमा में एक्शन फ़िल्मों का दौर शुरु हुआ, जंजीर लेकर एंग्री यंग मैन आ गाए। टाकिजों में ढिशुम ढिशुम और मार धाड़ वाली फ़िल्मे हिट होने लगी। इसके साथ ही फ़िल्मों में धीरे से ब्लात्कार दृश्यों के रुप में सेक्स का भी तड़का लगने लगा। अधिक कमाई करने के चक्कर में दर्शकों का जायका खराब किया फ़िल्म निर्माताओं ने। अनावश्यक रुप से देह दर्शन के सीन डाले गए, नाभि प्रदर्शना हीरोईनें पैदा हो गयी। जब नाभि प्रदर्शन से काम नहीं चला तो लगभग निर्वस्त्र होकर ही पर्दे पर आने लगी। इससे समाज में विकार पैदा हुए। समाज में बढते अपराधों के मूल में आंशिक रुप से हिन्दी सिनेमा को प्रभावकारी माना जा सकता है।

फ़िल्म निर्माता नग्नता दिखाने के प्रश्न पर दलील देते दिखाई देते हैं कि जो दर्शक देखना चाहता है वही हम दिखाते हैं। यह तो वही बात हुई जैसे अंग्रेजों ने पहले मुफ़्त में चाय पीना सिखलाई फ़िर लोगों को चाय की लत लगा कर चाय बगानों से धन कमाने लगे। पहले लोगों को मुफ़्त में सिगरेट पिलाई गई, फ़िर सिगरेट बनाने की फ़ैक्टरी लगाकर लोगों की जेबें खाली कराई गयी। नैतिकता भी कोई चीज होती है, संस्कार भी कुछ होते हैं। लेकिन मुंबईया निर्माताओं की नोटों की हवस ने इन्हे सर्वभक्षी बना दिया है। इन्हे तो सिर्फ़ पैसा चाहिए। चाहे समाज का सत्यानाश  हो जाए। समाज रसातल में चला जाए। क्योंकि इनका देवता तो सिर्फ़ पैसा ही है। ऐसा नहीं है कि दर्शक इनकी चाल नहीं समझ रहे हैं। अरबों रुपए के बजट की फ़िल्में पिट रही हैं। शहरों में टाकिजों  को जमींदोज करके मॉल बनाए जा रहे हैं। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री रसातल में चली जाएगी।

मै भी किस फ़िल्मी चक्कर में पड़ गया। जाना था जापान पहुंच गए चीन सुकू सुकू, हाय मै करुं क्या सुकू सुकू। अरे भाई करना कुछ नहीं है। हम तीन तिलंगे अभी महानदी किनारे के आश्रम में पहुच गए हैं, वहाँ का हाल बस जारी हो रहा है …… कहीं जाईएगा नहीं …… मिलते हैं छोटे से विश्राम के बाद लौट कर …… सफ़र जारी है ……।

(नोट:- समस्त फ़ोटो नेट से लिए गए हैं, किसी को आपत्ति होगी तो हटा दिए जाएगें।)

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

इहै नगरिया तू देख बबुआ …………… ललित शर्मा

प्राम्भ से पढ़ें 
प्राचीन राजधानी श्रीपुर के अवशेषों को देखने पर्यटक आते हैं, जरा चर्चा वर्तमान सिरपुर गाँव की भी कर ली जाए। प्राचीन राजधानी के वैभव को तो मैने देखा नहीं परन्तु उसके खंडहरों को देखकर उसके वैभव एवं महत्ता को महसूस किया है। वर्तमान में सिरपुर ग्लोब पर 21.40’51.13 उत्तर एवं 82.10’54.07 पूर्व में रायपुर से 81 किलोमीटर की दूरी पर महासमुंद तहसील, जनपद एवं जिलान्तर्गत आता है। इसका थाना क्षेत्र तुमगाँव है। सिरपुर के ढाई किलो मीटर पर नैनी नाला, 7 किलोमीटर पर मखमल्ला एवं खरखर नाला, 8 किलोमीटर पर धसकुड़ नाला एवं 12 किलोमीटर पर सुकलई नाला है। ये नाले महानदी में जाकर मिलते हैं। सुकलई नाला महासमुंद एवं बलौदाबाजार जिले की सीमा रेखा है।
महानदी के तीर सिरपुर एवं रायकेरा  तालाब 
पुष्पा बाई यादव सिरपुर ग्राम पंचायत की सरपंच एवं शंकर ध्रुव उपसरपंच हैं। सेनकपाट एवं खमतराई सिरपुर ग्राम पंचायत के आश्रित ग्राम हैं। 20 वार्डों में विभाजित इस पंचायत में लगभग 1700 मतदाता एवं 200 घर है। जिनमें 50% गोंड़ आदिवासी 30% कवंर एवं अन्य 20% में ब्राह्मण, राजपुत, चंद्राकर (कुर्मी) सतनामी, मोची, नाई, यादव, धीवर, निषाद, गिरी-पुरी आदि निवास करते हैं। यहाँ के 50% निवासी कृषक और 50% सरकारी कर्मचारी हैं।आस-पास के गाँवों का केन्द्र होने के कारण कर्मचारियों ने सिरपुर में निवास करना उपयुक्त समझा। ऐसा कोई घर नहीं है जिसमें किराएदार न बसे हों।
सिरपुर विहंगम दृश्य 
समीप के गाँवों अमलोर, पासिद, सुकुलबाय, लंहगर, बोरिद आदि का मुख्य बाजार सिरपुर ही है। यहाँ धान की खेती के साथ सब्जी का भी व्यवसाय बड़ी मात्रा में होता है। साप्ताहिक बाजार गुरुवार को भरता है जिसमें समीपस्थ गाँवों के निवासी अपनी दैनिक आवश्यकताओं की साप्ताहिक खरीदी खरीदी करते हैं। सिरपुर के मुख्य चौराहे पर 3 होटल हैं जिनमें जलपान की व्यवस्था है। विश्राम गृह के समीप सोनवानी होटल में दोपहर एवं रात का खाना उपलब्ध हो जाता है। ग्रामीण आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए 2 मेडिकल स्टोर्स, 4 किराना दुकान, 3 कपड़ा दुकान, गाड़ी का पंचर बनाने की 2 दुकान, मोटर सायकिल मेकेनिक 2, इलेक्ट्रिकल दुकान 3 मोबाईल शॉप 4 एवं 2 फ़ोटो स्टुडियो, पैट्रोल पंप भी हैं। इस तरह आवश्यकता की समस्त सामग्री एवं सहायता सिरपुर में उपलब्ध है।
सिरपुर का रास्ता 
शैक्षणिक दृष्टि से सिरपुर के निवासियो ने अधिक तरक्की नहीं की है। विद्युत विभाग के इकलौते जुनियर इंजीनियर के अतिरिक्त कोई भी अधिकारी नहीं बन पाया। वन विभाग, पुलिस विभाग, शिक्षा विभाग में कुछ लोग सेवारत हैं। शिक्षा के साधन के रुप में 2 प्राथमिक सहशिक्षा स्कूल, 1 कन्या माध्यमिक शाला, 1 बालक माध्यमिक शाला, 1 सहशिक्षा हायरसेकेंडरी स्कूल, 1 आदिम जाति कल्याण विभाग का आश्रम एवं गुड शेफ़र्ड नामक अंग्रेजी माध्यम का स्कूल भी है। अंग्रेजी माध्यम का स्कूल होने का अर्थ है कि सिरपुर के निवासी अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा का महत्व समझ रहे हैं। स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर उप स्वास्थ्य केंद्र, आर्युवैदिक औषधालय है। यहाँ छोटी-मोटी बीमारी  का ईलाज हो जाता है। गंभीर बीमारी होने पर रायपुर या महासमुंद ही एक मात्र विकल्प है। पशुओं की चिकित्सा एवं कृत्रिम गर्भाधान के लिए पशुचिकित्सालय की व्यवस्थित है। पर्यटकों के लिए सूचना केंद्र है जिससे छत्तीसगढ पर्यटन के होटल, मोटल, एवं रिसोर्ट बुक किए जाते हैं और पर्यटन संबंधी सूचनाएं दी जाती हैं।
महानदी के तीर प्राचीन आश्रम 
सिरपुर में सरकारी कार्यालय के नाम पर ग्रामीण बैंक, सहकारी समिति, पुलिस चौकी, विद्युत सब स्टेशन, लकड़ी डीपो, पटवारी निवास, फ़ारेस्टर का निवास है। इसके अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए महासमुंद जाना पड़ता है। पर्यटकों एवं ग्रामीणों के मनोरंजन की सुविधा के लिए अंग्रेजी एवं देशी शराब के ठेके भी हैं। विडम्बना है कि शराब ठेके गाँव के मध्य में स्थित हैं और पुलिस चौकी गाँव की सीमा के बाहर। यात्रियों के निवास के लिए पीडब्लुडी का एक मात्र विश्राम गृह है। जिसके आरक्षण के लिए महासमुंद उप जिलाधीश या संबंधित विभाग के उच्चाधिकारियों से समपर्क करना पड़ता है। वर्तमान में पर्यटन मंडल द्वारा एक रिसोर्ट का निर्माण कराया जा रहा है। जो कि रिहायश से बाहर है। आवगमन की सुविधा के लिए सड़कों की  हालत बढिया है और स्कूल के खेल मैदान में एक हैलीपैड स्थित है। जिस पर विशिष्ट लोगों के आगमन हेलीकाप्टर उतारा जाता है।
हेलीपेड 
ग्राम विकास एवं पुरासामग्री की चोरी रोकने के लिए सिरपुर प्रवेश द्वार पर नाका लगाया गया है। फ़िर भी मूर्तियाँ चोरी होने की घटना हो चुकी है। नाके में प्रति 4 चक्के एवं उससे बड़ी गाड़ी के आगमन पर 10 रुपए टैक्स लिया जाता है तथा गाड़ी का नम्बर रजिस्टर में दर्ज किया जाता है। इससे पता चल जाता है कि कितनी गाड़ियाँ सिरपुर में प्रतिदिन आ रही  हैं। ग्रामवासी  कहते हैं कि विद्युत व्यवस्था में ही समस्या है। बिजली कब चली जाए और आ जाए इसका पता नहीं चलता। यह भी विडम्बना है कि जितने दिन मैंने सिरपुर में निवास किया कभी बिजली नहीं गयी। पैट्रोल-डीजल भी कभी उपलब्ध रहता है कभी नहीं। उपलब्धता की निरंतरता नहीं  है। ऐसी स्थिति में स्थानीय दुकानदारों से अधिक मूल्य पर खरीदना पड़ता है।
सिरपुर के घोंघा बसंत 
माघ माह की पूर्णमासी को सिरपुर में मेला लगता है तथा तीन दिवसीय शासकीय कार्यक्रम "सिरपुर महोत्सव"  मनाया जाता है। मेले के दौरान सभी जाति समाजों के लोग जुटते हैं और अपनी जातिय समस्याओं का बैठक करके हल निकालते हैं। सिरपुर धर्म की ही  नगरी है। यहाँ वर्तमान में लगभग सभी समाजों के अपने मंदिर एवं धर्मशालाएं हैं। जिनमें पटेल मरार समाज का राधाकृष्ण मंदिर, कोसरिया यादव समाज का कृष्ण मंदिर एवं दुर्गा मंदिर, कोसरिया पटेल समाज का दुर्गा मंदिर, निषाद समाज का राम जानकी मंदिर, बेलदार समाज का रामजानकी मंदिर, कंवर समाज का रामजानकी मंदिर, धीवर समाज  का रामेश्वर शिव मंदिर, सेन समाज का राधाकृष्ण मंदिर, सतनामी समाज की गुरु घासीदास की गद्दी, झेरिया यादव समाज का राधाकृष्ण मंदिर, कबीर पंथियों की कबीर कुटी, वैष्णव समाज का राधाकृष्ण मंदिर, साहू समाज का कर्मा मंदिर, गोंड़ समाज का प्राचीन शिव मंदिर, समलेश्वरी मंदिर एवं 2 जगन्नाथ मंदिर, रविदास मंदिर(मेला स्थल), चंडी मंदिर (गंधेश्वर महादेव मंदिर के समीप) दुर्गा मंदिर (सुरंग टीला से विस्थापित) भी हैं। इसके अतिरिक्त स्थानीय ग्रामदेवता के रुप में  महामाया, शीतला, ठाकुरदेव, सांहड़ादेव भी हैं।
 रायकेरा  तालाब 
सिरपुर में तालाबों की भरमार है, शायद ही कोई ऐसा प्राचीन मंदिर हो जिसके समीप पोखरी या तालाब नहीं है।  निस्तारी के  लिए नित्य उपयोग में आने वाले प्रमुख तालाब रायकेरा बंधवा एवं कमार डेरा तरिया हैं। रायकेरा बंधवा के विषय में जन श्रुति है कि प्राचीन काल में एक साधु था, उसके पास एक गाय थी। साधु ने स्थानीय चरवाहे को गाय चराने के लिए दी। एक दिन साधु ने चरवाहे की सेवा से उसे प्रसन्न होकर एक पत्थर दिया। चरवाहा में पत्थर तो ले लिया पर मन-मन साधु को कोसने लगा कि बरसों की सेवा के दिया तो एक पत्थर। चरवाहे सोचा कि इस पत्थर का क्या किया जाए। उसने रायकेरा तालाब में जाकर पत्थर से अपनी कुल्हाड़ी मांजा और पत्थर तालाब में फ़ेंक दिया। जब चरवाहा घर पहुंचा और कांधे से कुल्हाड़ी उतारी तो देखा वह सोने की हो गयी थी। वहा आश्चर्य चकित रह गया और अपने भाग को कोसने लगा।
महानदी के तीर पर ब्लॉगर मंडली राजीव रंजन, ललित शर्मा एवं आदित्य सिंह
उसने तालाब में जाकर खूब डुबकियाँ लगाई पर वह पत्थर नहीं मिला। यह जानकारी गाँव से प्रारंभ होकर राजा तक पहुंची। राजा के मन में पारस पत्थर प्राप्त करने के लिए लोभ जागृत हो गया। एक पारस पत्थर राजा की दशा सुधार सकता था और उसके सेना समेत राज्य को बना सकता था। यही सोच कर राजा ने चरवाहे को बुलाकर सत्यता की जाँच की। चरवाहे सारी घटना का वर्णन राजा से किया। राजा ने हाथी के पैर में लोहे की जंजीर बांध कर तालाब में घुमाने का आदेश दिया। हाथी सारे दिन तालाब को मथता रहा। शाम को जब उसे तालाब से बाहर निकाला गया तो उस लोहे  की जंजीर की एक कड़ी सोने की हो गयी थी। उसके बाद से किंवदंती चल रही है कि रायकेरा तालाब में पारस पत्थर है। यह वर्तमान सिरपुर है। जारी है … आगे पढे।

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

इन आँखों की मस्ती के ............... ललित शर्मा

प्राम्भ से पढ़ें 
इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं …… मेरे चलभाष फ़ोन ने धुन बजाई। आदित्य सिंह जी का फ़ोन था, तब कुहरी मोड़ 25  किलोमीटर दूर था। मैने उनसे कुहरी मोड़ आने के लिए कह दिया। वे सिरपुर में मेरे मेजबान थे और मैं उनका मेहमान। बस कंडक्टर को बता दिया कि कुहरी मोड़ पर मुझे उतार दे। लगभग डेढ़ बजे मैं कुहरी मोड़ पर पहुंचा। प्यास जोरों की लग रही थी। मालकिन ने घर से खाना बना कर भी दिया था। भूख अभी तक लगी नहीं थी। मोड़ पर एक छोटा सा होटल है, जहाँ उपलब्धता एवं आवश्यकता पर चाय नाश्ता मिल जाता है। यहीं मैने पानीग्रहण कर आदित्य सिंह जी को फ़ोन खड़काया। आप जिन्हें कॉल कर रहे हैं वो कवरेज एरिया के बाहर हैं जवाब फ़ोन कम्पनी की बाला ने दिया। सिरपुर की तरफ़ जाने वाली बस खड़ी थी। सवारियाँ ठसाठस भरी थी। एक बारगी तो मन  हुआ  कि इसी बस से सिरपुर चला जाए अगर सिर्फ़ पैर रखने  की  जगह मिल जाए। सोच ही रहा था तभी तूफ़ानी वेग से जापानी-भारतीय लाल वर्णसंकर घोड़े पर सवार आदित्य सिंह दिखाई दे गए।  


उन्होने घोड़े की लगाम ढीली  कर दी। घोड़ा मेरे समीप ही आकर रुका। उन्होने मुंह हिला कर मेरा अभिवादन स्वीकार किया और मेरे सवार होते ही घोड़े को एड़ लगा दी। घोड़े फ़िर वही अपनी तूफ़ानी गति पकड़ ली, वेग से चल पड़ा सिरपुर की ओर। मैं बात करता था और आदित्य सिंह जी जवाब में सिर हिला देते। मुझे कोफ़्त होने लगी …… अरे भारी पीक तो बाहर करो या फ़िर मौन व्रत ले रखा है। मेरे कहने से उन्होने ढेर सारा पीक उगल  कर धरा संग मुझे भी धन्य किया। अब बात बन गयी। कुहरी से सिरपुर के बीच बाबा किशा राम की समाधि होने की जानकारी देता बोर्ड दिखाई देता है। परन्तु इस स्थान पर कभी नहीं जा पाया। मैने आदित्य सिंह जी से यहाँ जाने की इच्छा प्रगट की। थोड़ी देर बाद हम सागौन के प्लांटेशन के बीच से होकर जंगल में बाबा किशा राम की समाधि पर पहुंचे। यहाँ पर समाधि स्थल बना हुआ है। साथ ही कांक्रीट से निर्मित एक बड़ा परिसर भी दिखाई दिया। एक हैंड पंप भी लगा हुआ  है।


बाबा किशाराम की समाधि पर देहावसान की तारीख 7/7/77 लिखी थी। संयोग  ही था जब इन्होने देहत्यागी तो  तारीख 7 जुलाई 1977 थी। इस दिन यहाँ इनके अनुयायी और परिवार के लोग आकर प्रतिवर्ष बरसी मनाते हैं एवं लंगर भंडारे का आयोजन किया जाता है। इनके विषय में कहा जाता है कि ये संत प्रवृति के थे तथा देहत्यागने के अवसर इन्होने अपने परिजनों को कहा कि उनकी देह का दाह संस्कार न किया जाए। मृत देह को घने जंगल में छोड़ दिया जाए, जिससे वह मांस भक्षी पशु पक्षियों के आहार के काम आ सके। उनकी अंतिम इच्छानुसार यही हुआ। कुछ दिनों पश्चात उनकी अस्थियों को समेट कर इसी स्थान पर समाधि बना दी गयी। यहाँ पर उनकी पत्नी की समाधि है। लोग यहाँ पहुंच कर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। हमारी सिरपुर यात्रा का दूसरा चरण यहीं से प्रारंभ हो चुका था।

हम घर पहुंचे तो मेजबान के सारे परिजन छुट्टियों के पश्चात महासमुंद लौट रहे थे। घर पर सामान रख कर हम पैदल ही सिरपुर भ्रमण पर चल पड़े। सिरपुर गाँव के बीच में बस स्टैंड हैं जहाँ कसडोल रायपुर महासमुंद जाने वाली बसें आकर सवारी लेती हैं। रायपुर के लिए सीधी बस सुबह और दोपहर को ही मिलती है। इसके बाद महासमुंद जाने वाली बसों में तुमगाँव मोड़ तक या कुहरी मोड़ तक आना पड़ता फ़िर वहाँ से रायपुर-महासमुंद या सराईपाली-रायपुर मार्ग की बसें या टैक्सियाँ मिल जाती है। पान दुकान पर पहुंचने पर वह पहचान जाता है क्योंकि इससे पहले भी दो तीन बार पहले भी ताम्बुल सेवन यहीं से हो चुका है। 

यहीं पर अमलोर में पदासीन प्रधानाध्यापक प्रद्युम्न प्रसाद पाण्डे जी से भेंट होती है। सोनवानी भौजी के होटल से  चाय ग्रहण कर हम तीनों सिरपुर के पुरावशेषों को देखने चल पड़ते हैं। महासमुंद से शैलेंद्र दुबे ने भी फ़ेसबुक पर अपने सिरपुर पहुंचने का जिक्र किया था। उनकी भी हमें प्रतीक्षा थी और वे चलभाष पर समपर्क में थे। महासमुंद निवासी शैलेन्द्र इतिहास और पुरातत्व में काफ़ी रुचि रखते हैं तथा घुमक्कड़ी के साथ स्टेज पर भी अपनी कला दिखाते हैं अर्थात रंगकर्मी हैं, प्ले भी करते हैं। इनसे मेर्री मुलाकात फ़ेसबुक पर हुई थी। इन्होने संदेश दिया था कि सिरपुर पहुंचने का समाचार इन्हे दूँ तो वे सिरपुर भेंट करने आ जाएगें………जारी है  …………

रविवार, 23 दिसंबर 2012

आरंग ........... ललित शर्मा

सिरपुर की ओर 18/11/12
प्राम्भ से पढ़ें 
दिनांक-18 नवम्बर 2012, समय-12.15 PM रायपुर तेलीबांधा रिंगरोड़ चौराहे पर मुम्बई से कलकत्ता जाने वाली सड़क के किनारे खड़ा था बस की प्रतीक्षा में। घर से सिरपुर के लिए तो निकले काफ़ी देर हो गयी थी । मुझे सिरपुर पहुंचाने वाला सार्वजनिक साधन नहीं मिला था। वैसे भी सिरपुर के लिए दिन में दो ही बार है रायपुर से सीधी सुविधा। इसके अतिरिक्त सरायपाली, बसना, पिथौरा जाने वाली बस से हम कुदरी मोड़ तक जा सकते हैँ, वहाँ से सिरपुर की 17 किलोमीटर की दूरी अन्य किसी साधन से तय करनी होती है। निजी वाहन के सिरपुर कई बार जाना हुआ। लेकिन सार्वजनिक वाहन का सुख लेने संकल्प लिए मैं अपने निर्णय पर अडिग था। विचारों में खोया हुआ बस की प्रतीक्षा में था, तभी हाईवे पर एक कार ने मेरे पास आकर ब्रेक लगाए। चींईईईईई उसके टायरों की आवाज सुनकर मेरी तंद्रा भंग हुई।जान-पहचान का एक नवयुवक था - आप यहाँ कैसे खड़े हैं चाचा जी, आपको जहाँ तक जाना  हो, कहिए तो मैं छोड़ दूँ? उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए कहा। नहीं यार, तुम काहे तकलीफ़ करते हो। मुझे सिरपुर जाना है, थोड़ी देर में कोई बस आती होगी, चला जाऊंगा। मुझे सिरपुर में दो-तीन दिन ठहरना है। मेरी बात सुन कर वह फ़र्राटे से निकल गया, अगर मैने कहीं हाँ कह दी होती तो लेने के देने पड़ जाते 160 किलीमीटर का चक्कर पड़ जाता। तभी सराईपाली की बस आ जाती है और मैं उसमे सवार हो जाता हूँ। बस सवारियों से खचाखच भरी हुई थी। दरवाजे के पास की सीट पर दो पतले-दुबले नवयुवक बैठे थे। लो बात बन गयी, मैं उनसे बैठने के लिए थोड़ी जगह बनाने कहता हूँ वे सहर्ष तैयार हो जाते हैं। दो व्यक्तियों की सीट पर हम तीन सवार हो जाते हैं।

भांड देवल मंदिर आरंग 
सफ़र जारी था, बस कंडक्टर ने मुझसे कुहरी मोड़ तक का किराया 50 रुपया लिया। मेरे बगल की सीट पर दो  महिलाएँ बैठी थी। उनके साथ लगभग डेढ़ साल का एक बालक भी था। बड़ा नटखट, वह मेरी गोदी में आकर खेलने के लिए लपक लिया। अरसा हो गया था किसी बच्चे को खिलाए। कभी वह मेरा चश्मा खींचता तो कभी नाक। खूब मस्ती करता रहा। फ़िर फ़र्श पर खेलने की जिद करने लगा। दरवाजा पास होने के कारण उसे फ़र्श पर छोड़ना खतरे से खाली न था। अगले स्टॉप पर एक सवारी और चढ़ी। उस महिला की पहचान सवारी से थी। औपचारिक अभिवादन के पश्चात सवारी ने मुझसे नमस्ते की और महिला से पूछा कि – ये आपके पति हैं क्या? शायद उसे बच्चे को मेरी गोद मे खेलते देख कर गलतफ़हमी हो गयी। महिला ने सकपका कर न में जवाब दिया तो सवारी झेंप गयी। फ़ोन आने पर बच्चे को मैने उसकी माँ को लौटा दिया।मंदिर हसौद पार होने के बाद राजा मोरध्वज की नगरी आरंग पहुंचे। यह रायपुर कलकत्ता राष्ट्रीय राजमार्ग पर 30 किलोमीटर की दूरी पर महानदी के तट पर स्थित प्राचीन पौराणिक एवं ऐतिहासिक नगर है। कभी यहाँ राजा मोरध्वज का शासन था। इसका एक पुत्र ताम्रध्वज था जिसके आरे से चीरने का उल्लेख पौराणिक किवंदंतियों में मिलता है। इसी से इस नगरी का नाम आरंग पड़ा। यह मंदिरों की नगरी है। यहाँ के प्रमुख मंदिरों में 11वीं-12वीं सदी में निर्मित भांडदेवल जैन मंदिर है। इसके गर्भगृह में तीन तीर्थकंरों की काले ग्रेनाईट से निर्मित प्रतिमाएं हैं। महामाया मंदिर में 24 तीर्थकरों प्रतिमाएं दर्शनीय हैं। बागदेवल, पंचमुखी हनुमान तथा दंतेश्वरी मंदिर यहां के उल्लेखनीय मंदिर हैं। नदी किनारे स्थित होने से जल के कटाव से पुरातात्विक सामग्रियाँ प्राप्त होते रहती हैं।  

जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ आरंग 
इस नगर को राजर्षि तुल्य कुल वंश की राजधानी होने के गौरव प्राप्त है। यहाँ प्राचीन मंदिर एवं बसाहट के अवशेष प्राप्त होते हैं। यहाँ से ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है। उससे इस वंश के 6 शासकों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। इस वंश के अंतिम शासक भीमसेन द्वितीय ने यह ताम्रपत्र सुवर्ण नदी से जारी किया था। भीमसेन ने अपने माता-पिता की पूण्य स्मृति में भादो माह की अठारहवीं तिथि को हरि स्वामी और बोप्प स्वामी को भट्टापालिका  नामक ग्राम दान में दिया था। ताम्रपत्र के अनुसार इनकी वंशावली में शुरा, दयित प्रथम, विभिषण, भीमसेन प्रथम, दयित वर्मा द्वितीय, भीमसेन द्वितीय नाम उल्लेखित हैं। शुरा के वंशजों द्वारा गुप्त संवत का प्रयोग से अनुमान है कि वे गुप्तों के अधीन रहे होगें। राजर्षि तुल्यकुल वंश का काल 601 वीं से माना गया है।सहयात्रियों की बातचीत से जाहिर हुआ कि वे शिक्षा विभाग से संबंधित हैं तथा दीवाली मनाने के पश्चात अपने मुख्यालय को जा रहे हैं। रायपुर सराईपाली मार्ग पर बस द्वारा यह सफ़र मैने पहली बार किया था। बस यात्रा के आनंद के साथ सवारियों के वार्ता लाप और गतिविधियों का भरपुर मजा ले रहा था। अगर यह आनंद न हो तो सफ़र नीरस हो जाएगा। अगले स्टॉप पर बस रुकती है और कुछ सवारियाँ चढती हैं। दीवाली के बाद भाई दूज मना कर लौटने वाली सवारियाँ थी। जींस-टॉप एवं चलभाषधारी दो लड़कियाँ मेरे समीप आकर खड़ी हो जाती हैं क्योंकि सीटें तो रायपुर से ही भर चुकी थी। कान में  हेड फ़ोन लगा कर एक गानों का मजा ले रही थी। तभी दूसरी का चलभाष बजा। उसने पहले स्पीकर चालु करके अपनी बातचीत को सार्वजनिक कर दिया। 

हेलो……, क्या बात है? कैसे मुझे बिना बताए आ गयी डार्लिंग।  सुनते ही लड़की सकपका गयी। मेरी तरफ़ देखा और जोर से चिल्लाई…तेरे को कितने बार कहा कि मुझे फ़ोन न लगाए कर। …… अरे का  होगे? काली त बने गोठियावत रहे। …… अभी बस मा हंव गाँव जात हंव। संझा के फ़ोन लगाबे …… कह कर उसने बातचीत को विराम देते हुए मेरी तरफ़ देखा। मैं देख रहा था चलभाष क्रांति का असर। अभी तो सिर्फ़ बीपीएल एपीएल वालों को चलभाष बांटने की मनमोहनी घोषणा मात्र हुई है। अगर चलभाष बांट दिए जाएगें तो और भी विप्लवकारी परिवर्तन हमें गाँव-गाँव में देखने मिलेगें। पिछले लोकसभा चुनाव में भ्रमण के दौरान एक स्थानीय व्यक्ति भी मेरे साथ भ्रमण करता था। उसके फ़ोन पर दिन भर लड़कों के फ़ोन आते थे, फ़ोन उठाने पर वे बात नहीं करते थे। उसकी माध्यमिक कक्षाओं में अध्ययनरत बेटी थी। परेशान होकर मैने दूसरे दिन उसे नया सिम दिला दिया। रात घर गया और सुबह से फ़िर उसके चलभाष पर नए सिम में भी वही नम्बर आने लगे। अर्थात उसकी बेटी ने ही रात भर में अपने सारे फ़्रेंडस को नया नम्बर बांट दिया। यह  चलभाष क्रांति हो रही है। लड़कियों एवं महिलाओं के नम्बर सार्वजनिक होने पर अवांछित लोगों के फ़ोन कॉल का सामना करना पड़ता है।

कोडार जलाशय 
भाड़ में जाए ये लोग और इनकी चलभाष संस्कारयुक्त पीढी। वर्तमान में किसी को अपना समझ कर मुफ़्त की सलाह देना भी ठीक नहीं है। क्या पता कहीं बुरा मानने पर सलाहकर्ता का ही मुंडन हो जाए। घर्रर घर्रर घर्रर करती बस आगे बढ रही थी। लड़की के चलभाष पर अन्य कोई कॉल आई, कॉल देखते ही उसके होठों पर नौगजी मुस्कान तनी, वह बतरस में रस लेने लगी और हम भी फ़ोन रस में। आगे चल कर कोड़ार बांध दिखाई देने लगा। कभी निर्माण  के दौरान इस बांध के खूब चर्चे थे। वर्तमान महासमुंद जिले में स्थित इस जलाशय को शहीद वीरनारायण सिंह जलाशय के नाम से  जानते हैं। 1976 में इस बांध की परियोजना का आरंभ कौंआझार ग्राम की भूमि पर हुआ। इसके निर्माण से 5 गाँव पूरी तरह से एवं 11 गाँव आंशिक रुप से प्रभावित हुए। बांध का दिलकश नजारा बस से ही दिखाई देता है। इसके समीप ही खल्लारी माई का मंदिर बना हुआ है। इसका शेरमुखी प्रवेश द्वार राजमार्ग 6 से ही दिखाई देता है। ......... सफ़र जारी है ........   

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

रमई पाट में गर्भवती सीता ........ ललित शर्मा


पुजारी प्रेम सिंह एवं यायावर 
त्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 84  किलो मीटर दक्षिण-पूर्व दिशा में  20.57,06.28" उत्तर एवं 82.07,51.56" पूर्व में फ़िंगेश्वर से छूरा मार्ग पर सोरिद ग्राम के समीप रमई पाट है। सोरिद गॉंव पहुचने पर दाहिने हाथ की तरफ़ रमई पाट जाने का मार्ग  है। थोड़ी सी चढ़ाई पर पहाडियों के बीच रमई पाट देवी का मंदिर सुरम्य वन क्षेत्र में है। यहॉं कई मंदिर हैं, जिनमें प्रमुख शिवालय एवं रमई पाट देवी का स्थान है। इस स्थान पर पहुंचने के लिए पक्की डामर की सड़क बनी हुई है। सड़क का अंत मंदिर के द्वार पर ही पहुंच कर ही होता  है। यहॉं पहुचने पर मुझे कहीं ऊंचे स्थान से पानी गिरने की आवाज आती है। थोड़ी ही दूर पर आम के पेड़ की जड़ से रिस कर बहता हुआ जल एक कुंड में इकट्ठा हुआ दिखाई देता है। कुंड का यही निर्मल जल लगभग 100 फ़ुट जमीन के भीतर चल कर आगे एक चट्टान से नीचे गिरता है। जिससे ध्वनि उत्पन्न होती है।

गूगल से रमई पाट 
यहॉं मेरी मुलाकात बखरी में घास नींद रहे पुजारी प्रेम सिंह ध्रुव से होती है। प्रेम सिंह का परिवार इस स्थान की देखभाल कई पीढियों से कर रहा है। दुलार सिंह, झरियार सिंह, सुमेर सिंह के बाद चौथी पीढी में  में प्रेम सिंह का स्थान आता है। कदम-कदम पर गाँवों में कहानियॉं, किंवदन्तियॉं बिखरी हैं। ग्रामीण जन-जीवन मे इनका अत्यधिक मह्त्व है। दिन भर की हाड़ तोड़ मेहनत के बाद इन कहानियों किस्सों का रोमांच ही उर्जा देता है तथा ग्रामीणों के मनोरंजन का साधन भी कहानियॉं होती हैं। ग्रामीण अंचल के किस्से कहानी कोरी गप्प नहीं होते। उनके पीछे कभी कोई ठोस आधार भी दिखाई देता  है। एक कहानी मुझे छत्तीसगढ़ के फ़िंगेश्वर क्षेत्र के सोरिद ग्राम के समीप वनांचल में स्थित रमई पाट देवी मंदिर  के पुजारी प्रेम सिंह ध्रुव ने सुनाई।

काल भैरव 
मंदिर  के प्रांगण में खुले आसमान के नीचे काल भैरव अपने स्वान के साथ विराजमान हैं। समीप ही महिलावेश में हनुमान जी अहिरावण को अपने पैर से दबाए हुए खड़े हैं। मंदिर के सामने ही एक पाषाण विग्रह पर बहुत सारी लोहे की सांकल बंधी हुई हैं, इसे प्रेम सिंह कचना धुरवा देव बताते हैं। मनौती पूर्ण होने पर इनको सांकल चढाई जाती है। गर्भ गृह के द्वार पर सिंह प्रतिमा स्थापित है। इसे नरसिंह माना जाता है। गर्भ गृह में प्रस्तर की रामचंद्र, सीता एवं विष्णु की तीन मूर्तियॉं एक ही स्थान पर स्थापित हैं। रामचंद्र एवं सीता की मूर्ति को चांदी के मुकूट पहनाए हुए हैं। समीप ही प्रस्तर रुप  में बैगा-बैगीन भी विराजमान हैं। गर्भ गृह से थोड़ा अलग हट कर शिवालय भी बना हुआ है, जहां काले पत्थर का शिवलिंग स्थापित है।

शिव लिंग 
सभी देवी-देवता एक ही स्थान पर विराजित होने से थोड़ा कौतुहल मेरे मन में जागृत होता है। प्रेम सिंह चटाई बिछाते हैं और हमारी चर्चा प्रारंभ होती है। प्रेम सिंह कह्ते हैं कि जब रामचंद्र जी ने सीता का त्याग किया, तब वे गर्भवती थी। त्यागने पर लक्ष्मण उन्हें इस सघन वन में लाकर छोड़ गए। यहॉं सीता जी अकेली रह गयी। मन में सीता के प्रति अनुराग होने पर भगवान राम ने लक्ष्मण से उनका हाल-चाल पूछा। कुशलता बताने पर उनका मन नहीं माना। इधर भगवान द्वारा सीता जी के परित्याग करने पर देवलोक में हलचल हो रही थी। सभी देवता सीता जी से मिलने के लिए चल पड़े। भगवान राम भी व्यथित मन से सीता जी से मिलने के लिए यहॉं आए।

रामचंद्र जी, सीता जी, विष्णु जी 
सबसे पहले भगवान राम पहुंचे, इनके पीछे-पीछे विष्णु जी, शिव जी, नरसिंह जी, गरुड़ जी, काल भैरव जी, हनुमान जी भी पहुंचे। विष्णु जी ने भगवान राम को यहॉं पहले पहुंचे देखकर पूछ लिया कि परित्याग करने के पश्चात भी आप यहॉं कैसे आए? भगवान राम ने सीता के प्रति अपने अनुराग को उनसे मिलने आने का कारण बताया। भगवान राम तो सीता जी से मिल कर चले गए, पर बाकी देवता लौटना  नहीं चाह्ते थे। इसलिए सीता जी ने उन्हें अपने समीप ही रहने का स्थान दिया। तभी से सारे देवता इसी स्थान पर विराजमान हैं। हनुमान जी स्त्री रुप में होने के कारण बताते हुए कहते हैं कि यह रुप हनुमान जी  ने राम एवं लक्ष्मण को अहिरावण से मुक्त कराने दौरान धरा था। वे इसी रुप में यहॉं पर स्थापित हैं। कुछ दिनों पश्चात वाल्मिकी ॠषि का इस स्थान पर आगमन हुआ, उन्होने सीता माता को पहचान लिया और उन्हे अपने तुरतुरिया आश्रम में ले गए। जहॉं लव-कुश का जन्म हुआ। 

पेट पर हाथ रखे सीता जी 
इस स्थान की विशेषता यह है कि यहॉं गर्भवती सीता की सतत पूजित प्रतिमा स्थापित है। पुराविज्ञानी श्री जी एल रायकवार से चर्चा करने पर उन्होने बताया कि प्रतिमा विज्ञान में गर्भवती स्त्री की मूर्ति नहीं बनाई जाती। अगर किसी कारणवश बना भी दी जाती है तो उसकी पूजा नहीं होती। ऐसी प्रतिमा अपूजनीय होती है। गर्भवती सीता की प्रतिमा के विषय में मेरी अन्य विद्वानों से भी चर्चा हुई, उन्होने इस तरह की अन्य कोई प्रतिमा अन्य किसी स्थान पर पाए जाने अपनी अनभिज्ञता जाहिर की। इस मंदिर की लगभग सभी मूर्तियॉं खंडित हैं जिनकी बाद में सीमेंट से मरम्मत की गई है। इन देवताओं के अतिरिक्त यहॉ पर घाट में कुंवर बिछलवा, बूड़ती में शीतला माई (पश्चिम दिशा) उगती में ठाकुर ठकुराईन (पूर्व दिशा) बरमदेव, बरदे बाबा एवं घटुरिया देव आदि स्थानीय देवी देवता भी निवास करते हैँ।

नरसिंह 
सीता जी का रमई पाट नाम पड़ने के पीछे की मान्यता है कि उनका परित्याग होने के पश्चात इस स्थान में आने के कारण सभी देवता यहीं रम गए। इसलिए इस स्थान को रमई पाट कहा जाने लगा। इन मूर्तियों को प्रेम सिंह 9वीं, 10 वीं शताब्दी की बताते हैं, पर मूर्तियों का शिल्प देख कर लगता नहीं है कि यह मूर्तियां इतनी पुरानी होगीं। शायद फ़िंगेश्वर के फ़णीश्वर महादेव सी प्राचीनता दर्शाने के लिए इन्हें  9वीं, 10 वीं शताब्दी का बताया जा रहा है। बाल बंधने के समय (गर्भ पूजा तिहार) एवं हनुमान जयंती को यहॉं से वर्ष में दो बार जात्रा निकाली जाती है। तब पूजा के समय फ़िंगेश्वर राज के राजा-रानी आकर पूजा करते हैं तथा बकरे की बलि भी दी जाती है। पहले तो यहीं मंदिर के सामने बलि दी जाती थी। इसे राजा ने बंद करवा दिया। इसलिए यहॉं पर सिर्फ़ बकरे को चावल चबवाया जाता है। बलि थोड़ी दूर ले जाकर दी जाती है। लोग अपनी मनौती पूर्ण होने पर बकरे की बलि देते हैं। सदियों से यह परम्परा चल रही है और मान्यतानुसार आगे भी चलते रहेगी।
स्त्री वेश में हनुमान 

शनिवार, 24 नवंबर 2012

अदृश्य रहस्यमय गाँव टेंवारी

रती पर गाँव-नगर, राजधानियाँ उजड़ी, फिर बसी, पर कुछ जगह ऐसी हैं जो एक बार उजड़ी, फिर बस न सकी। कभी राजाओं के साम्राज्य विस्तार की लड़ाई तो कभी प्राकृतिक आपदा, कभी दैवीय प्रकोप से लोग बेघर हुए। बसी हुयी घर गृहस्थी और पुरखों के बनाये घरों को अचानक छोड़ कर जाना त्रासदी ही है। बंजारों की नियति है कि वे अपना स्थान बदलते रहते हैं, पर किसानों का गाँव छोड़ कर जाना त्रासदीपूर्ण होता है, एक बार उजड़ने पर कोई गाँव बिरले ही आबाद होता है। गरियाबंद जिले का केडी आमा (अब रमनपुर )गाँव 150 वर्षों के बाद 3 साल पहले पुन: आबाद हुआ। यदा कदा उजड़े गांव मिलते हैं, यात्रा के दौरान। ऐसा ही एक गाँव मुझे गरियाबंद जिले में फिंगेश्वर तहसील से 7 किलो मीटर की दूरी पर चंदली पहाड़ी के नीचे मिला।
गूगल बाबा की नजर से 
सूखा नदी के किनारे चंदली पहाड़ी की गोद में 20.56,08.00" उत्तर एवं 82.06,40.20" पूर्व अक्षांश-देशांश पर बसा था टेंवारी गाँव। यह आदिवासी गाँव कभी आबाद था, जीवन की चहल-पहल यहाँ दिखाई देती थी। अपने पालतू पशुओं के साथ ग्राम वासी गुजर-बसर करते थे। दक्षिण में चंदली पहाड़ी और पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती सूखा नदी आगे चल कर महानदी में मिल जाती है। इस सुरम्य वातावरण के बीच टेंवारी आज वीरान-सुनसान है। इस गाँव के विषय में मिली जानकारी के अनुसार इसे रहस्यमयी कहने में कोई संदेह नहीं है। उजड़े हुए घरों के खंडहर आज भी अपने उजड़ने की कहानी स्वयं बयान करते हैं। ईमली के घने वृक्ष इसे और भी रहस्यमयी बनाते हैं। ईमली के वृक्षों के बीच साँपों बड़ी-बड़ी बांबियाँ  दिखाई देती हैं। परसदा और सोरिद ग्राम के जानकार कहते हैं कि गाँव उजड़ने के बाद से लेकर आज तक वहां कोई भी रहने की हिम्मत नहीं कर पाया।
रमई पाट के पुजारी प्रेम सिंह ध्रुव

ग्राम सोरिद खुर्द से सूखा नदी पार करने के बाद इस वीरान गाँव में अब एक मंदिर आश्रम स्थित है। रमई पाट के पुजारी प्रेम सिंह ध्रुव कहते हैं- जब हम जंगल के रास्ते से गुजरते थे तो एक साल के वृक्ष की आड़ में विशाल शिवलिंग दिखाई देता था। जो पत्तों एवं घास की आड़ छिपा था। ग्रामीण कहते थे कि उधर जाने से देवता प्रकोपित हो जाते हैं इसलिए उस स्थान पर ठहरना हानिप्रद है। इसके बाद मंगल दास नामक साधू आए, उनके लिए हमने पर्णकुटी तैयार की। पहली रात को ही हमे भयावह नजारा देखने मिल गया। हम दोनों एक चटाई पर सोये थे, बरसाती रात में शेर आ गया और झोंपड़ी को पंजे से खोलने लगा। हम साँस रोके पड़े रहे और भगवान से जान बचाने की प्रार्थना करते रहे। छत की तरफ निगाह गयी तो वहां बहुत बड़ा काला नाग सांप लटक कर जीभ लपलपा रहा था। हमारी जान हलक तक आ गयी थी, भगवान से अनुनय-विनय करने पर दोनों चले गए। मैं झोंपड़ी से निकल कर शिवलिंग के सामने दंडवत हो गया। उस दिन के पश्चात इस तरह की घटना नहीं हुयी।
टानेश्वर नाथ महादेव

आश्रम में पहुचने पर भगत सुकालू राम ध्रुव से भेंट होती है, शिव मंदिर आश्रम खपरैल की छत का बना है, सामने ही एक कुंवा है। कच्ची मिटटी की दीवारों पर सुन्दर देवाकृतियाँ बनी हैं। शिव मंदिर की दक्षिण दिशा में सूखा नदी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह शिवलिंग प्राचीन एवं मान्य है। इसे टानेश्वर नाथ महादेव कहा जाता है, यह एकमुखी शिवलिंग तिरछा है। कहते हैं कि फिंगेश्वर के मालगुजार इसे ले जाना चाहते थे, खोदने पर शिवलिंग कि गहराई की थाह नहीं मिली। तब उसने ट्रेक्टर से बांध कर इसे खिंचवाया। तब भी शिवलिंग अपने स्थान से टस से मस नहीं हुआ। थक हार इसे यहीं छोड़ दिया गया। तब से यह शिवलिंग टेढ़ा ही है। मंगल दास बाबा की समाधी हो गयी। वे ही यहाँ रात्रि निवास करते थे, उसके बाद से आज तक यहाँ रात्रि को कोई रुकता नहीं है। अगर कोई धोखे से रुक जाता है तो स्थानीय देवी-देवता उसे विभिन्न रूपों में आकर परेशान करते हैं, डराते हैं। सुकालू भगत भी शाम होते ही अपने गाँव धुडसा चला जाता है।
सुकालू भगत

बाबा मंगल दास के पट्ट शिष्य परसदा निवासी भूतपूर्व सरपंच जगतपाल इस गाँव के उजड़ने का बताते हैं कि टेंवारी गाँव में इतने सारे देवी देवता इकट्ठे हो गए हैं कि त्यौहार के अवसर पर एक कांवर भर के उनके नाम के दिए जलाने पड़ते हैं। किसी देवता की भूलवश अवहेलना होने पर उसके उत्पात गाँव में प्रारंभ हो जाते थे। महिलाओं के मासिक धर्म के समय की अपवित्रता के दौरान अगर कोई महिला घर से बाहर निकल जाती थी तो ग्रामवासियों को दैवीय प्रकोप झेलना पड़ता था। बीमारी हो जाना, रात को जानवरों का बाड़ा स्वयमेव खुल जाना, मवेशियों को शेर, बुंदिया द्वारा उठा ले जाना, अकस्मात किसी की मृत्यु हो जाना इत्यादि दैवीय प्रकोपों को निरंतर झेलना पड़ता था। इससे बचने के लिए मासिक धर्म के दौरान पुरुष, महिलाओं के स्नान के लिए स्वयं पानी भर के लाते थे। सावधानी बरतने के बाद भी चूक हो ही जाती थी। तब फिर से दैवीय प्रताड़ना का सिलसिला प्रारंभ हो जाता था।
घरों के अवशेष 

एक समय ऐसा आया की सभी ग्रामवासियों ने यहाँ से उठकर अन्य स्थान पर निवास करने का निर्णय किया।  भागवत जगत "भुमिल" कहते हैं कि सोरिद मेरी जन्म भूमि है, लगभग सन 1934 में टेंवारी के ग्राम वासी सोरिद खुर्द, नांगझर एवं फिन्गेश्वरी  में विस्थापित हुए, 1920 के राजस्व अभिलेखों में इस गाँव का उल्लेख मिलता है। अदृश्य शक्तियों के उत्पात इस वीरान गाँव में तहलका मचाते हैं। यहाँ के शक्तिशाली देवता बरदे बाबा हैं, इनका स्थान चंदली पहाड़ी पर है। जगतपाल कहते हैं कि यदि इस पहाड़ी पर कोई भटक जाता है तो बरदे बाबा उसे भूखा नहीं मरने देते। उसे जंगल में ही चावल, पानी और पकाने का साधन मिल जाता है। यहाँ के समस्त देवी देवताओं की जानकारी तो नहीं मिलती पर मरलिन-भटनिन, कोडिया देव, कमार-कमारिन, कोटवार, धोबनिन, गन्धर्व, गंगवा, शीतला, मौली, पूर्व दिशा में सोनई-रुपई जानकारी में हैं तथा नायक-नयकिन यहाँ के मालिक देवी-देवता हैं।
ईमली के पेड़ों के बीच अवशेष 

जगतपाल कहते हैं कि जब मैं आश्रम में रुकता था तो तरह-तरह के सर्प दिखाई देते थे। दूध नाग, इच्छाधारी नागिन, लाल रंग का मणिधारी सर्प दिखाई देता था, वह अपनी मणि को उगल कर शिकार करता है, अगर मैं चाहता तो उसकी मणि को टोकनी से ढक भी सकता था पर किसी अनिष्ट की आशंका से यह काम नहीं किया। आश्रम में रात को सोनई-रुपई स्वयं चलकर आती हैं। मैंने कई बार देखा है। इस स्थान पर सिर्फ मंगल दास बाबा ही टिक सके, अन्य किसी के बस की बात नहीं थी। बाबा ने बताया था कि एक बार 12 लोगों ने मिल कर खुदाई करके सोनई-रुपई को निकल लिया था, पर ले जा नहीं सके। यहाँ कोई चोरी करने का प्रयास करता है उससे स्थानीय अदृश्य शक्तियां स्वयं निपट लेती है। कहते हैं कि इस पहाड़ी की मांद में सात खंड हैं, पहले खंड में टोकरी-झांपी, दुसरे खंड में नाग सर्प, तीसरे में बैल , चौथे में शेर, पांचवे में सफ़ेद हाथी, छठे में देव कन्या एवं सातवें में बरदे बाबा निवास करते हैं।
बाबा मंगल दास के पट्ट शिष्य परसदा निवासी भूतपूर्व सरपंच जगतपाल

टानेश्वर नाथ शिवजी के विषय में मान्यता है कि जब इसके पुजारी धरती पर जन्म लेते हैं तब यह (भुई फोर) धरती से ऊपर आकर प्रकाशित होते हैं, इनके पुजारी नहीं रहते तो ये फिर धरती में समाहित हो जाते हैं। साथ ही किंवदंती है कि टानेश्वर नाथ महादेव के दर्शन करने से सभी पाप एवं कल्मषों का शमन हो जाता है। टेंवारी गाँव उजड़े लगभग एक शताब्दी बीत गयी पर दूबारा किसी ने इस वीरान गाँव को आबाद करने की हिम्मत नहीं दिखाई। ईश्वर ही जाने अब टेंवारी कब आबाद होगा? शायद इसकी भी किस्मत केडी आमा गाँव जैसे जाग जाए।
सूखा नदी के किनारे यायावर 

सोमवार, 19 नवंबर 2012

चचा छक्कन और चोर पार्टी की सदारत

सुबह की सैर के वक्त चचा छक्कन दिखाई दे गए, दुआ सलाम के साथ हाल-चाल खैरियत का आदान-प्रदान हुआ। "क्या बताएं मियाँ महंगाई ने हालत ख़राब कर दी, जीना मुहाल हो गया। वैसे भी खानदानी होने के चलते हम सरकार की किसी भी एपीएल, बीपीएल जैसे योजना के खांचे में फिट नहीं होते। ऊपर से खुदा के फजल से दर्जन भर बच्चों की फ़ौज तैयार हो गयी। कोई गरीब मानने को तैयार ही नहीं होता। ऐसे में हमारे जैसे निठल्ले साहित्यकार का तो सवा सत्यानाश समझिये। कभी-कभार एक दो मुशायरे कवि सम्मलेन मिल जाते थे, वे भी छद्म श्री की भेंट चढ़ गए। जिसकी छाती पर बिल्ला लटक गया, समझो उससे बड़ा ठेकेदार कोई नहीं। सारे के सारे धन के स्रोतों का प्रवाह उसकी जेब में जाकर गिरता है। गोया उनकी जेब ना हुई,बंगाल की खाड़ी हो गई।" चचा ने जाफरान की खुश्बू का फव्वारा मुंह से छोड़ते हुए कहा। 
"बजा फ़रमाया चचा आपने, कुछ ऐसा ही अपना भी हो गया है। 4 साल से इंटरनेट का कुंजी पटल खटखटाते जेब में छेद हो गया। ऊपर से महंगाई ने तो कनिहा ही तोड़ कर रख दिया है। एक काम करिए, किसी राजनैतिक पार्टी के मेम्बर बन जाइये। फिर धीरे से एकाध पद ले लीजिये, सत्ता वाली पार्टी हो तो पौ बारह जानिए। आपकी जेब भी बंगाल की खाड़ी से कम न रहेगी। फिर हम भी तो हैं आपके साथ ही, जिसकी भी जिंदाबाद-मुर्दाबाद करने कहेगें, आपके आदेश का पालन करते हुए, तत्काल कर दी जाएगी।" मैंने चचा की जेब में झांकते हुए कहा। "चलो उस पुलिया पर बैठ कर चर्चा करते हैं, तुम्हारी सलाह पर गौर किया जाएगा।" चचा ने कहा।  पुलिया पर झाड़-पोंछ कर बैठने के बाद चचा ने जेब से खैनी निकाली और घिसने लगे। खैनी घिसने का मतलब था की वे चिंतन में व्यस्त थे। थोड़ी देर बाद मुझे खैनी दी और डिबिया जेब के हवाले की।
चलो मियाँ अब तुम्हारी सलाह मान लेते हैं, वैसे भी हम कुछ ढीठ किस्म के इन्सान हैं. एक बार जो सोच लिया वह सोच लिया। ठीक है चचा फिर मिलते हैं ब्रेक के बाद। इस मुलाकात के बाद हम अपने काम में लग गए और चचा अपने नए धंधे में। अपनी व्यस्तताओं के चलते एक-डेढ़ बरस में चचा से मुलाकात ही नहीं हुई।  एक दिन चचा के घर के बाहर बड़ी सी होर्डिंग लगे देखी। उसमे लगी फोटो में चचा ने कलफ लगी अचकन और शेरवानी पहनी हुई थी, ऐनक के पीछे से नूर टपक रहा था। चचा की आदमकद फोटो थी और बड़े नेताओं की छोटी। मैंने एक सरसरी निगाह डाली और आगे बढ़ गया। लौटते हुए मेरी निगाह होर्डिंग पर पड़ी तो गायब थी। मैंने कोई खास ध्यान नहीं दिया।
अगले दिन मुझे सुबह की सैर के वक्त चचा मिल गए। दुआ सलाम के बाद खैरियत पूछने पर उन्होंने मुझे ही निशाने पर ले लिया - आप भी कमाल करते हैं मियाँ, मुझे फंसा कर खुद रफूचक्कर हो लिए, उस दिन के बाद आज खैर-खबर ले रहे हो। अरे कौन सा पहाड़ टूट पड़ा चचा, जो सुबह-सुबह ही फायर हुए जा रहे हो- मैंने चचा से आँख मिलाते हुए कहा। अरे मत पूछो हमारा हाल, वो तो हम ही जानते हैं या उपर बैठा वो जानता है। सालों ने जीना हराम कर दिया, इससे तो निठल्ले ही भले थे- चचा ने पैजामे से ऐनक पोंछते हुए कहा। कुछ तो बताओगे चचा, सियासी पार्टी में तो सभी चांदी काट रहे हैं। जिनको खाने का सऊर नहीं वो भी छिलके समेत केला गटक रहे हैं। जिनके पास भुनाने को कभी दाने नहीं थे वे भाड़ के मालिक बने बैठे हैं और एक आप हैं जो मुझे ही लानत-मलानत  जा रहे हैं।
जब यही बात यही बात है तो सुनो, चचा ने आँखों पर ऐनक लगते हुए कहा - मंत्री जी के चेले ने कहा कि चचा अब आप अध्यक्ष बन गए हैं चोर पार्टी के, कम से कम अपने नेताओं को खुश करने के लिए एक दो होर्डिंग ही लगवा दो। उसमे आपकी फोटो भी रहेगी और नेताओं की भी। इससे आपके नंबर बनने के चांस बढ़ जायेगे और मंत्री जी की गुड बुक में आपका नाम दर्ज हो जायेगा। मियाँ, यहाँ के सियासी दांव-पेंच हमारी समझ से बाहर थे। हमने होर्डिंग बनवा कर लगाव दी। होर्डिंग लगवाने के एक घंटे के बाद ही छुटकू नेता जी का फोन आ गया। बोले कि बहुत बड़े नेता बनते हो चचा, होर्डिंग में अपनी फोटो बड़ी और हमारी फोटो छोटी लगवा दी। कहीं ऐसा न हो आपके पर कतरने पड़ें। हमने तुरंत होर्डिंग उतरवा दी। तभी एक नेता और पहुँच गए, वो कहने लगे कि चचा होर्डिंग हटवाने के बाद दूसरी बनवा कर लगवाइए। 
अब हमने जो होर्डिंग बनवाई, उसमे अपनी फोटो छोटी लगाई, पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं को सिर पर बैठाया। लोकल नेताओं की फोटू लगवाई। मंत्री जी और अध्यक्ष जी की फोटो लगवाई। होर्डिंग लगते ही मंत्री जी का फोन आ गया, बोले कि इतनी जल्दी बड़ी सियासत सीख गए चचा। हमारे विरोधी की फोटो बड़ी और हमारी छोटी लगाई है, हमें नीचा दिखाने के लिए, देखो कहीं आपकी लुटिया न डूब जाये। अब मियाँ हमने फिर होर्डिंग उतरवाई, दूसरी बनवाई, इसमें मंत्री जी और अध्यक्ष जी की फोटो बराबर करके लगवाई, फीते से नाप कर। होर्डिंग लगते ही जेलर के जासूस फिर सक्रिय हो गए। अध्यक्ष जी का फोन आया, क्या मजाक बना रखा है चचा आपने। मंत्री बड़ा होता है या संगठन का अध्यक्ष ? हमने उसे टिकिट दी है तब मंत्री बना है और हमारी फोटो आपने मंत्री के बराबर लगवा दी। हम आपको सस्पेंड करते है। समाचार कल के अख़बारों में देख लेना।
हमारी सिट्टी पिट्टी गुम हो गयी। बड़ी देर तक घिघियाए, अध्यक्ष जी हमें गरियाते रहे, फनफनाते रहे। बड़ी  मुस्किल से माने और हम सस्पेंड होने से बच गए। हमने होर्डिंग फिर उतरवा दी। अगले दिन मंत्री जी का फोन आ गया कि होर्डिंग क्यों हटवाई? हमने कहा कि कल के तूफान में होर्डिंग उड़ गयी। मंत्री जी ने कहा कि होर्डिंग फिर बनवाई जाये। उनका आदेश सुनते ही हमारी तो पुतलियाँ फिर गयी और गश आ गया। चुन्नू की अम्मा ने हमें लुढकते देख लिया और पानी के छींटे मारे तब होश आया। होश में आते ही हमने अपना इस्तीफा लिख दिया और अध्यक्ष जी को भेज दिया। हमें छक्कन मियाँ  ही बने रहने दिया जाए। साल भर से ढक्कन बने हुए थे। ये सियासत भी बड़ी गन्दी चीज है मियाँ। होर्डिंग की फोटो से ही इनके कद बड़े-छोटे हो जाते हैं, लानत है इन पर। लाहौल बिला कुव्वत, लौट कर बुद्धू घर को आए। बंगाल की खाड़ी तो नहीं बनी हमारी जेब, हाँ! कंगाल की खाड़ी जरुर हो गयी। अब हम किसी के चक्कर में नहीं फंसेंगे, हम भले और हमारा कुनबा भला।