शनिवार, 30 जनवरी 2016

बारसूर (बस्तर) की विनायकी प्रतिमा


बाणासुर की नगरी बारसुर (बस्तर छत्तीसगढ़) के संग्रहालय में गणेश की कई प्रतिमाएं रखी हुई हैं, इनकी फ़ोटो लेते वक्त मुझे स्त्री रुप में गणेश जी की प्रतिमा दिखाई दी। यहाँ गणेश की लगभग 20-25 प्रतिमाएँ होगीं तथा सबसे बड़ी गणेश प्रतिमा भी यहीं पाई जाती है। स्त्री गणेश प्रतिमा को देख कर जिज्ञासा हुई तो थोड़ी खोजबीन की गई। हम जानते हैं कि सनातन धर्म में भगवती ही मूल आदि शक्ति के नाम से विख्यात हैं। अलग अलग शक्तियों को स्त्री रूप में पूजा जाता है जैसे विद्या की देवी मां सरस्वती, धन की देवी महालक्ष्मी और समस्त शक्तियों की स्वामी देवी दुर्गा। महादेव को अर्धनारीश्वररूप में पूजा जाता है, तो श्री हरि ने भी जग की भलाई के लिए मोहिनी रूप धारण किया था।

भगवान गणेश के अनेकों नामों में से उनका एक नाम विनायकी भी है अर्थात गणेश-लक्षणों युक्त स्त्री। धर्म शास्त्रों में गणपति को स्त्री रूप में पूजते हुए उन्हें विनायकी, गजानना, विद्येश्वरी और गणेशिनी भी कहा गया है। ये सभी नाम गणेश जी के संबंधित नामों के स्त्रीलिंग रूप हैं। उनकी हाथी जैसी विशेषताओं के कारण, उन्हें आम तौर पर बुद्धि की हाथी जैसी सिर वाले भगवान- गणेश से संबंधित माना गया है, उनका कोई स्थिर नाम नहीं है और उन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता है – जैसे गणेशी, विनायकी, गजानना, विघ्नेश्वरी और गणेशणी, ये सभी नाम गणेश के संबंधित नामों के स्त्रीलिंग रूप हैं । इन अभिचिह्नों से उन्हें शक्ति का रूप माना गया है यानी – गणेश का स्त्री रूप या उनसे मिलता-जुलता रूप ।
विनायकी को कभी-कभी चौसठ योगिनियों में से एक भी माना जाता है । बहरहाल, विद्वान कृष्णन का विचार है कि हाथी के सिर वाली देवी विनायकी, गणेश की ब्राह्मणी शक्ति है और तांत्रिक योगिनी तीन विशिष्ट देवियाँ हैं । एक स्वतंत्र देवी के रूप में, हाथीमुख देवी को जैन और बौद्ध परंपराओं में भी देखा जा सकता है । बौद्ध ग्रंथों में उन्हें गणपतिह्रदया कहा गया है । सबसे पहले ज्ञात हाथीमुख देवी की प्रतिमा रैढ़, राजस्थान में पाई गई । यह एक विकृत टैराकोटा फलक था जो पहली सदी बीसीई से लेकर पहली सदी सीई से संबंधित है । इस हाथीमुखी देवी की सूंड दाईं ओर मुड़ी है और उनके दो हाथ हैं । चूँकि उनके हाथों में प्रतीक और अन्य विशेषताएँ विकृत रूप में हैं, उन्हें देवी के रूप में अभिचिह्नित करना संभव नहीं है ।
हाथीमुखी देवी की अन्य मूर्तियाँ दसवीं सदी के बाद से पाई गईं हैं । विनायकी की एक सबसे प्रसिद्ध मूर्ति चौसठ योगिनी मंदिर, भेड़ाघाट, मध्य प्रदेश में इकतालिसवीं योगिनी के रूप में है । यहाँ इस देवी को श्री-ऐंगिनी कहा जाता है । यहाँ इस देवी के झुके हुए बाएँ पैर को एक हाथीमुखी पुरुष, संभवत: श्री गणेश ने सहारा दिया हुआ है । विनायकी की एक दुर्लभ धातु मूर्ति चित्रपूर मठ , शिराली में मिली है । वे गणेश की तरह नहीं, बल्कि इकहरी हैं । उन्होंने अपनी छाती पर यग्नोपवीत और गले में दो आभूषण पहना है । उनके हाथों में अभया और वरदा की मुद्राएँ बनी हैं । उनके दो कंधों पर तलवार और फंदा बना हुआ है । उनकी सूंड बाईं ओर मुड़ी हुई है । यह प्रतिमा संभवत: उत्तरी-पश्चिमी भारत (गुजरात / राजस्थान) से 10वीं सदी की लगती है और तांत्रिक गणपत्य धारा (जो गणेश को सर्वोच्च भगवान मानते हैं) या वामाचार देवी की पूजा करने वाले शाक्त धारा से संबंधित लगती है ।
बिहार की पाला विनायकी भी तोंदयुक्त नहीं हैं । यह चार हाथों वाली देवी गदा, घटा, परशु और संभवत: मूली लिए हुए है । प्रतिहारा चित्र में तोंदयुक्त विनायकी को दर्शाया गया है जिसमें उनके चार हाथों में गदा-परशु, कमल, एक पहचान-रहित वस्तु और मोदकों की थाली है जिन्हें उनका सूंड उठा रहा है । दोनों चित्रों में, सूंड दाईं ओर मुड़ा हुआ है । क्षतिग्रस्त चार हाथों या दो हाथों की विनायकी की प्रतिमाएँ रानीपूर झारियल (ओड़ीसा), गुजरात और राजस्थान में भी पाईं गई हैं । सतना में प्राप्त एक दूसरी प्रतिमा में विनायकी पाँच पशुरूपी देवियों में एक हैं । बीच में गौमुखी योगिनी, वृषभा अपने हाथों में बाल गणेश लिए हुए है । विनायकी जिनकी प्रतिमा छोटी है, तोंद लिए हुए है और गणेश की तरह हाथ में अंकुश लिए हुए है । श्री बालसुब्रमण्या स्वामी मंदिर, चेरियनाड, अलापुझा, केरल में भी विनायकी की प्रतिमा मिलती है।
गणेश जी के जन्म से संबंधित एक कहानी में, हाथीमुखी असुर मालिनी, पार्वती जो गणेश की माँ हैं, के स्नान का पानी पीने के बाद गणेश को जन्म देती है । स्कंद पुराण में, धन-संपत्ति की देवी लक्ष्मी को शाप दिया जाता है कि उनका सिर हाथी के जैसे हो जाए, जिससे वह प्रायश्चित करते हुए भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न कर छुटकारा पाती हैं । इन्हें विनायकी नहीं कहा गया है और माँ (मालिनी) या उसके समरूप (कुछ प्रतिमाओं में लक्ष्मी) के रूप में गणेश से बहुत कम संबद्ध किया गया । हरिवंश, वायु पुराण और स्कंद पुराण में भी हाथी मुखी मात्रिका, ग्रह और गणों का वर्णन किया गया है जिनके गजानन, गजमुखी और गजस्य जैसे नाम हैं । इसके बावजूद, कृशन ने इन मात्रिकाओं को ज्येष्ठा, दुर्भाग्य की देवी जिन्हें हाथीमुखी बताया गया है, से जोड़ा है ।
मत्स्य पुराण में वे एक मात्रिका हैं जिन्हें गणेश जी के पिता भगवान शिव ने राक्षसी अंधका को पराजित करने के लिए सृजित किया था । इस प्रसंग में, उन्हें गणेशजी के बजाय, शिव की शक्ति के रूप में देखा जा सकता है । केवल उनका नाम "विनायकी" जिसका अर्थ "विनायक/गणेश से संबंधित" है, उनसे संबंधित होने का संकेत करता है । लिंग पुराण में भी, शक्तियों की सूची में उनका नाम है । अग्नि पुराण पहला पुराण है जिसमें गणेश की शक्तियों को सूचीबद्ध किया गया है, तथापि, विनायकी उनमें नहीं है, न ही उनमें से कोई गजमुखी है, लेकिन, इसी पुराण में चौसठ योगिनियों की सूची में विनायकी अवश्य हैं ।
बहरहाल, उप-पुराण देवी पुराण में गणेश की शक्ति के रूप में गणनायिका या विनायकी का स्पष्ट उल्लेख मिलता है जिसमें उनके हाथीनुमा सिर और गणेश की तरह विघ्नों को दूर करने की क्षमता बताई गई है और उन्हें नौवीं मात्रिका के रूप में शामिल किया गया है । हांलाकि मूर्तियों और साहित्य में मात्रिकाओं की संख्या सात दर्शाई गई है, फिर भी पूर्वी भारत में नौ मात्रिकाएँ अधिक लोकप्रिय हैं । शास्त्रीय सात मात्रिकाओं के अलावा, आठवीं और नौंवी मात्रिका के रूप में क्रमश: महालक्ष्मी या योगेश्वरी और गणेशणी या गणेशा को शामिल किया गया है ।

मध्यकालीन नाटक गोरक्षसंहिता में विनायकी को गजमुखी, तोंदयुक्त, तीन आँखों और चार भुजाओं वाली देवी बताया गया है जिनके हाथ में परशु और मोडकों की थाली है । श्रीकुमार की सोलहवीं सदी की मूर्तिभंजक शोध प्रबंध पुस्तक शिल्परत्न में गणेश (गणपति) के स्त्री रूप का वर्णन है जिन्हें शक्ति-गणपति कहा गया गया है जो विंध्य में रहती थीं । इस देवी का सिर हाथी के जैसे था और उनके दो सूंड थे । उनका शरीर युवती का था, रंग सिंदूरी लाल था और दस भुजाएँ थीं । उनकी छोटी तोंद थी, स्तन विस्तारित थे और सुंदर श्रोणियाँ थीं । यह प्रतिमा संभवत: हिन्दू देवी की पूजा करने वाली धारा, शक्तिवाद से संबंधित थी । बहरहाल, दो सूंडों के कारण इस रूप को भी गणेश और उनकी शक्ति का संयोजन माना गया ।
बौद्ध साहित्य जिसे आर्यमंजुश्रीमुलकल्प कहा जाता है, में इस देवी को विनायक की सिद्धि कहा गया है । उनमें गणेश के कई अंतर्निहित अभिलक्षण हैं । गणेश की तरह, वे विघ्नों की दूर करती हैं, उनका सिर भी हाथी के जैसा है और एकदंत है । उन्हें भगवान शिव का एक रूप, भगवान ईशान की बेटी भी कहा गया है ।

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

रामायणकालीन खरदूषण की नगरी : खरौद


तपोभूमि छत्तीसगढ़ को प्राचीन काल में दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था। रामायण में वर्णित यह दण्डकारण्य प्रदेश अपने सघन वनों, सरल एवं सहज निवासियों, वन्य प्राणियों की आदर्श निवास स्थली, खनिजों एवं सुरम्य प्राकृतिक वातावरण के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ तीर्थों की भी कमी नहीं है। यहाँ विभिन्न सम्प्रदायों के मठ-मंदिर, देवालय इस प्रदेश की विशिष्ट संस्कृति एवं परम्पराओं की पहचान हैं, शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध धर्म समान रुप से फ़ले एवं फ़ूले। प्रयागराज राजिम, रतनपुर, डोंगरगढ़, खल्लारी, दंतेवाड़ा, बारसूर, देवभोग, सिहावा, आरंग, भीमखोज, सिरपुर, भोरमदेव, मल्हार, शिवरीनारायण, ताला, जांजगीर, पाली, खरौद, डीपाडीह, दंतेवाड़ा, भैरमगढ़, कवर्धा, अंबिकापुर, दामाखेड़ा, गिरौदपुरी जैसे साधना के पावन केन्द्र इस धरा की अलौकिकता एवं दिव्यता को प्रदर्शित करते हैं। 


ऐसा ही एक प्राचीन तीर्थ स्थल खरौद नगर, सबरी तीर्थ शिवरीनारायण से 3 किमी एवं राजधानी रायपुर से लगभग 120 किमी की दूरी पर स्थित है। कहते है कि भगवन राम ने यहाँ पर खर व दूषण का वध किया था इसलिए इस जगह का नाम खरौद पड़ा। खरौद नगर में प्राचीन कालीन अनेक मंदिरों की उपस्थिति के कारण इसे छत्तीसगढ़ की काशी भी कहा जाता है। यहां के लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना भगवान राम ने खर और दूषण के वध के पश्चात भ्राता लक्ष्मण के कहने पर की थी। इसलिए इसे लक्ष्मणेश्वर मंदिर कहा जाता है।

लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर के निर्माण को 8 वीं सदी का माना गया है, इसके गर्भगृह में एक शिवलिंग है जिसके बारे में मान्यता है की इसकी स्थापना स्वयं लक्ष्मण ने की थी। इस शिवलिंग में एक लाख छिद्र है इसलिए इसे लक्षलिंग कहा जाता है। इन लाख छिद्रों में से एक छिद्र ऐसा है जो पातालगामी है, उसमे जितना भी जल डालो वो सब समा जाता है जबकि एक छिद्र अक्षय कुण्ड है जोकि हमेशा जल से भरा ही रहता है। लक्षलिंग पर चढ़ाया जल, मंदिर के पीछे स्थित कुण्ड में चले जाने की भी मान्यता है, क्योंकि कुण्ड कभी सूखता नहीं। लक्ष्य लिंग को स्वयंभू लिंग भी माना जाता है।

यह मंदिर नगर के प्रमुख देव के रूप में पश्चिम दिशा में पूर्वाभिमुख स्थित है। मंदिर में चारों ओर पत्थर की मजबूत दीवार है। इस दीवार के अंदर 110 फ़ुट लंबा और 48 फ़ुट चौड़ा चबूतरा है जिसके ऊपर 48 फुट ऊँचा और 30 फुट की परिधि में मंदिर निर्मित हैं। मंदिर के अवलोकन से पता चलता है कि पहले इस चबूतरे में बृहदाकार मंदिर के निर्माण की योजना थी, क्योंकि इसके अधोभाग स्पष्टत: मंदिर की आकृति में निर्मित है। चबूतरे के ऊपरी भाग को परिक्रमा कहते हैं। सभा मंडप के सामने के भाग में सत्यनारायण मंडप, नन्दी मंडप और भोगशाला हैं। 

मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही सभा मंडप है। इसके दक्षिण तथा वाम भाग में एक-एक शिलालेख दीवार में लगा है। यहां लगे शिलालेख में आठवी शताब्दी के इन्द्रबल तथा ईशानदेव नामक शासकों का उल्लेख हुआ है। मंदिर के वाम भाग का शिलालेख संस्कृत भाषा में है। इसमें ४४ श्लोक है। चन्द्रवंशी हैहयवंश में रत्नपुर के राजाओं का जन्म हुआ था। इनके द्वारा अनेक मंदिर, मठ और तालाब आदि निर्मित कराने का उल्लेख इस शिलालेख में है। तदनुसार रत्नदेव तृतीय की राल्हा और पद्मा नाम की दो रानियाँ थीं। राल्हा से सम्प्रद और जीजाक नामक पुत्र हुए। पद्मा से सिंहतुल्य पराक्रमी पुत्र खड्गदेव हुए जो रत्नपुर के राजा भी हुए जिसने लक्ष्मणेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। इससे पता चलता है कि मंदिर आठवीं शताब्दी तक जीर्ण हो चुका था जिसके उद्धार की आवश्यकता पड़ी। इस आधार पर कुछ विद्वान इसको छठी शताब्दी का मानते हैं।

मूल मंदिर के प्रवेश द्वार के उभय पार्श्व में कलाकृति से सुसज्जित दो पाषाण स्तम्भ हैं। इनमें से एक स्तम्भ में रावण द्वारा कैलासोत्तालन तथा अर्द्धनारीश्वर के दृश्य खुदे हैं। इसी प्रकार दूसरे स्तम्भ में राम चरित्र से सम्बंधित दृश्य जैसे राम-सुग्रीव मित्रता, बाली का वध, शिव तांडव और सामान्य जीवन से सम्बंधित एक बालक के साथ स्त्री-पुरूष और दंडधरी पुरुष खुदे हैं। प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना की मूर्ति स्थित है। मूर्तियों में मकर और कच्छप वाहन स्पष्ट दिखाई देते हैं। उनके पार्श्व में दो स्त्री प्रतिमाएँ हैं। इसके नीचे प्रत्येक पार्श्व में द्वारपाल जय और विजय की मूर्ति है। मंदिर के बाहर परिक्रमा में राजा खड्गदेव और उनकी रानी हाथ जोड़े स्थापित हैं। प्रति वर्ष यहाँ महाशिवरात्रि के मेले में शिव की बारात निकाली जाती है तथा लक्ष्मणेश्वर महादेव के इस मंदिर में सावन मास में श्रावणी और महाशिवरात्रि में मेला लगता है।

प्राचीन नगरी कुशावती : कोसीर

रामगमन वन मार्ग के शोधार्थी यह मानते हैं कि दंडकवन में भगवान रामचंद्र ने अपने वनवास काल के 13 वर्ष व्यतीत किए। यह तो तय है कि प्राचीन काल में दंडकवन से ही होकर दक्षिणापथ मार्ग उत्तर से दक्षिण को जोड़ता था और इसी मार्ग का उपयोग तीर्थ यात्री तथा अन्य लोग करते थे। जहाँ मान्यता है कि तुरतुरिया के वाल्मीकि आश्रम में वैदेही सीता ने लव और कुश को जन्म दिया था। वहीं एक जन मान्यता और है कि लव की नगरी लवण एवं कुश की नगरी कोसीर को माना जाता है। रायगढ़ जिले का एक बड़ा ग्राम कोसीर है, यह सारंगढ़ से 16 किमी और राजधानी रायपुर से सरायपाली, सरसींवा होते हुए लगभग 212 किमी की दूरी पर स्थित है। इस ग्राम से थोड़ी-थोड़ी दूरी बलौदाबाजार, रायगढ़ एवं जांजगीर जिलों की सीमाएं भी है, इस तरह इसे तिनसिया पर बसा हुआ ग्राम भी कह सकते हैं।


कोसीर से इंटरनेटीय परिचय करवाने वाले दो बंधू लक्ष्मीनारायण लहरे और नीलकमल वैष्णव हैं। ये दोनों कोसीर जैसे दूरस्थ ग्रामवासी होते हुए भी पत्रकारिता एवं साहित्य के क्षेत्र में जागरुकता के साथ सक्रीय हैं और प्रचार-प्रसार के सभी माध्यमों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सभी क्षेत्रों में इनकी सक्रियता दिखाई देती है। पिछले कई वर्षों से कुश की नगरी कोसीर देखने की महती इच्छा मन में थी। आखिर वह दिन आ ही गया जब मैं मार्च के महीने की अंतिम तिथियों में बाईक से कोसीर पहुंच गया। अभनपुर से कोसीर पहुंचने में मुझे लगभग 4 घंटे की लगातार बाईक रायडिंग करनी पड़ी। आखिर 12 बजे मैं नीलकमल वैष्णव जी के घर के सामने था और लक्ष्मीनारायण लहरे जी का घर भी इनके घर के सामने ही है।


दोपहर का भोजन लक्ष्मी नारायण जी के यहाँ करने बाद हम कोसीर भ्रमण पर निकले। यहां कौशलेश्वरी देवी का प्रसिद्ध स्थान है, जिसे स्थानीय भाषा में कुसलाई दाई कहते हैं। नवरात्रि के अवसर पर मंदिर में दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है और लोग अपनी मानता को पूर्ण करने के लिए यहां पर "पूजा" भी देते हैं। हम मंदिर पहुंचे, ऊंचे अधिष्ठान पर कांक्रीट से निर्मित मंदिर के गर्भगृह में महिषसुर मर्दिनी की प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के आस-पास मंदिर के प्रस्तर निर्मित भग्नावशेषों का निरीक्षण करने के पश्चात अनुमान है कि इस स्थान पर कलचुरी काल का 11 वीं 12 वीं शताब्दी में यहाँ प्रस्तर निर्मित मंदिर रहा होगा। जिसके ढह जाने के बाद इसका पुनर्निर्माण किया गया है।
 
स्थानीय निवासियों का कहना है कि ग्राम के आस-पास खेत खार एवं तालाबों में भी प्राचीन प्रतिमाओं के अवशेष प्राप्त हो जाते हैं। जिस तरह कोसीर ग्राम टीले पर बसा हुआ है, उससे प्रतीत होता है कि इस टीले के नीचे प्राचीन बसाहट रही होगी। प्राचीन बसाहट पर नई बस्ती बसने के कई उदाहरण प्राप्त होते हैं। कई स्थानों पर प्राचीन बसाहट को छोड़ कर उसके समीप ही नए गांव एवं बस्ती आबाद हो जाती हैं। वर्तमान कौशलेश्वरी मंदिर, प्राचीन अधिष्ठान पर ही निर्मित है, इस अधिष्ठान की ऊंचाई लगभग 10 फ़ुट होगी। इस मंदिर के समीप ही पश्चिम दिशा में ढुकूरिया तालाब तथा दक्षिण दिशा में जल कुंड है, जो इसकी प्राचीनता को सिद्ध करता है। 

छत्तीसगढ़ अंचल में प्राचीन काल में मृदा भित्ति दुर्ग बनाने की परम्परा रही है। सुरक्षा के लिए परिखायुक्त दुर्ग बनते रहे हैं और इनकी संख्या आज 48 को भी पार कर गई है। वर्तमान में डमरु उतखनन में बौद्ध स्तूप प्राप्त हुए हैं, इससे इन मृदा भित्ति दुर्गों की प्राचीनता सिद्ध होती है। कोसीर की सीमा में चारों तरफ़ कई तालाब हैं, जिन्हें देखकर प्रतीत होता है कि कभी यहां परिखायुक्त मृदा भित्ति दुर्ग रहा होगा। कालांतर में परिखा को मिट्टी से पाटकर खेत बना दिए गए होगें तथा उसका कुछ भाग बच गया होगा जिसका उपयोग सिंचाई एवं ग्रामवासियों की निस्तारी के लिए प्रयोग किया जाता है। कोसीर ग्राम में 56 एकड़ का बड़ा बंधवा तालाब भी है। जो सिंचाई का बड़ा साधन रहा होगा।

कोसीर में साहित्य रसिकों एवं बुद्धिजीवियों की भी कमी नहीं है, यहाँ के निवासियों में साहित्य के प्रति रुचि एवं संस्कार होने के कारण एक साहित्यकारों की संस्था भी है, जिसके द्वारा मंदिर परिसर में काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी में स्थानीय कवियों द्वारा कविता पाठ किया गया। यह काव्य गोष्ठी लगभग 4 घंटे तक चली, जिसमें वरिष्ठ साहित्यकार तीरथ राम चंद्रा, नीलम प्रसाद आदित्य, सुनील एक्सरे, लक्ष्मीनारायण लहने, नीलकमल वैष्णव के साथ मैने भी कविता पाठ किया। शाम को सारंगढ़ का दौरा किया गया। रात्रि विश्राम कोसिर में करने बाद अगले दिन हम गिरौदपुरी धाम के दर्शन के लिए रवाना हुए। (नोट- सभी चित्र लक्ष्मीनारायण लहरे की वाल से)