बुधवार, 29 अगस्त 2012

लाफ़ागढ जमींदारी ---------- ललित शर्मा

लाफ़ागढ का सिंहद्वार
म लाफ़ागढ पहुंच गए, कुछ लोगों ने बताया था कि यहाँ प्राचीन मंदिर है, हमारी कल्पना में पाली, जांजगीर, भोरमदेव, शिवरीनारायण जैसा ही मंदिर था। इसे भी देख लिया जाए। छत्तीसगढ के गढों में सम्मिलित लाफ़ागढ का नाम सुना था। आज देखने का अवसर भी आ गया। लाफ़ागढ वनस्थली में बसा हुआ गाँव हैं। गांव में प्रवेश करने पर हमने मंदिर की पड़ताल की तो बताया गया कि थोड़ा आगे बढने पर आपको मंदिर दिखाई देगा। कच्ची सड़क पर चल कर आगे बढने पर छोटा सा ग्रामीण बाजार दिखाई दिया, जहाँ दो चार दुकाने हैं। सामने लाफ़ागढ जमीदारी का विशाल सिंहद्वार बना हुआ है। जिसके दोनो तरफ़ संतरियों के लिए कमरे हैं और उपर दो सिंह खड़ी हुई मुद्रा में बने हुए हैं। वहीं पर हमने कार खड़ी की और मंदिर में प्रवेश किया। मंदिर कोई अधिक पुराना नहीं है।


श्रीमती दुलौरिन कुंवरि द्वारा निर्मित मंदिर
लगभग 90 साल पहले यहाँ की जमीदार दहराज सिंह की बेवा जमीदारिन दुलौरिन कुंवर ने बनवाया था। ईंटों के बने इस मंदिर पर पीले चूने से पुताई की हुई है। भीतर राम लक्ष्मण सीता की मूर्तियाँ स्थापित हैं। यहीं पर दहराजसिंह ने तेंदू के वृक्ष के समीप माँ काली का मंदिर बनवाया था। हमने मंदिर के चित्र लिए। गर्भगृह में अंधेरा होने के कारण वहां के चित्र नहीं ले सके। यह मंदिर जमीदार की संपत्ति है।सिंहद्वार से भीतर का हाल लाफ़ागढ जमीदारी का हाल बयान कर रहा था। चारों तरफ़ ढही हुई ईमारतें अपने स्वर्णिम काल को याद करके सिसकियाँ ले रही थी। कभी इस जमीदारी का रौब-दाब 84 गाँवों में हुआ करता था। उन गाँवों की जनता के भाग्य का फ़ैसला इसी गढ से होता था। चैतुरगढ भी लाफ़ागढ जमीदारी में ही शामिल है। लाफ़ागढ की जमीदारी काफ़ी दूर तक थी।

जमींदार का घर
वहाँ का कुल देवी महामाया मंदिर इनके पूर्वजों ने बनाया था। मंदिर से बाहर निकलते हुए मुझे एक पहटिया दिखाई दिया, उससे पूछने पर पता चला की लाफ़ागढ के जमीदार के वंशज यहीं रहते हैं और अभी मिल सकते हैं। भीतर प्रवेश करने पर कवेलू की छत वाला एक घर दिखाई दिया। वहाँ दो कुर्सियाँ थी, एक कुर्सी पर बनियान पहने और पंछा बांधे अधेड़ उम्र के सज्जन बैठे थे, हमने नमस्कार कर वर्तमान जमींदार के विषय में पूछा तो उन्होने हमे अपने पास बुलाया और बताया कि वहीं वर्तमान जमीदार हैं। खस्ता हाला लाफ़ागढ के जमींदार इस हाल में मिलेगें, मुझे आश्चर्य हुआ, हम तीन थे, तो उन्होने नौकर से और कुर्सियाँ मंगवाई और हमें बैठने कहा। उनसे चर्चा होने लगी। उनके पूछने पर हमने बताया कि चैतुरगढ घूमने आए थे, लेकिन वहाँ रास्ते की खराबी के कारण पहुंच नहीं पाए, इसलिए लाफ़ागढ का मंदिर देखते हुए लौटने का इरादा है। अब आपसे भेंट हो गयी तो और जानकारी मिल जाएगी।

चर्चारत- अरविंद झा, एरमशरण सिंह,  ललित शर्मा
उन्होने नौकर को पानी लाने के लिए आवाज दी, हमसे पूछा कि आप लोग पत्रकार हैं क्या? हमने कहा- इंटरनेटिहा पत्रकार हैं, नेट पर लिखते हैं। वे बोले-पहले भी बहुत पत्रकार आएं है, कुछ भी लिखते हैं, कई बार तो कहाँ लिखते हैं, इसका ही पता नहीं चला। मैने अपना कार्ड दिया और कहा कि मेरा लिखा आपको कार्ड में लिखे पते पर मिल जाएगा। मैने उनसे जमीदारी के विषय में पूछना शुरु किया। कहने लगे अब जमींदारी कहाँ रही? जमीन सीलिंग में निकल गयी। कुछ का हिस्सा बंटवारा हो गया, जैसे तैसे गुजर-बसर हो रहा है। तभी मुझे कुर्सी सरकाने को कहते हैं, दीवाल में ततैयों ने छत्ता बना रखा है। एक ततैये ने भी चुम्मा ले लिया तो एक दिन नाचना ही पड़ेगा खुशी में। कुर्सी सरका कर बैठने पर चर्चा आगे बढी। उन्होने बताया कि दुलौरिन कुंवर ने पर्वत दान किया था। मैने पर्वत दान का अर्थ पूछा तो पता चला कि एक बड़े पोले स्तम्भ में हजारों गाड़ी धान भर कर पूजा-पाठ के बाद लोगों को ले जाने की छूट दे दी। जिसके हिस्से जितना लगा वो ले गया।

90 वर्ष पुराना पर्वत दान का चित्र
ये अपने को तंवर कहते हैं। थोड़ी देर के बाद उठ कर एक किताब लेकर आए, जिसे हम स्मारिका कह सकते हैं, यह स्मारिका विक्रम संवत 2000 (1943 ईं) में रतनपुर में हुए विष्णु महायज्ञ के समय प्रकाशित की गयी थी। इसमें लाफ़ागढ जमीदारी का जिक्र करते हुए पृष्ठ क्रं 121 पर लिखा है- लाफ़ा- कुल रखबा 359 वर्गमील, मकान संख्या 16,357, जमींदार का पद - दीवान, ग्राम संख्या - 86 । आगे वर्णन है - यह जमीदारी रतनपुर के उत्तर दिशा में फ़ैली हुई है। लाफ़ा का गढ, पाली का मंदिर, तुमान के खंडहर ये सब इसके प्राचीन वैभव हैं। इसका प्राचीन इतिहास नहीं मिलता।

विष्णु महायज्ञ की स्मारिका का पृष्ठ 121
जमींदार परिवार का कहना है कि - हम असल क्षत्रिय हैं, हमारा आगमन 100 वर्ष (शायद यह छपाई की त्रुटि है 1000 वर्ष होगा) से भी अधिक हुए दिल्ली से हुआ था। सबूत के लिए ये एक ताम्रपत्र पेश करते हैं। इस ताम्रपत्र में लिखा है कि - राज पृथ्वीदेव लुंगाराव को 120 गाँव प्रदान करते हैं। ताम्रपत्र में 806 की मिती पड़ी है। इस प्रकार लाफ़ा जमींदारी इस परिवार के अधिकार में 1173 वर्षों से है। रायबहादुर हीरालाल इस ताम्रपत्र को सच्चा नहीं मानते। मृत जमींदार का कथन था कि यह जमींदारी उनके वंश में 21 पुश्तों से चली आ रही है। जबकि उनका पिता केवल 16 पुश्तों का दावा करता था। पर ये दोनो आँकड़े गलत हैं।

श्री हेरम्बशरण सिंह लाफ़ागढ जमींदार
यदि यह सच भी मान लिया जाए तो 1173 वर्षों की लम्बी अवधि को 16 या 21 पुश्तों में बांट कर अपनी बातों पर लोगों का विश्वास संपादन नहीं करा सकते। लाफ़ागढ जमींदारी में पहाड़ अधिक हैं, निवासी अधिकतर मांझी, महतो, बिंझवार एवं धनुहार जाति के हैं। लाफ़ागढ जमींदारी से होते हुए एक सड़क रतनपुर को चली गयी है। इसी रास्ते से प्राचीन समय में मिरजापुर तक व्यापार होता था। इस जमींदारी में लोहा बहुत मिलता है, जिससे बहुत से अघरियों का गुजर-बसर हो जाता है। यहाँ की मुख्य पहाड़ियाँ चित्तौरगढ (जिस पर लाफ़ा ग़ढ का किला है) पलमा और धितौरी हैं। काम काज श्रीमती दीवानिन दुलौरिन कुंवरि देखती हैं। सरवराकार दीवान रामशरण सिंह हमारे महायज्ञ के सभापतित्व का कार्य बड़ी योग्यतापूर्वक अपनी माता जी के प्रतिनिधि स्वरुप करते रहे। महायज्ञ को सानंद संपन्न करने में जो सहायता आप लोगों ने दी है वह बहुमूल्य है। हम लाफ़ागढ जमींदार के वंशज श्री हेरम्बशरण सिंह से बात कर रहे थे। ये पिछ्ली पंचवर्षी में कोरबा जिला के जिलापंचायत अध्यक्ष थे। इनके चाचा लाल कीर्तीकुमार सिंह यहाँ से 3 बार विधायक बने।

संवत 806 का विवादित ताम्रपत्र
बातचीत में रस आने लगा, हमारे युवा छायाचित्रकार पंकज सिंह जमीदारी के चित्र लेने लगे। हेरम्बशरण सिंह मुझे कुछ विशेष दिखाना चाहते हैं। वे उठकर भीतर गए और साथ कुछ लेकर आए। दो पट्टियों के बीच बंधा हुआ ताम्रपत्र उन्होने मुझे खोल कर दिखाया। मैने ताम्रपत्र को देखा और प्रथम दृष्टया ही मुझे इसके नकली होने का आभास हो गया। तब मैने स्मारिका में लाफ़ागढ के विषय में नहीं पढा था। इसकी भाषा देवनागरी है, प्राचीन भाषाओं का मुझे ज्ञान नहीं है पर प्रत्युत्पन्न मति से मैने खोपड़ी खुजाई। ताम्रपत्र में संवत 806 लिखा है वर्तमान में 2069 संवत चल रहा है अर्थात यह ताम्रपत्र 1263 वर्ष पूर्व टंकित किया गया था।

 गरमा गरम चर्चा
मैने ताम्रपत्र का भली भांति निरीक्षण किया। यह मशीन से निर्मित तांबे की प्लेट पर टंकित है। मशीन से निर्मित होने का अनुमान इसलिए है कि इसकी मोटाई सब तरफ़ एकसार है। 1263 वर्ष पूर्व ऐसी कोई मशीन नहीं थी जिससे तांबे की एकसार प्लेट बनाई जा सके। उस समय हथौड़े से पीट कर तांबे को फ़ैलाया जाता था। जिससे वह प्लेट कहीं मोटी और कहीं पतली होती थी। तथा हथौड़े की चोट के निशान उस पर स्पष्ट दिखाई देते थे। मैने कहा कि यह ताम्रपत्र मशीन से बना हुआ है। उन्होने भी स्वीकार किया कि कुछ लोग कहते हैं यह ताम्रपत्र असली नहीं है। पर मेरे पूर्वजों से मुझे यही प्राप्त हुआ है।

 एरमशरण सिंह जी का निवास
हेरम्बशरण सिंह सरल स्वभाव के गंभीर व्यक्ति हैं। उन्होने बताया कि कोरबा पुरातत्व संग्रहालय को उन्होने बहुत सामान दिया है। मैने सोचा कि बहुत का अर्थ बहुत होता है, शायद ट्रक भर के। उनका कहना था कि दो तलवार, एक कालीन, 2 फ़ोटो, 5 मूर्तियाँ उन्होने पुरातत्व संग्रहालय को दी। ये भी अच्छा रहा कम से कम कुछ तो पुरातत्व संग्रहालय के पास पहुंचा। जिससे लाफ़ागढ का नाम भी वहाँ प्रदर्शित हो गया। लाफ़ागढ का सरपंच इनके परिवार का ही कोई सदस्य है। घर के सामने जंग लगा हुआ एक ट्रेक्टर भी खड़ा है। हम लोगों की चर्चा को अरविंद झा डायरी में लिखते जा रहे हैं।

जमींदारी के खंडहर
हम लोगों को यहाँ लगभग एक घंटा हो गया था अगर एक अदद चाय मिल जाती तो बातचीत का आनंद आ जाता। शायद जमींदार साहब ही पिला दें। लेकिन जितनी देर हम रहे अंत:पुर से किसी के चाय लाने की आहट सुनाई नहीं दी। पंकज अब हमारे फ़ालतु झमेले से ऊब गया है लगता है। उसके चेहरे से ऊब झलकने लगी, अगर हम उठ कर नहीं चलते तो शायद देशी तमंचे की तरह फ़ट पड़ती। हमने हेरम्बशरण सिंह से विदा ली। उन्हे अपना पता ठिकाना दिया और उनसे मोबाईल नम्बर लिया। उन्होने मोबाईल के दो नम्बर लिखाए।

मंदिर का शिखर
हम पुन: पाली की ओर चल पड़े। लाफ़ागढ से बाहर निकलने पर दोराहा आता है, दायीं तरफ़ का रास्ता पोंडी जाता है और बांए तरफ़ का पाली। यहीं पर हमारी भेंट कोटवार लक्षमण दास से हुई। हमारे गाड़ी रोकने पर कोटवार लक्ष्मण दास ने कोटवारी सलाम बजाया। मैने सोचा कि लाफ़ागढ के बारे में कोटवार से अधिक कोई नहीं जान सकता। इसकी कई पीढियों से कोटवारी का काम चला आ रहा है। लेकिन इलाके की जानकारी के विषय में बोदा ही निकला। हाँ इससे गाँव के किसी भी व्यक्ति की जानकारी ली जा सकती थी।

 लक्ष्मणदास कोटवार
इनकी नजर तो लोगों पर ही रहती है जिसकी सूचना सप्ताह में एक बार थाने में जाकर देनी पड़ती है। मैने पूछा कि तुम्हारे गांव में लाफ़ा के मंदिर के अतिरिक्त और कौन-कौन से देवी-देवता हैं तो उसने बताया, रक्सा, बुड़हर, महामाया, ठाकुरदेवता, चूल्हादेव, अगिनदेव इत्यादि हैं। बाकी के विषय में बैगा से जानकारी मिल सकती है। अब इतना समय नहीं था कि हम बैगा से जानकारी लेने जाएं। लक्ष्मण दास को राम-राम करके हमने पाली का रास्ता पकड़ा। अरविंद के चेहरे पर अब राहत के भाव दिख रहे थे क्योंकि चल पड़े तो अब बिलासपुर पहुंच कर ही दम लेगें। आगे पढें……

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

चैतुरगढ से लाफ़ागढ की ओर --------- ललित शर्मा

पहाड़ की सुंदरता
चैतुरगढ से लौटते हुए रास्तों की ढलान से सामने सीना ताने खड़े विशालकाय पहाड़ अनुपम दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे। पहाड़ का जो दृश्य मेरे सामने था, कमाल का था, वह पहाड़ चोटी से लेकर तराई तक सीधा खड़ा था अर्थात कोई ढलान नहीं थी, जैसे किसी ने इसे चोटी से लेकर नीचे तक आरी से काट दिया हो। बंजी जम्पिंग या रॉक क्लाईम्बिंग करने वालों के आदर्श स्थान लगा। रॉक क्लाईम्बर्स के लिए तो चुनौती भी हो सकता है। इसकी ऊंचाई पर विशाल गुफ़ानुमा आकृति बनी हुई दिखाई दे रही थी। इस सुहाने दृश्य को कैमरे में कैद करने से स्वयं को रोक न सका। पंकज से कार रुकवाई और पहाड़ का चित्र लेने जंगल में घुस गया। जीवन चक्र सही चलता रहे तो पहाड़ सी जिंदगी भी कट जाती है खेलते कूदते। कहीं विघ्न हो जाए तो पल भी नहीं कटता। जीवन का फ़लसफ़ा यही है, पहाड़ को काटते रहो, छांटते रहो, चढते रहो ऊपर, बिना विश्राम के। एक दिन अवश्य ही विजय मिल जाएगी।


कृष्ण कुमार गोंड और ब्लागर जेमरा गांव में
रास्ते में आदिवासी गाँव जेमरा आया, तो यहाँ रुकने का मन हो गया, जैसे हारा हुआ सिपाही कहीं छांव में बैठ कर विश्राम कर ले और आगे की लड़ाई के लिए शक्ति विश्राम से शक्ति अर्जित कर फ़िर दुगनी शक्ति से जीतने के लिए युद्ध के मैदान में अग्रसर हो। रास्ते पर ही मुझे कृष्ण कुमार घ्रुव मिल गए। उनसे गाँव का नाम पूछो तो उन्होने जेमरा का नेवरिया पारा (जेमरा गाँव नया बसा मोहल्ला) बताया। उससे चर्चा होने लगी, आदिवासी गाँव में महुआ की दारु की चर्चा न हो ये तो हो ही नहीं सकता। परन्तु कृष्ण कुमार ने बताया कि उनके गाँव में कोई दारु नहीं बनाता। जिन्हे पीना होता है सरकारी भट्ठी से ही लाकर पीते हैं। हो सकता है कि वह हमारे रौब-दाब को देखकर झूठ बोल रहा होगा। क्योंकि आदिवासी गाँवों में स्वसेवन के लिए प्रति घर 5 लीटर तक महुआ की दारु बनाने की छूट है।

 चैतुरगढ की महामाया गाँव में 
मुख्य मार्ग से एक गली सामने के मोहल्ले में जाती है। वहाँ बने तिराहे पर एक पत्थर गड़ा है। उस स्थान को साफ़ सुथरा देखकर मैने कृष्ण कुमार से जिज्ञासावश पूछ लिया। तो उसने बताया कि इन्होने यह पत्थर चैतुरगढ की महामाया के नाम पर गड़ाया है। हम यहाँ पर महामाया का ही स्थान मानते हैं। क्योंकि त्यौहारों के अवसर पर चैतुरगढ दूर होने के कारण जाना कठिन हो जाता है। इसलिए इसी स्थान पर सभी पूजा-पाठ करके बकरों या अन्य जानवरों की बलि देते हैं। जहाँ मान लो वहीं देवी-देवता उपस्थित हैं। हमें चैतुरगढ की पहाड़ी पर दर्शन नहीं हुए महामाई के तो यहीं दर्शन कर लिए। मेरे पूछने पर उसने बताया कि यहाँ से थोड़ी दूर आगे जाने पर आदिवासी हास्टल है। वहाँ के गुरुजी के पास मोटरसायकिल है। हमने सोचा कि यह मिल जाए तो अधूरी यात्रा पूरी हो जाएगी। हम दुविधा में थे कि जाएं या नहीं। मन हमेशा जाने के पक्ष में ही रहता था।

ढेकी (प्राचीन यंत्र)
आस-पास धनकुट्टी या आटा चक्की नहीं दिखने पर मैने कृष्ण कुमार से गाँव में ढेकी के बारे में पूछा। तो उसने बताया कि गाँव में बहुत सारे घरों में ढेकी है। बस मेरा काम बन गया क्योंकि ढेकी की फ़ोटो मैं बहुत दिनों से लेना चाहता था पर मेरे गाँव में भी अब किसी के घर में ढेकी नहीं रही। सिर्फ़ फ़ोटो के लिए ही 5-7 गाँवों में चक्कर लगाना पड़ता। तब कहीं जाकर एकाध घर में धूल मिट्टी खाती हुई ढेकी मिलती। ढेकी सम्पन्न गृहस्थ का प्रतीक प्राचीन यंत्र हैं। लोग मुसल से कूट कर धान का छिलका निकालते थे। जिसमें समय और श्रम अधिक लगता था। इसके बाद ढेकी का अविष्कार हुआ, इसे सिर्फ़ एक आदमी खड़े-खड़े अपने पैरों से चलाता है और एक घंटे में दो-तीन बोरा धान से चावल निकाल लेता है। इसे चलाने के लिए बिजली की आवश्यकता नहीं होती। घर गृहस्थी खेती किसानी के प्राचीन यंत्रों को संजोने के क्रम मुझे यहाँ ढेकी का मिलना सुखद लगा। कृष्ण कुमार के घर में हमने जाकर जी भर ढेकी के फ़ोटो खींचें।

जेंजरा का आदिवासी छात्रावास
यहां से अगला पड़ाव था, आदिवासी आश्रम के गुरुजी का घर। आगे बढने पर कुछ ईमारतें दिखाई दी। हमने कार उधर ही मोड़ ली। जहाँ कार रुकी, उसी कमरे के सामने मोटर सायकिल खड़ी थी। झांकने पे पीछे टेबल कूर्सी डाल कर दो-तीन खाकी बर्दी धारी दिखाई दिए। लग रहा था संध्या वंदन की तैयारी है। ये फ़ारेस्ट के अधिकारी कर्मचारी थे, जंगल में इनका रोल किसी पुलिस से कम नहीं होता। जिसे चाहे धर ले, जिसे चाहे छोड़ दे। हमें देख कर एक बंदा बाहर आया। पंकज के पूछने पर उसने गुरुजी का घर दूसरी जगह बताया। वहाँ पहुंचने पर पता चला कि गुरुजी नहीं हैं, पाली गये हैं।

हम वहाँ से आगे बढे तो एक बाईक वाले ने हमारे से आगे निकाल कर हमें रोका। मैने सोचा कि यह बाईक देने आया होगा। उसका कहना था कि यहां से तीन किलोमीटर उसका गाँव है। वहाँ ठेकेदार घटिया निर्माण सामग्री का उपयोग कर पुल बना रहा है। आप फ़ोटो खींच कर अखबार में छाप दीजिए। मैने सिर हिलाया और हम आगे बढे। यहाँ पत्रकारी करने थोड़ी आए हैं। सरकार में बैठे लोग लाखों करोड़ खा जाते हैं। एक ठेकेदार लाख-दो लाख भी खा लेगा तो क्या फ़र्क पड़ने वाला है? यह मुकदमा हमने बाबा रामदेव की एवं अन्ना की सेना के लिए छोड दिया।

चलो भाई ढेकी कुरिया में
तिराहे पर पहुंचने पर जिस दुकानदार की बाईक की आस लगा कर यहां तक आए थे उससे बाईक मांगी तो उसने मना कर दिया। बोला कि बाईक इंजन खराब है लोड नहीं ले रहा है। मैने कहा - यार अभी तो बाईक बदले कार रख ले। हमारे चैतुरगढ से लौटते तक तुझे कार का मालिक बना देते हैं। इतने पर भी लेकिन वह नहीं माना। आखिर में हमें वापस ही पाली की तरफ़ लौटना पड़ा। चैतुरगढ जाने के सारे रास्ते हमारे लिए बंद हो चुके थे। मन मार कर सोचा कि आज नहीं जा पाए तो कोई बात नहीं, मौसम खुलने के बाद फ़िर कभी आएगें चैतुरगढ के लिए। रात तक हमें बिलासपुर भी पहुंचना था। झा जी ने फ़ोन पर निर्देश देकर खाने की व्यवस्था अपने बंगले पर कर ली। पंकज और हमको उनके घर का निमंत्रण था। यहाँ से थोड़ी दूर पर पुरानी जमीदारी लाफ़ागढ है। जिसका नाम मैने सुना था। अब फ़ैसला लिया गया कि चैतुरगढ न सही तो लाफ़ागढ ही सही। वहीं चला जाए, अपने पास अभी एक-डेढ घंटा और था बिताने के लिए। आगे पढें………

सोमवार, 27 अगस्त 2012

चैतुरगढ: मैं कहता हौं आँखन की देखी -- ललित शर्मा

पंकज सिंह
पाली शिवमंदिर में चैतुरगढ जाने वाली सड़क की स्थिति की पूछताछ करने पर संतोष त्रिपाठी ने कहा कि सड़क की स्थिति तो खराब है। बरसात होने के कारण सड़क जगह-जगह से कट गयी है। चैतुरगढ में पहाड़ी पर चलभाष भी काम नहीं करता। वहां केन्द्रीय पुरातत्व विभाग का जो कर्मचारी है उसे जब भी बात करनी होती है तो नीचे आकर सम्पर्क करता है। अभी उससे सम्पर्क भी नहीं हो पाएगा, अन्यथा मार्ग की दशा का पता कर लेते। चैतुरगढ जाने की योजना पर पानी फ़िरते दिखाई दे रहा था। अगर रास्ता ही खराब है तो जाने से तेल फ़ूंकने के अलावा कुछ हासिल नहीं होने वाला। हम आपस में विमर्श करने लगे कि क्या करें, क्या न करें? जाएं की नहीं? तभी संतोष ने कहा कि जाईए, विलम्ब न करें। माता का नाम लेकर आगे बढिए, दर्शन होना लिखा है तो होकर ही रहेगा। उनकी बात हमें जंच गयी और हम अविलंब आगे बढ गए।

रफ़्तार में जंगल
पाली से चैतुरगढ लगभग 30 किलोमीटर है। 22 किलोमीटर कोलतार की सड़क पर चलने के बाद 8 किलोमीटर कच्ची सड़क पर चलना पड़ता है। अब हमने तय ही कर लिया जाने का तो जो होगा वह देखा जाएगा। झा जी की खुमारी अभी तक उतरी नहीं थी। सुबह से ही अलसाए पड़े थे, दोपहर के भोजन के बाद खुमारी द्विगुणित हो गयी। कार चल रही थी और मैने कैमरा साध लिया, जंगल का रास्ता है कब क्या दृश्य देखने मिल जाए और उसे कैद करने का अरमान अधूरा रह जाए। इसलिए हथियार हमेशा हाथ में लेकर सजग रहने की आवश्यकता थी। जंगल के रास्ते पर चलना सुखदायी रहता है। अधिक ट्रैफ़िक भी नहीं रहता और प्राकृतिक छटाएं मन को शांति देती हैं। शहरवासी प्रकृति के निकट आकर सुकून पाता है। प्रकृति से जुड़ाव महसूस करता है। हमारे साथ चलते साल के वृक्षों के बीच से लहराती बलखाती सड़क इठला रही थी। नालों में बहता बरसाती जल अपने जीवित होने को प्रमाणित कर रहा था। वातावरण में ठंडक देख कर पंकज एसी बंद कर देता है।

जंगल में रफ़्तार
FM रेडियो की तरंगे यहाँ पर मिल रही थी, चैनल बदल-बदल कर हम पुराने गीत ढूंढ रहे थे। तभी एक चैनल ने बजाया, सजनवा बैरी हो गए हमार, चिठिया होतो हर कोई बांचे, भाग न बांचै कोय। सजनवा बैरी हो गए हमार। वाह! प्रकृति के साथ संगीत की ताल और लय मिल जाना रोमांचित कर जाता है। कहाँ सजनवा और कहाँ सजनी? कोयलिया की कूक भी सुनाई देने लगी। सोचने लगा कि अभी कौन से आम बौराए हैं जो कोयलिया कूक रही है। विहंग को कौन बांध पाया है? वे कोई मानव नहीं? किसी प्रांत के एपीएल, बीपीएल कार्डधारी लाभार्थी नागरिक नहीं। जो किसी के बंधन में बंध कर परतंत्र हो जाएगें। इनका तो जीवन स्वतंत्र है। स्वतंत्र जन्मे और स्वतंत्र मरें। परतंत्रता तो इन्हे पल की नहीं सुहाती। न ही सीमा पार करने के लिए किसी सरकार के अनुज्ञा-पत्र की दरकार होती है। जब चाहें तब पंख फ़ड़फ़ड़ाए और उड़ जाते हैं। जब मन में आए तो गाने लगते हैं। काश! विहंग सा जीवन ही क्षण भर को मिल जाए तो मन करता है पूरा एक जीवन ही जी लूं।

जा रे मेरा संदे्शा ले जारे
नदी-नाले, पहाड़, वन, समुद्र में ऐसा आकर्षण है कि जो मुझे हमेशा अपनी ओर खींचते हैं। मन गोह बनकर यहां चिपक जाता है, छोड़ना ही नहीं चाहता इन्हें। बस यहीं एक कुटिया हो जाए और रम जाएं। भौतिकता से उबने पर आध्यात्म जागृत होता है। चिंतन चलते रहता और हाथ में कैमरा धरे-धरे ही भीतर उतर जाता हूँ। न सड़क दिखाई देती है और न सहयात्री। सहसा तंद्रा टूटती है, रेड़ियो पर गाना बजते-बजते प्रहसन सुनाई देने लगता है। पंकज एसी को फ़िर से चालु कर देता है। हल्की सी उमस होने लगी। पहाड़ों पर घटांए उमड़ने-घुमड़ने लगी। घटाटोप अंधकार छाने लगा। वृक्षों के तनों पर, जंगल में पड़ी हुई सूखी लकड़ियों पर हरी काई जमी हुई है। यहाँ तक की मील के पत्थरों को भी काई ने ढक लिया है। मील के पत्थर अब मंजिल का पता नहीं देते। इससे अहसास होता है कि जंगल में बारिश लगातार हो रही है और महीनों से धूप नहीं निकली है। अन्यथा मील के पत्थरों पर काई नहीं जमती।

लकड़ी की घंटी
पहले वनों में जंगली जानवर दिन में ही दिखाई दे जाते थे। अब रात में भी नहीं दिखते। मानव ने वनों का बेतहाशा नुकसान किया। वनों की समाप्ति पर जानवरों का प्राकृतिक रहवास खत्म हो गया। इससे साथ-साथ जानवर भी खत्म होने के कगार पर हैं। जंगली वृक्षों एवं वनस्पतियों की एवं वनचरों की कई प्रजातियाँ तो विलुप्त ही हो गयी। एक दिन ऐसा आएगा जब वन भी दिखाई नहीं देगें। फ़िर कभी अगले जन्म में मेरे जैसा कोई यायावर यहाँ आएगा तो जो कुछ मैने यहाँ देखा है उसे वह दिखाई नहीं देने वाला। गोधूलि वेला होने को है, वनों में चरने गए पालतु पशु लौट रहे हैं। गायों के गले में बंधी काठ की घंटियों से मधुर स्वर लहरियां निकल रही हैं। साथ में चरवाहा भी कमर में बांसुरी खोंसे हुए सिर पर खुमरी ओढे पीछे-पीछे चला आ रहा है। न चरवाहे के पास घड़ी है न गायों के पास। समय की जानकारी देने के लिए सिर पर सूरज भी नहीं। इनकी जैविक घड़ी ही घर लौटने का समय बताती है और ये सब घर को लौट चलते हैं।

चैतुरगढ का मार्ग
हमें पक्की सड़क पर चलते हुए एक तिराहा दिखाई दिया। जहाँ से दांए तरफ़ कच्चा रास्ता जाता है। वहीं पर एक सूचना फ़लक लगा है जिस पर लिखा है, चैतुरगढ दूरी 8 किलोमीटर। हम सही रास्ते पर थे। तिराहे पर एक किराने की दुकान है, जहाँ युवा दुकानदार अपनी मोटर सायकिल में पैट्रोल डाल रहा था। वहीं पर एक बाबा अपनी पोती के साथ खड़े थे। मैने उनसे आगे के रास्ते की दशा पूछी तो कहने लगे की गाड़ी जा सकती है। रास्ता को खराब दिख रहा था, परन्तु हमें चैतुरगढ जाने की जिद थी। आगे बढने पर सड़क पर बड़े-बड़े बोल्डर पड़े दिखे और साथ में गड्ढे भी।

बाबा और नातिन
कमांडर जीप दिखाई दी। ड्रायवर ने बताया कि उनकी जीप ही बड़ी कठिनाई से निकल कर आ रही है। आपकी वेरना तो नहीं जा सकती। हाँ जहाँ तक कार जाए वहां तक आप चले जाईए और वहाँ से आप पैदल जा सकते हैं। कई लोग गाड़ी खड़ी करके पैदल जा रहे हैं। अधिक रात होने पर भालुओं का खतरा है। हमने ठान लिया कि जहाँ तक कार जाएगी वहाँ तक जाएगें, फ़िर आगे पैदल जा सकते हैं। लेकिन चैतुरगढ आज जाना ही है।हम उबड़-खाबड़ रास्ते पर नयी-नवेली कमसिन नाजुक वेरना के साथ जोर-जबरदस्ती करते हुए अपनी जिद में आगे बढ गए। दो किलोमीटर चलने के बाद आसमान में एक बार फ़िर से अंधेरा छा गया। लगने लगा कि जम कर बरसात होगी।

नाले से लौटते हुए
सुबह के झगड़े और शाम की बारिश का पता नहीं कब तक चले? 4 किलोमीटर जाने पर एक छोटा नाला दिखाई दिया, वहीं पर कार रोकनी पड़ी। पंकज और अरविंद गाड़ी निकालने का रास्ता देखने लगे और मैं फ़ोटो लेने लगा। वहीं पास के साल वृक्ष पर सुंदर आर्किड लगे थे। दोनो अभियंताओं नें आकर निर्णय दिया कि कार वहाँ से आगे नहीं निकल सकती। फ़ावड़ा होता तो एक बार रास्ता बनाया जा सकता था। बरसात होने लगी थी, हमने भारी मन से लौटने का फ़ैसला किया। इतनी दूर आने के बाद भी चैतुरगढ के एतिहासिक स्थल को न देख पाने हमें खेद रहेगा। लेकिन हिम्मत नहीं हारी थी। तिराहे पर वापस आकर दुकानदार से उसकी बाईक मांगने का इरादा बनाकर हम तिराहे की तरफ़ लौट गए। आगे पढें……

शनिवार, 25 अगस्त 2012

पाली के शिव मंदिर की मिथुन मूर्तियाँ-------- ललित शर्मा

रतनपुर दुर्ग का मोतीपुर द्वार
बिलासपुर से रतनपुर होते हुए अंबिकापुर जाने वाले मार्ग पर ५० किलोमीटर दूरी पर उत्तरपूर्व में पाली स्थित है। वेरना सर्पीले रास्ते को नयी-नवेली दुल्हन की तरह बलखाते बड़ी सफ़ाई से नाप रही थी और पंकज कुशलता से हांक रहा था। गाड़ीवाले गाड़ी धीरे हांक रे……जिया उड़ा जाए लड़े आँख रे…… गाड़ी हांकने में जोर भी बहुत पड़ता है और आँख लड़ने के बाद तो आँख आने का खतरा कई गुना हो जाता है। जिनके आँख नहीं उनके भी आ जाती है। आलोक धरती से लेकर अंबर तक फ़ैल जाता है। सम्पूर्ण चराचर जगत प्रकाशमान होकर उमंगों से भर जाता है। हरियाली और मौसम बेईमान बनने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा।

ढाबा शेरे पंजाब पाली और पंकज सिंह
उत्तर से उमड़ती-घुमड़ती घटाएं प्रभावोत्पादक बन रही थी। वो आँख ही क्या जो कभी लड़े न, लड़ गयी तो आए न। आए तो फ़िर जाए न और फ़िर कभी लड़ने के काबिल रहे न। आंखे भी बड़े कमाल की हैं न। हमारी आँखें तो अब लड़ने-झगड़ने लायक बची नहीं। काला चश्मा लगाने के बाद दीदे फ़ाड़ कर देखने से भी दिखाई नहीं देता। काला चश्मा बड़ा कारगर होता है आँखों की बीमारी के लिए पास फ़टकने ही नहीं देता। गाड़ी पाली की ओर चली जा रही है और आँखे अपने काम में लगी है। दोपहर को आलस आ ही जाता है, पाली पहुंचने तक भूख लग चुकी थी।

पाली का शिव मंदिर और यायावर
हम वहाँ खाने का कोई अच्छा ढाबा ढूंढ रहे थे, मुझे याद आया कि एक ढाबे में कई वर्ष पूर्व भोजन किया था। वहीं चला जाए, लेकिन वह ढाबा दिखाई नहीं दिया, ढाबे की खोज में हम पाली की बाऊंड्री से पार हो चुके थे। आखिर फ़िर गाड़ी लौटा कर ढाबा ढूंढना शुरु किया। आखिर मनपसंद शेरे-पंजाब ढाबा मिल ही गया। शेरे पंजाब ढाबे हर जगह कमो-बेश मिल ही जाते हैं। जब से पंजाब के जंगलों का सफ़ाया हुआ सारे शेर जंगलों की तरफ़ आ गए। इधर जंगलों में कोई शिकार न मिला तो ढाबे ही खोल लिए। आम के आम और गुठली के दाम। खाने-खिलाने और पीने-पिलाने का इंतजाम तो हो गया। हमने यहीं खाने का आर्डर दिया। तंदूरी रोटियों के साथ करी का भरपूर स्वाद लिया। अब हम चल पड़े पाली मंदिर के दर्शनावलोकन करने।

शिव मंदिर का गर्भ गृह
पाली का मंदिर अपनी शिल्पकला के लिए जग प्रसिद्ध है। केन्द्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत इसे चार दीवारी से घ्रेरा गया है। लोहे के बड़े प्रवेश द्वार से हमने मंदिर परिसर में प्रवेश किया। परिसर में मखमली घास बिछाकर सुंदर हरे गलीचे के साथ ही बगीचा  तैयार किया गया है। मुख्यद्वार के समीप ही मंदिर के केयर टेकर का निवास है। मंदिर के समीप ही एक सुंदर जलाशय है। अनुमान है कि यहाँ पूर्व में और भी मंदिर होगें जो काल की भेंट चढ गए। यहाँ आवाज देने पर संतोष त्रिपाठी जी अपने दो सहयोगियों के साथ मिले। इन्होने बताया कि ये पहले बारसुर के मंदिर में थे। अभी कुछ महीनों से ही स्थानांतरित होकर पाली आए हैं। रेड सेंड स्टोन से तैयार पाली के शिव मंदिर की कारीगरी मनमोहक एवं नयनाभिराम है। मंदिर के भीतर और बाहर प्रस्तर मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं। मंडप एवं जगती का पुनर्निर्माण हुआ है तथा पुरातत्व विभाग की देख-रेख में मंदिर अपनी पुरानी शानौ शौकत के साथ आकाश से टक्कर लेता हुआ अडिग, अविचल विद्यमान है।

मंदिर के भीतर शिलालेख
मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करने पर शिल्पकारी दिखाई देती है। मन श्रद्धा से भर जाता है उन शिल्पकारों के प्रति जिन्होने अनगढ पत्थरों को अपनी छेनी-हथौड़ी से तराश कर जीवंत कर दिया। नयनाभिराम शिल्प मन को मोह लेता था। गर्भ गृह का द्वार सुंदर लता वल्लरियों से अलंकृत है। बांई तरफ़ की दीवार पर ब्रह्मा विराजमान तथा चौखट के बाई तरफ़ दशावतार उपस्थित हैं। मंदिर के वितान पर मनमोहक अंकन विशिष्टता प्रदान करता है। गर्भ गृह का यह अलंकरण अनुपम है। दाईं तरफ़ स्तंभ पर उत्कीर्ण "श्रीमद जाजल्लादेवस्य कीर्ति रिषम" शिलालेख दिखाई देता है। पाली के प्राचीन शिव मंदिर की हरिहर प्रतिमा, इसका निर्माण 11वीं सदी में कलचुरी शासनकाल में राजा श्री मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय ने कराया था। शिलालेख द्वारा अनुमान है कि इसका जीर्णोद्धार बारहवीं शताब्दी में रतनपुर के हैहयवंशीय राजा जाज्जल्वदेव प्रथम ने करवाया।

हरिहर की अद्भुत प्रतिमा
मंदिर के बाहरी परकोटों पर देवी-देवताओं के साथ व्यालाकृति, अप्सराओं की मूर्तियां अंकित हैं। व्याघ्र व्याल, हस्ति व्याल, वराह व्याल के साथ अन्य प्रकार के व्याल भी अंकित हैं। मंदिर के बांए तरफ़ की दीवार पर एक अद्भुत प्रतिमा है,जिसे हरिहर कहते हैं। इस मूर्ति में शिव और विष्णु के अर्धांग बने हुए हैं। दोनो अर्धागों से यह प्रतिमा पूर्ण हुई है। बाईं तरफ़ शिव एवं दायीं तरफ़ विष्णु का अंकन शिल्पकार ने किया है। शिव को त्रिशूल,डमरु एवं नदी के साथ अंकित किया है और विष्णु का शंख एवं गदा के साथ अंकन है। इस तरह की शिल्पाकृति मुझे अभी तक अन्य स्थान पर देखने नहीं मिली। अनुपम शिल्प का निर्माण हुआ है इस प्रतिमा के रुप में। शिल्पकार की कल्पना को नमन करना चाहिए।

पाली का शिव मंदिर
मंदिर के दाएं तरफ़ प्रेमासक्त,कामासक्त आलिंगनबद्ध अप्सराओं एवं गंधर्वों का अंकन है। प्रतिमाएं सुंदर एवं सुडौल होने के साथ आकर्षित भी करती हैं। खजुराहो का शिल्प भी यहां देखने मिलता है। एक मूर्ति में संभोग से समाधि की ओर जाते हुए गंधर्व एवं अप्सरा दिखाई दिए। मंदिरों में मिथुन मूर्तियाँ उत्कीर्ण करने की परम्परा से प्रतीत होता है  कि यौनशिक्षा का माध्यम कभी मंदिरों का शिल्प रहा होगा। हमने प्रतिमाओं के चित्र लिए, मंदिर के चारों तरफ़ इतनी मूर्तियाँ हैं कि चित्र लेने में आधा दिन निकल जाए। हमारे पास समय की कमी थी इसलिए मंदिर की एक परिक्रमा कर पुन: मूर्तियों को देखा और उन्हे बनाने वाले अनाम शिल्पकारों को नमन करके बाहर आ गए। इस बीच संतोष त्रिपाठी ने कहा, आप पुरी जाएं तो आपके रहने और खाने का पूरी जिम्मेदारी लेने को तैयार हूँ। हमने संतोष जी को धन्यवाद दिया और विदा लेकर हम चैतुरगढ की ओर चल पडे। मौसम यथावत बना हुआ था…॥ आगे पढें……

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

रतनपुर का गोपल्ला बिंझवार --------------- ललित शर्मा

रतनपुर किले का द्वार
दोपहर के 12 बज रहे थे हम बस स्टैंड के पास स्थित हाथी किला की ओर चल पड़े। यह किला केन्द्रीय पुरातत्व के संरक्षण में है। यहाँ केन्द्रीय पुरातत्व के 3 कर्मचारी हैं, पर मुझे एक भी नहीं मिला। किले के भव्य प्रवेश द्वार से प्रवेश करने पर तालाब के बगल से दो-तीन गंजेड़ी बाहर निकलते दिखाई दिए। इससे लगा कि यह असमाजिक तत्वों का मुफ़ीद अड्डा हो सकता है। कहते हैं कि जब किला पुरातत्व के संरक्षण में नहीं था और उजाड़ पड़ा था तब रतनपुर के निवासी नगर के घरों में निकलने वाले सांपों को किले में छोड़ जाते थे। यहां कई प्रकार के सांप होने की बात सामने आई। पर पूरा किला घूमने पर भी हमें एक भी सर्प दिखाई नहीं दिया। यह किला राजा पृथ्वी देव ने बनाया था। यह चारों ओर खाईयों से घिरा हुआ है। किले में 4 द्वार सिंह द्वार, गणेश द्वार, भैरव द्वार तथा सेमर द्वार बने हुए हैं। सिंह द्वार के बांयी ओर गंधर्व, किन्नर, अप्सरा एवं देवी देवताओं के अलावा लंकापति रावण भी अपना सिर काटकर यज्ञ करते हुए दिखाई देता है।

गोपल्ला बिंझवार
सिंह द्वार में प्रवेश करने पर बायीं ओर एक विशाल पाषण प्रतिमा है, जिसके सिर और पैर ही दो भागों में दिखाई देते हैं। मान्यता है कि इस प्रतिमा का धड़ मल्हार में रखा है। अब इस प्रतिमा का धड़ मल्हार कैसे पहुंचा इसका कोई पता नही है। यह प्रतिमा गोपल्ला बिंझवार (गोपाल राय वीर) की मानी जाती है, इसे देवार गीतों में भी गाया जाता है। कहा जाता है कि गोपाल की वीरता से प्रभावित होकर मुगलबादशाह जहांगीर ने राजा कल्याणसाय को अनेक उपाधियां दी तथा रतनपुर से लगान लेना बंद कर दिया। आगे गणेश द्वार है, जहाँ हनुमान जी प्रतिमा है, कहते हैं कि इस प्रतिमा के पीछे सुरंग का द्वार है। जिसे प्रतिमा से बंद कर दिया गया है। इसके आगे थोड़ी दूर पर मराठा साम्राज्ञी आनंदीबाई द्वारा निर्मित लक्षमीनारायण मंदिर है। किले के मध्य में जगन्नाथ मंदिर स्थित है, इसका निर्माण राजा कल्याणसाय ने कराया था। मंदिर में भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा, एवं बलभद्र की प्रतिमा एवं भगवान विष्णु, राजा कल्याण साय एवं देवी अन्नपूर्णा की सुंदर प्रतिमाएं स्थापित है।

रनिवास-रतनपुर
मंदिर के पार्श्व भाग में रनिवास एवं महल के अवशेष विद्यमान हैं। रनिवास में माल खाना, हथियार खाना एवं सुरक्षा प्रहरियों के रहने के स्थान भी हैं। किले के पिछले द्वार पर ताला लगा था, यह रास्ता मोतीपुर की ओर जाता है। ताला बंद होने पर हम फ़ेन्सिग को उपर से पार करके मोतीपुर की ओर गए। कुछ दूरी पर यहाँ खाई से बने तालाब के किनारे एक बीसदुवरिया और बनी है। यहाँ राजा लक्ष्मणसाय की बीस रानियां सती हुई थी, उन्ही के स्मृति में यह स्मारक बनाया गया है। यह बीस दुवरिया क्षतिग्रस्त है। इस में अभी भेड़-बकरियों का डेरा होने से यह बीसदुवरिया खंडहर भी ध्वस्त होने के कगार पर है। कहते हैं कि मलयगिरि की भीलनी चूल्हा जलाने के लिए चंदन की लकड़ियों को उपयोग में लाती थी वैसे ही इस भव्य किले को समीप के रहवासियों ने हागालैंड बना दिया है। वापसी के दौरान कुछ लोटाधारी महिलाएं पुरुष किले में दिखाई दिए। हम सिर झुकाए उनके आगे से निकल गए। लोगों ने अभी तक अपनी महत्वपूर्ण पुराधरोहरों को सम्मान देना एवं सुरक्षित रखना नहीं सीखा है।

रामटेकरी- रतनपुर
हाथी किला से हम रामटेकरी की ओर चल पड़े। रामटेक की राम टेकरी तो हमने देखी थी। रतनपुर की रामटेकरी के दर्शन एवं निर्माणकर्ता की जिज्ञासा लिए हम रामटेकरी पहुंच रहे थे। टेकरी के समीप ही एक तालाब है, जिसे टेकरी पर से देखने पर भारत का नक्शा तालाब में दिखाई देता है। आसमान में बादल घिर आए थे, सुबह से पंकज बारिश की मांग कर रहा था। मैने उससे वादा किया था कि बरसात बुलाना मेरी जिम्मेदारी है और उसे रोकना तुम्हारा काम। अगर रोक सकते हो तो अभी घनघोर घटा छाकर बरस जाएगी। पर कितनी देर बरसेगी यह मैं नहीं बता सकता। अरविंद झा भी मौज ले रहे थे, बार-बार घर फ़ोन लगा कर रात के खाने का इंतजाम कर रहे थे। भूख का समय हो गया था, झा जी एक दर्जन केले लेकर आए पर उन्होने खाए नहीं। रात को ही इतनी ओवरडोज हो गयी थी उसका असर दोपहर तक बना हुआ था। अर्थात संडे का पूरा-पूरा फ़ायदा लेने के चक्कर में थे, पर क्या करें? हमारे जैसे घनचक्करों के चक्कर में फ़ंस कर रह गए।

ब्लॉगर ललित शर्मा एवं पार्श्व में रामटेकरी
रामटेकरी पर पहुंचे तो यहां काफ़ी पर्यटक आए हुए थे, इस पहाड़ी पर राम दरबार का भव्य एतिहासिक मंदिर है। समीप ही खुंटाघाट जलाशय भी है, इस बांध का निर्माण अंग्रेजों ने 1926 में कराया था। यहां सुंदर उद्यान भी है। बरसात में खुंटाघाट जलाशय लबालब भरा हुआ दिखाई दे रहा था। मंदिर के प्रवेशद्वार पर नारियल, फ़ूल अगरबत्ती वगैरह पूजा सामग्री के एक दुकान लगी थी। संभवत: यह मंदिर के पुजारी का कोई अनुग्रही लगता है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान राम, देवी सीता, भरत, लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न की प्रतिमा पंचायत शैली में विद्यमान हैं। भगवान राम की प्रतिमा के अंगूठे से जल की धारा प्रभावित होती है। साथ ही सभा मण्डप में भगवान विष्णु तथा हनुमान जी की प्रतिमा हैं। सभागृह के आगे रानी आनन्दी बाई द्वारा निर्मित राजा बिंबाजी का मंदिर है। मंदिर में फ़ोटो खींचने की मनाही है। मैने फ़ोटो लेने की कोशिश की, लेकिन पुजारी ने मना कर दिया और मेरे पीछे ही लगे रहे, कहीं फ़ोटो न उतार ले।

रामटेकरी से खुंटाघाट उद्यान का दृश्य
उनका कहना था कि फ़ोटो खींचने की मनाही सुरक्षा की दृष्टि से है। पूर्व में कभी मूर्ति चोरों ने यहाँ धावा बोल दिया था। फ़िर बाद में पता चला कि इस मंदिर को लेकर इसकी सर्वराकार चंद्रकांता और राज्य सरकार के बीच न्यायालय में संपत्ति के अधिकार को लेकर वाद विचाराधीन है। इसलिए मंदिर का पुजारी चित्र लेने से मना कर रहा था। इस पहाड़ी से रतनपुर का मनोरम दृष्य दिखाई देता है साथ ही हाथी किला भी, लेकिन वृक्ष आड़े आने के कारण हाथी किले की फ़ोटो नहीं ली जा सकी। जब हम जाने लगे तो पुजारी जी ने तीनों के लिए अलग से प्रसाद भिजवाया। आधे नारियल के साथ फ़ल और मिष्ठान भी थे। मैने मंदिर के परकोटे से एक चित्र खूंटाघाट बांध के समीप बने हुए उद्यान का लिया। नागपुर के समीप स्थित रामटेक के जैसे ही यहाँ पर भोसला राजा ने इस रामटेकरी मंदिर का निर्माण किया। रामटेक (महाराष्ट्र) का मंदिर भी मैने देखा है।

बूढा महादेव का  जलाभिषेक
 रामटेकरी से लौटकर हम बूढ़ा महादेव के प्राचीन मंदिर के दर्शन करने के लिए गए। पुराने शहर में संकरी गलियों से सिर्फ़ एक ही गाड़ी निकल सकती है। सामने से दो गाड़ियाँ आ गयी जिससे रास्ता जाम हो गया। हमने पास की गली में अपनी कार को बैक करके घुसाया तब कहीं जाकर भीतर जाने का रास्ता बन पाया। वृद्धेश्वर महादेव को बूढा महादेव कहते हैं। इस मंदिर के सामने बावड़ी बनी हुई है। मंदिर प्रस्तर से निर्मित है, तथा एक खम्बे पर उत्कीर्ण कुछ अभिलेख भी दिखाई दिया। यहाँ स्थापित लिंग बीच में खोल है। इसमें जितना भी जलाभिषेक करिए, जल का स्तर सामान्य ही बना रहता है। थोड़ा सा भी जल का स्तर नहीं बढता, जितना पहले था उतना ही रहता है। हमने भी सावन में शिवजी का जलाभिषेक किया। पुजारी जी ने केले एवं सेव का प्रसाद दिया।

बूढा महादेव
रतनपुर में देखने के लिए अभी बहुत कुछ बचा था लेकिन हमारे पास इतना समय नहीं था कि सब कुछ देख सकें। महालक्ष्मी मंदिर, जूना शहर तथा बादल महल, हजरत मुसे खाँ बाबा की दरगाह, गिरजावर हनुमान, रत्नेश्वर महादेव मंदिर, भुवनेश्वर महादेव मंदिर, कृष्णार्जुनी तालाब इत्यादि अनेक दर्शनीय स्थल हैं। पुरातत्व में रुचि रखने वाले के लिए रतनपुर दर्शन करना एक दिन में संभव नहीं है। इसके लिए कम से कम दो दिनों का समय होना चाहिए। फ़िर कभी अधिक समय लेकर आना होगा तभी सारे रतनपुर का भ्रमण हो सकता है। अब हमें पाली होते हुए चैतुरगढ एवं तुम्माण जाना था। पूछने पर पता चला कि बरसात में चैतुरगढ का मार्ग बंद हो जाता है और कार से जाना संभव नहीं होगा। तब हमने विचार किया कि रतनपुर से मल्लार होते हुए बिलासपुर चला जाए। मल्लार की दूरी भी यहां से 70 किलोमीटर के लगभग है तो हमने पाली और चैतुरगढ जाने का निश्चय किया और दीपक को छोड़ कर पाली की ओर चल पड़े। आगे पढें……

बुधवार, 22 अगस्त 2012

प्राचीन राजधानी रतनपुर ----------- ललित शर्मा

बिलासपुर से चलने की तैयारी
29 जुलाई 2012 की सुबह सप्ताहांत का रविवार लेकर आई, आसमान में बादल छाए हुए थे रिमझिम बरखा के आसार बने हुए थे। लाल चाय से सुबह हुई, स्नानाबाद से आकर बाबू साहब को फ़ोन लगाए तो पता चला कि उनकी तबियत नासाज हो गयी है और ओबामा के गोले ओसामा पर बरस रहे हैं। पहला झटका यहीं लग गया, हमने सारे गुदड़े बाबू साहब पर ही लाद रखे थे। नोकिया का चार्जर भूल आया, कैमरे वाले चलभाष की बैटरी अंतिम सांसे ले रही थी। कोई हॉट चार्जर मिल जाता तो चलभाष जल्दी चार्ज हो जाता। रास्ते के लिए जरुरी सामान समेट कर हम आगे के सफ़र के लिए चल पड़े। नाश्ता करने के लिए देवकीनंदन चौक की चौपाटी पर पहुंचे, वहां फ़टाफ़ट पोहा-जलेबी उदरस्थ की और अरविंद झा को फ़ोनियाए तो पता चला कि वे अभी भी निद्रासन में हैं। मैने उन्हे 15 मिनट में तैयार होने कहा और उनके घर की ओर चल पड़े।


पंकज सिंग
हमारे पहुंचने पर अरविंद झा किसी से फ़ोन पर चर्चा कर रहे थे। असनान-ध्यान का तो कहीं पता ही नहीं था। थोड़ी हुड़की लगाने के बाद भी 20 मिनट और जाया हुए और ब्लॉग कोतवाल तैयार हो गए चलने के लिए। हमने गाड़ी रतनपुर की ओर बढाई। बरसात में घूमने का आनंद ही कुछ और है। अरपा के साथ-साथ सफ़र हो रहा था, हमेशा की तरह नदी के किनारे सब्जी वाले बैठे थे। हमारी पहली मंजिल रतनपुर थी। वैसे तो रतनपुर का प्रवास सैकड़ों बार हुआ है पर आज सैलानी की नजर से देखने की इच्छा थी। इच्छा क्यों न हो भाई, रतनपुर छत्तीसगढ की चारों युगों की राजधानी थी इसलिए रतनपुर को चतुर्युगी नगरी भी कहा जाता है। राजे-रजवाड़ों के अवशेष देखने हैं। कम समय में अधिक स्थान देखने की गरज से राहुल भैया को फ़ोन लगाया और फ़िर समाधान हो गया। शहर के प्रवेश में खंडोबा मंदिर है। यहाँ शिवजी और भवानी की अश्वारोही प्रतिमा विराजमान है। इसे तुलजा भवानी मंदिर भी कहते हैं। इस मंदिर को मराठा नरेश बिंबाजी राव भोसला की रानी ने अपने भतीजे खांडो की स्मृति में बनवाया था। मंदिर के पीछे प्राचीन दुलहरा तालाब है।

महामाया मंदिर के पार्श्व में महाकाली
इसके बाद आगे चलने पर दाहिनी ओर भैरव मंदिर स्थित है। मंदिर के बाहर पूजा सामग्री और गानों की सीडी कैसेट बेचने वालों की पचासों दुकाने सजी हुई हैं। यहां काल भैरव की 9 फ़िट ऊंची प्रतिमा स्थापित है। देवी दर्शन करने के पश्चात श्रद्धालु काल भैरव की पूजा अवश्य करते हैं। किंवदंती है कि मणिमल्ल नामक दैत्य के संहार के लिए भगवान भोलेनाथ ने मार्तण्ड भैरव का रुप बनाकर सहयाद्री पर्वत पर उसका संहार किया था। रतनपुर कौमारी शक्ति पीठ होने के कारण कालांतर में यहाँ तंत्र साधना भी होने लगी तब बाबा ज्ञानगिरी ने इस मंदिर का निर्माण कराया था।रतनपुर महामाई मंदिर पहुंचे तो वहाँ हमें दीपक दुबे मिले। अब रतनपुर दर्शन उनके साथ ही करना था। रतनपुर दर्शन करके पाली होते हुए चैतुरगढ से तुम्माण तक पहुंचना था। रतनगढ में ही पूरा दिन बीत सकता था।

महासरस्वती एवं महालक्ष्मी
बिलासपुर, अम्बिकापुर मुख्य मार्ग पर बिलासपुर से 26 किलोमीटर की दूरी पर रतनपुर स्थित है। बिलासपुर से चलकर आधे घंटे के बाद हम रतनपुर आदिशक्ति महामाया के प्रवेश द्वार पर पहुंचे तो एक स्कार्पियो सपाटे से हमारे सामने से आगे निकल खड़ी हो गयी। इसमें दो तीन सज्जन बाहर आए। मंदिर के दरवाजे तक गाड़ी आने का तात्पर्य था कि कोई न कोई पॉवर हाऊस है, तभी गाड़ी यहाँ तक आई है। गर्भ गृह में दर्शनार्थ पहुंचने पर पुजारी उन सज्जन को विशेष पूजा करा रहे थे। उन्हे पद्महार पहनाया गया तथा उत्तरीय धारण कराया गय। जब वे बाहर आने के लिए घूमे, तब तक मैं पहचान चुका था। ये ट्रस्ट के अध्यक्ष बलराम सिंह जी थे। राम-राम हुई वे अपने काम में लग गए और हम अपने काम में। हमने महामाई के दर्शन किए और प्रसाद लिया। राजा रत्नदेव प्रथम ने मणिपुर नामक गांव को रतनपुर नाम देकर अपनी राजधानी बनाया। इस स्थान को महाभारत एवं जैमिनी पुराण आदि में राजधानी होने का गौरव प्राप्त है।

अरविंद झा एवं पंकज सिंह
त्रिपुरी के कलचुरियो ने रतनपुर को अपनी राजधानी बनाकर दीर्घकाल तक छत्तीसगढ़ में शासन किया। इसे चर्तुयगी नगरी भी कहा जाता हैं जिसका तात्पर्य है कि इसका अस्तित्व चारो युगो में विद्यमान रहा है। इस मंदिर के निर्माण के पीछे कथन है कि 1045 ई में राजा रत्नदेव प्रथम तुम्माण से मणिपुर नामक गाँव में आए, यहाँ उन्होने रात्रि विश्राम एक वट वृक्ष पर किया। अर्धरात्रि में जब राजा की नींद खुली तो उन्होने वट वृक्ष के नीचे अलौकिक प्रकाश देखा, वे आश्चर्य चकित रह गए कि वहाँ आदिशक्ति महामाया की सभा लगी हुई थी। यह सब देख कर राजा अपनी चेतना खो बैठे। सवेरा होने पर वे अपनी राजधानी तुमान लौट आए तथा रतनपुर को अपनी राजधानी बनाने का फ़ैसला किया। 1050 ई में महामाया के भव्य मंदिर का निर्माण कराया।

नीलकंठेश्वर - कंठी देवल मंदिर
इस मंदिर में तीन देवियाँ हैं, महासरस्वती एवं महालक्ष्मी मंदिर के गर्भ गृह में विराजित हैं और महाकाली बाहरी दीवाल पर पार्श्वभाग में विराजित हैं। मान्यता है कि यह मंदिर कभी तंत्र-मंत्र का केन्द्र रहा होगा। कहते हैं कि रतनपुर में सती का दाहिना स्कंध गिरा था तब भगवान शिव ने स्वयं इसे कौमारी पीठ का नाम दिया। जिसके कारण यहाँ माँ के दर्शन से कुंवारी कन्याओं को सौभाग्य की प्राप्ति होती है। कहते हैं कि यह जागृत पीठ है, कुछ वर्षों पूर्व चंद्रास्वामी का यहाँ आगमन काफ़ी चर्चित रहा। पटौदी के बाबा सतबीर नाथ ने भी यहाँ के प्रभाव को महसूस किया तथा मुझे बताया था। यहाँ मनोकामना ज्योतियाँ भी जलाई जाती हैं।

बीस दुवरिया
महामाया मंदिर के परिसर में स्थित तालाब के के किनारे नीलकंठेश्वर महादेव का भव्य एवं शिल्पकला से परिपूर्ण मंदिर है। इसे कंठी देवल मंदिर भी कहते हैं, इस मंदिर के समीप एक प्रतिमा विहीन मंदिर भी है। कंठी देवल मंदिर केन्द्रीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। इस मंदिर का बड़ी खुबसूरती के साथ जीर्णोद्धार किया गया है। अब हम महामाया मंदिर से थोड़ी ही दूर स्थित मधुबन की ओर जाते हैं, यहाँ पर तालाब के किनारे भगवान नर्मदेश्वर महादेव का मंदिर स्थित है एवं दूसरी तरफ़ राजा राजसिंह का भव्य स्मारक बना हुआ है, जिसे बीस दुवारिया कहते हैं। यह मंदिर प्रतिमा विहीन है तथा इसमें 20 दरवाजे हैं। प्रत्यके दरवाजों की चौखट की खड़ी पाटी में दो-दो फ़ुट के वही पत्थर दिखाई दिए जो हमने सिरपुर में देखे थे। बाकी पत्थर जामुनी रंग के थे। वैसे ही एक पत्थर का खम्बा मैने राजिम के कुलेश्वर महादेव के मंदिर में भी देखा था। अभी यह मंदिर जीर्ण शीर्ण अवस्था में है, इसे संरक्षण की आवश्यकता है वरना समय की मार से धराशायी हो सकता है। इसके चारों तरफ़ गंदगी फ़ैली हुई है। बैरागवन के समीप खिचरी केदारनाथ का प्राचीन मंदिर भी दर्शनीय है।आगे पढें………