गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

सुनसान भयावह सड़क पर भटकते ब्लॉगर

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
नेपाल से जैसे ही हमारी गाड़ी ने भारतीय सीमा में प्रवेश किया वैसे ही हमारी सहचरी बोल पड़ी। बहुत सुकून मिला उसकी मधुर आवाज सुन कर। भले ही मैं उसे गाहे-बगाहे कोसता रहा परन्तु नेपाल में उसकी जरुरत हमें महसूस होते रही। जब वह गडढों भरे रास्ते पर ले जाती थी तो उसका मुंह तोड़ने का मन करता था क्योंकि समय खराब होता था गाड़ी हिचकोले लेते हुए चलती थी। फ़िर भी उस आभासी साथी का संग कभी भूला नहीं जा सकता। एक हिम्मत बनी रहती थी, किसी भी शहर में रास्ता भटकने नहीं देती थी। जैसे ही हम सोनौली गाँव से बाहर निकले तो मैने पाबला जी से कहा कि भारत में प्रवेश कर गए हैं और इसकी पहचान स्वरुप लोटाधारी एवं लोटाधारिणियाँ सड़क के किनारे बैठे/बैठी दिखाई दिए। भारत की यही पहचान है कि सुबह शाम रास्ते के किनारे शौच करते महिला पुरुष दिखाई दे जाएगें।
बढ़ते चलो बी.एस.पाबला जी 
नौतनवा बायपास से निकलने पर पाबला जी ने कहा कि अब क्या प्रोग्राम बनाया जाए गोरखपुर में रात्रि विश्राम करने के लिए। तो मैने कहा कि - गोरखपुर में नहीं रुकते, सीधे ही चलेगें और रात भर गाड़ी हांकेगें। जहाँ नींद आएगी वहीं गाड़ी खड़ी करके सो लेगें। जब जाग गए तो आगे बढ जाएगें। सबने सहमति जताई और हम आगे बढते रहे। जीपीएस के कारण रास्ता याद करने की जरुरत नहीं थी। हम इलाहाबाद होकर आगे बढना चाहते थे। पिछला रास्ता छोड़ना था। जीपीएस वाली बाई को इलाहाबाद जाने का बोल कर हम निश्चिंत हो गए। उसने गोरखपुर से लगभग 25 किलोमीटर पूर्व ही बायपास से गाड़ी मोड़ दी। लगभग नौ बजने को थे। इस मार्ग पर ट्रकों का परिवहन दिखाई दे रहा था। 

उस समय चाय की दरकार हुई। भोजन का मन नहीं था। हमने चाय के लिए एक होटल में गाड़ी रोकी तो उसने बताया कि दूध नहीं है। कारण पूछने पर पता चला कि कोई त्यौहार है, इस दिन सभी घरों में दूध की जरुरत पड़ती है इसलिए होटलों में दूध नही मिलता। आगे बढ कर एक होटल में फ़िर चाय पूछी तो उसने भी मना कर दिया। हम आगे बढे ही थे कि किसी गाड़ी के जोरों से ब्रेक मारने की आवाज आई। साथ ही गाड़ी के टायरों के घर्षण से जलने गंध। हम अपनी साईड में थे और सामने से एक ट्रक आ रहा था। पाबला जी ने साईड की और मैने ब्रेक लगा दिए, ब्रेक क्या लगाना, लगभग अपनी जगह पर खड़ा ही हो गया था। सामने पुलिया थी और सायकिल वाले दो बच्चे भी। वे भौंचक निगाहों से हमारी गाड़ी की तरफ़ देख रहे थे। ये सब कुछ सेकंडों में घट गया ब्रेक मारने वाली उसी रफ़तार से हमारे बगल से गुजर गई।
कृष्ण कुमार यादव, बी.एस.पाबला, महफूज अली, गिरीश पंकज
कुछ दे्र हम अपने आपको संयत करते रहे। अगर वह कार वाला गाड़ी नहीं संभाल पाता तो हमें टक्कर मारता या सीधे सामने से आ रहे ट्रक से टकराता तो उसके चिथड़े उड़ने तय थे। पता नहीं कैसे लोग अपनी जान खतरे में तो डालते हैं साथ ही दूसरे को परलोकवासी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। हम आगे बढ गए, रास्ते में एक बड़ा ढाबा दिखाई दिया। जहाँ सफ़ेद कुर्ता पैजामाधारक टेबलों पर जमें  हुए थे। हमने भोजन के लिए यह जगह उपयुक्त समझी। खुले में बैठ गए, लेकिन होटल जितना बड़ा दिखाई, उतना ही घटिया था। रोटी चावल और भटे और आलू की सब्जी के अलावा कुछ था ही नहीं। जैसे तैसे हमने थोड़ा बहुत भोजन किया और आगे के सफ़र में चल पड़े। यह रास्ता अच्छा था, गाड़ी 50-60 की गति से मजे से चले जा रही थी।

जीपीस वाली बाई ने सज्जे मुड़ने कहा और सामने किसी नदी का बड़ा पुल था। पुल के पहले पुलिस की चौकी थी। एक कच्छाधारी पुलिस वाला लोटा लेकर जा रहा था तथा 3 पुलिस वाले डंडा लेकर पुल पर तैनात थे। 3 खटिया भी पड़ी थी मच्छरदानी लगाई हुई। पुल पार करते ही पुन: बड़े बड़े गड्ढे वाली सड़क मिली। हमने सोचा कि थोड़ी दूर होगी यह सड़क, फ़िर अच्छी सड़क आ जाएगी। यह रास्ता हमें बस्ती ले जा रहा था। बस्ती से अयोध्या फ़ैजाबाद होते हुए हमें इलाहाबाद पहुंचना था। यह सड़क तो बिलकुल बरबाद थी। घुप्प अंधेरे में अन्य कोई ट्रैफ़िक भी दिखाई नहीं दे रहा था। आधी रात के सन्नाटे में 4 लोग गाड़ी धकियाते चल रहे थे। 
कृष्ण कुमार यादव एवं ललित शर्मा सिरपुर के साथ 
एक स्थान पर तालाब के किनारे की सड़क ही गायब थी, उस पर नई मिट्टी डाली गई थी। पाबला जी ने गाड़ी रोक ली। अगर यहाँ गाड़ी फ़ंस जाती तो कोई निकालने वाला भी नहीं मिलता। मैने नीचे उतर कर देखा तो पहियों के निशान पर की मिट्टी सख्त थी। बस उन्ही निशान पर चलकर गाड़ी निकाली गई। गाड़ी निकल गई तो चैन की सांस आई। हम सड़क का ट्रेलर देख चुके थे। आगे बढे तो सड़क के किनारे मुसलमानों के घर, मदरसे इत्यादि दिखाई देने लगे। लगा कि हम मुसलमानों की घनी आबादी से निकल कर जा रहे हैं। सड़क दो कौड़ी और रात के एक बज रहे थे। अभी मुज्जफ़रनगर वाले मामले से हवा गर्म है और आपातकाल में इस इलाके में कोई पानी देने वाला भी नहीं मिलेगा। सियासत का क्या भरोसा? कब कौन शिकार हो जाए। सन्नाटा गहराता जा रहा था और रात रहस्यमयी होती जा रही थी। सड़क के आस पास की घास से निकल कर सियार सड़क पर दिखाई दे रहे थे, गाड़ी की रोशनी पड़ते ही भाग जाते थे। इस रास्ते पर 8 सियार दिखाई दिए।

मेरी आँखे लगातार सड़क पर लगी हुई थी। पाबला जी गाड़ी चलाते जा रहे थे। गिरीश भैया पिछली सीट पर शायद हमें कोसते हुए आराम कर रहे थे। क्योंकि उन्होने भी नहीं सोचा होगा कि इतने खतरनाक बियाबान रास्ते पर हमें चलना पड़ सकता है। शायद यह रास्ता बस्ती तक 40 किलोमीटर का रहा होगा। एक छोटे से गाँव में लगभग बहुत सारी लक्जरी बसें खड़ी दिखाई दी। पाबला जी ने कहा - ललित जी बसें देखिए। मैने कहा - यह कोई मुख्य स्टैंड होगा, जहाँ से चारों तरफ़ बसें जाती होगीं इसलिए इतनी सारी बसें एक साथ दिखाई दे रही हैं। हम आगे बढते गए और सड़क के किनारे खड़ी बसों की कतार खत्म ही नहीं हो रही थी। इतने अधिक खराब रास्ते पर लक्जरी बसें देख कर हम चौंक गए। लगभग 100 से अधिक बसें रही होगी। शायद इस इलाके में बड़ा ट्रांसपोर्ट माफ़िया होगा। तभी इतनी सारी बसें एक साथ दिखाई दी।
महफूज अली एवं गिरीश पंकज
बस्ती पहुंचने पर मैने आगे की सीट गिरीश भैया को सौंप दी तथा कुछ देर आराम करने के लिए पिछली सीट पर आ गया। पैर मोड़ कर नींद भांजने लग गया। मेरी आँख तब खुली जब हम अयोध्या से सरयू पर बने बड़े पुल से गुजर रहे थे। आगे फ़ैजाबाद हवाई अड्डे के किनारे से होते हुए हम आगे बढे। फ़ैजाबाद देख कर मुझे अमरेंद्र त्रिपाठी याद आए। यह उनका गृह जिला है। अगर समय होता तो अयोध्या का एक चक्कर फ़िर लगा लेते लेकिन हमें तो 17 तारीख तक किसी भी हालत में घर पहुंचना था। सुल्तानपुर 25 किलोमीटर था तब पाबला जी ने एक पैट्रोल पंप के किनारे गाड़ी को ब्रेक लगाया और बोले कि मैं सो रहा हूँ। जब थकान दूर हो जाएगी तो हम चल पड़ेगें। पैट्रोल पंप में एक चाय की दूकान थी और वहां कई तख्त पड़े थे। पहले तो चाय बनवाकर पी और मैं भी एक तख्त पर ढेर हो गया। गिरीश भैया पैदल घूम कर मौसम का आनंद ले रहे थे।

पाबला एक नींद पूरी करके उठे और मुझे जगाया। मौसम को देखते हुए उन्होने कहा कि डिक्की को ठकना चाहिए। आगे धूल भरा रास्ता है। वैसे भी रात भर चलने से पूरी गाड़ी में और बैग इत्यादि में धूल भर चुकी थी। गिरीश भैया की चादर को हमने डिक्की पर लपेट कर कांच बंद कर दिया। यह जुगाड़ हमें पहले ही कर लेना था। कैमरे को भी धूल से खतरा था, इसलिए मैने चित्र लेने के लिए बैग से निकाला ही नहीं। पर हमारा दिमाग तो काम नहीं किया पर सरदार का दिमाग काम आया। बात बन गई। यहां से हम आगे बढे। तभी ध्यान आया कि अपने प्रसिद्ध ब्लॉगर दम्पत्ति तो इलाहाबाद में ही रहते हैं और हमें अब नहाने और फ़्रेश होने की जरुरत थी। वैसे भी ब्लॉगर्स को मैं अपने पिछले जन्म का संबंधी ही मानता हूँ। जो इस जन्म में मुझे आभासी रुप से प्राप्त हुए। इस जन्म वाले सखा तो साथ पले बढे और खेले कूदे। पिछले जन्म के जो साथी छूट गए थे उन्हे भगवान ने इंटरनेट के माध्यम से मिलवा दिया। ये हुई न कोई बात।
महफूज अली, कृष्ण कुमार यादव, ललित शर्मा एवं  गिरीश पंकज
मैने 9 बजे मैसेज से कृष्णकुमार जी को इलाहाबाद आगमन की सूचना दी। उन्होने तुरंत मैसेज का जवाब देते हुए अपना पता भेज दिया और तत्काल मुझे फ़ोन लगाकर आने को कहा। मैने पाबला जी को बताया तो उन्होने सहचरी को जीपीओ पहुंचाने कह दिया। तभी महफ़ूज का फ़ोन भी आ गया। वह भी इलाहाबाद में था, पाबला जी ने मुझे बताया। चलो ये भी खूब रही, छोटा सा ब्लॉगर मिलन ही हो जाएगा। एक घंटे बाद हमने इलाहाबाद में प्रवेश किया। गंगा पार करने के बाद हमें एक नाका मिला। जहाँ टोल टैक्स लिया जा रहा था। छत्तीसगढ़ सरकार का पत्रकार का कार्ड दिखाने पर उन्होने कहा कि यहाँ नहीं चलेगा, ई यूपी है। चलो भई नहीं चलाओगे तो हमारा क्या जाएगा। घाटा तो यूपी सरकार का ही है। हम ब्लॉगर तो वैसे भी तुम्हारे यूपी की सड़कों को कोसते आ रहे हैं।

इलाहाबाद के ट्रैफ़िक सेंस की चर्चा क्या करुं? अगर नहीं करुंगा तो लोग कहेगें कि बताया नहीं। नाका से आगे बढने पर ट्रैफ़िक का जो हाल देखा, ऐसा कहीं देखने नहीं मिला। दांए, बांए, आगे, पीछे कोई कहीं से भी घुस जाता था। ऑटो वाले बीच सड़क से ही ऑटो मोड़ लेते थे। ट्रैफ़िक की हालत देख कर पाबला जी का दिमाग पर प्रेसर बढ रहा था और मेरा पैर पर। जी पी एस वाली बाई नगर के बीचों बीच लेकर चल रही थी। कृष्ण कुमार जी हम लोगों की लोकेशन ले रहे थे फ़ोन पर। लालबत्ती देख कर चौक पर हमारी गाड़ी रुकी। लेकिन बाकी ट्रैफ़िक नहीं रुका। हम हरी बत्ती का इंतजार करते रहे, चौक पर हमारी गाड़ी के बगल में ही सिपहिया खड़ा था। पाबला जी बोले - जब कोई नहीं रुक रहा तो हम क्यों रुकें। चलो बढा जाए, कह कर गाड़ी बढा दी।
ब्रिटिश क्राउन 
हम सिविल लाईन पहुंच गए। अब सिविल लाईन बहुत बड़ी है। किधर जाएं, जीपीएस वाली बाई जीपीओ, पोस्ट ऑफ़िस कमांड देने पर कई पोस्ट ऑफ़िस दिखाने लगी। जीपीओ की कमांड देने पर उसने हेड पोस्ट ऑफ़िस के पिछले दरवाजे पर पहुंचा दिया। वहाँ पर एक स्कूल था, लेकिन प्रवेश द्वार दिखाई नहीं दिया। हमने गाड़ी आगे बढाई तो गोल चक्कर पर चर्च दिखाई दिया। वहां से आगे बढने पर मुख्य प्रवेश द्वार दिखाई दे गया। द्वार पर पहरा लगा था, हमारी गाड़ी ने प्रवेश किया तो एक व्यक्ति हमें वहाँ मिल गए, जो हमें रिसीव करने के लिए खड़े थे। हमने गाड़ी खड़ी की तो धूल ही धूल भरी हुई थी समान में। तभी कृष्ण कुमार जी भी आ गए साथ आकांक्षा जी भी अलग कार में थे। नन्ही ब्लॉगर अक्षिता पाखी और अपूर्वा स्कूल से आए थे। हम गेस्ट रुम में पहुंच गए। पाबला जी सो गए और मैं स्नानाबाद चला गया।

खाना तैयार था, मैं पाबला जी को नींद से जगाना नहीं चाहता था, गिरीश भैया को खाने के लिए बुला लाया। हम दोनों ने भोजन किया और मैं भी एक नींद लेना चाहता था। यादव जी ने कहा था कि - जब आप लोग फ़्री हो जाएं तो मुझे फ़ोन कर लीजिएगा, मैं यहीं हूँ। मैं सोफ़े पर सो गया। पाबला जी का फ़ोन बजने लगा। 3 बार किसी का फ़ोन आया, वे गहरी नींद में थे। मैं भी निद्रा रानी के आगोश में जाने वाला था फ़ोन की घंटी बज गई। देखा तो महफ़ूज अली थे। आ जाओ भाई सीधे ही उपर। और वो पट्ठा भी सीधा ही उपर आ गया। :) थोड़ी देर में मैं नींद की खुमारी से बाहर आया। महफ़ूज ने पाबला जी को भी जगा दिया। पाबला जी ने स्नान करके भोजन किया। फ़िर मैने तीन बजे कृष्ण कुमार जी को फ़ोन लगाया। वे भी आ गए और ब्लॉगर्स की महफ़िल जम गई। मैने उन्हे सिरपुर सैलानी की नजर से पुस्तक भेंट की।
बी. एस. पाबला, महफूज अली, कृष्ण कुमार यादव, गिरीश पंकज एवं अन्य 
कृष्ण कुमार जी का जनसम्पर्क बहुत तगड़ा है, उन्होने तुरंत ही फ़ोन करके एक पत्रकार को बुला लिया। नेपाल ब्लॉगर सम्मान समारोह पर बात होने लगी। पत्रकार ने हम सबके विचार लिखे। फ़िर हम पोस्ट ऑफ़िस घूमने गए। जहाँ बहुत सारी चीजें मुझे देखने मिली। मेरी रुचि वहां मौजूद ब्रिटिश क्राऊन में अधिक थी। कृष्ण कुमार यादव जी ने बताया कि यह प्रस्तर निर्मित ब्रिटिश क्राऊन पोस्ट ऑफ़िस के कबाड़ में पड़ा हुआ था। उसे जोड़ कर उन्होने पोस्ट ऑफ़िस में रखवाया। इसका एक भाग टूट चुका है तथा लैटिन भाषा में लिखे हुए अक्षर टूटने के कारण लिखा हुआ पढा नहीं जा सका। कुछ पुरानी डाक टिकटें, हरकारों के हथियार इत्यादि यहां प्रदर्शित किए गए है। अब हमारा आगे बढने का समय हो रहा था।

हमने कुछ चित्र 1872 में निर्मित लेटर बॉक्स के साथ खिंचवाए और कृष्ण कुमार जी धन्यवाद देते हुए उनसे विदा ली। यह एक अविस्मरणीय भेंट थी, जो हमेशा याद रहेगी। अब हमें इलाहाबाद के ट्रैफ़िक से फ़िर जूझना था। चौराहे पर फ़िर वही घटना हुई। अबकि बार पाबला जी अड़ गए कि बिना हरी बत्ती हुए गाड़ी आगे नहीं बढाएगें। लाल बत्ती में भी पीछे की गाड़ियाँ वाले आगे बढने के लिए हार्न बजा रहे थे। बत्ती हरी होने पर आगे बढे। बाजार के बीचे से चलते हुए गाड़ी वाली आगे पीछे अगल-बगल से निकलने लगे। हमारी गति एकदम कम ही थी। एक सुजूकी वाले ने बाईक हमारी गाड़ी के सामने अड़ा दी और पाबला जी ने उसे हल्की की टक्कर दी। वह बाईक लेकर घूरते हुए आगे बढा। बाजार से निकल कर हम गंगानदी के पुल पर पहुंचे तो वहां खूंटे गड़े हुए मिले। मतलब इधर से लोहापुल से आगमन का रास्ता था, जाने वाला बंद था। गाड़ी वापस मोड़ी। जीपीएस ने फ़िर उसी रास्ते पर पहुंचा दिया।
तीन ब्लॉगर रास्ते में (कैम्प टी)
फ़िर हमें बंगाल के नम्बर की एक मारुति दिखाई दी। मैने कहा कि इसके पीछे पीछे चलते हैं ये भी पुल पार करेगा। इसके पीछे गाड़ी लगाने पर वह नदी के रास्ते पर गया और वहाँ से लौटती हुई सड़क से पुल पर चढने का रास्ता था। काफ़ी मशक्कत के बाद हमें पुल पार करने का रास्ता मिल गया। यहां पर जी पी एस वाली बाई फ़ेल हो गई। मुझे मालकिन ने फ़ोन करके कहा था कि घर में गंगाजल खत्म गया है। इसलिए गंगाजल लेकर आना। अब क्या बताएं गंगाजल की कहानी। एक बार इलाहाबाद में गंगा त्रिवेणी में स्नान करने के बाद 5 लीटर के डिब्बे में गंगाजल भर कर लाए थे। रायपुर पहुंचने पर देवी शंकर अय्यर मुझे स्टेशन लेने आए। गंगा जल उनकी बाईक की डिक्की में रख कर भूल गया और वो उनके घर पहुंच गया। फ़िर उनसे मांगा नहीं और न ही उन्होने मेरे घर पहुंचाया।

मैं बाजार में आस पास 5-10 लीटर का जरीकेन देखता रहा, लेकिन कहीं नहीं दिखाई दिया। गिरीश भैया कहने लगे कि डिब्बे में भरा हुआ गंगा जल बिकता है। कहीं दिख जाएगा तो ले लेगें। मैने तो आज तक डिब्बे में भरा गंगाजल बिकते नहीं देखा। हाँ डिब्बे जरुर बिकते हैं जिन पर गंगा जल लिखा रहता है। अगर कहीं डिब्बा मिल जाता तो नदी किनारे गाड़ी रोक कर भर लेते। गंगा की अथाह जल राशि से एक डिब्बा गंगा जल भी नसीब में नही था। हम पुल पार करके गंगा के किनारे भी पहुंचे, लेकिन गंगा जल लेकर किसमें जाएं। बिना गंगा जल लिए हमने इलाहाबाद छोड़ दिया और रींवा मार्ग पर चल पड़े। सूरज अस्ताचल की ओर जा रहा था। घरों में रोशनी हो चुकी थी। हमें इलाहाबाद से रींवा मार्ग पर आने में 1 घंटे से अधिक समय लग गया। एक होटल में रोक कर चाय बनवाई और पान खाए, बंधवाए और आगे बढे।

नेपाल यात्रा आगे पढे……… जारी है। 

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

तार-तार कांच, लाल पीला प्रहरी और माओवादियों का हंगामा : काठमांडू

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
सुबह तय समय पर आँख खुल गई, कैमरे की बैटरी चार्जिंग में लगी दिख रही थी अर्थात पाबला जी ने रात को मेरे कैमरे की बैटरियाँ चार्जिंग में लगा दी थी। मौसम पनीला बना हुआ था। हल्की हल्की बूंदा बांदी जारी थी। हम स्नानाबाद से होटल की लाबी में आ गए। राजीव शंकर मिश्रा जी ने चाय तैयार करवा रखी थी। नगरकोट जाने वाले ब्लॉगर तैयार होकर एक एक कर लाबी में एकत्र हो रहे थे। चलते चलते एक फ़ोटो हम सब ने खिंचाई और गाड़ी में सवार हुए। होटल में पार्किंग की जगह कम होने के कारण हमारी गाड़ी फ़ंसी हुई थी। पाबला जी गाड़ी निकालने की कोशिश कर रहे थे, मैं सामने की सीट पर था, गाड़ी के पीछे गिरीश भैया और राजीव शंकर मिश्रा जी थे। दुबारा रिवर्स करने पर भड़ की ध्वनि उत्पन्न हुई। लगा कि कुछ टकराया है गाड़ी से। पीछे लगे कैमरे ने कुछ नहीं दिखाया। मैने मुडकर देखा तो पीछे का कांच फ़ूट गया था।
नेपाल की सुबह
पाबला जी ने गिरीश भैया से गाड़ी में बैठने कहा और वे बिना पीछे देखे आगे बढ गए। रास्ता खराब होने के कारण ट्रैफ़िक जाम होने का अंदेशा बताया था, अगर हम पाँच बजे से पहले नहीं चलते तो 3-4  घंटे ट्रैफ़िक जाम में खराब हो जाते, सो हम जल्दी ही चल पड़े थे। कांच टूटने की बोहनी हो चुकी थी, अब आगे का दिन कैसा होगा राम ही जाने। नीली छतरी वाले का सुमिरन करके वापसी की यात्रा शुरु हो गई थी। मुंह अंधेरे हम काठमांडू से चल पड़े। राजीव शंकर मिश्रा के बताए रास्ते पर चल कर हम त्रिभुवन राज मार्ग पर पहुंच गए अब हमें मुग्लिंग में जाकर बांए मुड़ना था, तब तक सीधा ही चलना था। 
सुबह काम पर जाता किसान
ज्यों ज्यों हम काठमांडू की उपत्यका से नीचे आते जा रहे थे त्यों त्यों दिन की रोशनी दिखाई देने लगी। जिस स्थान पर जाम लगने की आशंका थी वह स्थान हम पार कर चुके थे। हमने बजे काठमांडू के बाहरी इलाके में नागधुंगा चेक पोस्ट के पास पेट्रोल डलवाया सुबह का समय हो और लोटाधारी न दिखें, ये संभव ही नही है। लेकिन हमें नेपाल में सुबह सड़क के किनारे शौच करते नर नारी नहीं दिखाई दिए। लगभग 70 किलोमीटर तक तथा आते वक्त भी कोई भी लोटाधारी दिखाई नहीं दिया। भारत में तो प्रवेश करते ही पता चल जाता है कि हम भारत में हैं। सड़क के किनारे और रेलपटरियों पर शौच करना यहाँ के नागरिकों का परम धरम है और इसे कर्तव्य मान कर श्रद्धापूर्वक निपटाया जाता है।
नारायणी नदी और पुल
एक स्थान पर सुंदर दृश्य देखकर हमने गाड़ी रोकी, तब तक सूरज निकल चुका था। दुकान में चाय पूछने पर उसने मना कर दिया तो हमने लीची का ज्यूस ले लिया। चलो इसी से काम चलाया जाए। आगे चलकर हम मुग्लिंग पहुच रहे थे, यहाँ से नारायणगढ़ लगभग 35 किलो मीटर था। हमने योजना बनाई थी कि लगभग 10 बजे तक लुम्बिनी पहुंच जाएगें। लुम्बिनी में घूम कर  कुछ घंटे फ़ोटो ग्राफ़ी करेगें और शाम होते तक सीमा से पार हो जाएगें।एक स्थान पर गाड़ी रोककर हम लोगों ने नाश्ता किया। मुग्लिंग प्रवेश करने पर सड़क पर कुछ वाहन रुके हुए दिखाई दिए। मैने सोचा कि यहाँ पर कोई टोल बैरियर होगा। क्योंकि नेपाल में डंडा लगाकर बैरियर खड़ा नहीं किया जाता। टोल बैरियर होने का संकेत सड़क के बीच में मार्गविभाजक पर लगा दिया जाता है।
सीढीदार खेत
लेकिन यहाँ मामला और ही कुछ था। हमने गाड़ी रोक दी, साथ ही हमारा सोचना था कि पराए देश में किसी से उलझना ठीक नहीं है, भारत होता तो कुछ भी कर सकते थे। पराए देश के नियम कानूनों का भी पता नहीं होता। जब से राजीव शंकर मिश्रा ने मुर्गी वाला कानून बताया था तब से मैं और चौकन्ना हो गया था। सड़क पर मुर्गी देखते ही ब्रेक मार देता था। यहाँ जाम लगा हुआ दिखाई दे रहा था। तभी एक ट्रैफ़िक पुलिस वाला आया, उसने गाड़ी का नम्बर देखते हुए बगल से निकल जाने को कहा तथा बताया कि चुनाव की मांग को लेकर माओवादियों ने आज नेपाल बंद का आह्वान किया है। आप लोग चाहें तो निकल जाएं, वरना खड़े रहें। गिरीश भैया अचानक उस पर भड़क गए। मैं अंचभित हो गया, पाबला जी गिरीश भैया के मुंह की तरफ़ देखने लगे। उन्होने बात संभाली, पुलिस वाला भी तैश में आ गया था। 
सड़क किनारे नेपाली मकान (आधुनिकता का प्रभाव)
हम आगे बढे, चौराहे पर झंडे लिए भीड़ और कैमरा लिए पत्रकार उपस्थित थे। उन्होने रोकने की कोशिश की, लेकिन हम बच कर आगे बढ गए। नदी का पुल पार किया और आगे बढने पर मुझे लगा कि जिस सड़क से हम आए थे, वह सड़क नहीं है, हम किसी और रास्ते पर जा रहे हैं, क्योंकि यहाँ पर एक विद्र्युत निर्माण की युनिट भी दिखाई दी। गाड़ी रोक कर टुरिस्टर वाले से पूछा तो उसने बताया कि यह मार्ग पोखरा जाता है। हमने गाड़ी वापस की और पुन: उसी चौराहे पर आ गए जहाँ हड़ताली जमा थे। चौराहे से हमने गाड़ी सज्जे पासे मोड़ी तो कुछ लोग हल्ला करते हुए पीछे दौड़ने लगे। पाबला जी ने बैक मिरर में देखते हुए गाड़ी रोक ली। कुछ लोग मेरी खिड़की पर आए और कहने लगे कि "एक बेरामी है, उसे नारायणगढ़ तक ले जाईए।" मेरी समझ  में नहीं आया "बेरामी" क्या होता है। फ़िर उन्होने बताया कि कोई बीमार बूढा है जिसे नारायणगढ में इलाज करवाना है। मैने उन्हें गाड़ी में बैठ जाने कहा।
नारायणी नदी में गिरी जेसीबी  मशीन
हम नारायणगढ़ की ओर बढे। रास्ते में वह स्थान भी आया जहाँ पर जेसीबी लोडर नदी में गिरा हुआ था। हमने कार रोक कर उसकी फ़ोटो ली। लड़के ने बताया कि आज सब जगह हड़ताल और नेपाल के वाहन चलने नहीं दिए जा रहे। लगभग 10 बजे कुछ गाड़ियाँ फ़िर खड़ी दिखाई दी हमने उनके बगल से गाड़ी आगे बढाई, लौटते हुए एक कार वाले ने बताया कि आगे जाम लगा है, इसलिए हम रुकने के लिए होटल तलाश करने जा रहे हैं। हम आगे बढे तो जुगेड़ी के पास पुलिस थाना था, उसके सामने सिपाही खड़े थे तथा थाने के बराबर में ही एक होटल था। सिपाही ने गाड़ी आगे बढाने से मना कर दिया। वह लड़का बोला कि मैं इनसे बात करके आता हूँ। उसके प्रयास से भी गाड़ी आगे जाने नहीं दी। बताया कि भारतीय गाड़ियों के साथ तोड़ फ़ोड़ कर चालकों से साथ माओवादी मारपीट कर रहे है। लड़का और बूढा गाड़ी से उतर कर थाने के सामने बैठ गए और हमने गाड़ी होटल में लगा दी।
पाबला जी फ़ोटासन में
होटल अच्छा था, सुबह जल्दी चलने के कारण पेट भी गुड़गुड़ा रहा था, होटल मे प्रवेश करते ही टायलेट तलाशा। लौटने पर दिमाग हल्का हुआ, हाथ मुंह धोकर हम एक टेबल पर जम गए। ट्रैफ़िक खुलने की प्रतीक्षा करती अन्य सवारियाँ भी थी। बीयर की बोतल खोले समय पास कर रहे थे। नेपाली चैनल बंद के दौरान घूम धड़ाके की खबरें बता रहा था। सफ़र में 3 चीजे आवश्यक होती हैं, पहला ठहरने का सुरक्षित स्थान, दूसरा आवागमन का साधन और तीसरा खाना। मुझे तीनों आवश्यक चीजें यहाँ पर दिखाई दे रही थी। इसलिए ठहरने में कोई समस्या नहीं थी। हमने भी खाने का आडर दे दिया, आराम से खाते हुए टाईम पास कर रहे थे। वेटर भी स्मार्ट था, खाने की आपूर्ती फ़टाफ़ट करता था। खाने के बाद घड़ी देखी तो 12 बजे हुए थे। धूप इतनी चमकीली थी कि लग रहा था 2-3 बज गए। मैं वहीं बैंच पर लेट गया और झपकी आ गई।
होटल का वेटर
हल्ला सुनकर आँख खुली, जाम खुल गया चलो चलो। हमने फ़टाफ़ट अपना सामान उठाया और गाड़ी की तरफ़ दौड़े, सड़क पर ट्रैफ़िक सरक रहा था, पाबला जी ने कार एक बस के सामने डाल दी और हम भी लाईन में शामिल हो गए। थोड़ी दूर चलने पर ट्रैफ़िक फ़िर रुक गया। पाबला जी ने कहा कि गाड़ी फ़िर होटल में लगा लेते हैं।अब सैकड़ों गाड़ियों के बीच से अपनी गाड़ी निकाल कर पुन: होटल में लगाना मुझे जंचा नहीं क्योंकि गाड़ी होटल में ले जाने बाद फ़िर हम सैकड़ों गाड़ियों के पीछे चले जाते। जुगेड़ी और नारायणगढ़ के बीच रामनगर एवं चितवन का जंगल है, यहीं पर माओवादियों ने सड़क जाम कर रखी थी। यह स्थान जगेड़ी से लगभग 10 किलोमीटर दूर था। मैने गाड़ी में ही सीट सीधी कर ली और सो गया। गर्मी बहुत ज्यादा थी। पाबला जी गाड़ी से नीचे उतर कर सवारियों से बात करने लगे।
जाम के दौरान मोबाईल पर चुटकुले पढते गिरीश भैया और पाबला जी
नेपाल में अभी तक मैने एक भी सरदार नहीं देखा था। पता नहीं क्यों नेपाल तक सरदारों की पहुंच नहीं थी। नेपाल के लोगों को सरदार की पहचान नहीं है, वे पाबला जी को बाबा जी कह कर संबोधित कर रहे थे। गत हिन्दू राष्ट्र होने के कारण दाढी वाले और पगड़ीधारी इन्हें साधू महाराज ही लगते होगें। इसलिए बाबाजी का संबोधन जारी था। शाम 4 बजे ट्रैफ़िक खुला। गाड़ियाँ सरकती हुई आगे बढने लगी। चितवन के जंगल में पहुचने पर गाड़ियों के टूटे हुए शीशे सड़क पर दिखाई दिए। माओवादियों ने हमारे एक दिन का सत्यानाश कर कर दिया और लुम्बिनी देखने की हमारी योजना की भ्रूण हत्या हो चुकी थी। जाम का असर हमें नारायणगढ़ के बाद भी दिखाई दिया।
नेपाल की तरफ़ से दिखती भारतीय सीमा (सोनौली)
शाम ढलने लगी, नारायणगढ़ के साथ पहाड़ियाँ पीछे छूट रही थी। हम सीमा की ओर निरंतर बढ़ रहे थे, सीमा से पहले एक रास्ता बुटबल होते हुए भैरवाह जाता है तथा दूसरा रास्ता और है जो सीधे ही भैरवाह जाता है, हम इसी रास्ते पर चल रहे थे। भैरवाह से पहले पुलिस ने गाड़ी रोकी, कांच फ़ूटने का कारण पूछा, गाड़ी के कागजात देखे तथा कहा कि सीट बेल्ट बांध लो। नेपाल में सीट बेल्ट बांधना अनिवार्य है। हम पूरे नेपाल का सफ़र करके आ चुके थे, किसी ने सीट बेल्ट बांधने के लिए नहीं टोका। जब सीमा 20 किलोमीटर बची है, तब पुलिस वाला सीट बेल्ट बांधने का कानून समझा रहा था। पाबला जी ने कहा कि बांध लो और मैने सीट बेल्ट बांध ली। जब हम भैरवाह सीमा पहुंचे तो एक व्यक्ति ने गाड़ी के कागजात देखे और उसमें एक पेपर फ़ाड़ कर रख लिया। सीमा पर एक स्थान पर नम्बर प्लेट जमा करवाई। भारतीय सीमा में प्रवेश करने पर सीमा सुरक्षा बल के जवान ने थोड़ी पूछताछ की और हम भारतीय सीमा में प्रवेश कर नौतनवा की ओर बढ गए।

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सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

परिकल्पना साहित्य सम्मान काठमाण्डू

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
होटल पहुंचने के बाद पता चला कि आज भी हमारे जैसे बचे-खुचे लोगों के लिए छोटा सा कार्यक्रम रखा गया है। सारे ब्लॉगर साथी तो थे ही। होटल के एक हॉलनुमा कमरे में सोफ़े और कुर्सियाँ लगाई गई। पीछे परिकल्पना ब्लॉगर सम्मान का बैनर लगाया गया। हम चाय पीकर रेस्टोरेंट में गप्पे हाँक रहे थे। उधर से बार-बार बुलावा आ रहा था कार्यक्रम में शामिल होने के लिए। 
श्री सनत रेग्मी द्वारा गिरीश पंकज जी का सम्मान
मनोज भावुक, सरोज सुमन, सुशीला पुरी शैलेष भारतवासी, पाबला जी इत्यादि यहीं जमें हुए थे। लगातार फ़ोटो लेने के कारण मेरे कैमरे की बैटरी ने आखिर जवाब दे दिया। मैं कैमरे को अपने कमरे में रख आया और कार्यक्रम स्थल पर पहुंच गया। सूचना मिली कि आज के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रज्ञा प्रतिष्ठान के सचिव सनत रेग्मी जी होगें।
श्री सनत रेग्मी द्वारा ललित शर्मा का सम्मान
कार्यक्रम प्रारंभ सुनीता यादव के सरस्वती वंदना गायन से हुआ, सुशीला पुरी, रविन्द्र प्रभात, सनत रेग्मी, गिरीश पंकज पीठासीन हुए, कार्यक्रम का संचालन लखनऊ से पधारे डॉ रामबहादुर जी ने संभाला। सबसे पहले बचे खुचे ब्लॉगर्स में बी एस पाबला, गिरीश पंकज, ललित शर्मा, संजीव तिवारी का उत्तरीय स्मृति चिन्ह एवं प्रमाण पत्र से सम्मान किया गया। संजीव तिवारी की अनुपस्थिति में छत्तीसगढ़ी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए उन्हें दी गई सम्मान सामग्री मुझे ग्रहण करनी पड़ी। 
श्री सनत रेग्मी द्वारा बी एस पाबला जी का सम्मान
इसके पश्चात सनत रेग्मी जी कहा कि इस कार्यक्रम ने दो देशों के बीच सेतू बनाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होने परिकल्पना की टीम को इसके लिए साधूवाद दिया तथा कहा कि समय अधिक हो चुका है और 9 बजने के बाद काठमाण्डू पूरी तरह बंद हो जाता है इसलिए मुझे जाना होगा। 
मनोज भावुक काव्य पाठ करते हुए
इस कार्यक्रम के बाद कवि एवं कवियत्रियों को अपना भौकाल टाईट करना था। सभी अपनी काव्य सामग्री साथ लाए थे। सुनीता यादव, डॉ रामा द्विवेदी, विनय प्रजापति, मुकेश सिन्हा, मुकेश तिवारी, गिरीश पंकज, सुशीला पुरी, रविंद्र प्रभात, डॉ राम बहादुर इत्यादि ने अपना कविता पाठ किया। मनोज भावुक जी ने अपनी भोजपुरी गजलों से मौसम को हरा भरा कर दिया तथा सरोज सुमन जी ने भोजपुरी गजलें गा कर माहौल जमा दिया।
मुकेश सिन्हा काव्य पाठ करते हुए
नमिता राकेश ने हिन्दी और पंजाबी में कविता पाठ किया, "आदमी से दूर होता जा रहा है आदमी, आदमी की आदमियत पर भरोसा क्या करें, अपनी हस्ती खुद मिटाता जा रहा है आदमी " तथा पंजाबी कविता के अंश - " ओह वी उडना चाउन्दी सी, पतंग वांग, पर उसदी उडारी निरबर सी,उसनू दित्ती जाण वाली ढील ते " इस तरह सभी काव्य पिपासुओं ने अपनी-अपनी कविताएं भांजी।
संपत मोरारका काव्य पाठ करते हुए
पाबला जी कार्यक्रम के बीच से उठ कर चले गए थे। शायद उन्हे भूख लग रही थी। कविता पढने का मुक्त आह्वान तो मुझसे भी किया गया था। समस्या यह थी कि कविताएं मुझे याद नहीं रहती। अगर व्यक्ति लगातार काव्य गोष्ठियों में गमनागमन करता रहे तो करत करत अभ्यास के कविताएं याद हो जाती है। मैने सोचा था कि यदि कविता पढने का मौका आएगा तो अपने ब्लॉग से निकाल लुंगा। 
सुनीता यादव काव्य पाठ करते हुए
लेकिन हम ऐसे होटल में रुके थे वहां इंटरनेट की सुविधा नहीं थी। साथ ही भारत के फ़ोन यहाँ आने के बाद बंद हो गए इसलिए डॉटा कार्ड का भी इस्तेमाल नहीं हो सकता था। इस समस्या के कारण मैं चूक गया और कविता पाठ न कर सका। खैर कोई बात नहीं अब कुछ कविताएं रामचरित मानस की चौपाई की तरह याद कर लेगें। इंटरनेट पर अधिक भरोसा करना ठीक नहीं।
डॉ रामा द्विवेदी काव्य पाठ करते हुए
कार्यक्रम समापन हुआ, सभी भोजन कक्ष में पहुंचे और हमने कमरे में ही डेरा लगा लिया। राजीव शंकर मिश्रा जी बनारस वाले संग चर्चा चलते रही। थकान के कारण खाना हमने कमरे में ही मंगवा लिया। हमारी घड़ी के अनुसार रात के लगभग साढे ग्यारह बजे पाबला जी एवं गिरीश भैया पहुंचे। तब तक हमारा खाना पूर्ण हो चुका था। राजीव शंकर जी ने कहा कि मैं सुबह आप लोगों को विदा करने के बाद जाऊंगा तथा रात को होटल में ही रुकुंगा। 

सुशीला पुरी एवं नमिता राकेश जी
उनसे विदा लेने के बाद हमने अपना बिस्तर सभांल लिया। पाबला जी ने अपने कैमरे की बैटरियां चार्जिंग में लगा दी थी। मेरे कैमरे की बैटरियाँ भी ठंडी पड़ चुकी थी, उन्हे भी गर्म करना था। पाबला जी ने कहा कि आपकी बैटरियाँ भी चार्ज हो जाएगें, सो जाईए। मैने भी सोचा कि यदि चार्ज नहीं हुई तो कोई बात नहीं। कोई भी हो एक कैमरा तो कम से कम चलने लायक रहेगा ही। उसी की फ़ोटुओं से काम चला लिया जाएगा। सुबह 4 बजे चलने का वादा करके हम सभी बिस्तर के हवाले हो गए।

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

ओस कण से निर्मित मंदिर : स्वयंभूनाथ

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
रबार स्क्वेयर से हमारी बस स्वयंभूनाथ मंदिर की ओर चल पड़ी। भूखाग्नि में तो सभी झुलस रहे थे। मंदिर के समीप ही एक रेस्टोरेंट में नाश्ते का कार्यक्रम था। वहाँ पहुंचने पर थोड़ी देर के लिए विश्राम का समय मिल गया। सुशीलापुरी जी हमें दरबार स्क्वेयर में मिली थी। उनका एक ठिकाना काठमांडू में भी है, वे वहीं ठहरी हुई थी। इस रेस्टोरेंट में पहुंच कर जिसे जहाँ जगह मिली वो वहीं टिक गया। नास्ते के बतौर सिर्फ़ 2 ही विकल्प थे, चाऊमीन एवं फ़्राई राईस। किसी ने चाऊमीन का आर्डर दिया तो किसी ने चावल का। मैने चाऊमीन खाने की सोची और आर्डर दे दिया। नाश्ता आते तक हम फ़ोटो ग्राफ़ी करते रहे। पहले चावल दिया गया। हमारी चाऊमीन बाद में आई। नाश्तोपरांत स्मृतियों में संजोने के लिए एक ग्रुप फ़ोटो यहाँ ली गई।

स्वयंभूनाथ स्तूप (शाक्य मुनि मंदिर) का शिखर
दूर से ही स्वयंभूनाथ मंदिर का शिखर दिखाई दे रहा था। साथ ही उसमें बनी हुई बड़ी बड़ी आँखे भी। हमने स्वयंभूनाथ के मंदिर में प्रवेश करने के लिए विदेशियों के लिए 50 नेपाली रुपए का शुल्क है। स्थानीय लोगों के लिए नि:शुल्क प्रवेश है। द्वार से प्रवेश करते ही सामने हिरण्यमय धातू की चमक चढाए जल कुंड के बीच बुद्ध की मूर्ति स्थानक मुद्रा में दिखाई दी। यहाँ पर गिरीश भैया के कुछ चित्र लिया। मुकेश सिन्हा भी चित्र स्पर्धा में कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होने भी खटाखट खटका दबाया। पहाड़ी पर बने हुए स्तूप तक जाने के लिए पैड़ियाँ बनी हुई हैं। पैड़ियों के समीप ही वज्रयान का प्रतीक चिन्ह वज्र रखा हुआ है।  जिसे लोहे की पट्टियों से बांधा हुआ है।
ब्लॉगर्स का सामुहिक छाया चित्र

ऊँची पहाड़ी पर बने इस मंदिर पर जाने के लिए पूर्व की ओर सड़क से सीढ़ियाँ बनी हैं, जिसके दोनों किनारों पर छायादार वृक्ष हैं तथा दस-दस फुट के फासले पर भूमि-स्पर्श मुद्रा में भगवान बुद्ध की कई मूर्तियाँ रखी हुई हैं। इसके साथ ही बीच-बीच में गणेश और कार्तिकेय की मूर्तियाँ भी हैं। इनके दोनों ओर मयूर और गरुड़ की मूर्तियाँ हैं। सीढ़ियों के लगभग मध्य में दो हाथियों की मूर्तियाँ हैं और अंत में वीरासन में बैठे दो सिहों की प्रतिमाएँ। अंतिम सीढ़ी पर धर्मधातुमंडल पर स्वर्णमंडित वज्र बना है। इस चक्र में गाय, सूअर, गेंडा, सिंह, शेर आदि बारह विभिन्न पशु-पक्षियों की सजीव मूर्तियाँ, उत्कीर्ण  मंत्रचक्र हैं। ये बारह पशु-पक्षी तिब्बती वर्ष के बारह महीनों के प्रतीक हैं। इस स्तूप के परिसर में मंदिरों और चैत्यों की भरमार है, जो काठमांडू में हिंदू-बौद्ध समन्वय का बहुत अच्छा उदाहरण है।
स्वयंभूनाथ मंदिर का प्रवेश द्वार एवं टिकिट खिड़की

पैड़ियों से चल कर हम एक विशाल प्रांगण में पहुचते हैं। यहां प्रस्तर निर्मित मनौती स्तूप दिखाई देते हैं साथ ही प्रस्तर निर्मित भूमि स्पर्श मुद्रा में, ध्यान मुद्रा में, स्थानक मुद्रा में बुद्ध की भिन्न भिन्न प्रतिमाएं दिखाई देती हैं। मेरे साथ संपत मोरारका जी भी पहुंच गई धीरे-धीरे टहलते हुए। उनकी हिम्मत को सलाम करना ही पड़ेगा। कई साथी तो सीढियों की चढाई देखकर नीचे रह गए, सम्पत जी को पर्यटन का बड़ा शौक है, जो उन्हें स्वयंभूनाथ तक खींच लाया। सम्पत जी के कैमरे से मैने उनके चित्र लिए। इस प्रांगण में नेपाल के शिल्प विक्रय की कई दुकाने हैं। जहाँ बौद्ध धर्म के वज्रयान से संबंधित तांत्रिक मुद्राओं वाले मुखौटे बेचे जाते हैं। मुझे एक कड़ा पसंद आया था, लेकिन उसका मालिक नहीं था दुकान में। 
दो यायावर - बंदा और बुद्ध

यह स्तूप काठमांडू घाटी का प्राचीनतम बौद्ध स्तूप (चैत्य) है। स्थापत्य-कला की दृष्टि से अद्वितीय होने के साथ-साथ प्राकृतिक स्थल की दृष्टि से भी यह अत्यंत मनमोहक है। स्थानीय लोगों की यह मान्यता है कि स्वयंभू के स्तूप के शिखर पर चारों दिशाओं में बने विशाल एवं दैदीप्यमान नेत्र काठमांडू के हर नागरिक के क्रिया-कलाप को हर पल देख रहे हैं, अतः किसी भी व्यक्ति को कोई बुरा काम नहीं करना चाहिए। स्थापत्य-कला की दृष्टि से स्वयंभूनाथ अद्वितीय है। इस स्तूप का व्यास साठ फुट है और शिखर तक की ऊँचाई लगभग तीस फुट होगी। स्तूप के शीर्ष पर दस फुट ऊँची वर्गाकार कुर्सी बनी है, जिसकी चारों दिशाओं पर धातु और हाथी-दाँत से निर्मित दो विशाल नेत्र हैं। इस वर्गाकार कुर्सी के मुंडेर के ऊपर चारों ओर पंचकोणीय फ्रेम बने हैं। इनमें हरेक में नीचे की पंक्ति में बुद्ध की ध्यान-मुद्रा में चार पीतल की चमकती मूर्तियाँ हैं। इनके ऊपर मध्य में भूमि-स्पर्श मुद्रा में बुद्ध की मूर्ति है।
कांस्य शिल्प

इस मंदिर के निर्माण के पीछे भी एक कहानी है, जिसे बौद्ध पंथी मान्यता देते हैं। यहाँ उपस्थित एक लामा (जिनक नाम भूल गया) कहते हैं कि इस मंदिर का निर्माण ओस के कणों से हुआ है। शांतिवास नामक बौद्ध धर्मावलम्बी राजा था। इस स्थान पर तांत्रिक साधनाएं होती थी, जिसके लिए नर बलियाँ दी जाती थी। वह नर बलि देने को तैयार नहीं था। इसलिए उसने फ़ैसला किया और अपने पुत्र से कहा, ''कल सुबह सूर्य उगने से पहले भोर के अंधेरे में तुम मेरी तलवार लेकर प्याऊ पर जाना। वहाँ मेरी मूर्ति के नीचे एक व्यक्ति सफ़ेद चादर ओढ़े सोया होगा। तुम बिना चादर को हटाए देवी का स्मरण करके उस आदमी की बलि दे देना।''
मनौती स्तूप

आज्ञाकारी राजकुमार ने पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। लेकिन जब राजकुमार ने उत्सुकतावश मृत व्यक्ति की चादर हटाई, तो उसका कलेजा धक रह गया। वह मृत व्यक्ति और कोई नहीं, स्वयं उसके पिता राजा थे। राजकुमार को असीम दुःख हुआ। एक रात उसे वज्रयोगिनी देवी ने स्वप्न में दर्शन दिये और कहा, ''जहाँ पर तुमने राजा का वध किया है, उसी पहाड़ की चोटी पर तुम शाक्य मुनि (भगवान बुद्ध) का स्तूप बनवाओ। तभी तुम्हें इस पाप से मुक्ति मिल सकती है।''दूसरे दिन राजकुमार ने स्वप्न की बात अपने दरबारियों को बताई। सभी ने मंदिर बनवाने के विचार का अनुमोदन किया। 
पाप नाशक यंत्र और गिरीश भैया

फौरन ही मंदिर बनाने की तैयारियाँ शुरू हो गईं। दूर-दूर से चूना, पत्थर, मिट्टी आदि लाई गई और हज़ारों आदमी उस सामग्री को बांस के टोकरों में भरकर पीठ पर लादकर पहाड़ की चोटी पर पहुँचाने में लग गए। परंतु दुर्भाग्य ने राजकुमार का पीछा नहीं छोड़ा। पूरी घाटी में पानी का भयंकर अकाल पड़ा। एक बूँद वर्षा नहीं हुई। सभी सरोवर, नदी, नाले और तालाब सूख गए। लोगों के घर के कुएँ भी सूख गए। ऐसे संकट में मंदिर बनाने के लिए पानी जुटाना बहुत मुश्किल हो गया। राजकुमार को एक युक्ति सूझी, उसने पहाड़ी के इर्द-गिर्द चारों तरफ़ रात में सैंकड़ों सफ़ेद चादरें बिछवा दीं। सुबह के समय आकाश से पड़नेवाली ओस-बिंदुओं से चादरें गीली हो जातीं, उन्हें निचोड़कर पानी इकट्ठा किया जाता, फिर उससे मंदिर-निर्माण किया जाता।
लेखिका सम्पत मोरारका जी

दिन में मंदिर का निर्माण कार्य होता था, तो रात में कोई राक्षस आकर उसे बिगाड़ जाता था। सभी लोग बहुत परेशान थे। एक रात लोगों ने छिपकर उस दानव को देखा। सैंकड़ों लोग मशालें जलाकर तलवार, बरछा लेकर उस दानव के पीछे भागे और उसे घाटी से दूर पहाड़ के उस पार भगाकर दम लिया। हज़ारों लोगों के रात-दिन के परिश्रम से जब स्वयंभू-मंदिर बनकर तैयार हुआ, तब उस घाटी में वर्षा हुई। पानी आया और यहाँ के निवासी खुशहाल हुए। तब से इस घाटी में कभी भी पानी का संकट नहीं आया है। इस कहानी को सुनकर बौद्ध स्तूप के निर्माण के विषय में ज्ञानार्जन हुआ। मेरे अतिरिक्त गिरीश पंकज, सुनीता यादव, शैलेष भारतवासी, मुकेश सिन्हा, सम्पत मोरारका जी ने ओ3म मणि पद्में हूँ बीज मंत्र लिखे चक्रों को घुमाया। 
इस चित्र में व्यवधान हुआ 

सुनीता यादव जी के साथ कुछ चित्र लिए तथा चित्रों के साथ प्रयोग भी किए। जूम करके चित्र लेते हुए सब्जेक्ट एवं कैमरे के बीच यदि कोई आ जाए और उसी समय क्लिक हो जाए तो दिमाग की बत्ती ही गुल हो जाती है। ऐसे ही एक चित्र खराब होने से मेरा मुड चढ गया सातवें आसमान पर। सुनीता जी ने कई चित्र लिए मेरे। लेकिन सभी चित्रों में भृकुटि तनी हुई है चेहरे से सौम्यता एवं सहजता फ़ना हो गई। यही होता है मेरे साथ, यदि मेरे मन की नहीं हो पाती और मैं कुछ कह या कर न पाऊं तो काफ़ी देर तक मानसिक स्थिति डांवा डोल रहती है। जब उस वाकये की तरफ़ से ध्यान हट जाए और कुछ हँसी मजाक इत्यादि साथियों के साथ हो जाए तब सामान्य स्थिति आती है।
लामा

सांझ हो रही थी, पक्षी अपने घोंसलों की और लौट रहे थे। स्वयंभूनाथ का रमणीय दृश्य हमें स्थान छोड़ने ही नहीं दे रहा था। थोड़ा समय होता तो इस मंदिर के प्रस्तर शिल्प की पड़ताल करता तथा स्मृति आलेख ढूंढता। परन्तु हमारे पास इतना समय नहीं था। पराधीने सपनेहू सुख नाहिं। हमारी काठमांडू यात्रा परिकल्पना के अधीन चल रही थी। हम स्तूप से बाहर आ गए और बस के समीप पहुंच गए। काफ़ी साथी बस में बैठ चुके थे। वहीं पर छोटी सी रेहड़ी पर मालाएं चूड़ियाँ इत्यादि एक लड़की बेच रही थी। उसकी दूकान पर मुझे एक बड़े मनकों वाली माला दिखाई, जिसे गाँव में हम गाय-बैलों को पहनाते हैं। 
वज्रयान का प्रतीक वज्र

ये मालाएं वर्तमान में आधुनिक नारियाँ धारण करती हैं, मनुष्य के फ़ैशन में भी प्रचलन में आ गई है। मैने सोचा कि एक माला ले ली जाए। जल्दबाजी में मोल भाव करके 100 नेपाली रुपए में सौदा पटा। माला लेकर हम बस में आए तो किसी ने देखने लिए मांगी। तो उसने बताया कि माला का लॉकेट टूटा हुआ है। हम दौड़ कर माला वापस करने गए, तो दुकान वाली लड़की को धमकाए कि धोखाधड़ी करती है। वह बोली कि माला टूटी हुई थी इसलिए हमने कम भाव में दी। उससे  पैसे लेकर हम बस में आ कर बैठ गए।
इसी चित्र में हमने कलाकारी की थी-एम एफ़ हुसैन के घोड़े जैसा बादल

सारी सवारियाँ आ चुकी थी, पाबला जी नदारत थे। अब पाबला जी की खोज शुरु हुई, कहीं दिखाई नहीं दिए। तो नेपाल की सीमा पर लिया हुआ नेपाली नम्बर अब काम आया। उन्हें फ़ोन लगा कर पूछा तो वे बोले कि आप बस लेकर आ जाईए, मैं नीचे रास्ते में मिल जाऊंगा कहीं। अब उन्हें भी काठमांडू के स्थान का नाम नहीं मालूम और हमें भी। जैसे कह देते कि राम लाल की आटा चक्की के पास खड़ा हूँ या चुनौटी लाल के पान ठेले के पास मिलुंगा। फ़िर हमने दुबारा फ़ोन मिलाया तो यही जवाब आया। हमने बस ड्रायवर को कह दिया कि चलिए, आगे कहीं रास्ते में पाबला जी मिल जाएगें। रास्ते में पाबला जी मिल गए और हम सांझ का अंधेरा होते होते होटल रिव्हर व्यू में पहुंच गए। लेकिन रिव्हर कहीं दिखाई नहीं दी।

नेपाल यात्रा आगे पढे……… जारी है।

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

पाटन दरबार चौक में ब्लॉगर्स जमावड़ा

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
मारा वातानुकूलित चलयान आगे बढा। इस बीत सुनिता यादव जी ने सभी को हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं दी। इसी के साथ छोटा सा फ़ोटो सैशन भी चला। बनारस वाले भैया हमें काठमाण्डू शहर से परिचित करवा रहे थे। हमें बताया गया कि संग्रहालय जा रहे हैं। बस एक स्थान पर रुकी, बताया गया कि समीप ही टिकिट खिड़की है। संग्रहालय में प्रवेश करने के लिए यहीं पर टिकिट लेनी पड़ती है। टिकिट का मूल्य 150 नेपाली रुपए था। उसने गले में लटकाने के लिए प्रवेश पत्र दिया। जिससे पहचान रहे कि ये सभी नगद देकर इस इलाके में प्रवेश कर रहे हैं। राजीव शंकर मिश्रा जी ने सभी की टिकिट लेने में सहायता की।
पाटन दरबार चौक का रास्ता
अब यहाँ से पैदल ही हम लोग आगे बढ चले। टिकिट घर से बाहर निकलने पर बाजों के बजने की आवाज आने लगी। एक मुखौटाधारी चटक रंगों के वस्त्र पहन आगे-आगे नृत्य कर रहा था और उसके पीछे छोटी-छोटी कन्याएं रक्तिम वस्त्रों में सज-घज कर चल रही थी। उनके साथ महिलाएं भी थी, जो उनकी माताएं लगी। मैने उनकी फ़ोटुएं ली। यह पता नहीं था कि पंक्तिबद्ध रैली की शक्ल में ये सब कहाँ जा रहे हैं। बाजार के बीच से हम आगे बढते रहे। कुछ प्राचीन मंदिर दिखाई दिए, जिन्हे प्रस्तर से बनाया गया था। उनका गर्भ गृह बंद था।
कुमारी पूजन को जाती बालिकाएं
रास्ते के दोनो तरफ़ लकड़ी के बनाए हुए अलंकृत मकानों की झलक दिखाई देने लगी। इन घरों में लगी हुई लकड़ी पर सुंदर खुदाई की गई थी। ह्स्ताधारित शिल्प का अद्भुत प्रदर्शन यहाँ दिखाई दिया। इस इलाके के सभी घरों का निर्माण लकड़ी से ही हुआ है। छतों पर लगी लकड़ियों में फ़णीनाग के छत्र युक्त पुरुष की मूर्ति दिखाई दी तथा खिड़कियों के नीचे एक बाज एवं कबूतर निरंतरता से बने हुए दिखाई दिए। ये नेवाड़ी संस्कृति के पारम्परिक चिन्ह दिखाई दे रहे थे। एक बच्चा खिड़की से झांक कर मुस्कुराते हुए सड़क पर गुजरते पर्यटकों को देख कर हाथ हिला रहा था।
काष्ठालंकृत खिड़की से झांकता बच्चा-नेवाड़ी संस्कृति
मुकेश सिन्हा जी ने मुझे घायल कर रखा था। मैं जब भी कोई चित्र लेने की कोशिश करता वो अपना कैमेरा धरे मेरे सामने आ जाते। जबकि उनके कैमरे में 22 एक्स का जूम है। लेकिन समीप से जाकर फ़ोटो लेने की आदत पड़ी हुई है। जब कैमरे में जूम है तो उसका भरपूर उपयोग करना चाहिए और मै करता भी हूँ। कई जगह इनकी करामात के कारण चित्र लेने में व्यवधान हुआ। कुछ भी हो लेकिन मुकेश जी चित्र बढिया लेते हैं। 
पाटन दरबार चौक में स्थित मंदिर में मुकेश सिन्हा
अब जहां हम पहुचे उसे दरबार स्क्वेयर कहते हैं। इस चौक पर कई मंदिर बने हुए हैं तथा राजमहल को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। इस स्थल पर प्राचीन इमारते हैं, राजमहल को हनुमान ध्योखा कहते हैं। हनुमान ध्योखा नेपाल के शाही परिवार का प्राचीन निवास है, इसका निर्माण 16 बीं शताब्दी में हुआ था। इस ईमारत के पूर्वी द्वार को हनुमान द्वार कहा जाता है। समीप ही नरसिंह भगवान की सुंदर प्रतिमा बनी हुई है। ऐतिहासिक शाही ईमारत परिसर में पंचमुखी हनुमान एवं त्रिभुवन संग्रहालय बने हुए हैं। काफ़ी संख्या में गोरी चमड़ी वाले विदेशी संग्रहालय की इमारत में दिखाई दिए। संग्रहालय देखने के लिए 150 नेपाली रुपए की टिकिट लेनी पड़ती है तथा इस दरबार स्क्वेयर में प्रवेश करने के लिए 150 नेपाली रुपए  शुल्क लिया जाता है।
राजमहल में नरसिंह
समीप ही एक ईमारत में शौचालय का निर्माण किया गया है, जिसके द्वार पर हिंदू देवी देवताओं की प्रतिमाएं लगी हुई हैं। द्वार के शीर्ष पर महिषासुर मर्दनी प्रतिमा है। हिन्दू राष्ट्र में देवी देवताओं की प्रतिमाओं का शौचालय के प्रवेश द्वार पर लगे होना मुझे आश्चर्य चकित कर गया। यहाँ कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई दिया जिससे पूछा जा सकता। कुछ लोग शौचालय के कलात्मक द्वार पर खड़े होकर चित्र खिंचवा रहे थे जिससे शौच को जाने-वालों को व्यवधान उत्पन्न हो रहा था। चलते चलते मैने भी एक चित्र लिया। कम से कम याद तो रहेगा कि शौचालय में देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का प्रयोग हो रहा है। हो सकता है यह बदलाव माओवादी सरकार आने के बाद हुआ हो।
शौचालय के द्वार पर महिषासुर मर्दनी एवं अन्य अनुषांगी देवता
दरबार स्क्वेयर में काफ़ी गहमा गहमी थी यहाँ कुमारी पूजा उत्सव का आयोजन हो रहा था। इस दृष्टि से नेवाड़ी समुदाय काफ़ी परम्परावादी लगा। जो अपनी प्राचीन संस्कृति को वर्तमान में भी बनाए रखने में कामयाब है। नहीं तो पश्चिम की बयार में संस्कृतियों में विकृति पैदा हो रही है। सामाजिक ताने बाने बिखरने के साथ वर्जनाएं एवं परम्पराएं भी टूट रही हैं। परम्परागत चटक रंगों के परिधानों एवं आभूषणों से सजधज कर युवतियाँ आयोजन में सम्मिलित थी। हम उनके इस आयोजन को देख रहे थे और चित्र ले रहे थे।
नेपाल का इकलौता प्राचीन शिखर युक्त कृष्ण मंदिर
काठमाण्डू का यह हिस्सा पाटन कहलाता है। यह प्राचीन शहर है जो काठमांडू (कांतिपुर) से  जुड़ा हुआ है। प्राचीन अभिलेखों से प्राप्त जानकारी के अनुसार पाटन का इतिहास लिच्छवी काल सन 570  से प्रारंभ होता है तथा इसका निर्माण भारबी द्वारा होना बताया जाता है जो मनदेव के पोते थे। राजमहल परिसर का निर्माण प्रथम मल्ल साम्राज्य के राजा सिद्धी नरसिंह मल्ल द्वारा सन 1618 से 1681 के मध्य कराया गया है। इन्होने सुंदरी चौक, तालेजु मंदिर, तथा भद्रखल नामक तालाब का निर्माण किया। इन्होने 1684 में कृष्ण मंदिर का निर्माण कराया। यह नेपाल का प्रथम शिखर युक्त मंदिर है। श्रीनिवास मल्ल ने अपने पिता द्वारा अधूरे छोड़े गए मल्ल चौक को पूर्ण कराया। योग्रेन्द्र मल्ल द्वारा 1684 से  1705 ईस्वीं के बीच मंदिर का मणिमंडप एवं स्वयं की प्रतिमा का निर्माण कराया गया।
कृष्ण मंदिर परिसर में जमावड़ा 
कृष्ण मंदिर का शिल्प नयनाभिराम है, इसका प्रवेश द्वार छोटा है तथा लिखा हुआ है कि सिर्फ़ हिन्दू ही मंदिर में प्रवेश करें। कृष्ण मंदिर के सामने विशाल प्रस्तर स्तंभ पर पीतल के गरुड़ विराजमान हैं। इस मंदिर के समीप सभी ब्लॉगर एकत्रित हो गए और यहीं पर चित्र सत्र प्रारंभ हो गया। नमिता राकेश, गिरीश पंकज, सम्पत मोररका, सुनीता यादव, रविन्द्र प्रभात, मनोज पांडे, मुकेश तिवारी, सुशीला पुरी, मुकेश सिन्हा, ब्लॉगर दम्पत्ति कृष्ण कुमार यादव, आकांक्षा यादव, पाखी, विनय प्रजापति इत्यादि सभी इस सुंदर स्थान को अपनी स्मृति में संजो लेना चाहते थे। कैमरों के बटन फ़टाफ़ट दब रहे थे, जिनके पास कैमरे नहीं थे वे मोबाईल से चित्र ले रहे थे। इस स्थान पर हम लोगों ने काफ़ी समय बिताया। अगर जाने की याद नहीं दिलाई जाती तो चित्र लेते हुए रात हो जाती। इस स्थान पर दुबारा आना चाहूंगा तथा जम कर फ़ोटोग्राफ़ी करनी है।
नेवाड़ी युवतियाँ परम्परागत परिधान में 
कुमारी पूजा उत्सव प्रारंभ था। सुंदर परिधानों में छोटे-छोटे बच्चे अपने परिजनों के साथ मौजूद थे। उनकी चेहरे से लग रहा था कि इस उबाऊ संस्कार से वे परेशान हैरान हैं। उनके माता पिता तसल्ली दिलाने के लिए खाने पीने की चीजें दे रहे थे जिससे बच्चों का मन विचलित न हो और कर्मकांड में संलग्न रहें। कुछ बच्चे रोना-गाना मचा रखे थे। आयोजन स्थल पर अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई थी। पर्यटकों के लिए यह अजूबा था वे कैमरे के प्रयोग में लगे हुए थे। यहां से पैदल-पैदल हम अपने बस के ठिकाने पर पहुंचे। भूख जोरों की लग रही थी। अगले पड़ाव पर लघु भोजन का इंतजाम था।

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शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

बूढ़ा नीलकंठ में सूतल विष्णु : काठमांडू

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
शुपतिनाथ मंदिर के बाद हमारा अगला पड़ाव बूढ़ा नीलकंठ था। काठमांडू की गलियों के बीच वातानुकूलित बस का ड्रायवर कुशलता का परिचय दे रहा था। बड़ी लक्जरी बस को आसानी के साथ चौड़े चौक चौराहों पर मोड़ लेता था। हमारी बस काठमांडू की सड़कों पर चक्कर काटते हुए बूढ़ा नीलकंठ मंदिर पहुंची। मंदिर से थोड़ी दूरी पर बस को विश्राम दिया गया और हम गली से होते हुए मंदिर तक पंहुचे। काठमांडू के मध्य से 10 किलोमीटर की दूरी पर शिवपुरी हिल के समीप यह मंदिर स्थित है। पूजन सामग्री की दुकाने नीचे ही गली में लगी हुई थी। इन दुकानों  में अधिकतर महिलाएं काम करते दिखाई दी। 
   खाई - खाजा की दुकान 

मंदिर के प्रवेश द्वार की चंद्रशिला के उपर पद्मांकन दिखाई दिया। उसके पश्चात पैड़ियों के बीच में चतुर्भुजी विष्णु की प्रतिमा स्थानक मुद्रा में स्थापित है। मुख्य द्वार के किवाड़ों पर पीतल का पतरा चढा हुआ है तथा उसके एक किवाड़ पर  शिव परिवार के सदस्य कार्तिकेय एवं दूसरे किवाड़ पर गणेश जी विराजमान हैं। इस स्थान पर हमने कुछ चित्र लिए। द्वार पर पुष्प पत्र बेचने वालों ने कब्जा जमा रखा था तथा इस मंदिर में भी एकमात्र हिंदुओं को ही प्रवेश की अनुमति है। अन्य धर्म के लोग यहाँ प्रवेश नहीं कर सकते। 
कार्तिकेय 

प्रवेश द्वार के समक्ष जल का विशाल कुंड बना हुआ है, जिसमें शेष शैया पर लेटे हुए भगवान विष्णु की चर्तुभुजी प्रतिमा है। प्रतिमा का निर्माण काले बेसाल्ट पत्थर की एक ही शिला से हुआ है। प्रतिमा का शिल्प मनमोहक एवं नयनाभिराम है। शेष शैया पर शयन कर रहे विष्णु की प्रतिमा की लम्बाई 5 मीटर है एवं जलकुंड की लम्बाई 13 मीटर बताई जाती है। शेष नाग के 11 फ़नों के विष्णु के शीष पर छत्र बना हुआ है। विष्णु के विग्रह का अलंकरण चांदी के किरीट एवं बाजुबंद से किया गया है। प्रतिमा के पैर विश्रामानंद की मुद्रा में जुड़े हुए हैं। शेष नाग भी हष्ट पुष्ट दिखाई देते हैं।
 सुनीता यादव, रविन्द्र प्रभात, राजीव शंकर मिश्र, नमिता राकेश, मनोज भावुक, मनोज पाण्डे 

जलकुंड को चारदीवारी से घेरा गया है सभी ब्लॉगर शंख, चक्र पद्म एवं गदाधारी चतुर्भुजी विष्णु की प्रतिमा के चित्र ले रहे थे तथा मैं इस जुगत में था कि इस विशाल प्रतिमा का एक बढिया सा चित्र लिया जाए। मैंने कुंड की चार दिवारी में प्रवेश करके एक चित्र लिया तो एक व्यक्ति ने मुझे वहाँ लिखी चेतावनी की ओर इंगित किया। जिस पर लिखा था कि चार दिवारी के भीतर चित्र लेना वर्जित है। फ़ोटो खींचने के बाद सभी ब्लॉगर एक वृक्ष की छांव में बैठ गए तथा सुनीता सभी के विडियो बनाने लगी। अभी हमारे दल का नेतृत्व राजीव शंकर मिश्रा बनारस वाले कर रहे थे। 
अक्षिता पाखी, आकांक्षा यादव, कृष्ण कुमार यादव, मुकेश तिवारी, सुनीता यादव

मंदिर से लौटते हुए उन्होनें उपस्थित ब्लॉगर्स को रुद्राक्ष के कुछ फ़ल भेंट किए तथा बताया कि इन फ़लों से रुद्राक्ष निकालने के लिए कैसी साधना करनी पड़ती है। अब यहाँ पर समस्या यह थी कि मंदिर का नाम बूढ़ा नीलंकठ है तथा शेष शैया पर भगवान विष्णु विराजे हैं, द्वार पर जय विजय की तरह शिव परिवार के उत्तराधिकरी कार्तिकेय एवं गणेश पहरा दे रहे हैं और भगवान विष्णु क्षीर सागर में मजे से आनंद ले रहे हैं। बूढ़ा नीलकंठ महादेव तो कहीं दिखाई नहीं दिए। जब बूढा नीलकंठ ही इस स्थान पर नहीं है तो यह नाम इस स्थान के लिए रुढ कैसे हो गया? यह प्रश्न दिमाग में कौंध रहा था।
बूढ़ा नीलकंठ

विषपान करने के पश्चात जब भगवान शिव का कंठ जलने लगा तब उन्होने विष के प्रभाव शांत करने के लिए जल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक स्थान पर आकर त्रिशूल का प्रहार किया जिससे गोंसाईकुंड झील का निर्माण हुआ। सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है गोसाईंकुंड झील जो 436 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. काठमांडू से 132 उत्तर पूर्व की ओर स्थित गोसाईंकुंड पवित्र स्थल माना जाता है। मान्यता है कि बूढा नीलकंठ में उसी गोसाईन कुंड का जल आता है, जिसका निर्माण भगवान शिव ने किया था। श्रद्धालुओं का मानना है कि सावन के महीने में विष्णु प्रतिमा के साथ भगवान शिव के विग्रह का प्रतिबिंब जल में दिखाई देता है। इसके दर्शन एक मात्र श्रावण माह में होते हैं।
चतुर्भुजी विष्णु

बूढ़ा नीलकंठ प्रतिमा की स्थापना के विषय में स्थानीय स्तर पर दो किंवदंतिया प्रचलित हैं, पहली प्रचलित किंवदंती है कि लिच्छवियों के अधीनस्थ विष्णु गुप्त ने इस प्रतिमा का निर्माण अन्यत्र करवा कर 7 वीं शताब्दी में इस स्थान पर स्थापित किया। अन्य किंवदन्ती के अनुसार एक किसान खेत की जुताई कर रहा था तभी उसके हल का फ़ाल एक पत्थर से टकराया तो वहाँ से रक्त निकलने लगा। जब उस भूमि को खोदा गया तो इस प्रतिमा का अनावरण हुआ। जिससे बूढ़ा नीलकंठ की प्रतिमा प्राप्त हुई तथा उसे यथास्थान पर स्थापित कर दिया गया। तभी से नेपाल के निवासी बूढ़ा नीलकंठ का अर्चन पूजन कर रहे हैं। 
सरोज सुमन, मुकेश तिवारी, रविन्द्र प्रभात, मनोज भावुक विश्रामासन में 

नेपाल के राजा वैष्णव धर्म का पालन करते थे, 12 वीं 13 वीं शताब्दी में मल्ल साम्राज्य के दौरान शिव की उपासना का चलन प्रारंभ हुआ तथा 14 वी शताब्दी में मल्ल राजा जय ने विष्णु की आराधना प्रारंभ की एवं स्वयं को विष्णु का अवतार घोषित कर दिया। 16 वीं शताब्दी में प्रताप मल्ल ने विष्णु के अवतार की पराम्परा सतत जारी रखी। प्रताप मल्ल को दिखे स्वप्न के आधार पर ऐसी मान्यता एवं भय व्याप्त हो गया कि यदि राजा बूढ़ा नीलकंठ के दर्शन करेगें लौटने पर उसकी मृत्यु अवश्यसंभावी है। इसके पश्चात किसी राजा ने बूढ़ा नीलकंठ के दर्शन नहीं किए। इस मंदिर में देवउठनी एकादशी को मेला भरता है तथा श्रद्धालु भगवान विष्णु  के जागरण का उत्साह पूर्वक आशीर्वाद लेकर जश्न मनाते हैं। 
काठमांडू नगर 

काठमांडू में इसके अतिरिक्त विष्णु की शयन प्रतिमाएं हैं, एक प्रतिमा बालाजु बाग में स्थापित है जिसका दर्शन आम जनता कर सकती है तथा दूसरी प्रतिमा राज भवन में स्थापित है, जिसके दर्शन आम आदमी के लिए प्रतिबंधित हैं।बौद्ध धर्मी नेवारी समुदाय इसे बुद्ध मान कर पूजा करता है तथा हिन्दुओं के द्वारा मना करने पर उनकी पूजा करने की परम्परा चली आ रही है। हम बूढ़ा नीलकंठ के दर्शन करने के उपरांत आगे की नेपाल दर्शन यात्रा में चल पड़े। अब हमारा अगला पड़ाव पाटन दरबार चौक था।

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