सोमवार, 18 अगस्त 2014

सरगुजा के व्याध : कुकूर असन घुमबो त खाबो साहेब

'हमर कोनो सुनई नईए, कोन ल गोहार पारबो, आत्मा नई माढ़य त दिन भर गली-गली कुकूर असन घुमबो त खाबो साहेब, नई त लांघन रहेला परही। अइसन जिनगी बना दे हे भगवान हमर।' (हमारी कोई सुनवाई नहीं है, किसको आवाज लगाएगें, आत्मा नहीं मानती तो दिन भर गली-गली कुत्ते की तरह घूमेंगें तो खाने को मिलेगा, नहीं तो भूखा ही रहना पड़ेगा, ऐसी जिन्दगी बना दी है भगवान ने हमारी) मेरे एक सवाल का उत्तर देते हुए रामप्रताप की आँखों में सदियों का दर्द झलकने लगा था। रामप्रताप व्याध जाति के लोगों का मुखिया है। जब मैं इनके मोहल्ले में पहुंचा तो वह कांधे पर खंदेरु लटकाए फ़ांदा खेलकर सांझ को घर लौटा था। उसकी झोली खाली थी, आज दिन भर की मेहनत के बाद भी उसे पेट भरने के लिए कुछ भी शिकार नहीं मिला था।
बेलदगी के शिकारी पारा में पत्रकार त्रिपुरारी पान्डे के साथ
लखनपुर (जिला सरगुजा) से 6 किलोमीटर की दूरी पर बेलदगी ग्राम के शिकारी पारा में कीचड़ से लथपथ कच्ची पगडंडी पर चलकर हम पहुंचे। सरकारी जमीन पर बसे इस पारा में लगभग 60 छानी (छत) हैं जिसमें व्याधा जाति के परम्परागत शिकारी परिवार निवास करते हैं। हमारे पहुंचते ही  बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएँ सारा मोहल्ला एकत्रित हो गया। उन्हें लगा कि कोई सरकारी आदमी उनके लिए खुशखबरी लेकर आया है। हमारे बैठने के लिए कुर्सियों की व्यवस्था की और सभी लोग हमें घेर कर  बैठ गए। उनके फ़टे-मैले कपड़ों के बीच गरीबी एवं दरिद्रता झांक कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही थी।
व्याधा (शिकारी) परिवार
कोलाहल के बीचे शिवकुमार कहता है "हमारा खानदानी काम फ़ांदा खेलकर शिकार करना एवं जड़ी बूटी बेचना है। पुरुष जड़ी-बूटी बेचने  एवं फ़ांदा खेलने जाते हैं तथा महिलाएँ भीख मांगने के लिए।" इस तरह इनकी गृहस्थी चलती है। प्रत्येक घर में चिड़िया आदि पकड़ने के लिए फ़ांदे हैं। कहने पर शिवकुमार फ़ांदे मंगवाता है "फ़ांदा 2 तरह का होता है। पहला मंगरी एवं दूसरा खंदेरु। मंगरी फ़ांदा बांस की खपच्चियों को अंडाकार शक्ल देकर उसमें जाल एवं दरवाजा लगा कर बनाया जाता है तथा खंदेरु फ़ांदा भी बांस का ही बनता है, यह जिग-जैग शक्ल आयताकार होता है, इसे लम्बाई में फ़ैला कर चिड़िया फ़ंसाई जाती है।अब चिड़िया पकड़ना भी जुर्म हो गया है। इसलिए हमारा यह परम्परागत धंधा भी ख़त्म हो गया. खाने के लाले पड़े रहते हैं।
चिड़िया फ़ांसने का मंगरी फ़ंदा और आड़ में शिकारी
घुमंतु होने का खामियाजा इस जाति को भुगतना पड़ रहा है। रामप्रताप कहता है "20-25 साल पहले हम लोग अम्बिकापुर राजा की लुचकी स्थित बाड़ी में अपना डेरा डाले थे। उसके बाद बेलदगी आ गए। सारी जिन्दगी पेड़ के नीचे खुंदरा बांध कर रहने में गुजर गई। फ़िर इस स्थान पर अनुप राजवाड़े से बसा दिया तो डेरा स्थायी हो गया। अब हम लोग यहाँ झोंपड़ी बना कर रहते हैं, सरकारी सुविधा के नाम पर कुछ लोगों का राशन कार्ड बना है और घरों के लिए एक बत्ती कनेक्शन भी। कुछ लोगों को रोजगार गारंटी कार्ड भी मिला है। जाति एवं निवास प्रमाण पत्र बनाने के लिए 50 साल का जमीन रिकार्ड होना चाहिए। हम लोग सदा घुमंतु रहे हैं, इसलिए जाति प्रमाण पत्र एवं निवास प्रमाण पत्र की अहर्ताएँ पूर्ण नहीं करते। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए। सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए जाति एवं निवास प्रमाण पत्र अनिवार्य है।"
शिवकुमार अपनी बात कहता हूआ
इनके कबीले की भाषा मेवाड़ी बोली से मिलती जुलती है। धमना बाई कहती है "बड़े बूढे बताते हैं कि हमारे पुरखे उज्जैन से यहाँ आए थे। उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर कोरगल शिकारी द्वारा निर्मित पैदामी शिकारी देवी नौकोड़ का मंदिर है, मैने उस मंदिर के दर्शन किए हैं। हम जब आपस में बात करते हैं तो कबीले की बोली का प्रयोग करते हैं और बाहर जाते हैं तो छत्तीसगढ़ी, सरगुजिया तथा हिन्दी भाषा में बात करते हैं। मैं माला-मुंदरी के साथ जड़ी बूटी बेचने का काम करती हूँ। मेरे पास भंवरी फ़ल एवं रीठा की 2 तरह की माला है। भंवरी फ़ल की माला पहनने से चक्कर आने की बीमारी खत्म हो जाती है तथा रीठा की माला बच्चों को टोना-टोटका एवं नजर से बचाने के लिए पहनाते हैं। हम एक माला 20-30 रुपए में बेचते हैं।" प्रमाण के तौर पर धमना बाई अपने घर से माला लाकर दिखाती है।
उपर भंवरी माला तथा नीचे रीठा माला
इस कबीले में शिक्षा का प्रकाश फ़ैलने लगा है, जब से ये स्थायी रुप से बसेरा करने लगे हैं। इनके कबीले का सबसे अधिक पढा-लिखा  नौजवान उमरसाय है, जो लखनपुर के बालक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में 11 वीं कक्षा की पढाई जीव विज्ञान की पढाई कर रहा है तथा 10 वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा उसने 57 प्रतिशत अंको से उत्तीर्ण की है। 8 वीं की पढाई कर रहा रुपेश मूक बधिर है। वह स्थानीय पाठशाला में ही पढ़ता है। शिक्षक द्वारा ब्लेक बोर्ड में लिखने पर वह समझता है और लिखता है। विडम्बना है कि इस कबीले में 5 लोग मूक बधिर हैं। रामप्रताप के 4 बेटे कुल्पा 30 वर्ष, जानु 27 वर्ष, आनु 20 वर्ष एवं रुपेश 16 वर्ष मूक बधिर हैं। किसी व्यक्ति की चारों संतान मूक बधिर हो जाएं तो उसके परिवार पर क्या गुजरती होगी ये तो वह स्वयं ही जान सकता है। वर्तमान में इस कबीले के 4 बच्चे पढाई कर रहे हैं, परन्तु निवास एवं जाति प्रमाण पत्र में अभाव में इनको आरक्षण की कोई सुविधा नहीं मिलने वाली।
व्याध जाति के लोगों के आवास
अंग्रेजों ने इस घुमंतु जनजाति को जरायम पेशा श्रेणी में सूचीबद्ध कर रखा था। जिसे आजादी के बाद भारत सरकार ने विमुक्त जनजाति घोषित किया। लखनपुर के वरिष्ठ पत्रकार त्रिपुरारी पाण्डे कहते हैं "भरण पोषण के लिए उपलब्धता निश्चित न होने एवं गरीबी होने के बावजूद भी ये चोरी-चकारी नहीं करते। भले ही भीख मांग कर, हाथ पैर जोड़ कर गुजारा कर लेते हैं। न ही आपसी लड़ाई झगड़े की रिपोर्ट थाने में होती है। शराब आदि पीकर विवाद होने पर ये अपने कबीले में ही उसकी सुनवाई कर निपटारा करते हैं तथा कबीले द्वारा निर्धारित सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत जो भी कुछ दंड निर्धारित होता है वह दिया जाता है ताकि भविष्य में फ़िर कोई गलती न करे।"
शिकारी पारा का चौक
आजादी की हम 68 वीं वर्षगांठ मना चुके हैं, परन्तु इन घुमंतु जातियों तक उसका उजाला नहीं पहुंचा है। शासन इनके लिए शिक्षा, आवास, रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं जुटा पाई है। जहाँ एक तरफ़ मलाईदार लोग आरक्षण की सुविधा लिए गलत आंकड़े देकर लाभ उठाने की जुगत में रहते हैं वहीं दूसरी ओर वास्तविक हकदारों की आवाज सरकार के कानों तक नहीं पहुंची है।
सरकार चाहती तो इनके हुनर का लाभ उठा सकती थी। भले ही शैक्षणिक दृष्टि से अनपढ़ है तो क्या हुआ, पर अपने परम्परागत कार्य में कुशल हैं, इन्हें जड़ी-बूटियों, पक्षियों, जंगली वनस्पतियों की जातियों की वृहद जानकारी है, जो इन्होंने अपने पूर्वजों से पाई है। उसके संरक्षण एवं संवर्धन में इनका सहयोग लिया जा सकता है। जंगल में वन संरक्षी के रुप में इनकी नियुक्ति हो सकती थी जिससे वन संरक्षण कार्य किया जा सकता है। 
उर्दू शायर मुजफ़्फ़र रजमी की पंक्तियाँ प्रासंगिक हो रही हैं " लम्हों ने खता की थी और सदियों ने सजा पाई।" परन्तु इस व्याधा जाति ने ऐसी कोई खता भी नहीं की है जिसकी सजा पीढी-दर-पीढी भीख मांग कर पा रहे हैं। चलते-चलते शिवकुमार करुण पुकार सुनाई देती है "साहब! हमारे लिए जो भी मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था कर देगा, उसकी पूजा हम अपने पारम्परिक देवताओं के साथ जीवन भर करेगें।" न जाने कब सरकार इनकी सुध लेगी और बनजारों को दर-दर भटकने के अभिशाप से मुक्ति से मिलेगी।