बुधवार, 2 फ़रवरी 2011
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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011
काफ़ी हाऊस की वाल पर सामाजिक सरोकार लिखने वाले रियाज अहमद
अगर आज से २० वर्ष पहले की बात करें तो उस समय इंटर नेट का जाल घरों तक नहीं पंहुचा था. विचार तो तब भी मानव मन में उठते थे और वह विचारों को जनमानस तक पहुँचाने के नए नए रास्ते अख्तियार करता था.
एक शख्शियत से आपका परिचय करने जा रहा हूँ. रियाज अहमद जी रायपुर में रहते हैं और वृक्ष लगाने का काम करते हैं. लोगों को खेतों में बाग बगीचे डेवलप करके देते हैं.
सन १९७८ से १९९० तक इन्होने "निठल्लों के अड्डे" याने काफी हॉउस की दीवार पर प्रतिदिन अपनी एक टिप्पणी लिखी. जिसे पढ़ने के लिए लोग आते थे. सम-सामयिक विषयों को लेकर इनका चिंतन काफी हॉउस की दीवार पर प्रति दिन चस्पा हो जाता था.
मानव मन में जब विचार जन्म लेते हैं तो उन्हें जन मन तक संप्रेषित करने का माध्यम भी ढूंढा जाता है. एक समय था जब पम्पलेट, किताब, ट्रेक्ट, पोस्टर इत्यादि के माध्यम से अपनी बात जनता तक पहुंचाई जाती थी.
अंतर जाल का अविष्कार होने के साथ अपने विचार रखने के लिए फेसबुक, ब्लॉग, वेब साईट, आर्कुट जैसे माध्यम आ गए हैं. जहाँ अपनी बात मंच पर रख दी जाती है और पाठक अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं.
ये कम्युनिटी साइटें काफी चर्चित एवं प्रचारित भी हो रही हैं. अपने विचारों को सम्प्रेषित करने के लिए एक मंच मिल गया है.
एक शख्शियत से आपका परिचय करने जा रहा हूँ. रियाज अहमद जी रायपुर में रहते हैं और वृक्ष लगाने का काम करते हैं. लोगों को खेतों में बाग बगीचे डेवलप करके देते हैं.
सन १९७८ से १९९० तक इन्होने "निठल्लों के अड्डे" याने काफी हॉउस की दीवार पर प्रतिदिन अपनी एक टिप्पणी लिखी. जिसे पढ़ने के लिए लोग आते थे. सम-सामयिक विषयों को लेकर इनका चिंतन काफी हॉउस की दीवार पर प्रति दिन चस्पा हो जाता था.
मानव मन में जब विचार जन्म लेते हैं तो उन्हें जन मन तक संप्रेषित करने का माध्यम भी ढूंढा जाता है. एक समय था जब पम्पलेट, किताब, ट्रेक्ट, पोस्टर इत्यादि के माध्यम से अपनी बात जनता तक पहुंचाई जाती थी.
अंतर जाल का अविष्कार होने के साथ अपने विचार रखने के लिए फेसबुक, ब्लॉग, वेब साईट, आर्कुट जैसे माध्यम आ गए हैं. जहाँ अपनी बात मंच पर रख दी जाती है और पाठक अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं.
ये कम्युनिटी साइटें काफी चर्चित एवं प्रचारित भी हो रही हैं. अपने विचारों को सम्प्रेषित करने के लिए एक मंच मिल गया है.
जीवन के सफ़र में चलते चलते कोई शौक कब पैदा हो जाये इसका पता नहीं चलता और वह शौक कब जूनून की हद तक जा पहुंचे इसका भी पता नहीं है. बरसों पहले "निठल्लों के अड्डे" याने काफी हॉउस की दीवार पर एक टिप्पणी रोज लिखी मिलती थी.
वह टिप्पणी मैं भी पढता था. सम-सामयिक विषयों पर टिप्पणी के माध्यम से गहरी चोट होती थी. जिसका असर दूर तक होता था. गेरू से पुती हुयी दीवार पर खड़िया से लिखी हुयी टिप्पणी को उस सड़क से आने जाने वाले सभी पढ़ते थे और जिन्हें पता था वे नित्य उस टिप्पणी को पढ़ने आते थे.
आज तो हमारे पास नेट पर फेसबुक, आर्कुट, ट्विटर, ब्लॉग जैसे साधन है. जिनके माध्यम से हम अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते है और उसे पाठको तब पंहुचा देते है. इस दीवार को बीते ज़माने के ट्विटर ही समझिये.
वह टिप्पणी मैं भी पढता था. सम-सामयिक विषयों पर टिप्पणी के माध्यम से गहरी चोट होती थी. जिसका असर दूर तक होता था. गेरू से पुती हुयी दीवार पर खड़िया से लिखी हुयी टिप्पणी को उस सड़क से आने जाने वाले सभी पढ़ते थे और जिन्हें पता था वे नित्य उस टिप्पणी को पढ़ने आते थे.
आज तो हमारे पास नेट पर फेसबुक, आर्कुट, ट्विटर, ब्लॉग जैसे साधन है. जिनके माध्यम से हम अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते है और उसे पाठको तब पंहुचा देते है. इस दीवार को बीते ज़माने के ट्विटर ही समझिये.
अख़बारों के फोटोग्राफर इन टिप्पणियों की फोटो खींच कर प्रतिदिन अपने अख़बारों में प्रकाशित करते थे. मेरी बात-चीत आज रियाज अहमद जी से हुई. मैंने पूछा की आपको काफी हॉउस की दीवार पर टिप्पणी लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली?
रियाज अहमद जी कहते हैं कि -" हम रोज काफी हॉउस में बैठ कर निठल्ला चिंतन करते थे. काफी हॉउस के लगी हुयी एक नाली थी जो बरसों से साफ नहीं हुयी थी. उसकी बदबू हमें रोज परेशान करती थी.
एक दिन मैंने नाली के ऊपर दीवार पर एक कमेन्ट लिख दिया... उसे अख़बार वालों ने छाप दिया... दुसरे ही दिन नाली साफ हो गई. हमें राहत मिल गई.
दीवार पर लिखे कमेन्ट का असर हमें दिखाई दिया. दोस्तों ने कहा रोज लिखे करो. उसके बाद से निरंतर १२ बरसों तक काफी हॉउस की दीवार पर सम-सामायिक मुद्दों पर लिखा."
रियाज अहमद जी कहते हैं कि -" हम रोज काफी हॉउस में बैठ कर निठल्ला चिंतन करते थे. काफी हॉउस के लगी हुयी एक नाली थी जो बरसों से साफ नहीं हुयी थी. उसकी बदबू हमें रोज परेशान करती थी.
एक दिन मैंने नाली के ऊपर दीवार पर एक कमेन्ट लिख दिया... उसे अख़बार वालों ने छाप दिया... दुसरे ही दिन नाली साफ हो गई. हमें राहत मिल गई.
दीवार पर लिखे कमेन्ट का असर हमें दिखाई दिया. दोस्तों ने कहा रोज लिखे करो. उसके बाद से निरंतर १२ बरसों तक काफी हॉउस की दीवार पर सम-सामायिक मुद्दों पर लिखा."
काफी हॉउस की वह दीवार प्रसिद्द हो चुकी थी. रियाज अहमद साहब नगर निगम में पार्षद भी बन गए. पार्षद बनने के बाद इन्हें समय नहीं मिला. तब से काफी हॉउस की दीवार इनका इंतजार कर रही थी. कुछ दिनों पहले मैं काफी हॉउस के रास्ते पर गया तो देखा वह बिल्डिंग टूट चुकी है,
साथ ही वह दीवार भी. जहाँ कभी "काफी हॉउस की दीवार से" कालम रोज सुबह ७ बजे लिखा जाता था. दीवार पर अपनी टिप्पणी लिख कर रियाज साहब ने जनता को जगाने का काम किया और इसका प्रतिफल भी इन्हें मिला.
पृथक छत्तीसगढ़ की मांग इन्होने अपनी दीवार से बहुत पहले कर दी थी. इनके विचारों को पढ़ कर लोग इनके साथ जुड़े. काफी हॉउस में आने वाले नेता प्रभावित हुए और पृथक छत्तीसगढ़ आन्दोलन ने जोर पकड़ा.
आज हम छत्तीसगढ़ को एक राज्य के रूप में देख रहे हैं. इस तरह दीवार पर लिखे कमेन्ट ने रियाज साहब को एक मुकाम तक पंहुचा दिया.
साथ ही वह दीवार भी. जहाँ कभी "काफी हॉउस की दीवार से" कालम रोज सुबह ७ बजे लिखा जाता था. दीवार पर अपनी टिप्पणी लिख कर रियाज साहब ने जनता को जगाने का काम किया और इसका प्रतिफल भी इन्हें मिला.
पृथक छत्तीसगढ़ की मांग इन्होने अपनी दीवार से बहुत पहले कर दी थी. इनके विचारों को पढ़ कर लोग इनके साथ जुड़े. काफी हॉउस में आने वाले नेता प्रभावित हुए और पृथक छत्तीसगढ़ आन्दोलन ने जोर पकड़ा.
आज हम छत्तीसगढ़ को एक राज्य के रूप में देख रहे हैं. इस तरह दीवार पर लिखे कमेन्ट ने रियाज साहब को एक मुकाम तक पंहुचा दिया.
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