जब मैं पहली कक्षा में पढने के लिए स्कूल में भर्ती हुआ तो मुझे याद है, दादाजी ने 60 पैसे में स्लेट और 75 पैसे में बाल भारती पुस्तक और 20 पैसे में पेंसिल का एक डिब्बा दिलाया था।
पेंसिल तो और भी लाई गई, एक दो स्लेट भी लगी होगीं क्योंकि फ़ूट जाती थी। इस तरह लगभग 10 रुपए सालाना में पहली कक्षा पास हो गए। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं लगा।
पेंसिल तो और भी लाई गई, एक दो स्लेट भी लगी होगीं क्योंकि फ़ूट जाती थी। इस तरह लगभग 10 रुपए सालाना में पहली कक्षा पास हो गए। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं लगा।
हमारे स्कूल में अमीर-गरीब, ब्राह्मण-अनुसूचित जाति के बच्चे सब एक साथ पढ़ते थे। कोई भेद भाव नहीं था। सभी एक गणवेश में समान दिखते थे। बस थोड़ा साफ़ सफ़ाई का अंतर था।
गुरुजी के बच्चे भी वहीं पढते थे। वे थोड़े होशियार थे। माना जाता था कि मास्टर के बच्चे पढाई में होशियार होते हैं।
ट्युशन नामक किसी बीमारी का कोई प्रभाव नहीं था। इस तरह याद है कि हमने 5 वीं तक की पढाई 200 रुपए में गणवेश, जुते मोजे, पाठ्य सामग्री सहित कर ली थी।
अब हम एक पीढी बाद दे्खते हैं तो पता चलता है कि सरकारी स्कूल के शिक्षकों के बच्चे प्रायवेट स्कूल में पढ रहे हैं, जो फ़ीस नहीं दे सकते या अपने बच्चे की पढाई के प्रति उदासीन है वही अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में भर्ती कर रहे हैं।
जहां हमारे गांव में एक स्कूल हुआ करता था वहीं आज 10 प्रायवेट स्कूल हैं, हायर सेकेन्डरी तक। बी पी एड कालेज, नर्सिंग कालेज, आइ टी आई, 4 तकनीकि महाविद्यालय, एवं लॉ युनिवर्सिटी इत्यादि अन्य शैक्षणिक संस्थान भी खुल गए हैं।
जब बच्चे को भर्ती कराने गया तो पहले ही दिन पी पी वन के लिए 10,000/- का बिल बन गया। रिक्शा और मासिक फ़ीस के अलग से 700 रुपए प्रतिमाह देने पड़ेगें। इस तरह सालाना 20,000/-रुपए तो नर्सरी कक्षा के बच्चे के लग रहे हैं।
जब हम कालेज में भर्ती हुए वह शहर का सबसे नामी कॉलेज था वहां प्रथम वर्ष की सालान फ़ीस 700/- में निपट गयी थी, हमने एक मुश्त ही दे दी थी।
इस तरह 10,000 में हमारी ग्रेजुएशन हो गयी थी। विडम्बना दे्खिए कि 20,000/- में नर्सरी कक्षा और 10,000/- में ग्रेजुएशन। शिक्षा पाना भी कितना मंहगा हो गया है?
इंजीनियरिंग के 8 सेमेस्टर के लिए 5 लाख रुपए अंटी में होने चाहिए, मेडिकल के लिए 25 से 30 लाख होने चाहिए। अब कैसे शिक्षा दिलाई जा सकती है, चिंताजनक हालात हैं।
अब हमारे देश में लार्ड मैकाले के भी मानस पुत्र पैदा हो गए हैं, जो शिक्षा पर नित नए प्रयोग कर रहे हैं। शिक्षा जो दान कहलाता था आज इसे व्यावसायिक बना दिया गया।
उल्टी नाव वाले इन संस्थाओं के चेयरमेन बन बैठे। बस इनको तो पैसा ही पैसा चाहिए। गरीब कहां से अपने बच्चों को पढा पाएगा?
लोगों को जब बच्चों को उच्च शिक्षा दिलानी होगी तो खेत-जमीन इत्यादि बेच कर फ़ीस की व्यवस्था करनी पड़ेगी।
इस शिक्षा प्रणाली से अब दो वर्ग बन गए हैं जो स्पष्टत: दृष्टिगोचर होते हैं। 1- शासक तथा 2- शोषित ।
शासक ये नेता जिनके बच्चे अच्छे अंग्रेजी स्कूलों पढते हैं, शासन चलाने की भाषा सीखते हैं। अंग्रेजी में गिटपिट करते हैं।
पब-बार और डिस्को की संस्कृति को समझते हैं ब्यॉय और गर्ल फ़्रेंड के साथ जिन्दगी को एक अलग नजरिये से जी रहे हैं।
शोषित वर्ग हिन्दी स्कूलों में पढ रहा हैं, ले देकर अपनी फ़ीस जुटा रहा हैं। ज्यादा से ज्यादा कहीं क्लर्क या बाबु और अच्छी किस्मत रही तो मास्टर बन जाएगा।
अगर कुछ नहीं बना तो इन अंग्रेजी बोलने वाले नेताओं का बिना पैसा का चाकर बन जाएगा, जो गांव कस्बे में इनके भाषण और सभाओं के लिए भीड़ जुटाने का काम करेगा।
दारु पीकर पड़ा रहेगा और एक दिन उसका मर्डर हो जाएगा या आत्म हत्या कर लेगा।
देश के पहरुए हमारी शिक्षा व्यवस्था को कहां ले जा रहे हैं?
यह एक चिंतनीय विषय है। अभी एलान किया जा रहा है कि विदेशी विश्वविद्यालय और महावि्द्यालय जल्द ही अपने संस्थान देश में प्रारंभ कर रहें हैं।
क्या ऐसी परिस्थितियों में एक मध्यम वर्गीय आय का परिवार अपने बच्चे को उच्च शिक्षा दिला सकता है?
क्या शिक्षा को सभी वर्गों के लिए समान नहीं बनाना चाहिए?
जिससे एक साथ अमीर-गरीब, सुचित-अनुसुचित सभी अध्ययन कर सकें। फ़ीस इतनी हो सके कि व्यक्ति अपनी आय के हिसाब से दे सके।
सीधे-सीधे लार्ड मैकाले के मानस पुत्रों का षड़यंत्र है कि शिक्षा मंहगी होगी तो गरीब उच्च शिक्षा नहीं ले पाएगा और उसका हक ये मार लेंगे अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिला कर ।
उच्च शिक्षा गरीबों एवं मध्यम वर्ग के लिए कब मुनासिब होगी? सभी को समान शिक्षा के अवसर कब मिलेंगे?
शिक्षा और चिकित्सा ये दोनो सेवा क्षेत्र सेवा से विमुख हो व्यवसाय बन गए है | गलती लोगों की भी है महंगी स्कुल में पढ़ना स्टेट्स सिम्बल माना जाता है सरकारी स्कूलों में अपने बच्चो को पढ़ाने वाले अभिभावकों को लोग ताने मारते देखे गए है | हमारे गांव की सरकारी मिडिल स्कुल का रिजल्ट आज भी गांव स्थित प्राइवेट स्कूलों से बढ़िया आता है फिर भी समर्थ लोग अपने बच्चो को सरकारी स्कुल में नहीं भेजते |
जवाब देंहटाएंवाकई चिन्तन का विषय है.
जवाब देंहटाएं... प्रभावशाली अभिव्यक्ति ... इस दिशा में कारगर दवाब बनाना आवश्यक है !!!
जवाब देंहटाएंइन घोषित खर्चों के अलावा किताबों, कापियों, स्टेशनरी और फ़िर कभी ये फ़ंड और कभी वो फ़ंड, कभी ये कम्पीटिशन और कभी वो कम्पीटिशन की एंट्री फ़ीस, भर रहे हैं साहब और भरेंगे क्योंकि हमारा बच्चा कहीं ’चूहा दौड़’ में पीछे न रह जाये।
जवाब देंहटाएंएक नामी स्कूल में बच्चे के दाखिले के समय हमारे एक मित्र दम्पत्ति का जब इंटरव्यू का ड्रामा शुरू हुआ तो मित्र महोदय ने अपनी व्यस्तता के चलते सीधे ही कहा,"मैडम, हम कितना पढ़े हैं और कहां पढ़े हैं, इन सब बातों में टाईम खराब करने की बजाय सीधे बताईये कि पेमेंट कितनी करनी है?" और उस सैशन का सबसे पहला एडमीशन उनके बच्चे का था।
क्या वजह है कि शिक्षा क्षेत्र में व्यापारी वर्ग ही आ रहे हैं?
जवाब देंहटाएंजिन्हे आना चाहिए वे कहाँ है,और क्यों हैं?
यह भी विचरणीय प्रश्न है?
सही कहा, गरीब को आगे बदने से रोकने की यह सजीश है.
जवाब देंहटाएंचिन्ता का विषय है , जरुरत है पहल की ।
जवाब देंहटाएंइस बारे में बहुत बहस पहले भी हो चुकी है जरुरत है इसे नये सिरे से शुरुआत करने की.. बहस से कुछ भी नहीं मिला है और न ही मिलने की उम्मीद है.. जब हमारे यहाँ के शासक और स्कूल मालिक इतने आक्रांता हैं कि सुप्रीम कोर्ट की भी नहीं सुनते तो शिक्षा का तो भगवान ही मालिक है। हम तो सोच रहे हैं कि गुरुकुल में डाल दें जहाँ बच्चा वेदों की शिक्षा पायेगा और पंडित बनकर रोजीरोटी की जुगाड़ तो आसानी से कर लेगा, नहीं तो जिंदगी भर हम सबकी तरह पिसता रहेगा।
जवाब देंहटाएंsaarthak chintan.lard meckale ke maanas putro ne sacmuc sikshaa ko vyavasaay banaa diyaa hai.dusari baat garib ko aage badhane se rokane kaa yah saajish to hai hee.main to maanata hun ki ek jaisa paathakram. ek jaisi suvidhaa our samaan expanse per child hona chaahiye. garibon ke liye govt byay kare.
जवाब देंहटाएंजमाना बदल चुका है। पहले के जमाने में शिक्षा अनमोल हुआ करती थी किन्तु आज शिक्षा मोल लेने की वस्तु बन गई है।
जवाब देंहटाएंएक सोचनीय मुद्दा उठाया ललित जी , हाँ अगर शीर्षक अगर मैकाले के मानष पुत्रों की जगह शिष्यों होता तो ज्यादा प्रभावी रहता ! खैर ,
जवाब देंहटाएंविचारणीय बिन्दुओं पर बेहतरीन पोस्ट
जवाब देंहटाएंप्रणाम स्वीकार करें
दिल्ली कब आ रहे हैं जी
सार्थक विषय....पर सब इसी दौड में शामिल हैं और साजिश कामयाब हो रही है
जवाब देंहटाएंइस बहस को आगे बढ़ाने की जरूरत है। निःसंदेह म्युनिसिपल स्कूलों की अपेक्षा पालक अब अपने बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा दिलाने निजी अंग्रेजी स्कूलों में दाखिला कराते हैं। ..और इन स्कूलों का खर्च वहन करना कम से कम आम आदमी के बस में तो नहीं है।
जवाब देंहटाएंजो शिक्षा आम और खास के बीच भेद पैदा करती है, उसके औचित्य क्या हैं..
naresh soni ji sahi kaha ise age bdhane ki jarurat hai.....
जवाब देंहटाएंललित जी ये एक गंभीर समस्या है और चिंतन का विषय भी ...अभी अभी अपने भारत प्रवास के दौरान बहुत स्कूल देख कर आ रही हूँ ..वाकई एक स्कूल कम और व्यापारिक केंद्र ज्यादा नजर आते हैं ...परन्तु अपने अनुभव के आधार पर मैने ये महसूस किया कि बेशक ये दावा करते हैं पाश्चात्य सिक्षा उपलब्ध कराने का परन्तु न तो इनकी मानसिकता बदली है न ही ये पूरी तरह इस सिस्टम को समझते हैं ..बस पैसे लूटने की एक लुटेरों कि टोली भर है.
जवाब देंहटाएंजवाहर नवोदय विद्यालयों व केन्द्रीय विद्यालयों के द्वारा ऐसी व्यवस्था की गई है जिसमें सभी वर्ग के बच्चे एक साथ पढ़ें किन्तु सरकारी वेतन एवं पक्की नौकरी होने के कारण धीरे धीरे इसकी गुणवत्ता कम हो रही है.
जवाब देंहटाएंहमारे और आपके जमाने के शिक्षक एवं अब के शिक्षकों के व्यवहार में भी परिवर्तन आ गया है, पिछले दिनों अली भाई साहब नें अपने एक पोस्ट में लिखा था कि इसी सत्र में हुए परीक्षा में बस्तर का एक शिक्षक महाविद्यालयीन परीक्षा में भारी मात्रा में नकल लेकर बैठा था. तो जिस विद्यालय के शिक्षक खुद नकलची हों वहां विद्यार्थी से क्या सीखने की उम्मीद की जा सकती है.
इन्हीं सबको देखते हुए आज रिक्शे वाला भी अपने बच्चे को अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूल में पढाना पसंद करता है. हमारी तो सचमुच विवशता है हमारे आय का अधिकांश हिस्सा इस पर खर्च होता है, भविष्य की तो कल्पना ही भारी है.
सरकारों के लिए शिक्षा जिम्मदारी नहीं बोझ हो गई है। शिक्षकों को शिक्षा के अलावा सारे कामों में लगाया जाता है।
जवाब देंहटाएंशिक्षा का क्षेत्र अब सबसे बढ़िया व्यवसाय बन गया है।
जवाब देंहटाएंएक स्कूल खोल लो और कई पीढ़ियों तक कुछ और करने की ज़रुरत नहीं है।
बात तो आप ने सही कही है, लेकिन इस का हाल भी होना चाहिये... जनत को अभी जागरुक होना चाहिये कही देर ना हो जाये, सब से पहले इस अग्रेजी को बाहर फ़ेंके को सभी सरकारी काम हिन्दी या स्थानिया भाषा मै हो... ओर शिक्षा बिलकुल मुफ़्त हो.
जवाब देंहटाएंललित भाई आपने एक राष्ट्रीय मुद्दे पर लिख डाला है। लेख पढ़ने के बाद मैं काफी देर तक सोचता रहा। वाकई जिस शिक्षा प्रणाली को हम ठीक मानते हैं क्या उससे हमारी संतानों को कुछ लाभा होने वाला है। बाजारवाद ने सब कुछ चौपट कर डाला है। बेहतर लेख लिखने के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंगंभीर चिंता का बिषय
जवाब देंहटाएंपसंद है गुरु
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक आलेख...इस विषय पर बहुत ही चिंतन - मनन की आवश्यकता है...छोटे छोटे कस्बों में भी अंग्रेजी स्कूलों की बाढ़ आई हुई है.....जो सिर्फ उपरी दिखावा ही है..पर उसमे पढनेवाले बच्चे विशिष्ट तो समझते ही हैं खुद को...पूरी शिक्षा प्रणाली में ही आमूल बदलाव की जरूरत है...और यह गहरी खाई पाटने की बहुत आवश्यकता है
जवाब देंहटाएंगुरु आपनें लिखा तो एकदम सही है, बहुत कुछ बदलनें की ज़रुरत है...
जवाब देंहटाएंललित भाई,
जवाब देंहटाएंयहां गुड़गांव में एक इंटरनेशनल स्कूल है पाथवेज़...फीस सुनेंगे तो शायद गश खा जाएंगे...सात-आठ लाख रुपये सालाना...ये मेडिकल, एमबीए या इंजीनियरिंग कालेज नहीं बस बारहवीं तक की तालीम देने वाला स्कूल है...और यहां एडमीशन चाहने वालों की लंबी लिस्ट लगी रहती है...अब तो आपको लग रहा होगा कि नर्सरी की बीस हज़ार रुपये फीस तो बहुत कम है...अब बस गाना गाइए...ये मेरा इंडिया...
जय हिंद...
बचपन से ही शिक्षा के स्तर में इतना अन्तर हो जाता है कि पता नहीं आज से बीस साल बाद उनके विचारों में कितना अन्तर होगा । समाज उससे टूटेगा या जुड़ेगा ? निश्चय ही चिन्तनीय ।
जवाब देंहटाएंपहले अर्थशास्त्री नहीं थे प्रधानमंत्री
जवाब देंहटाएंगरीब को हटाओ गरीबी कैसे नहीं हटेगी
चिन्तनीय
जवाब देंहटाएं