मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

पुरातत्व शास्त्र की वर्णमाला :मृदा भाण्ड

भ्यता के विकास के साथ मानव चरणबद्ध रुप से दैनिक कार्य में उपयोग में आनी वाली वस्तुओं का निर्माण करता रहा है। इनमें भाण्ड प्रमुख स्थान रखते हैं। जिन्हें वर्तमान में बरतन कहा जाने लगा है। प्राचीन काल में मानव मिट्टी के बरतनों का उपयोग करता था। किसी भी प्राचीन स्थल से उत्खनन के दौरान लगभग सभी चरणों से मिट्टी के बर्तन प्राप्त होते हैं तथा उत्खनन स्थल पर एक बहुत बड़ा यार्ड इनसे बन जाता है। इस यार्ड में इन्हें वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए क्रमानुसार रखा जाता है। छत्तीसगढ़ के डमरु में उत्खनन में अन्य पॉटरी के साथ कृष्ण लोहित मृदा भांड भी प्राप्त हुए। इन्हें देखकर मुझे ताज्जुब हुआ कि एक ही बरतन एक तरफ़ काला और एक तरफ़ लाल दिखाई दे रहा है। वैसे तो इन बरतन को रंग कर यह रुप दिया जा सकता था, परन्तु इन बरतनों को लाल और काला रंग पकाने के दौरान ही दिया गया था। 
मृदाभाण्ड बनाने की तकनीक का निरीक्षण करते हुए लेखक
कुम्हारों के द्वारा वर्तमान में किस तरह के बरतन बनाए एवं पकाए जा रहे हैं यह देखने के लिए हम समीप के गाँव में कुम्हार के भट्टे पर निरीक्षण करने के लिए गए। वहाँ कुम्हार से चर्चा की और उसके भाण्डों को भी देखा। इन भाण्डों में उत्खनन में प्राप्त भाण्डों जैसी स्निग्धता, चमक एवं मजबूती नहीं थी इससे साबित हुआ कि प्राचीन काल में भाण्ड निर्माण की प्रक्रिया वर्तमान से उन्नत थी और निर्माता भी समाज में उच्च स्थान रखता था। तभी तो सिरपुर स्थित तीवरदेव विहार के मुख्यद्वार की शाखा में शिल्पकार ने चाक सहित कुम्हार को स्थान दिया है। यह उनके सामाजिक मह्त्व को बताता है। 
मृदा भाण्ड पकाने की वर्तमान तकनीकि
पिछली शताब्दी में प्राचीन स्थलों का अन्वेषण एवं उत्खनन का लक्ष्य मात्र मुल्यवान एवं कलात्मक सामग्री की खोज करना था। मृदा भांडों एवं उनके टुकड़ों की गणना व्यर्थ समझी जाती थी। प्राय: उत्खननकर्ता इन्हें फ़ेंक देते थे अथवा इतना अनुमान लगाते थे कि उस समय की सभ्यता में लोग किन-किन बर्तनों का उपयोग करते थे, इनसे उस युग का आर्थिक जीवन जोड़ते थे, परन्तु उत्खनन की दृष्टि से इनका कोई महत्व नहीं माना जाता था। 
उत्खनन में पाप्त मृदाभाण्ड के टुकड़े - डमरु जिला बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
सर्वप्रथम फ़्लिंडर्स पेट्री ने मिश्र में उत्खनन कार्य करते हुए अनुभव किया कि प्रत्येक काल में विभिन्न प्रकार के कौशल से निर्मित मृदाभांडों का प्रचलन रहता है और परम्परानुराग के कारण शीघ्र ही आमूल परिवर्तन नहीं होता। चर्म एवं काष्ठ की सामग्रियाँ जहां मिट्टी में दबे होने के कारण नष्ट हो जाती हैं, वहीं भांड हजारों वर्षों तक मिट्टी में दबे होने के बाद भी नष्ट नहीं होते। अत: पुरातत्व के अध्ययन में इनका महत्वपूर्ण उपयोग हो सकता है। पेट्री की इस दृष्टि ने पुरातन सभ्यताओं के अध्ययन में क्रांति ला दी। तब से मृदा पात्रों एवं भाण्डों का अध्ययन पुरातत्व शास्त्र का एक आवश्यक अंग माना जाने लगा।
कुम्हार के आवे पर- डॉ शिवाकांत बाजपेयी, डॉ जितेन्द्र साहू एवं करुणा शंकर शुक्ला
आज मृदाभाण्डों को पुरातत्व शास्त्र की वर्णमाला कहा जाता है। जिस प्रकार किसी वर्णमाला के आधार पर ही उसका साहित्य पढा जाता है, उसी प्रकार मृदा भाण्ड अपने काल की सभ्यता सामने लाते हैं। इनके निर्माण की एक विशिष्ट शैली का प्रचलन एक काल का द्योतक होता है। उनको एक विशिष्ट शैली में निर्मित एवं रंगों में वेष्टित करते हैं। जैसे कभी अंगुठे के प्रयोग से बर्तन बने तो कभी मिट्टी की बत्तियों से बनाए गए तो कभी चाक से बनाए गए। यह विकास अलग-अलग काल को दर्शाता है तथा बरतनों के आवश्यकतानुसार नवीन प्रकार भी दिखाई देते हैं।
पॉटरी यार्ड - तरीघाट उत्खनन जिला दुर्ग छत्तीसगढ़
रंगों के संबंध में हम देखते हैं कि भारत में कभी कृष्ण लोहित मृदा भांड बने तो कभी चित्रित धूसर बने, तो कभी कृष्णमार्जित एवं कृष्णरंजित लोहित मृदाभांड बने। ये सारे न तो एक समय में बने है और न एक ही लोगों द्वारा बनाए गए हैं। अलग-अलग कालों में, भिन्न-भिन्न लोगों द्वारा पृथक रंगों के मृदा भाण्डों का विकास हुआ। इससे स्तरीकरण एवं इन मृदा भाण्डों के साथ प्राप्त सामग्रियों से कालनिर्धारण में सहायता मिलती है। अन्य सामग्रियों एवं अभिलेखों की अनुपलब्धता में उत्खननकर्ता मृदाभाण्डों का अध्ययन कर काल का निर्धारण कर सकता है। इसलिए मृदाभाण्ड काल निर्धारण के लिए मह्त्वपूर्ण रुप से सहायक होते हैं। मृदा भाण्डों का महत्व मानव सभ्यता के साथ सतत बना हुआ है और बना भी रहेगा। 

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