छत्तीसगढ के भोजन में "भाजी" (पत्ते की सब्जी) का स्थान महत्वपूर्ण है। जितने प्रकार की भाजी का प्रयोग भोजन में छत्तीसगढ़वासी करते है, संभवत: भारत के अन्य किसी प्रदेश में नहीं होता होगा। घर के पीछे छोटी सी बखरी "बाड़ी" में मौसम के अनुसार भाजियों का उत्पादन हो जाता है। जब कोई साग न हो तो बाड़ी का एक चक्कर लगाने के बाद भोजन के लिए साग उपलब्ध हो जाता है। जिसने भाजी का स्वाद ले लिया हो, वह जीवन भर नहीं भूल सकता। कभी-कभी सोचता हूँ कि छत्तीसगढ की भाजियों का दस्तावेजीकरण होना चाहिए क्योंकि वर्षा ॠतु में स्वत: उगने वाली बहुत सारी भाजियाँ अब लुप्त होते जा रही हैं, जिन्हें बचपन में देखा और खाया था, वो अब दिखाई नहीं देती।
अमारी भाजी का फूल |
छत्तीसगढ़ में बोहार भाजी (लसोड़े के वृक्ष के पत्ते) मुनगा भाजी (सहजन के पत्ते) आदि वृक्ष के पत्तों की भाजी, पोई भाजी, कुम्हड़ा भाजी, कांदा भाजी आदि बेल (नार,लता) के पत्तों की भाजी, लाल भाजी, चौलाई, पालक, भथुआ, चेच भाजी,सरसों, पटवा भाजी, चना भाजी, मेथी भाजी, तिवरा भाजी, जड़ी (खेड़ा - इसमें पौधे का सर्वांग भाजी में उपयोग किया जाता है) भाजी, अमारी भाजी, कुसुम भाजी, मुरई (मूली) भाजी, चरोटा भाजी, प्याज भाजी इत्यादि पौधों के पत्तों की भाजी तथा तिनपनिया, चुनचुनिया, करमत्ता इत्यादि भाजी जल में उत्पन्न होती हैं। यहां पर कुछ ही भाजियों के नाम दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त फ़ूलों से भी भाजी बनाई जाती है। ॠतु अनुसार भाजियों का सेवन किया जाता है, किसी-किसी भाजी को पकाने में मही (छाछ) या खट्टे की मुख्य भूमिका होती है। इसे दाल के साथ भी पकाया जाता है।
मूली भाजी |
मैदानी क्षेत्र के अलावा वन क्षेत्र की भाजियों के कई प्रकार पाए जाते हैं। गर्मी के दिनों में पत्तों को सुखाकर इनका प्रयोग बरसात के दिनों में भी किया जाता है।बस्तर से लेकर सरगुजा अंचल तक दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली भाजियों का दस्तावेजीकरण किया जाए तो इनकी संख्या हजार तक तो पहुंच सकती है। इनमें औषधीय तत्वों की प्रचुरता रहती है। इनका औषधिय महत्व भी बहुत अधिक है, ॠतुओं के अनुसार भाजियों का सेवन स्वास्थवर्धक होता है तथा मानव शरीर के स्वस्थ रहने योग्य आवश्यक, प्रोटीन, विटामिन, खनिज, लवण की पूर्ती इनके द्वारा सहज ही हो जाती है। इसके अतिरिक्त वृक्ष या पौधे से प्राप्त होने वाले फ़ल-फ़ूल-कंद से बनने वाले साग भी है।
केऊ कन्द |
मूली का मौसम होने के कारण वर्तमान में घर-घर में मूली भाजी पकती है। गांव या मोहल्ले में किसी के घर मूली की भाजी पक रही होती है दूर से ही पता चल जाता है। गांव-गांव परिव्राजक की तरह घूम कर बुजूर्गों से भाजियों के विषय में चर्चा करते हुए, स्वाद लेकर, रेसिपी जमा करते हुए इनका दस्तावेजीकरण हो सकता है, जो बड़ा ही श्रम साध्य कार्य है। कोई शोधार्थी इस विषय पर शोध भी कर सकता है जिससे विलुप्त हो रही भाजियां भी सूचिबद्ध हो सकती हैं। भाजियों का राजा बोहार भाजी को माना जा सकता है। क्योंकि जब गर्मी के दिनों में इसका सीजन होता है तो यह सबसे मंहगी (डेढ़ सौ से लेकर दो सौ रुपए किलो तक बिकती है) बिकती है। छत्तीसगढ़ की भाजियों की कथा अनंत है, जिसने इनका स्वाद ले लिया वह जीवन भर नहीं भूल सकता। यही विशेषता है, छत्तीसगढ़ की भाजियों की। बचपन में कहते-सुनते थे, आलू, भांटा, मुरई, बिन पूंछी के चिरई…
अनूठी जानकारी , आभार भाई !
जवाब देंहटाएंरोचक
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