गुरुवार, 7 जनवरी 2016

प्राचीन नगरी कुशावती : कोसीर

रामगमन वन मार्ग के शोधार्थी यह मानते हैं कि दंडकवन में भगवान रामचंद्र ने अपने वनवास काल के 13 वर्ष व्यतीत किए। यह तो तय है कि प्राचीन काल में दंडकवन से ही होकर दक्षिणापथ मार्ग उत्तर से दक्षिण को जोड़ता था और इसी मार्ग का उपयोग तीर्थ यात्री तथा अन्य लोग करते थे। जहाँ मान्यता है कि तुरतुरिया के वाल्मीकि आश्रम में वैदेही सीता ने लव और कुश को जन्म दिया था। वहीं एक जन मान्यता और है कि लव की नगरी लवण एवं कुश की नगरी कोसीर को माना जाता है। रायगढ़ जिले का एक बड़ा ग्राम कोसीर है, यह सारंगढ़ से 16 किमी और राजधानी रायपुर से सरायपाली, सरसींवा होते हुए लगभग 212 किमी की दूरी पर स्थित है। इस ग्राम से थोड़ी-थोड़ी दूरी बलौदाबाजार, रायगढ़ एवं जांजगीर जिलों की सीमाएं भी है, इस तरह इसे तिनसिया पर बसा हुआ ग्राम भी कह सकते हैं।


कोसीर से इंटरनेटीय परिचय करवाने वाले दो बंधू लक्ष्मीनारायण लहरे और नीलकमल वैष्णव हैं। ये दोनों कोसीर जैसे दूरस्थ ग्रामवासी होते हुए भी पत्रकारिता एवं साहित्य के क्षेत्र में जागरुकता के साथ सक्रीय हैं और प्रचार-प्रसार के सभी माध्यमों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सभी क्षेत्रों में इनकी सक्रियता दिखाई देती है। पिछले कई वर्षों से कुश की नगरी कोसीर देखने की महती इच्छा मन में थी। आखिर वह दिन आ ही गया जब मैं मार्च के महीने की अंतिम तिथियों में बाईक से कोसीर पहुंच गया। अभनपुर से कोसीर पहुंचने में मुझे लगभग 4 घंटे की लगातार बाईक रायडिंग करनी पड़ी। आखिर 12 बजे मैं नीलकमल वैष्णव जी के घर के सामने था और लक्ष्मीनारायण लहरे जी का घर भी इनके घर के सामने ही है।


दोपहर का भोजन लक्ष्मी नारायण जी के यहाँ करने बाद हम कोसीर भ्रमण पर निकले। यहां कौशलेश्वरी देवी का प्रसिद्ध स्थान है, जिसे स्थानीय भाषा में कुसलाई दाई कहते हैं। नवरात्रि के अवसर पर मंदिर में दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है और लोग अपनी मानता को पूर्ण करने के लिए यहां पर "पूजा" भी देते हैं। हम मंदिर पहुंचे, ऊंचे अधिष्ठान पर कांक्रीट से निर्मित मंदिर के गर्भगृह में महिषसुर मर्दिनी की प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के आस-पास मंदिर के प्रस्तर निर्मित भग्नावशेषों का निरीक्षण करने के पश्चात अनुमान है कि इस स्थान पर कलचुरी काल का 11 वीं 12 वीं शताब्दी में यहाँ प्रस्तर निर्मित मंदिर रहा होगा। जिसके ढह जाने के बाद इसका पुनर्निर्माण किया गया है।
 
स्थानीय निवासियों का कहना है कि ग्राम के आस-पास खेत खार एवं तालाबों में भी प्राचीन प्रतिमाओं के अवशेष प्राप्त हो जाते हैं। जिस तरह कोसीर ग्राम टीले पर बसा हुआ है, उससे प्रतीत होता है कि इस टीले के नीचे प्राचीन बसाहट रही होगी। प्राचीन बसाहट पर नई बस्ती बसने के कई उदाहरण प्राप्त होते हैं। कई स्थानों पर प्राचीन बसाहट को छोड़ कर उसके समीप ही नए गांव एवं बस्ती आबाद हो जाती हैं। वर्तमान कौशलेश्वरी मंदिर, प्राचीन अधिष्ठान पर ही निर्मित है, इस अधिष्ठान की ऊंचाई लगभग 10 फ़ुट होगी। इस मंदिर के समीप ही पश्चिम दिशा में ढुकूरिया तालाब तथा दक्षिण दिशा में जल कुंड है, जो इसकी प्राचीनता को सिद्ध करता है। 

छत्तीसगढ़ अंचल में प्राचीन काल में मृदा भित्ति दुर्ग बनाने की परम्परा रही है। सुरक्षा के लिए परिखायुक्त दुर्ग बनते रहे हैं और इनकी संख्या आज 48 को भी पार कर गई है। वर्तमान में डमरु उतखनन में बौद्ध स्तूप प्राप्त हुए हैं, इससे इन मृदा भित्ति दुर्गों की प्राचीनता सिद्ध होती है। कोसीर की सीमा में चारों तरफ़ कई तालाब हैं, जिन्हें देखकर प्रतीत होता है कि कभी यहां परिखायुक्त मृदा भित्ति दुर्ग रहा होगा। कालांतर में परिखा को मिट्टी से पाटकर खेत बना दिए गए होगें तथा उसका कुछ भाग बच गया होगा जिसका उपयोग सिंचाई एवं ग्रामवासियों की निस्तारी के लिए प्रयोग किया जाता है। कोसीर ग्राम में 56 एकड़ का बड़ा बंधवा तालाब भी है। जो सिंचाई का बड़ा साधन रहा होगा।

कोसीर में साहित्य रसिकों एवं बुद्धिजीवियों की भी कमी नहीं है, यहाँ के निवासियों में साहित्य के प्रति रुचि एवं संस्कार होने के कारण एक साहित्यकारों की संस्था भी है, जिसके द्वारा मंदिर परिसर में काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी में स्थानीय कवियों द्वारा कविता पाठ किया गया। यह काव्य गोष्ठी लगभग 4 घंटे तक चली, जिसमें वरिष्ठ साहित्यकार तीरथ राम चंद्रा, नीलम प्रसाद आदित्य, सुनील एक्सरे, लक्ष्मीनारायण लहने, नीलकमल वैष्णव के साथ मैने भी कविता पाठ किया। शाम को सारंगढ़ का दौरा किया गया। रात्रि विश्राम कोसिर में करने बाद अगले दिन हम गिरौदपुरी धाम के दर्शन के लिए रवाना हुए। (नोट- सभी चित्र लक्ष्मीनारायण लहरे की वाल से)

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा है तथ्यात्मक वर्णन । पर चित्र सब श्याम-श्वेत ही क्यो ?

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  2. बहुत सुन्दर लेखन,पर एक सवाल मेरे मन में आता है,आप कृपया उसका सुझाव दे,अपनी मनोकामना को पूर्ण करने के लिए,किसी जानवर की बलि देना कितना उचित है, जो खुद में अपनी जान बचने का दिमाग रखते है ,क्या बलिप्रथा सच में भगवान तक पहुँचती होगी,आस्था का यह रूप बड़ा ही भयावह होता है,मंदिर हम मानशिक शांति के लिए आना चाहते है,पर मैंने चंद्रपुर,कोशिर आदि देखते हुए ये अनुभव नहीं किया,मेरे आसपास बोरे में भरकर जानवर ले जाये जा रहे थे और उनसे लगातार खून जमीं पर गिर रहा था.

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  3. @ durgesh CHANDRA - जीव हत्या किसी भी हालत में न सभ्य समाज को स्वीकार है, न देवता को। बर्बर आदिम युग की यह प्रथा आज भी समाज में उपस्थिति बनाए हुए है। सभ्य समाज में जीव हत्या कभी भी स्वीकार्य नहीं है। कई स्थानों पर धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। इस पर पूर्णत: विराम लगना चाहिए।

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  4. सधन्यवाद सर आपने,मेरी जिज्ञासा को समझा और अपना अमूल्य सुझाव दिया..

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