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कोट गढ अकलतरा से डेढ किलोमीटर पर उत्तर दिशा में स्थित है। है। बर्फ़ गोले की चुस्कियों के साथ काली घोड़ी के सवार कोट गढ की ओर बढते जा रहे हैं। मेरे पास अकलतरा के एक ब्लॉगर का हमेशा मेल आता है। वो लिखते हैं "http://khandeliya.blogspot.com/ पर एक छोटा सा बेकार सा पोस्ट आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी आशा है आपकी कृपामय प्रतिक्रिया मिलेगी सप्रनाम", इनका नाम ईश्वर खंडेलिया है। बाबु साहब को याद दिलाने पर वे उनकी दुकान अंकुर दिखाते हैं। पर मेरे पास उनसे मिलने का समय नहीं था। फ़िर कभी मिलेगें सोच कर आगे बढते हैं। कोट गाँव का नाम है इस गांव में गढ होने के कारण कोट गढ नाम प्रचलित हुआ। गढ प्रवेश से पहले एक बड़ा तालाब दिखाई देता है। जिसके किनारे के करंज के वृक्ष पर बच्चों की टोली जल क्रीड़ा मे वयस्त थी। गर्मी के मौसम में तालाब के पानी में पेड़ से छलांग लगा कर आनंद लिया जा रहा था। बचपन याद आ गया, कभी हम भी इसी तरह नंग धड़ंग कुदान मारा करते थे। फ़ोटो लेकर आगे बढते हैं।
बाबु साहब घोड़ी हांक रहे हैं। आगे चल कर समझ आता है कि यह तालाब नहीं, गढ की रक्षा के लिए बनी हुई परिखा (खाई) है। इसके बीच से ही गढ में जाने का रास्ता दिखाई देता है। कुछ ग्रामीण हमें अजनबी निगाहों से देखते हैं, उनकी आँखों में हमारे बारे में जानने के भाव दिखाई देते हैं। सामने महामाया माई का मंदिर है, जिसके बांए तरफ़ से कोट गढ में जाने का रास्ता दिखाई देता हैं। हम सबसे पहले गढ की मिट्टी की दीवार पर चढते हैं। वहां से किले के चारों तरफ़ बनी हुई रक्षा परिखा दिखाई देती है। गढ के तीन तरफ़ बरगवां, खटोला और महमंदपुर गांव हैं। गढ के बीच में एक तालाब है, जिसमें कुछ भैंसे गर्मी से बचने के प्रयास में डूबकी लगा रही हैं। सामने क्षितिज में सूरज अस्ताचल की ओर जा रहा है, जैसे इस गढ का वैभव चला गया।
गढ या दुर्ग तीन तरह के होते हैं, 1 जल दुर्ग, 2 गिरि दुर्ग एवं 3 धूलि दुर्ग। कोट गढ धूलि दुर्ग की श्रेणी में आता है। गढ के चारों ओर सुरक्षा की गहरी खाई है और उससे लगी हुई मिट्टी की दीवार। पुराविज्ञ इस गढ को लगभग 25 सौ वर्ष पुराना मानते है। गढ के आस पास उस काल खंड के ईंटों के टुकड़े एवं उपकरण मिलते हैं। इस खाई में घड़ियाल, मगर एवं सांप डाले जाते थे जिससे दुश्मन गढ पर आक्रमण न कर सके। गढ की में आने के लिए परिखा (खाई) में सिर्फ़ एक ही रास्ता होता था। मगर मच्छों के प्रमाण तो इससे पास ही कुछ किलोमीटर पर कोटमी सोनार में मिल जाते हैं। गढ के दोनो तरफ़ 11 वीं 12 वीं शताब्दी की कलचुरी कालीन राज पुरुष, अप्सरा, भैरव, बजरंग बली, गणेश इत्यादि की महत्वपूर्ण मूर्तियाँ मिलती हैं। बरसात के समय में ये खाईयां लबालब भर जाती हैं। वर्तमान में गांव के लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग के लिए इन खाईयों के पानी का उपयोग कर रहे हैं। साथ ही बाड़ी बखरी की सिंचाई के काम भी आता है।
इस गढ से मराठा कालीन इतिहास भी जुड़ा हुआ है। वर्तमान में दिखाई देने वाले दरवाजे मराठा शासकों ने बनाए थे। इससे जाहिर होता था कि यह गढ उनके आधिपत्य में भी रहा है। महामाया मंदिर के बाएं तरफ़ का मुख्य द्वार सलामत है। इसके बगल में कुछ मूर्तियाँ खुले में रखी हैं, जिस पर श्रद्धालुओं ने फ़ूल पान चढा रखे थे। गढ के भीतर घूमने के लिए समय कम था और भीतर ऐसा कुछ निर्माण भी नही है जिसे देखा जा सके। तालाब के ईर्द गिर्द खुला मैदान पड़ा है। गढ की मिट्टी की दीवारों पर बडे बडे वृक्ष हैं। मुझे गढ में आने के पांच दरवाजे दिखाई दिए। प्राचीन कालीन सुरक्षा से सुसज्जित कोट गढ देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस समय के राजा किस तरह से अपने जान माल की सुरक्षा का इंतजाम करते थे। बाबु साहब और हमने गढ के मुख्य द्वार की कुछ फ़ोटुंए भी ली।
किसी पुरानी जगह से जुड़ी हुई कोई जनश्रुति न हो, ये तो हो ही नहीं सकता है। कुछ ऐसा ही इस गढ के साथ जुड़ा है। कहते हैं कि कोट गढ से लेकर अकलतरा के हाथी बंधान तक एक सुरंग है। इसके गढीदार भुनेश्वर मिश्र हुआ करते थे। उनके पास एक अदभुत घोड़ी "बिजली" थी। वे इस सुरंग के माध्यम से ही घोड़ी पर सवार होकर अकलतरा के हाथी बंधान तक जाया करते थे। उनकी सोनाखान के जमीदार से दुश्मनी थी और आपस में लड़ाई होते रहती थी। वे देवी शक्ति के पुजारी थे। एक बार सोनाखान का जमीदार खांडा लेकर उन्हे मारने आया तब देवी ने उनकी जान बचाई। सुरंग का रास्ता तो मुझे दिखाई नहीं दिया। फ़िर कभी आए तो अवश्य ही ढूंढने का प्रयास करेगें। गुगल अर्थ से देखने पर कोट गढ की वर्तमान स्थिति का पता चलता है, चित्र में गोलाई में बनी हुई खाई स्पष्ट दिख रही है और अभी तक मौजूद भी है। बाबु साहब से रास्ते भर कोट गढ के विषय में चर्चा होते रही, अब हम चल पड़े कटघरी की ओर…… (कटघरी, राहुल सिंह जी के पूर्वजों का गांव है) ....... आगे पढें
बहुत बढ़िया यात्रा वृतांत ....
जवाब देंहटाएंब्लागर के नजरिए से बहुत सारी ऐसी चीजें देखने को मिल जाती हैं, ध्यान में आ जाती हैं, जो आमतौर पर ओझल होती हैं, आप और बाबू साहब, दोनों ब्लागर के चित्र में मानों हजारों साल का इतिहास को जीवंत हो कर झलक गया है. शानदार, लाजवाब.
जवाब देंहटाएंअच्छा और इस बीच खंडेलिया परिवार में अंकुर के पुत्र रत्न का जलवा भी रहा हांगा, इसी आसपास किसी दिन, जब आप वहां थे.
जवाब देंहटाएंखाया पिया कुछ नहीं गिलास फोड़ा बारह आना की भांति
जवाब देंहटाएंकिया धरा कुछ नहीं यश पाया सोलह आना .
आपके और श्री राहुल सिंह जी केसानिध्य के चलते मैं तो कोटगढ़ के संग इतिहास पुरुष बन ही गया .
मन गदगदा गे आउ चोला फसफसा गे
राहुल सिंह जी की बात से सहमत हूँ कई बार बहुत सी बातें और चीजें सामने होकर भी ओझल होती हैं, उसे देखने और समझने के लिए आप जैसी पारखी नज़रों की जरुरत होती है. बहुत बारीकी से वर्णन करते हैं, आप अपने यात्रा वृत्तान्त का. सब कुछ जैसे आँखों के सामने फिर से जी उठता है.
जवाब देंहटाएंसुन्दर ऐतिहासिक जानकारियों से भरपूर विवरण के लिए आभार...
सौन्दर्य बिखरा पड़ा है, उससे सबका परिचय कराने का बहुत बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंघूम आये हम भी ..आभार आपका.
जवाब देंहटाएंआपके साथ साथ हमने भी कोट गढ़ का भ्रमण कर लिया बहुत ही अच्छा यात्रा वृत्तांत
जवाब देंहटाएंgarho ke bare me rochak jankari ke liye badhai........
जवाब देंहटाएंआँखों देखा इतिहास संजोया जा रहा है, आपकी इन पोस्ट्स के माध्यम से ......भविष्य में यह एक सन्दर्भ क रूप में प्रयोग होगा ....ऐसा विश्वास है .....!
जवाब देंहटाएंआपके साथ तो बहुत सारी जगहें घूम रहे हैं ।
जवाब देंहटाएंbehatreen yatra vrittant.
जवाब देंहटाएंaai shabaash...:)
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग के मध्यम से पर्यटन और ऐतिहासिक स्थलों की महत्वपूर्ण रोचक जानकारी प्राप्त होती रहती है !
जवाब देंहटाएंआभार !
भारत के हर राज्य में यह सम्पदाएँ धुल धूसरित हो रही हैं ,यह ऐतिहासिक यादें, समुचित राज्य संरक्षण के अभाव में शायद निकट भविष्य में विलुप्त ही हो जाएंगी ! काश आप जैसे खोजी ब्लॉगर हर राज्य में होते .....
जवाब देंहटाएंआपकी यह मेहनत सफल है ललित ! मंगलकामनाएं आपके प्रयासों के लिए
बहुत ही अच्छा लेख
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