शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

अंकलहा परसाद जी का काव्य संग्रह

जब से अक्षर ज्ञान हुआ और हिज्जा करके पढने-लिखने लगे तब से अंकलहा परसाद जी साहित सेवा कर रहे हैं। जब भी मौका मिलता, वे अपनी डायरी निकाल कर दो-चार गीत कविता या किस्सा कहानी सुनाने के लिए सदा तत्पर रहते। खेती-किसानी के चक्कर में अधिक पढ नहीं पाए पर गढ़े अधिक थे। गाँव का आदमी सभी विषयों की समझ अच्चे से रखता है। कोई ऐसे ही ठग-जग नहीं सकता। अंकलहा परसाद जी अब वानप्रस्थ काल में चल रहे हैं और जीवन की जिम्मेवारियों से लगभग मुक्त होने की कगार पर हैं। ससुराल से जो टीन पेटी दहेज में मिली थी उसमें अपनी डायरियाँ हिफ़ाजत से सहेज कर रखी हैं। उनके लिए यह बहुत बड़ी पूंजी है, अगर चोरी हो गई या दीमक पढ गई तो हृदयाघात भी संभव है।
उनके संगी जंहुरिया सब बड़े-बड़े साहितकार हो गए, कई किताबें उनकी छप चुकी थी और अब उनकी गिनती नामी गिरामियों में होती थी। अंकलहा परसाद जी भकला ही रह गए, आदमी जन्म से भकला नहीं होता वरन उसे समय भकला बना देता है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर एक दिन उनके ज्येष्ठ पुत्र तिहारु ने कहा - "बाबू जी, कविताओं की इतनी सारी डायरी आपने संभाल कर रखी है, उनकी एकाध किताब ही छपवा लीजिए, कम से कम हमारी आने वाली पीढी तो उससे प्रेरणा लेगी?"
"क्या करना है बेटा छपवा कर, जैसे गाड़ी चल रही है, चलने दो।" अंकलहा परसाद गहरी सांस लेकर बोले
"नहीं बाबूजी! छपवाना ही चाहिए, देखिए कितने लोग अपनी किताब छपवा कर लखपति हो गए, घर बैठे रायल्टी खाते हैं और सिर्फ़ किताब लिखते हैं। हमको भी छपवाना चाहिए, आप भी तो चालिसों साल से लिख रहे हैं।" तिहारु ने जोर देते हुए कहा।
"कौन छापेगा?"
"आप पाण्डुलिपि बनाईए और हम प्रकाशकों को भेजते हैं, जिसे पसंद आएगी वह सम्पर्क करेगा और बात जम गई तो छाप भी देगा।"
अंकलहा परसाद जी ने पाण्डूलिपि बनाई और 3-4 प्रकाशकों को भेज दी। चौपाल में बैठकर रोज दोपहर को डाकिए का इंतजार करते, उसके आने पर अपनी चिट्ठी पत्री की जानकारी लेते। डाकिए दूर से ही कह देता - "आपकी चिट्ठी नहीं आई है बाबूजी।" सुनकर वे उदास कदमों से घर की ओर चल पड़ते। बहू से भोजन लगाने कहते और खाकर वहीं पाटे पर लेट जाते। यही उनकी दिनचर्या हो गई थी। कभी अपनी डायरियाँ निकालकर पढने लग जाते, कभी तिहारु के बच्चों को बाल गीत सुनाकर उनका मन बहलाते। एक बरस बीत जाने पर प्रकाशकों ने कोई जवाब नहीं दिया। बाबूजी को उदास देखकर एक दिन तिहारु ने कहा - "कुछ प्रकाशक मेरे शहर वाले दोस्त की जानकारी में है, उनसे चलकर मिलते हैं। हो सकता है कुछ रास्ता निकल आए।"
अंकलहा परसाद जी को तिहारु की बात जंच गई, अगले दिन धोती कुरता सदरी धारण कर दोनो बाप बेटा शहर पहुंच गए। तिहारु का दोस्त उन्हें एक प्रकाशन में ले गया। वहाँ कम्प्यूटर पर एक शख्स मुड़ गड़ाए बैठा था, कांच का दरवाजा खुलने की आहट सुनकर उसने सिर उठाया और तिहारु के दोस्त से बोला - आईए आईए, कैसे आना हुआ, काफ़ी दिनों बाद दीदार हुए आपके?
"चाचा को अपनी कविताएँ प्रकाशित करवानी है, इसी सिलसिले में आपसे मिलने चले आए।" कुर्सी पर बैठते हुए तिजऊ ने कहा।
"बैठिए, बैठिए आप लोग, हमारा तो धंधा ही प्रकाशन का है। छाप देगें किताब, पाण्डुलिपि लाए हैं?"
"हाँ! लाए हैं, ये लीजिए" अंकलहा परसाद जी ने सुपर फ़ास्फ़ेट खाद की बोरी से बने झोले से पाण्डुलिपि निकाल कर प्रकाशक की टेबल पर रख दी।
प्रकाशक ने उसे उलट पलट कर देखा, दो चार पन्ने खोले और उन पर नजर डाली। तब तक अंकलहा जी सांस रोके उसकी गतिविधि का अवलोकन कर रहे थे, जैसे ईसीजी के बाद रिपोर्ट पढते हुए डॉक्टर की तरफ़ मरीज देखता है। पाण्डुलिपि देखने बाद प्रकाशक ने कहा - "कविताएँ तो अच्छी हैं आपकी। कितनी प्रतियाँ छपवानी है तथा पेपर बैक या जिल्द वाली?"
" जिल्दवाली, कम से कम एक हजार, उससे कम क्या छपवाएगें"
"मालूम है एक हजार में कितना खर्च आएगा, एक हजार प्रति छपवाने में 60,000 रुपए लगेगें।"
"मैने तो सुना था कि प्रकाशक किताब छापते हैं और फ़िर बेचने के बाद रायल्टी के तौर पर लेखक रकम भी देते हैं।" अंकलहा परसाद जी ने गंभीरता से कहा।
"अब आप कौन से निराला या दिनकर हैं, जो आपकी लिखी हुई कविताएं बिक जाएगी और उससे हम कमाई कर लेगें। ये तो आपको अपनी रकम लगा कर छपवानी पड़ेगी। हम आपको 500 प्रति दे देगें और 500 हम रखेगें। अगर कोई बिक गई तो साल में हिसाब करके विक्रय की कुल रकम के 15% का चेक आपको भेज देगें।" प्रकाशक ने फ़ंडा समझाया।
प्रकाशक की बात सुनकर अंकलहा परसाद जी निराश हो गए - " मुझे नहीं मालूम था कि प्रकाशक ऐसा भी करते हैं, मैने तो सुना था कि प्रकाशक अपनी रकम लगा कर छापते हैं और लेखक को रायल्टी देते हैं। यहाँ तो विपरीत हो रहा है, लेखकी रकम से ही छाप कर उसी से प्रकाशक कमाई करने लगे।" तिहारु ने कहा।
"देखिए, तिहारु राम जी, प्रकाशन चलाना कोई मामूली काम नहीं है। कितनी मेहनत करनी पड़ती है हम लोगों को। अभी तक हमारे प्रकाशन से 800 से अधिक किताबे प्रकाशित हो चुकी हैं। अगर सभी किताबों को अपनी रकम लगा कर छापते रहे तो हमारा दीवाला ही निकल जाएगा। वैसे भी वर्तमान में पाठक पुस्तकें खरीद कर कहाँ पड़ता है और जो खरीद कर पढते हैं उनकी संख्या बहुत ही कम है। जब पाठक को पैसे से पुस्तक खरीदनी होगी तो आपकी क्यों खरीदेगा। जिसका मार्केट में नाम चल रहा है उसे खरीदकर पढना चाहेगा। पुस्तक छपवाना तो स्वातं: सुखाय कार्य है। 
"ओह, मतलब लेखक के पल्ले कुछ नहीं पड़ता?"
"पड़ता है न, लेखक को प्रसिद्धी मिलती है, हमारे जैसे नामी प्रकाशन से छपवाने पर लेखक की विश्वसनीयता बनती है, उसकी प्रकाशित किताब उत्कृष्ठता की श्रेणी में आ जाती है, इसलिए अपना पैसा लगा कर छपवाईए, फ़िर हम आपके खर्च से पुस्तक का विमोचन करवा देगें बड़े साहित्यकारों को बुलवा कर, अखबारों में समाचार प्रकाशित होगें, आपकी पुस्तक की समीक्षा छपवानी होगी। लेखक बनना कोई आसान  काम नहीं है दादा और हम तो ऐसे लेखकों तथा कवियों की रचनाएं छापते हैं जो इस दुनिया में ही नहीं है, जो रायल्टी फ़्री हैं और आसानी से बिक जाते हैं। नए लेखकों पर पूंजी लगाने का कौन रिस्क ले?"
प्रकाशक की बात सुनकर अंकलहा परसाद जी ने पाण्डूलिपि अपने झोले के हवाले की और उसके दफ़्तर से बाहर निकल आए -"60 हजार खर्चा कहाँ से पूरा करेगें। मुझे नहीं छपवानी किताब। ये तो तिहारु जबरदस्ती कर के ले आया यहाँ तक।"
"और भी बहुत सारे प्रकाशन हैं चाचा, उन्हें देख लेते हैं। सभी ऐसे ही थोड़ी होगें?" तिजऊ ने कहा। यहां से निकल कर वे दो-चार प्रकाशनों में गए, लेकिन सभी ने 50 हजार के उपर का ही खर्च बता दिया और अपनी रकम लगा कर कोई छापने को तैयार नहीं हुआ। अंकलहा परसाद जी गाँव लौट आए और इन बातों को भूल गए।
दीवाली के बाद फ़सल कटाई शुरु हुई, वरुणदेव की कृपा से इस बार फ़सल अच्छी हो गई। तिहारु को फ़िर पिता जी की पुस्तक छपवाने की जिद चढ गई। एक दिन सांझ को खलिहान में सब बैठे थे तो उसने पिताजी से चर्चा शुरु कर दी - "धान की फ़सल भी अच्छी हो गई, इस साल किताब छपवा लीजिए पिताजी।" तिहारु ने पिताजी को कहा।
"अरे पुस्तक छपवाने में बहुत खर्च है, रहने दे, क्या करेगें छपवा कर।" अंकलहा परसाद जी ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा
"अब चाहे कितना भी खर्च हो जाए, किताब तो छपवानी ही है, आप चाहे माने या न माने।" तिहारु ने जिद करते हुए कहा
" डोकरा का दिमाग भी सठिया गया है, जब बेटा कह रहा है छपवाने के लिए तो तुम छपवा  क्यों नहीं लेते।" तिहारु की माँ ने तिहारु की बात में बात मिलाते हुए कहा।
"छपवा ले भई नहीं मानता तो। मैं तो सोच रहा था कि फ़ालतू खर्च करना ठीक नहीं है। रुपया पैसा है, गांठ में रहे तो काम आता ही है।"
अगले दिन तिहारु पाण्डुलिपि लेकर शहर चला गया। उसके एक रिश्तेदार प्रिंटर ने कम पैसे में छापने में सहमति दे दी। भाग दौड़ कर पुस्तक छप गई। तिहारु पुस्तक लेकर घर आ गया। पुस्तक देखते ही अंकलहा परसाद जी की आँखों में चमक आ गई बोले - "मेरा बेटा तो सरवण कुमार है, भगवान सब को ऐसा ही सपूत दे।"
पुस्तक छपने के बाद विमोचन जरुरी हो जाता है, विमोचन होने से गाँव खोर के और शहर के सभी रिश्तेदार संबंधियों एवं इष्ट मित्रों को पता चल जाता है कि वे लेखक हो गए हैं। 
अंकलहा परसाद जी कई लेखकों के पुस्तकों के विमोचन के साक्षी बने थे, उन्हे पता था कि पुस्तक विमोचन के लिए किन चीजों की आवश्यकता पड़ती है। जब तक पुस्तक विमोचन में कोई नामी साहित्यकार नहीं पधारते तब तक उस पुस्तक विमोचन को मान्यता हासिल नहीं होती और न ही लेखक को। कोई ऐसा वक्ता होना चाहिए जो पुस्तक पर ऐसे कसीदे पढे कि लगे उससे बड़ा साहित्यकार इस धरा में पैदा ही नहीं हुआ है। धरा धन्य हो गई ऐसा साहित्यकार पाकर। बीच बीच में दो चार बार उनकी कृति को महान बताते हुए, लेखक को महान कहे। उनके लेखक को कालजयी बताते हुए प्रशंसा के पुल बांध दे। भले ही पुस्तक पढने के बाद गारे का वह पुल धराशाई हो जाए। 
अब पुस्तक विमोचन के लिए नामी गिरामी साहित्यकारों का समय लेते हुए अंकलहा परसाद जी संकलहा परसाद हो गए। जो दिन भर ठाले बैठे मक्क्षिकामर्दन करते रहते थे उन्होने भी अंकलहा परसाद जी को इतनी व्यस्तताएँ बताई कि वे हलकान हो गए। कई साहित्यकारों ने कहा कि फ़लाने को बुलाएगें तो वे नहीं आएगें, किसी ने कुछ और किसी ने कुछ आपत्तियां जताते हुए अपनी मांग भी रख दी। उन्हें अब इतने सारे गिरोह दिखाई देने लगे कि दिमाग ही घूम गया, सोचने लगे कि पुस्तक छपाने से अधिक श्रम का कार्य तो विमोचन करवाना है। तंग आकार उन्होने तय किया कि अपने काव्य संग्रह का विमोचन गांव में ही कराएगें। तारीख तय करके उन्होने गायत्री यज्ञ कराने के लिए गायत्री मंदिर के पुजारी को तय कर लिया। सारे रिश्तेदारों को निमंत्रण दे दिया। जितने चाहें आ जाएं, आधा बोरा चावल अधिक लगेगा और क्या होगा।
नियत दिन को सुबह गायत्री यज्ञ प्रारंभ हो गया। गायत्री के साथ सरस्वती पूजन भी हुआ। पुस्तक का पूजन करने के पश्चात एक तख्त पर अंकलहा परसाद जी सपत्नी विराजे, सभी मेहमानों ने तिलक लगाकर उनका सम्मान किया। तिहारु के ससुर ने शाल और श्री फ़ल भेंट कर समधी का सम्मान किया और उनके काव्य संग्रह का इतना जोरदार बखान किया कि बड़े बड़े साहित्यकार शरमा जाएं। अगर कोई कब्र में सुन लेता तो काव्य संग्रह पढ़ने के लिए कब्र से बाहर निकल आता। प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात विमोचन समारोह सम्पन्न हो गया। अब अंकलहा परसाद जी अपने काव्य संग्रह को झोले में धरे हुए घूमते रहते हैं और जो भी उन्हे काव्य संग्रह भेंट करने लायक दिखाई देता है, उसे तत्काल झोले से पुस्तक निकाल कर सप्रेम भेंट करते हैं। 
मुझे भी उन्होने गत वर्ष राजिम मेला में काव्य संग्रह भेंट किया। मैने देखा कि गंवई गांव की खुश्बू से सराबोर कविताओं से काव्य संग्रह गमक रहा था। लोमस ॠषि आश्रम में नागाओं के समीप बैठकर उनसे जब काव्य संग्रह पर चर्चा हुई तो उन्होने आप बीती सुनाई। उनकी आप बीती सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गई। कितना कठिन है आज के जमाने में साहित्यकार बनना। 

(डिस्क्लैमर - इस रचना से किसी जीवित या मृत व्यक्ति का संबंध नहीं है, अगर किसी से साम्यता स्थापित हो जाती है तो वह संयोग माना जाएगा)

10 टिप्‍पणियां:

  1. सही लिखा है आपने, वर्तमान में प्रकाशक लेखकों का शोषण कर रहे हैं, साथ ही साहित्यकारों के तथाकथित सिंडिकेट नए साहित्यकारों का उत्साहवर्धन करने की बजाए बाधा बन रहे हैं। आज जिसके पास 2 लाख रुपए हों वही किताब प्रकाशित करवा के विमोचन जैसे कार्यक्रमों का आयोजन कर सकता है। काकटेल पार्टी के साथ किए गए विमोचन को उम्दा माना जाता है तथा उस साहित्यकार को साहित्यकार बिरादरी तत्काल बड़े साहित्यकार की उपाधि देकर मान्यता दे देती है। ठीक किया अंकलहा परसाद जी ने, साहित्य को समाज के बीच ही रहना चाहिए। उन्होने अपने ग्रामीण समाज के बीच काव्य संग्रह का विमोचन करके अनुकरणीय उदाहरण दिया है।

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  2. प्रकाशन के कार्य में बाज़ार चढ़ा रहेगा, अच्छे लेखकों को पढ़ने से वंचित रह जायेंगे सब। प्रथम कार्य तो उन रचनाओं को सामने लाकर उत्सुकता और उत्साह जगाना है।

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  3. Humne bhi wo hi kiya jo Uncleha Parsaad ji ne kiya...logon ko dhoondh dhoondh kar apni kitaab padhne ko dete hain...aap ko chahiye to boliye :-)

    Neeraj

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  4. लेख पढ़कर लग रहा था जैसे अपनी ही कहानी पध्राहे हों ......

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  5. सचमुच बड़ा कठिन है आज के जमाने में साहित्यकार बनना, लेकिन दुनिया किसीके रोकने से भला कब रुकी है, अंकलहा परसाद जी की लगन और उनके बेटे के प्रोत्साहन से आखिर उन्हें साहित्यकार बना ही दिया… सटीक अभिव्यक्ति

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  6. जैसे भी बने , बन तो गए साहित्यकार ! उनको नाम , प्रकाशक को पैसा , जिसको जो चाहिए था मिला . इती शुभम :)

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