मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

मल्हार : जैन प्रतिमाएँ



रात होटल में सतीश जायसवाल जी से भेंट हुई थी, जब उन्हें हमारी मल्हार यात्रा का पता चला तो उन्होंने सहयोग की दृष्टि से मल्हार निवासी गुलाब सिंह को फ़ोन लगाया, वे घर पर नहीं मिले। फ़िर उन्होने उनका नम्बर द्वारिका प्रसाद जी को दे दिया। जिससे हम मल्हार पहुंचने के बाद उनसे सम्पर्क कर सकें। मल्हार पहुंचने पर उनका नम्बर "नाट रिचेबल" कहने लगा। मल्हार भ्रमण कराने के लिए अन्य सुत्र नहीं मिला तो हम खुदमुख्त्यार हो गए। डिड़नेश्वरी देवी दर्शन के पश्चात हमें पता चला कि बस्ती के भीतर कोई नंद महल नामक मंदिर है। हमने कार बाजार में ही वृक्ष के नीचे खड़ी कर दी और रास्ता पूछते हुए चल पड़े।
प्राचीन भवनों के पत्थरों का उपयोग
कदमों से चल  कर किसी बस्ती को नापना मुझे अच्छा  लगता है। मल्हार का बाजार छोटा सा है, पर आवश्यकता सभी वस्तुएँ यहाँ उपलब्ध है। बड़ी खरीददारी के लिए इन्हें बिलासपुर जाना पड़ता है। नंद महल के रुप में मैने सोचा था कि कोई बड़ा भवन होगा। जिसमें कोई मंदिर होगा। पैदल चलते हुए बस्ती का निरीक्षण भी हो रहा था। प्राचीन नगरी के भग्नावशेषों पर गांव बसने के कारण पुराने घरों की नींव और दीवालों में पुरा सामग्री प्रयोग की हुई मिल जाती है। जैसे सिरपुर में मकान बनाने के लिए कहीं बाहर से पत्थर लाने की जरुरत नहीं होती थी। किसी भी स्थान को खोदने से प्राचीन दीवाल आदि मिल जाती थी उसके पत्थर ही भवन निर्माण के लिए पर्याप्त होते थे।
वैवाहिक जानकारी
गाँव में घरों की दीवाले होली-दीवाली पोती जाती हैं, अगर शादी का अवसर हो तो दीवालों पर चूना लगाना आवश्यक है। तभी शादी के घर की रौनक बनती है। आदमी अपनी आमदनी के हिसाब से विवाह में खर्च करता है। अगर आमदनी कम हो तो भी रौनक पूरी होनी चाहिए। तभी विवाह का आनंद आता है। ग्रामीण अंचल में विवाहादि अवसरों पर दीवालों पर वर-वधू का नाम लिखना आवश्यक समझा जाता है। ऐसा मैने कई प्रदेशों के गांवों में देखा है। यहाँ भी घर की दीवालों पर वर-वधु के रंग बिरंगे नाम लिखे हुए थे। कम्प्यूटर प्रिंटिंग के कारण पेंटरों का धंधा चौपट हो गया। पेंटरों से साईन बोर्ड या अन्य लेखन-चित्रण कार्य कराने की बजाए लोग फ़्लेक्स बनवाना उचित समझते हैं। दीवाल लेखन देखने के बाद थोड़ी प्रसन्नता तो मिली कि पेंटरों के लिए अभी गाँव में काम बचा है। जिससे रोजगार चल सके।
चूल्हा निर्माण
सुबह के समय गाँव में सभी व्यस्त रहते हैं, बहारी झाड़ू, पानी भरना, नहाना-धोना और मंदिर पाठ-पूजा नित्य का कार्य है। रास्ते में ही झोपड़ी के नीचे एक महिला चूल्हा बनाने के लिए धान के भूसे के साथ मिट्टी सान रही थी। शहरों से और कस्बों से तो लकड़ी का चूल्हा गायब ही हो गया है। गैस ने लकड़ी के परम्परागत चूल्हे को चलन से बाहर कर दिया। यह देख कर खुशी हुई कि गांवों आज भी चूल्हे का चलन है। गृह्स्थ का सारा जीवन इसी चूल्हे के चक्कर में खप जाता है। चूल्हे पर चर्चा चल रही थी तो मैने द्वारिका प्रसाद जी से कहा कि कुछ साल पहले मैने चूल्हे पर एक आलेख लिखा था। जो बहुत सारे अखबारों एवं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था। चर्चा होने पर उन्होने कहा कि "मैं भी अब चूल्हे पर लिखुंगा। मेरे दिमाग में भी आईडिया आया है।"
गाँव की दुकान एवं दुकानदार
गाँव की छोटी सी दुकान में दैनिक उपयोग की सभी सामग्री मिल जाती है। बच्चों के लिए तो यह महत्वपूर्ण ठिकाना है। जहाँ कहीं से भी रुपया दो रुपया मिला, सीधे भाग कर दुकान में पहुंचते हैं। दुकानदार के पास भी बच्चों को लुभाने वाली सारी चीजें रहती हैं, जिन्हें दुकान के सामने प्रदर्शित करता है। चाकलेट, नड्डा, गोली, बिस्किट बच्चों को आकर्षित करने के लिए काफ़ी हैं। हमें भी जब बचपन में कहीं से आने दो आने मिल जाते थे तो सब्र ही नहीं होता था। सीधे पड़ोस की दुकान में पहुंच कर उन पैसों को ठिकाने लगा कर आते थे। दुकान की रौनक भी बच्चों से बनी रहती थी और दुकानदार भी व्यस्त रहता था। अब भी गांवों में वैसा ही माहौल है। नए जमाने का असर थोड़ा बहुत हुआ है। 
परम्परागत नौबेड़िया किवाड़
ग्रामीण अंचल में घरों के दरवाजे भी सुंदर और मोहक होते हैं, जिन्हें चटक रंगों से पेंट किया जाता है। जिसकी जितनी आमदनी होती है उसके घर के दरवाजे भी वैसे ही होते हैं। दरवाजों को देख कर पता चल जाता है कि कौन कितना मालदार है। वर्तमान में शहरों के घरों में इमारती लकड़ी के पेनल डोर, बटन डोर और फ़्लश डोर का चलन है। परन्तु गांवों में अभी भी खेत की लकड़ी से ही दरवाजा बनाए जाने की परम्परा है। देशी बमरी (बबूल) की लकड़ी के दरवाजे मजबूत होते हैं। अगर बमरी के सार की लकड़ी मिल गई तो ये दरवाजे कई पीढियों तक साथ निभाते हैं। बबूल की लकड़ी में गोंद होता है, जो सूखने पर लकड़ी को लोहे जैसे मजबूती देता है। इस लकड़ी से गाँवों के बढई नौबेड़िया और ग्यारह बेड़िया दरवाजे बनाते हैं। अधिकतर घरों में नौबेड़िया दरवाजे मिलते हैं। यहां पर भी मुझे यह दरवाजे देखने मिले।
जैन तीर्थंकर पट
बातचीत करते हम मंदिर तक पहुंच गए, मंदिर के बारे में पता करने पर एक लड़का दौड कर गया और मंदिर के ताले की चाबी ले आया। हम पहुंचे तो मंदिर में लगा लोहे का गेट बंद था।  मंदिर में प्रवेश करने पर जैन तीर्थकंरो की स्थापित प्रतिमाओं को देखकर आश्चर्य चकित रह गया। पता नहीं ग्रामीण कब से इन प्रतिमाओं की पूजा कर रहे हैं। इन्होने भी इन प्रतिमाओं को स्थानीय देवताओं के नाम दे दिए होगें तथा इन प्रतिमाओं में अपने किसी देवता को स्थापित कर मान्य कर लिया होगा। जैन तीर्थंकरों का काले ग्रेनाईट से बना हुआ एक तो नौ प्रतिमाओं का पूरा पैनल ही है। साथ में दो देवियों की प्रतिमाएं हैं एक स्थानक मुद्रा में तथा दूसरी ध्यान मुद्रा में। इन प्रतिमाओं को स्थापित करने के लिए ग्रामीणों ने बड़ा मंदिर बना लिया है तथा नित्य पूजन हो रहा है। मंदिर दर्शन करने के पश्चात हम अपने वाहन तक लौट आए। 
  
आगे पढें…… जारी है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. सदियों की परम्‍परा और धरोहर के साथ जीवंत ग्राम, जीवंत विवरण.

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  2. लगता है यह पूरा गाँव ही पुरासम्पदा है। अभी कुछ दिन पहले ही जयपुर के पास के गाँव मे पत्थर मिटटी चूने की पक्के चुनाई से बने पुराने कुएं देखे। जाने कब के बने हुए है।
    रोचक जानकारी!

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  3. यह देख कर खुशी हुई कि गांवों आज भी चूल्हे का चलन है। गृह्स्थ का सारा जीवन इसी चूल्हे के चक्कर में खप जाता है। .. सच कहा आपने ....


    मुझे तो गांव के चूल्हे की याद आने लगी है और उसमें बनी रोटी का स्वाद ...

    बहुत बढ़िया प्रस्तुति

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