गुरुवार, 3 जुलाई 2014

बस्तर की माटी से जुड़ा कवि: डॉ राजाराम त्रिपाठी

भाषा की अन्य विधाओं की तरह कविता भी जगत को समझने का एक शक्तिशाली उपक्रम हैं, गद्य की अपेक्षा काव्य एवं उसमें निहीत तत्वों को साधारण मनुष्य भी सरलता एवं सहजता से समझ जाता है। क्योंकि कविताओं में रसाधिक्य होता है एवं भाव प्रधान होती हैं। कहीं पर कविता हास्य बोध उत्पन्न करती है तो कहीं पर सौंदर्य रसास्वादन करती नजर आती है। तो कहीं पर आक्रोश के साथ जोश भी प्रकट करती है। कविता मनुष्य के मन मस्तिष्क में चल रही उथल-पुथल और उसके भावों को समक्ष प्रकट करती है। कविता के माध्यम से चराचर में व्यक्ति अपने मनोभावों को प्रसारित करता है। कम शब्दों में अधिक बात कहने की क्षमता कविता ही प्रदान करती है। इसका अपना अनुशासन भी है।

मेरे समक्ष कोण्डागाँव निवासी डॉ.राजाराम त्रिपाठी का काव्य संग्रह "मैं बस्तर बोल रहा हूँ" है। बस्तर में जन्मे डॉ.राजाराम त्रिपाठी इस काव्य संग्रह के माध्यम से बस्तर की व्यथा कथा को समक्ष लेकर आते हैं। संग्रह में 27 कविताएं संकलित हैं। इस काव्य संग्रह की प्रतिनिधि कविता का शीर्षक ही काव्य संग्रह का शीर्षक है। प्रथम कविता हैं  - "हाँ मैं बस्तर बोल रहा हूँ/ अपने जलते जख्मों की कुछ परतें खोल रहा हूँ।" यह दो पंक्तियाँ चावल के उबले एक दाने के सामान बस्तर के यथार्थ से रुबरु कराने में सक्षम हैं। शोषण से उपजे हालातों पर आगे कहते हैं कि "बारुदों से भरी हैं सड़कें,  हरियाली, लाली में बदली, खारे हो चले सारे झरने।" श्रम का फ़ल तो मीठा होता है, फ़िर झरने खारे क्यों हो चले? बारुद की मचाई तबाही से इतने अधिक लोगों ने प्राण गंवा दिए कि मानवता के अश्रुजल से झरने भी खारे हो गए। कवि इन खारे झरनों में मिश्री की डली डाल कर पुन: मिठास लाना चाहता है।

बंदूकों की उगती फ़सल से ने बस्तर का सुख चैन छीन लिया कोयलें भी खामोश हो गई धमाकों के बीच। वर्तमान व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए अगली कविता कहती है " कुपोषण से देश मर रहा, सेठ बेचारा चूर्ण खाए, लँगोटी, रोटी को तरसे, सूट-बूट तंदूरी खाए।" यह व्यंग्य मिश्रित आक्रोश वर्तमान हालातों को सामने ला रहा है। बारुदे के धमाकों ने गांवों को कब्रिस्तान बना दिया। पर लोग अभी भी शोषण से बाज नहीं आ रहे। बारुद के धमाकों एवं सत्ता की गोलियों के बीच जीवन बचाना कठिन है। इस संग्रह में कवि सौंदर्य या इश्क मिजाजी की कविताएँ नहीं कहता। कवि भावुक होकर कहता है कि "कविता मेरे लिए, मात्र दु:खों की अभिव्यक्ति है/ कविता अगर बांसूरी की तान है/ तो मेरे लिए दिल के छेदों से निकली पुकार है।"

सरकारी आबंडरों से हलाकान सोमारु समाज का वह पात्र है जो हर गांव में पाया जाता है। सारी योजनाएं सोमारु को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं। पर योजना आने पर मसालों की गंध मुखिया के घर से उड़ती हुई सोमारु तक पहुंचती है। कविता "सोमारु की सुबह" का एक अंश हैं -"मुखिया के यहाँ से उठती है, मसालों की सुगंध! सोमारु फ़िर परेशान है। शाम  देर तक पिछवाड़े, लड़ते हैं कुत्ते झूठी पत्तलों पर।" कवि संकेतों के माध्यम यथार्थ बयान कर देता है कि शासकीय योजनाओं का क्या हश्र हो रहा है।

संग्रह की प्रत्येक कविता में बस्तर ही समाया हुआ है। कवि, इस कालखंड को अपने काव्य के माध्यम से समय की किताब के पन्नों में दर्ज कर रहा है। बस्तर की नक्सल समस्या से प्रत्येक बस्तरिहा निजात पाना चाहता है, साथ ही प्रश्न भी करता है "फ़ैसला लेना होगा अब, ये चलेगा कब तक, बस्तर की छाती पर मूँग दलोगे कब तक? फ़िर कवि पूछता है "मुझे मेरा बस्तर कब लौटा रहे हो? वापस ले लो अपनी नियामतें, उठा ले जाओ चाहे, अपनी सड़कें, खम्भे, दुकानें। उठा ले जाओ चाहे, बिना सांकल के बालिका श्रम, बिना डाक्टर के अस्पताल, बिना गुरुजी के स्कूल, बंद कर दो चाहे भीख की रसद, ये सस्ता चावल, चना, नमक की नौटकीं।" मेरा बस्तर मुझे लौटा दो।

"बस्तर के सप्तसुर" कविता में बस्तर के साहित्य शिल्पी लाला जगदलपुरी को श्रद्धांजलि अर्पित है। काव्य संग्रह की अन्य कविताएँ भी पाठक के मन पर अपना गहरा असर छोड़ती हुई प्रतीत होती हैं। डॉ राजाराम त्रिपाठी कवि के रुप में शब्द जाल नहीं बुनते पर उनकी नई कविताएं सहज एवं सपाट रुप से बस्तर के दर्द, दुख, व्यथा को मुखर करने में सक्षम है। जब कविता में भाव प्रधान होता है तो शिल्प गौण हो जाता है। डॉ त्रिपाठी विशुद्ध अपनी शैली में शब्द बिंब गढते हैं और कविताएँ चित्र रुप में चलचित्र सी दृश्यांकन प्रस्तुत करती प्रतीत होती हैं। अवश्य ही आगे चलकर बस्तर का यह कवि अपनी कविताओं के माध्यम से साहित्य फ़लक पर दैदिप्यमान होने की उर्जा रखता है।

प्रकाशक: छत्तीसगढ़ साहित्य परिषद (कोण्डागाँव) बस्तर
रचनाकार : डॉ राजाराम त्रिपाठी
मूल्य: 80/- रुपए
पृष्ठ: 52
पता: 151 हर्बल स्टेट, डी, एन के, कोण्डागाँव - बस्तर (छ ग)

7 टिप्‍पणियां:

  1. बस्‍तर के माटी से जुडा व्‍यक्ति ही बस्‍तर के दर्द को महसूस कर सकता है ....
    कवि ह्दय घटनाक्रम से खास प्रभावित भी होता है और अभिव्‍यक्ति भी कर सकता है ....
    निश्‍चय ही पुस्‍तक की कविताएं पाठक मन पर गहरा असर छोडती होंगी जिसे आपने अनुभव किया ....
    समस्‍या का समाधान तभी संभव होती है जब समस्‍या की चर्चा परिचर्चा जोर शोर से होती है .....
    पुस्‍तक की लोकप्रियता और सफलता के लिए लेखक को असीम शुुभकामनाएं !!!

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  2. त्रिपाठीजी का काव्य संग्रह पढ़ने का मौका तो नहीं मिला पर आपके लेख से कविता के भाव जो बस्तर के दर्द को चित्रित करते दीख पड़ते हैं वो समझ आ गय...

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  3. एक सशक्त लेखनी को आपने उजागर किया साधुवाद
    संग्रह पढ़ने की इच्छा बलवती हुई

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  4. बस्तर की नक्सल समस्या की पीड़ा से निजात पाने की व्याकुलता शब्द-शब्द से झलक रही है. माटी से जुड़े कवि हृदय ने उसकी व्यथा को समझा, जाना है, और आपने उनकी कविता के मर्म को भली भांति पहचाना .... पुस्‍तक की सफलता के लिए कवि को ढेरों शुुभकामनाएं...

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  5. ललित शर्मा जी... कवि की तेजस्विता को नमन. साहस को वंदन.. और क्या कहूं.. बस्तर की वेदना को एहसास करना फ़िर लिखना वाह अदभुत है..
    " कुपोषण से देश मर रहा,
    सेठ बेचारा चूर्ण खाए, लँगोटी,
    रोटी को तरसे, सूट-बूट तंदूरी खाए।"

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  6. लेखक को शुभकामनाऐं और आपके लिये आभार ।

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  7. बहुत अच्छी पोस्ट | लेखन के बारे में उम्दा जानकारी दी आपने |

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