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राजमहल से महानदी का दृश्य |
प्राम्भ से पढ़ें
विश्रामगृह से हम सिरपुर के ढाई हजार वर्ष पुराने मुख्य व्यापार केंद्र के लिए चल पड़े। बाजार में पहुँचते ही दुकानदारों-ग्राहकों का शोर सुनाई देने लगा। लोग-बाग़ हमे कौतुहल से देख रहे थे कि किस नए ग्रह के प्राणी यहाँ आ टपके। ले जाइये ले जाइये 5 सेर धान में 1 सेर गुड ले जाइये। दीवाली छुट का भरपूर लाभ उठाइए। कपड़ों की दुकानों पर भीड़ नजर आ रही थी। रंग बिरंगे कपडे दुकानों की परछी में लटके हुए थे। चिमटा, चकला, बेलन ले लो, भिन्डी-भिन्डी दो सेर में पांच सेर,दो सेर में पांच सेर। बैगन का भाव कम हो गया है 1 सेर में 5 सेर लो, रस्ते का माल सस्ते में, रेलम-पेल मची थी। नाई, धोबी, मोची, सौन्दर्य प्रसाधन, मिठाई, सब्जी, पुस्तकों इत्यादि की दुकाने देखते हुए हम थोडा आगे बढे ही थे कि तीन मूंछ वाले पगड़ीधारियों ने घोड़ों पर आकर हमें आ घेरा। एक ने कडकती आवाज में मूंछे तान कर राजीव पर सवाल दागना शुरू कर दिया ........ कहाँ से आए हो, श्रीपुर में नए दिख रहे हो। मुसाफिरी दर्ज करवाई कि नहीं? मैं लेखक हूँ, कुछ माह पहले ही मेरी पुस्तक "आमचो बस्तर" आई है, जिसका विमोचन दिल्ली में मुख्यमंत्री ने किया है। आप मुझे नहीं पहचानते क्या? ...... राजीव ने भी प्रत्युत्तर में प्रश्न दाग दिया।
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राजमहल के राजकुमार द्वय |
हम नहीं जानते किसी "आमचो बस्तर" और मुख्यमंत्री को। हमारे राज्य में तो सिर्फ राजा और प्रधानमंत्री होता है, समझे। बात न बनाओ, अपना परिचय पत्र दिखाओ, नहीं तो सड़ा दूंगा कारागार में। प्रहरियों की धमकी सुनकर प्रभात सिंह ने मोबाईल निकाल लिया, मैं समझ गया था कि अरुण शर्मा जी को फोनिया रहे हैं, दो तीन बार प्रयास करने के बाद फोन नहीं लगा ....... मोबाईल का टावर भी संकट के समय धोखा देता है। प्रहरियों का सवाल जवाब सुनकर आदित्य सिंह को गुस्सा चढ़ गया। वे भी राज परिवार से सम्बन्ध रखते हैं और प्रहरियों की बदतमीजी से क्रोध आना स्वाभाविक ही था। तुम लोगों की खाल खिंचवा कर भूसा भरवा दूंगा। मेरा भी नाम कुँवर आदित्य सिंह है। जाकर तुम्हारे कोतवाल को बता देना। मेरे मेहमानों की पूछताछ करने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी? ...... कहकर आदित्य सिंह ने अपनी खड्ग खींच ली।
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बाजार में ब्लॉगर |
ये लो हो गया पंगा। जहाँ जाओ वहीँ कुछ न कुछ हो जाता है। हम कहाँ बाजार घुमने आए थे और यहाँ तलवार बाजी शुरू हो गयी। मैंने बीच बचाव करते हुए कहा- सुनो हवलदार साहेब ! काहे फालतू मगजमारी करते हो, दो-चार रुपए पकड़ो चाय-पानी के लिए और अपने रास्ते लगो। हवलदार के चहरे पर चमक आ गयी दो-चार रूपये का नाम सुनकर। कोने में ले जा कर मैंने उसे 5 रुपए दिए और कहा - ये रखो 5 रुपए और इन दोनों प्रहरियों को हमारी सुरक्षा में लगा दो, बाजार में दादा लोगों का बहुत खतरा है। हवलदार ने कुटिल नागरी मुस्कान फेंकते हुए कहा- हम तो आपकी मूछों की कदर करते है। जब तक आप श्रीपुर में रहेगे, दोनों प्रहरी आपकी सेवा में रहेगें, अन्य कोई सेवा हो तो कलदार के साथ संदेसा भेजिएगा, सेवा में हाजिर हो जाऊंगा। जरुर- जरुर, तुम कलदार की चिंता मत करना, जितना चाहिए उतना मिलेगा पर कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। अब दो प्रहरियों की सुरक्षा में हम बाजार भ्रमण करने लगे, एक प्रहरी भाला लेकर अगुवाई और दूसरा खड्ग लेकर पिछुवाई कर रहा था।
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बाट जोहती युवतियाँ |
राजीव ने कहा कि किसी मूर्तियों कि दुकान में ले चलो, मुझे वहां अपनी उपन्यास की नायिका के आभूषणों चयन करना है। प्रहरी मुख्य मार्ग से उत्तर दिशा में चलकर एक दुकान से सामने खड़े हो गए। दुकान भव्य और दुमंजली थी। सामने मोटे कपडे की परछी में कुछ कारीगर मूर्तियों को झाड- पोंछ रहे थे। बड़ी सी मारवाड़ी पगड़ी बांधे अधेड़ श्रेष्ठी गद्दी पर बैठा हुआ था, पास ही बैठा मुनीम तख्ती पर हिसाब लिख रहा था। प्रहरी के साथ हमें देख कर बाहर निकला और हाथ जोड़ कर नमस्कार किया तथा प्रहरी को बोला - क्या गलती हो गयी हवलदार साहब जो आपको यहाँ तक आना पड़ा, किसी से कहलवा दिया होता तो मैं स्वयं चौकी में हाजिर हो जाता। गलती कुछ नहीं हुयी है, हमारे राज्य में वीआईपी मेहमान आए हैं इसलिए इनके साथ हमें आना पड़ा। आप इन्हें मूर्ति दिखाइए। श्रेष्ठी ने तत्परता से हमे आसन दिया और परिचारक को कहा कि - छोटी श्रेष्ठनी से बढ़िया गुलाब वाली लस्सी बनवा कर लाओ।
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दर्जी को नाप जोख के साथ कपडे देते हुए |
हम मूर्तियाँ देखने लगे, राजीव ने एक मूर्ति उठाई, उसके अलंकरण प्रभावशाली थे। मूर्ति एकाध हाथ लम्बाई की रही होगी। आभूषणों से किसी अप्सरा की प्रतिमा मालूम हो रही थी। माथे पर टीका, कानों में खिनवा, नाक में फुल्ली, माथे पर टिकुली, गले में लछमी हार, जुड़े में खोपा फुंदरा, कलाइयों में बघमुही, अंगुलियों में मुंदरी, भुजाओं में नागमोरी, कमर में करधन, पैरों में कटहर तोड़ा, पैर की अँगुलियों में कोतरी पहने अप्सरा वस्त्राभूषण से कोसल प्रदेश की कोई अनिन्द्य सुंदरी दिख रही थी। प्रभात सिंह ने एक प्रतिमा हाथ में लेकर बताया कि यह बौद्धों की देवी हारिति हैं, महिषासुरमर्दनी, अम्रिका, तारा, चामुंडा, गौरी के साथ अन्य यक्ष एवं यक्षणियों प्रतिमाएं भी उपलब्ध थी। राजीव को अप्सरा की ही प्रतिमा पसंद आई। श्रेष्ठी ध्यान से देख रहा था जैसे ही उसे लगा कि प्रतिमा पसंद आ गयी और ग्राहक फंस गया है, उसने तुरंत हांक लगाई ........ अरे! अभी तक लस्सी नहीं लाया कितनी देर हो गई, जल्दी ला।
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केश कर्तनालय |
परदे के पीछे से आवाज आई ......अभी लाया। थोड़ी देर में परदा हिला ...... नौकर एक बड़े सागर में लस्सी भरकर लाया, साथ में मिटटी के भिगाए हुए कुल्हड़ भी। कुल्हड़ों में सबको लस्सी दी गयी, आ हा लस्सी में गुलाब की सुवास के साथ गुड के मिठास के कहने ही क्या हैं, आ हा की ध्वनि सुनकर पर्दा हिला, रूपसी का चेहरा दिखा, समझ गया कि यही छोटी श्रेष्ठनी है, लस्सी की तारीफ सुनने झांक रही है,...... बहुत ही जायकेदार लस्सी बनी है देवी ........धन्य हो तुम - मेरे ऐसा कहते ही श्रेष्ठी ने परदे की तरफ देखा और चिल्लाया - कितनी बार कहा है तुमसे की ग्राहकों के सामने न आया करो, चलो यहाँ से। परदा धीरे से हिला और श्रेष्ठनी शायद चली गयी। कम उम्र की ही लगी, तभी श्रेष्ठी को अधिक चिंता थी ग्राहकों की। दाम बताइए, बहुत विलम्ब हो गया है हमे। अभी तीवरदेव विहार भी जाना है। सारा समय बाजार में ही व्यतीत हो जायेगा तो रात का खाना तुम खिलाने से रहे- आदित्य सिंह ने कहा।
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चरण पादुका चिकित्सालय |
इस मूर्ति के दाम 80 खंडी धान है-श्रेष्ठी ने कहा। राजीव ने कहा- हम परदेशी कहाँ धान-वान लेकर घूमेंगे। रुपए बताओ कितने लोगे? मुनीम ने हिसाब लगा कर बताया की 4 रुपए लगेंगे। ये तो मौज हो गयी, 4 रुपए देकर मूर्ति अपने झोले के हवाले की और जैसे ही मैं जाने के लिए मुड़ा गवाक्ष से झांक रही श्रेष्ठनी पर दृष्टि पड़ ही गयी। चलो रे भाई अभी तो यहाँ से, फिर कभी आयेगे, अपना दाना-पानी लिखा है लगता है श्रेष्ठनी के हाथ का। मैंने श्रेष्ठी से पूछ ही लिया कि ये मूर्तियाँ यहीं तैयार होती हैं क्या? नहीं! मैं इन्हें शिल्पकारों से खरीदता हूँ और इसके बदले उन्हें कच्चा माल देता हूँ। शिल्पकारों के घर चौराहे के समीप है। वहां तीन-तीन मंजिल के जो घर दिखाई देंगे वाही शिल्पकारों के है। प्रथम तल में कारखाना है और ऊपर निवास। हमने श्रेष्ठी से विदा ली, प्रहरी ऊँघ रहे थे। हमारे दुकान से निकलते ही सजग हो गए। हम नदी की तरफ चल पड़े।
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मिठाई खाई-खजानी की दुकान |
महानदी किनारे पर बहुत सारी छोटी डोंगिया एवं बड़ी नौकाएँ खड़ी थी, नौकाओं से यात्री उतर रहे थे, मालवाहक नौकाओं से सामान उतारा जा रहा था। खूब रेलम पेल मची थी। सडक के किनारे कुछ बौद्ध भिक्षु बैठ कर मन्त्र जाप वाली चकरी फिरा रहे थे। एक जगह भीड़ लगी थी, कुछ लम्बे चोगे पहने सिर पर कपडे को रस्सी से बांधे लोग दिखाई दिए। ऐसी पोशाक को अरब के देशों में पहनी जाती हे, ये सिरपुर में क्या कर हैं? पास ही डोंगी में बोरियां लाद रहे मजदूर ने बताया कि अरबी लोग यहाँ से चावल इत्यादि लेकर जाते हैं, ये चावल के व्यापारी हैं। अपनी नौकाओं में नमक, खजूर का गुड इत्यादि भरकर लाते हैं। मजदूर से बातें हो रही थी, इसी बीच घंटा बजने की ध्वनि सुनाई दी। प्रहरी ने बताया कि श्रीपुर में प्रति पहर घंटा बजा कर समय की सूचना दी जाती है। यह व्यवस्था राज्य शासन की तरफ से है। सूरज के घोड़े पश्चिम की तरफ दौड़ रहे थे, राजीव ने 2-2 रुपए प्रहरियों को भेंट किए और उन्हें जाने को कहा। देखो कोई भी जमाना हो कलदारों की मधुर खनक कौन नहीं सुनना चाहेगा, 9 रूपए में मौज हो गई न - मित्रों से कहा। काका बड़ा न भैया-सबसे बड़ा रुपैया ......... प्रत्येक काल में मानव का सच्चा साथी।
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कम्पनी वाली बाई और हिरामन |
बाजार में रौनक लगी हुयी थी, इक्के वाले, घोड़े वाले, रथ वाले, गाड़ीवान बाजार के बीच में बने पड़ाव में डेरा डाले चोंगी धूक रहे थे। फुरसतिया निठाल्लाई चल रही थी, इन्हें देख कर मुझे फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी तीसरी कसम के पात्र हिरामन का स्मरण हो आया पर कम्पनी वाली बाई नहीं दिखी। हम तीसरी कसम की चर्चा कर ही रहे थे तभी दो सजी-धजी युवतियां एक चाकर के साथ प्रगट हुयी। उन्हें देखते ही सभी लोगों ने झुण्ड लगा दिया। आखिर एक रथवान से किराया तय हो गया। मैंने प्रभात सिंह से इनके विषय में पूछा तो उसने बताया कि ये किसबिन डेरा की सवारी है। शाम के वक्त वहाँ खूब रौनक रहती है। नाच-गान मनोरंजन के साधन तो मन बहलाने के लिए हर युग में होते हैं। किसबिन डेरा यहाँ से लगभग 10 मील की दुरी पर है। हमारा भी ज्ञानवर्धन हुआ। सफ़र में एकाध ज्ञानी भी रहना आवश्यक होता है, बहुत सारी समस्याओं का हल एवं जिज्ञासाओं का समाधान स्वमेव निकल आता है। किसबिन डेरा फिर कभी चलेंगे आदित्य सिंह ने आश्वासन दिया। मेरा दिल-ओ-दिमाग गुलाब की लस्सी से तर हो चुका था। रह-रह कर होठों पर लस्सी की मिठास आ रही थी।
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परम्परागत शिल्पकार - लोहार |
चौराहे के समीप ही भव्य तीन तल्ला भवन था, जिसके प्रथम तल में कारखाना चल रहा था। घनो एवं हथोडों की लयबद्ध ध्वनि वातावरण में मधुरता घोल रही थी। पसीने से तरबतर लोहा गलाने की 4 भट्ठियों पर कारीगर कार्यरत थे। कुछ कारीगर सामने परछी में छोटी भट्ठी में औजार बना रहे थे। हल के फाल, सुमेला, धूरी, असकुड, रांपा, कुदाली, गैंती, हंसिया, चिमटा, चाकू, छूरी, तलवार, भाला, तीर, बघनखा, शिरस्त्राण, कवच, जंजीरें इत्यादि सामानों का ढेर लगा था। परछी के सामने ही बड़ा सा पानी का हौद था, जिसमे लोहे के सामान को गर्म करके पजाया (टेम्पर) दिया जा रहा था। उन्होंने बताया कि तलवार को कई पानी दिया जाता है फिर कई बार पीट कर स्वरूप में लाया जाता है। ऊपर वाले तल पर युद्ध सामग्री का भंडार था। सैनिक सामान यही पर मिलता है, कई सैनिक दिखाई दिए जो स्वयं के लिए उपयुक्त हथियारों की तलाश में आए थे। आयुध भंडार में मुझे आश्चर्यचकित करने वाली चीज दिखाई दी। मुख्य कारीगर से पूछने पर उसने बताया कि इसे शतघ्नी कहते हैं।इसका अविष्कार हमारे कारखाने में हुआ है, युद्ध के लिए बहुत ही संहारक एवं प्रहारक आयुध है। राजीव ने कहा कि यह तो वर्तमान ज़माने की तोप है। इतिहासकार कहते हैं कि तोप का अविष्कार अरब देशों में हुआ। पर यह तो शतघ्नी के रूप में श्रीपुर में दिखाई दे रही है।
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परम्परागत शिल्पकार - तमेर (ताम्रकार) |
चौक के परली तरफ बहुत सारे हंडे, थाली, कटोरे, कचोले, बटलोही, इत्यादि एक दुकान में रखे हुए थे। यहाँ बर्तन बनाने के कारखाना चल रहा था। दो तमेर तांबे की चादर को पीट कर बढ़ा रहे थे, हथोड़े की मार से गर्म चादर फैलते जा रही थी। फिर उसे लोहे के दो बेलनो के बीच दबाव गुजारा गया। फिर उसे "गेज" से नाप कर देखा गया। कारीगर ने बताया कि इस पर राजाओं की प्रशस्तियाँ लिखी जाती हैं, राजाज्ञा भी इन्ही ताम्रपत्रों पर टंकित होती है। हम ताम्रपत्र बनाने के साथ इस पर अंकन भी करते हैं। बहुत काम बाकी है, फिर कभी अवकाश मिलने पर चर्चा करेंगे कह कर तमेर ने हम निठल्लों से पीछा छुड़ाया। प्रभात सिंह ने बताया कि महाशिवगुप्त बालार्जुन के ताम्रपत्र और मुहरें यहीं तैयार होती हैं। वह नंदी के साथ गज लक्ष्मी के चित्र वाली बड़ी मुहर यही बनी थी। तभी तमेर बड़े ठसके में था, सीधे राजा के ही सम्पर्क में रहने से इतनी ठसक तो बनती है।
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प्राचीन युद्ध कला का प्रदर्शन |
बाजार से नगर की और लौटते हुए रास्ते में दो बरगद के वृक्ष दिखाई दिए, यहाँ भिक्षुओं की रेलमपेल मची थी। कुछ वृक्ष के नीचे ध्यान लगाये निर्वाण की मुद्रा में बैठे थे। कषाय वस्त्रों में घुटे हुए सिर सूरज की पश्चिमामुख आभा से दमक रहे थे। एक तरफ युवा बौद्ध साधू युद्ध विद्या का प्रदर्शन कर रहे थे। प्रभात सिंह ने बताया कि इस वृक्ष की कलम बोधगया से लाकर किसी भिक्षु ने इस स्थान पर लगाई थी। तब से यह पवित्र वृक्ष बौद्धों की श्रद्धा एवं आस्था का केंद्र बना हुआ है। अन्य प्रदेशों से आने वाले बौद्ध इस वृक्ष का दर्शन करना नहीं भूलते। वृक्ष के समीप ही कुछ चित्रकारों की दुकाने सजी थी। वे बरगद के पत्तों पर भगवान बुद्ध का चित्र बनाकर बेच रहे थे। मैंने प्रभात सिंह से कहा कि भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति तो पीपल के वृक्ष के नीचे हुयी थी और यहाँ बरगद का वृक्ष बता रहे हैं। सर ! बरगद हो या पीपल हैं तो एक ही प्रजाति के, दोनों की ही मान्यता हिन्दू धर्म शास्त्रों में एक जैसी ही है। बरगद की छाँव में भी ज्ञान प्राप्त हो सकता है। धर्म और आस्था बहस का विषय नहीं, मान्यता का है ..... राजीव ने फुलझड़ी छोड़ी।
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पंच कर्म - आयुर्वैदिक चिकित्सा |
पास ही बड़े से घर के बाहर बड़ी-बड़ी खरल रखी थी, उनमे कुछ लोग जड़ी-बूटी खरल कर रहे थे। प्रथम दृष्टया ही लग गया कि यह भैषेजिक केंद्र है। मरीजों की भीड़ थी, कुछ विदेशी भी दिखाई दे रहे थे। हम भी कौतुहलवश जा पहुचे। तो वहां के प्रहरी ने बताया कि यहाँ रसकर्म, पंचकर्म, आर्युवैदिक स्नान, शल्य क्रिया द्वारा रोगों का शमन किया जाता है। यहाँ के भैषजाचार्य अत्याधुनिक पद्धति से समस्त रोगों की चिकित्सा करते हैं। विदेशियों के विषय में पूछने पर बताया कि अरबदेश, इजिप्त, मेसोपोटामिया, बाली, जावा, सुमात्रा इत्यादि से रोगी आकर चिकित्सा लाभ लेते हैं तथा चिकित्सा पद्धति का अध्ययन भी करते हैं, यहाँ के स्नातक विदेशो में अपनी सेवाए दे रहे हैं। मैंने राजीव से चित्र लेने कहा तो उसके कैमरे की बैटरी ने धोखा दे दिया। मुझे अत्यधिक खेद हुआ, अन्यथा सभी चित्र आपको देखने मिलते। टहलते हुए बाजार क्षेत्र से हम अपनी कार तक पहुच गए। अब यहाँ से हमें तीवरदेव विहार जाना था। जारी है ..........
आगे पढ़ें .........
बहुत समय हो गया है मुझे भी हाट-मेला किये हुये..
जवाब देंहटाएंवाह ! ... बहुत खूब है अंदाजे बयाँ आपका
जवाब देंहटाएंइतने रंग भर दिए हैं आपने कि समय के कैनवास पर बड़ा कोलाज सा जान पड़ रहा है.
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जवाब देंहटाएंचार रूपये में मूर्ति खरीद , पांच रूपये रिश्वत ...
पूरा विवरण पढ़ते हुए लगा कि टाईम मशीन में किसी विलोपित सभ्यता के समय में विचरण कर रहे हैं !
भारत में ऐसे स्थान आज भी हैं , हैरान कर देने वाला बेहद रोचक वृतांत!
सरहनीय
जवाब देंहटाएंआज के पैसे थे और मूल्य पुराने ..
जवाब देंहटाएंतो सिरपुर का पूरा बाजार खरीद लेना चाहिए था ..
बहुत सुंदर विवरण .. शुभकामनाएं !!
रोचक , अत्यंत रोचक |
जवाब देंहटाएंलगा कसी दूसरे काल-खंड में पहुँच गये !
जवाब देंहटाएंऐसा लग रहा है कि टाइम मशीन में घुमा रहे हो थानेदार साहब
जवाब देंहटाएंशब्द सामर्थ्य के लिए बधाई !
दुबारा पढ़ रहा हूँ कर्नल ...
जवाब देंहटाएंइसे जारी रखना, अनूठा आयटम पेश कर रहे हो :))
बधाई !
हम तो वईसे गवई मनी ठहरे सहर मे रहे के बावजूद मेला ठेला के सौखीन. भल कीन जो वर्चुअली ही मेलवा मे घुमा दिये
जवाब देंहटाएंतोहार बढती होय
बहुत सुन्दर अनूठे अंदाज़ में लिखी गई है पोस्ट, और इस नए "अविष्कारचरण पादुका चिकित्सालय" के लिए बधाई बहुत - बहुत बधाई. अपने उत्कृष्ठ लेखन के साथ - साथ हिंदी साहित्य को बहुत कुछ दिया है आपने... आभार
जवाब देंहटाएंवाह ललित जी, सिरपुर की सैर खूब करवाई आपने। आपका यह अंदाज़ बहुत अच्छा लगा, ऐसा लगा जैसे सिरपुर अपने प्राचीन वैभव के युग में जी उठा हो। उस युग की विशेषताएँ बहुत खूबी से प्रकट हो गईं।
जवाब देंहटाएंइस नीरस समझे जाने वाले विषय में भी आपने जान फूंक दी. बधाई हो.
जवाब देंहटाएंक्या बात है वाह बहुत ख़ूब पेशकश
जवाब देंहटाएंबड़ा ही रोचक हाट वृत्तान्त..
जवाब देंहटाएं.....सुन्दर अंदाज़ में लिखी गई है पोस्ट
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