राजीव रंजन , आदित्य सिंह, बंधू |
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सिरपुरिहा मित्र को फोनिया कर हम सिरपुर पहुंचे तो वे चौक पर ही मिल गए. छुटटी का दिन होने के कारण नौकरी वाले लोग घर में ही मिल जाते हैं. राजिम में अधिक समय लगने के कारण विलंब हो गया था और अंधेरा भी. अगले दिन हमारा कार्यक्रम सिंगा धुरवा तक जाने का था. रात्रि विश्राम सिरपुर में करने के पश्चात हम सिरपुर से 15 किलो मीटर की दूरी पर घने वन में स्थित धसकुड़ का प्राकृतिक झरना भी देखना चाहते थे. राजीव रंजन, आदित्य सिंग और मैं हम तीन प्राणी वनांचल स्थित ग्राम बोरिद की ओर जा रहे थे. चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा हुआ बोरिद ग्राम सिरपुर के उत्तर पूर्व में 16 किलो मीटर की दूरी पर है. रायपुर से 84 किलोमीटर पर प्राचीन राजधानी श्रीपुर के अवशेषों पर नवीन सिरपुर गाँव बसता है। सिरपुर के आस पास सघन वन होने से वातावरण रमणीय है. कभी यहाँ घनघोर वन थे. आवागमन के साधन भी बहुत कम होते थे. वर्तमान में जब सिरपुर को विश्व धरोहर बनाने की मांग हो रही है तब निजी वाहनों के अलावा राजकीय परिवहन सुविधा नगण्य ही है, सुबह एक बस सिरपुर जाती है फिर वही बस दोपहर ढ़ाई बजे रायपुर वापस लौटती है. कल्पना कर सकते हैं उन दिनों की जब परिवहन का कोई साधन नही रहा होगा तब यहाँ जीवन कितना कठिन होगा?
सिरपुरिहा मित्र को फोनिया कर हम सिरपुर पहुंचे तो वे चौक पर ही मिल गए. छुटटी का दिन होने के कारण नौकरी वाले लोग घर में ही मिल जाते हैं. राजिम में अधिक समय लगने के कारण विलंब हो गया था और अंधेरा भी. अगले दिन हमारा कार्यक्रम सिंगा धुरवा तक जाने का था. रात्रि विश्राम सिरपुर में करने के पश्चात हम सिरपुर से 15 किलो मीटर की दूरी पर घने वन में स्थित धसकुड़ का प्राकृतिक झरना भी देखना चाहते थे. राजीव रंजन, आदित्य सिंग और मैं हम तीन प्राणी वनांचल स्थित ग्राम बोरिद की ओर जा रहे थे. चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा हुआ बोरिद ग्राम सिरपुर के उत्तर पूर्व में 16 किलो मीटर की दूरी पर है. रायपुर से 84 किलोमीटर पर प्राचीन राजधानी श्रीपुर के अवशेषों पर नवीन सिरपुर गाँव बसता है। सिरपुर के आस पास सघन वन होने से वातावरण रमणीय है. कभी यहाँ घनघोर वन थे. आवागमन के साधन भी बहुत कम होते थे. वर्तमान में जब सिरपुर को विश्व धरोहर बनाने की मांग हो रही है तब निजी वाहनों के अलावा राजकीय परिवहन सुविधा नगण्य ही है, सुबह एक बस सिरपुर जाती है फिर वही बस दोपहर ढ़ाई बजे रायपुर वापस लौटती है. कल्पना कर सकते हैं उन दिनों की जब परिवहन का कोई साधन नही रहा होगा तब यहाँ जीवन कितना कठिन होगा?
राजीव रंजन , आदित्य सिंह एवं यायावर |
हमारी कार बोरिद की तरफ बढ़ रही थी एवं आपस में सिरपुर को लेकर चर्चा चल रही थी. महासमुंद के बड़गाँव निवासी आदित्य सिंग प्रायमरी स्कूल शिक्षक के रुप में 7 अक्टुबर सन् 1994 को इस इलाके में पदस्थ हुए थे. वे कहते हैं कि " तब तो बोरिद को काला पानी कहा जाता था. जब मैं गाँव में पहुंचा तो स्कूल के नाम पर केवल एक दीवार बस थी. सोचता रहा कि बच्चों को कहाँ और कैसे पढ़ाया जाएगा? कुछ दिनों में ग्रामीणों ने नंदीराम देवदास के इंदिरा आवास के मकान में स्कूल लगाने की सुविधा बनाई. स्कूल मे दाखिल खारिज और हाजिरी रजिस्टर भी नही था. हाजरी रजिस्टर खरीद कर लाने के बाद 28 विद्यार्थियों का नाम लिखा गया और पढ़ाई प्रारंभ हुई. ग्रामिणों से चर्चा कर स्कूल बनाने के लिए उन्हें तैयार किया. तब कहीं जाकर एक वर्ष में स्कूल के लिए दो कमरे बन सके और विद्यार्थियों की शिक्षा स्वयं के भवन में प्रारंभ हुई. बोरिद जाने के लिए रास्ता नही था. बरसात के मौसम में गाँव तक पहुंचना दुखदाई था. परन्तु बच्चों को शिक्षित करने की बड़ी जिम्मेदारी थी, इसलिए जाना पड़ता था. कुछ दिनों बाद गाँव में ही सपरिवार रहने लगा. ग्रामिणों के पास स्वयं के रहने के लिए मकान की कमी थी, वे अन्य को कहाँ रखते. फिर एक इंदिरा आवास में व्यवस्था हुई. वहीं सपरिवार रहने लगा. उन दिनों गाँव में बिजली नहीं थी. बहुत ही कठिन था, जीवन यापन करना।
धसकुड़ का झरना |
रास्ते में आदित्य सिंग से छत्तीसगढ़ी गीत की फरमाईश करता हूँ, वे सुनाने को सहर्ष राजी हो जाते हैं। आदित्य सिंग गीत अच्छे लिखते हैं। उनके गाए गीत राजीव (आमचो बस्तर) ने रिकार्ड किए।मुख्य सड़क पर थोड़ी दूर चलने के बाद कच्ची सड़क आ गई, कच्ची सड़क पर मुरम डाल रखी थी, कार के निकलने में कठिनाई हो रही थी। धीरे धीरे कच्ची सड़क पर आगे बढ़ते रहे, लगभग 5 किलोमीटर चलने पर दांयी तरफ एक पगडंडी जाती है उसके दोनो तरफ चूना डाल रखा था, जैसे किसी मंत्री के स्वागत के समय रास्ता बताने के लिए डाला जाता है। हमें कार यहीं सड़क पर छोड़नी पड़ी, आगे की यात्रा यहीं से 11 नम्बर की सवारी पर करनी थी। पैदल चलने मे राजीव को थोड़ी परेशानी थी क्योंकि ४ दिन पहले ही उसके पैर का प्लास्टर खुला था और पैर में सुजन आने का भी डर था। छड़ी के सहारे राजीव बराबर चल रहे थे। जंगल में यह "धसकुड़" झरने तक जाने का मार्ग है। बोरिद गाँव चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा है एवं मुख्य सड़क से लगभग 50 से 75 फिट की गहराई पर है। हम मुख्य सड़क से नीचे उतरते आए हैं, जंगल में "खैर" के वृक्षों की अधिकता है। खैर से कत्था बनता है जिसका उपयोग पान में किया जाता है। यहाँ खैरवार जाति के लोग निवास करते हैं जिनका मुख्य पेशा खैर से कत्था निकालना है। आधा किलोमीटर मुरम की पगडंडी पर चलने के बाद रास्ता गायब हो गया। जंगल में पड़े उबड़ खाबड़ पत्थरों पर चलना पड़ रहा था। थोड़ा सा भी कहीं पैर मुड़ा और 50,000 का नगद नुकसान एवं 4 महीने का शय्या विश्राम तय मानिए।
राजीव रंजन |
जँगल में मकड़ियों के जाले लगे थे, उनके बीच से गुजरने पर सिर के बालों में फँसने से पसीने के कारण खुजली हो रही थी. आगे चलने पर झरने की कल कल ध्वनि सुनाई देने लगी। रास्ते में बड़ी चट्टाने आने के कारण एक वृक्ष की छाँव में राजीव बैठकर अपनी आगामी उपन्यास की नायिका की कल्पना में लग गए और हम झरने तक पहुँचने के लिए आगे बढ़ते रहे। प्राकृतिक वनों मे वानस्पतिक विविधता दिखाई देती है। जंगल महकमे द्वारा लगाए गए वन हरे तो होते हैं पर वानस्पतिक विविधता दिखाई नहीं देती। सामने झरना दिखाई देने लगा। पानी की धार कम हो चुकी थी। बरसात में अपने पूर्ण यौवन पर होता है यह झरना। झरने के नीचे कुंड मे पानी भरा हुआ था, इस पानी का खेती में उपयोग करने के लिए झरने से निकले हुए नाले को बांध दिया गया है। निर्जन स्थान होने के कारण भालुओं का खतरा अधिक है। कभी कभी चीते तेंदुए भी चले आते हैं झरने का सौंदर्य दर्शन करने। मैने झरने के चित्र लिए, कुण्ड में छोटी रुदवा मछलियाँ तैर रही थी, उन्होने भी कुशल माडेल की तरह पोज देकर फोटो खिंचवाई। जंगल में पीछे राजीव को अकेला छोड़ आए थे, सुरक्षा की चिंता हो रही थी।
मुझे एक पत्थर पर कुछ चिन्ह दिखाई दिए। समीप जाने पर तोड़ने के लिए पत्थर पर सुराख बने दिखाई थे। मैने अनुमान लगाया कि सिरपुर यहाँ से 15 किलोमीटर पर है, हो सकता है कि प्राचीन राजधानी में निर्माण के लिए पत्थर यहाँ से भी जाते हों। जंगल में यहाँ से 5 किलोमीटर पर सिंगा धुरवा में शरभपुरियों की राजधानी होने का कयास लगाया जा रहा है। हमें वहाँ तक भी जाना है, हम लौटकर राजीव के पास पहुँचे तो वे वृक्ष की शीतल छाँव के नीचे आराम फरमा रहे थे। जिस उबड़ खाबड़ रास्ते से हम गए थे उसी से लौटना पड़ा। कार तक पहुँचने मे पसीना निकल गया, कार में रखा हुआ पानी भी गरम हो गया था.अब बोरिद में ही जाकर पानी पीना था। रास्ते में एक महिला सिर पर प्लास्टिक का धमेला रखे आ रही थी.जंगल के गाँव में भी प्लास्टिक ने डेरा जमा लिया है। घरेलू कामों के लिए बांस की बनी टोकरियाँ और लोहे की चद्दर के धमेले दिखाई नहीं देते। नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी सच करने का उद्यम गाँव गाँव में हो रहा है। महाप्रलय आने पर सारी दुनिया प्लास्टिक में ही चिपक कर मरेगी. आगे बढ़ने पर अपने पशु लेकर चराने जाता हुआ चरवाहा मिला। उसने अपनी खुमरी को मोर पँखों से सजा रखा था। उसे पहाटिया कहने पर उसने बताया कि वह गोंड़ ठाकुर है। गाँव में दुर्गा पूजा का जोर चल रहा है। पहले छत्तीसगढ़ के गाँवों मे जंवारा का चलन था। शहरों की बयार गाँव तक बह रही है, दुर्गा की प्रतिमा स्थापित कर पूजा करने का चल यहाँ पर भी जोरों से है।
बोरिद का स्कूल |
लो जी, पहुंच गए स्कूल के तीर, सजा-धजा स्कूल याने पाठशाला। कभी हम भी अम्मा का सिला हुआ झोला टांक कर आया करते थे। स्कूल में झाड़ू लगा कर टाट पट्टी बिछाते, सब काम पाली में होता था। झाड़ू न लगाने पर ५ पैसे का अर्थ दण्ड देना पड़ता था। अब ऐसा नहीं है, प्रत्येक स्कूल मे चपरासी है। आदित्य सिंग का जाना पहचाना गाँव, जहाँ उन्होनें जीवन के महत्वपूर्ण साल गुजारे। वे बताते हैं कि गाँव के लतेल नामक व्यक्ति का बरहा ( जंगली सुवर ) ने पेट फाड़ दिया था, जिसके बाद वह मर गया़। स्कूल पहुंचने पर ध्रुव गुरुजी मिलते हैं, दो बच्चे आकर कहते हैं "मे गो आउट सर"। सुनकर लगा कि अब आदिवासी अंचल के लोग भी समझ चुके हैं, बिना अंग्रेजी के भारत में गुजारा संभव नहीं। सरकार चाहे कितना ही हिन्दी का बढ़ावा देने का पाखण्ड कर ले पर तकनीकि शिक्षा की सारी पढ़ाई अंग्रेजी में ही होती है। 28 विद्यार्थियों से प्रारंभ हुए स्कूल में आज 60 बच्चे पढ़ते हैं, पाँच कक्षाओं को मिलाकर इतनी कम दर्ज संख्या से लगा कि ग्रामवासी अभी भी शिक्षा के प्रति उदासीन हैं।
केजा बाई |
गाँव में 64 घर हैं, कुल जनसंख्या 399 है। जिसमे लगभग 36 घर गोंड़ों के, 17 घर गांड़ा के, 10 घर यादवों के 1 घर तेली का। मुख्य काम खेती करना ही है। स्कूल के समीप सुकलई नाला बहता है, हम नाले की तरफ चल पड़े। नाले मे भरपूर पानी था। पानी रोकने के लिए एनीकट बना हुआ है, इसमे साल भर पानी रहता है। यह नाला रायपुर जिले एवं महासमुंद जिले का विभाजन करता है। बोरिद महासमुंद जिले का अंतिम गाँव है। नाले के किनारे बैठकर चर्चा होती है कि किस तरह गाँवों के नाम अब बदल रहे हैं। गाँव के लोग पढ़ लिख गए हैं तो उटपटांग नामों से शर्मिंदा होना पड़ता है। इसलिए गाँव का नाम ही बदल लेना चाहिए़। स्कूल के शिक्षक बी एल ध्रुव बताते हैं कि चिरको अब चित्रकूट, मुड़ियाडीह अब रामपुर, भोसड़ा अब भवानीपुर, घोंठ अब नरसिंहपुर हो गया है। हमारे यहाँ भी गधीडीह अब गणेशपुर हो गया। चर्चा चल रही थी, सुबह नाश्ता करके ही चले थे। गाँव में खाने की व्यवस्था करने में वक्त जाया होता इसलिए हमने सिरपुर लौटने का निर्णय किया। तभी नाला पार करके अपनी बकरियों के साथ बुढ़ी माई आ गई, गुरुजी को पहचानी नहीं, समीप जाने पर ही पहचान पाई। कहने लगी "बने देंह धरे हस, पेट घलो निकलगे हे, चिन नई पाएंव गौ।" बुढ़िया माई के कथन पर सब मुस्कुरा कर रह गए।
मंगतु और यायावर |
चलते चलते बुढ़िया माई का नाम पता चला "केजा बाई" इसका एक ही बेटा है और ५ एकड़ जमीन है, बेटा किसी दूसरे गाँव में नौकरी करता है। उसके बीबी बच्चों को मंगतु और केजा बाई पाल रहे हैं। पोता जवान हो गया है, बकरियाँ बेचकर उसके विवाह की योजना बन रही है। केजा बाई कहती है "मूल ले ब्याज बने सुहाथे, उचित ला गिंजरन दे कोनो मेरन, है तो मोरे बेटा। हाथी फिरे गाँव गाँव, जेखर हाथी तेखर नाँव। बात तो पते की कह गयी माई। घर पहुँचे तो उसका पति मंगतु राम मिला। ये बारनयापारा में फारेस्ट गार्ड था, फुरफुंदी बीट से 1993 में रिटायर हुआ। अब घर का ही काम करता है, खेती रेगहा में दे रखी है, घर का काम चल जाता है। मंगतु बताता है कि गाँव में सड़क और बिजली लगभग साथ ही आई। कपार्ट ने सड़क बनाने के लिए 75% राशि दी, बाकी 25% काम गाँव वालों ने श्रमदान करके किया। सड़क और बिजली के लिए गुरुजी आदित्य सिंग ने प्रयास कर स्थानीय जनप्रतिनिधियों बिसन लाल चंद्राकर, फजल हुसैन पाशा एवं दीनदयाल साहू के माध्यम से करवाया। गाँव वालों को सड़क एवं बिजली लाने के लिए प्रेरणा दी. इस दृष्टि से गुरुजी का काम महत्वपूर्ण है, अगर प्रेरणा देने मात्र से गाँव का भला हो जाए। मंगतु चाय बनवाने को कहता है। पर समयाभाव के कारण हम मना कर देते हैं और लौट चले सिरपुर की ओर, जंगल के आदिवासी गाँव की सैर करके। जारी है ...... आगे पढ़ें
राजीव रंजन, यायावर,आदित्य सिंग,बी एल ध्रुव |
रोचकता से भरपूर यात्रा वर्णन....साथ ही घूमने का -सा आनन्द मिल रहा है ...आभार...
जवाब देंहटाएंजीवन के कितने ही रंग, यायावरी और ब्लागरी मुबारक.
जवाब देंहटाएंविद्यालय में कम बच्चों की कम संख्या के बीच कन्याओं को देखना बहुत सुखद लगा .
जवाब देंहटाएंबीहड़ रास्तों का सफ़र अभी भी भारत में कायम है , जानकार हैरानी होती है , मगर शायद विशुद्ध प्राकृतिक स्थलों के सुरक्षित रह पाने का कारण भी यही रहा हो !
रोचक !
@वाणी गीत
जवाब देंहटाएंजहाँ तक सड़क गई, वहाँ तक प्राकृतिक स्थलों का विनाश ही हुआ। कुछ स्थान मानव की क्रूर दृष्टि से बच गए हैं, सड़कें अब वहाँ तक भी बन रही हैं, शायद आने वाली पीढ़ी के लिए हम कुछ न बचा पाएं।
पहले ही फोटो से डरा दिया... :D
जवाब देंहटाएंआप इतनी अच्छी जगह रहते हैं, ईर्ष्या होती है.
तथ्यों से भरपूर पोस्ट ......!
जवाब देंहटाएंजबरदस्त -इको टूरिंग संस्मरण! मैं आपको कर्मनाशा -एक शोध यात्रा के लिए आमंत्रित करना चाहता हूँ ! जल्दी ही !
जवाब देंहटाएं"कभी कभी चीते तेंदुए भी चले आते हैं झरने का सौंदर्य दर्शन करने।" इसमें से चीता डिलीट कर दीजिये -चीता अब भारतीय जंगलों में नहीं पाया जाता !
अच्छा ही नही लगा..................................................................बहुत अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंअच्छा ही नही लगा..................................................................बहुत अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंअच्छा ही नही लगा..................................................................बहुत अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंअच्छा ही नही लगा..................................................................बहुत अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंअकेले अकेले घुमाने से भूख नहीं लगती . मित्रों को साथ लेकर चलने से ज्ञान बांटकर चलना पड़ता है. झरना का आनंद और खुबसूरत वैन गमन के लिए बधाई .
जवाब देंहटाएंजंगल के भीतर का वर्णन और भी रोचक और मंगलमय हो जाता है।
जवाब देंहटाएंप्राकृतिक स्थलों में जब तक सड़क न बनी हो शायद वे तब तक ही अपने प्राकृतिक स्वरुप में रह पाते हैं, ऐसी जगह का अपना खास आनंद होता है. आदित्य सिंह जी ने इतने कठिन हालात में भी अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह किया, जानकर बहुत अच्छा लगा....रोचक विवरण के लिए आभार
जवाब देंहटाएंयह तो एडवेंचर हो गया . खूबसूरत जंगली यात्रा का सुन्दर वर्णन .
जवाब देंहटाएंजंगली = जंगल की .
जवाब देंहटाएंरोचक यात्रा-वृत्त सर! आभार आपका
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