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अचानकमार वन में प्रवेश करते ही साल वृक्ष के फ़ूलों की गमक ने हमारा स्वागत किया। महुआ फ़ूल के बाद मई माह में साल(सरई) बीज चुनने का समय आता है। छत्तीसगढ़ के लगभग सभी इलाकों में सरई के वृक्ष हैं।राहुल सिंह कहते हैं कि साल का वृक्ष 100 साल बड़ा, 100 साल खड़ा एवं 100 साल तक पड़ा रहता है। अर्थात इसे तैयार होने में 100 साल लगते हैं, सौ साल तक खड़ा रहता है। यदि यह गिर जाता है तो 100 साल तक पड़ा रहता है अर्थात साल वृक्ष की उम्र 300 साल होती है, इस लकड़ी की नमी सूखती नहीं है। इमारती लकड़ी के तौर पर साल की लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता है। भीतर की नमी इसकी उम्र बढाती है।
अचानकमार वन में प्रवेश करते ही साल वृक्ष के फ़ूलों की गमक ने हमारा स्वागत किया। महुआ फ़ूल के बाद मई माह में साल(सरई) बीज चुनने का समय आता है। छत्तीसगढ़ के लगभग सभी इलाकों में सरई के वृक्ष हैं।राहुल सिंह कहते हैं कि साल का वृक्ष 100 साल बड़ा, 100 साल खड़ा एवं 100 साल तक पड़ा रहता है। अर्थात इसे तैयार होने में 100 साल लगते हैं, सौ साल तक खड़ा रहता है। यदि यह गिर जाता है तो 100 साल तक पड़ा रहता है अर्थात साल वृक्ष की उम्र 300 साल होती है, इस लकड़ी की नमी सूखती नहीं है। इमारती लकड़ी के तौर पर साल की लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता है। भीतर की नमी इसकी उम्र बढाती है।
बारी घाट अचानकमार |
आदिवासियों का जीवन वनोपज पर आधारित होता है। वे सरई फ़ूल चुनते हैं। इसे फ़ोड़ कर बीज निकाला जाता है और उसे बाजार में बेचा जाता है। इनकी आमदनी का एकमात्र माध्यम वनोपज संग्रहण ही है। वनोपज की खरीदी वन समितियों के माध्यम से की जाती है। सरई बीज का निर्यात विदेशों में होता है। जापान इंग्लैंड इत्यादि में नारियल के मक्खन एवं चाकलेट में इसका उपयोग होता है। भारत में खाद्य पदार्थों में इसका मिश्रण नहीं किया जाता इसलिए साल बीज का प्रसंस्करण कर तेल निकाला जाता है। साल वृक्ष का गोंद जलाने पर मनमोहक खुश्बू देता है। इसका प्रयोग धूपबत्ती बनाने में किया जाता है।
सरई (साल) फ़ूल |
जिंदादिल व्यक्तित्व के धनी प्राण चड्डा जी का अचानकमार के जंगलों से जुड़ाव आधी सदी पुराना है, पहले पिताजी के साथ शिकारी के रुप में, अब वन्य प्राणी संरक्षक के रुप में। ये इस वन के चप्पे चप्पे से वाकिफ़ हैं। कहते हैं "मेरी पहली पीढी ने जो शिकार किए हैं मैं प्रायश्चित कर रहा हूँ, अब 30 वर्षों से उनकी सुरक्षा कर रहा हूँ।" चड्डा जी ने पत्रकारिता के क्षेत्र में लम्बा सफ़र तय किया है, वे 15 वर्षों तक बिलासपुर दैनिक भास्कर के संस्थापक सम्पादक भी रहे हैं। साथ ही 3 वर्षों तक दैनिक भास्कर के प्रबंधक के तौर पर भी कार्य किया।
सरई बीजा |
जंगल से इनका लगाव दीवानगी की हद तक है, वर्तमान में इनका पूरा ध्यान जंगल एवं पर्यावरण बचाने पर है। असर वन विभाग के कर्मचारियों एवं अधिकारियों पर भी दिखाई देता है। वे सप्ताह में एक बार तो इस अभ्यारण्य का दौरा कर लेते हैं। जिससे वन विभाग के अधिकारी एवं कर्मचारी सतर्क रहते हैं। वे 20 वर्षों से वाईल्ड लाईफ़ एडवायजरी बोर्ड सदस्य हैं। पत्रकारिता का धर्म निभाते हुए इन्होने कलम के माध्यम से वन्य प्राणी एवं वन सरंक्षण के मुद्दे उठाए हैं। जिनकी चर्चा शीर्ष स्तर तक हुई है। चड्डा जी के साथ वनों पर चर्चा करते सफ़र कटते जा रहा था और मेरा ज्ञानार्जन भी हो रहा था।
वन्य प्राणी संरक्षक प्राण चड्डा जी |
सच है एक जमाना था जब शिकार के शौकीन हफ़्तों महीनों का राशन लेकर लवा जमा के साथ शिकार करने के लिए जंगलों की खाक छानते थे और जो शिकार मिल जाता था उसकी ट्राफ़ी बनवा कर अपने घरों में सजाते थे। शिकार करना अभिजात्य वर्ग का फ़ैशन था और वनवासियों के उदर पोषण का माध्यम भी। साथ ही पेड़ भी कटते गए जिससे जैविक संतुलन बिगड़ने लगा और वन से वन्य प्राणी गायब होने लगे। इसका खामियाजा वर्तमान पीढी को भुगतना पड़ रहा है। अभी भी अचानकमार बस्ती तक पहुंचने पर सितम्बर अक्टुबर में सामान्य शहरी को गर्म कपड़ों की आवश्यकता पड़ जाती है। नवम्बर दिसम्बर में तो कड़ाके की ठंड पड़ती है।
बजरंग केडिया जी (फ़ोटो-प्राण चड्डा जी से साभार) |
चड्डा जी बता रहे थे कि बारीघाट लगभग डेढ किलोमीटर है पर गाड़ियों का दम निकाल देता है। बारी घाट समाप्त होने पर प्रकृति का खूबसूरत नजारा देखने मिलता है। साल के वृक्षों के बीच दुनिया की सबसे बड़ी घास बाँस के झुरमुट हरियाली बनाए हुए हैं। कार बजरंग केडिया जी के आम्रवन के आमों की खुश्बू से गमक रही थी। खुश्बू से लगता था कि आज का दिन बन गया। घाट पर कुछ चित्र खींचे गए। चित्रों के प्रति चड्डा जी काफ़ी संवेदनशील हैं। साथ ही आधी सदी के फ़ोटोग्राफ़ी के अनुभव ने इन्हें अच्छा फ़ोटोग्राफ़र भी बना दिया। अनुभव तो कहीं किताबों में मिलता नहीं, उसके लिए जीना पड़ता है। सतत जीवंत अभ्यास बनाए रखना होता है। …… आगे पढें
आपके लेखन से लगा रहा जैसे एक बार भी इस इलाके की यात्रा पर साथ- साथ हो ,, चलता रहे यूँ ही कारवां ,जिंदगी का सफ़र कट जायेगा ,,
जवाब देंहटाएंसरई की लकड़ी पुलों के निर्माण के लिए अच्छी मानी जाती थी. पानी में सड़ता नहीं था. अधिकतर रेलवे के स्लीपर इसी लकड़ी के होते थे. एक ही कमी देखी है यह लकड़ी फटती है. वैसे तो शीशम के साथ भी कभी कभी ऐसा होता है.
जवाब देंहटाएं@ P.N. Subramanian ji
जवाब देंहटाएंसाल की लकड़ी में जब तक नमी रहती है, तब तक नहीं फ़टती। कई दशकों से भारत में मलेशियन साल आ रही है जो जिसकी नमी जल्दी ही सूख जाती है और फ़ट जाती है। वैसे एक जमाने में छत्तीसगढ़ में "नगरी-सिहावा" के वनों की साल लकड़ी उत्तम मानी जाती थी।
सरई फूलों को झड़ते देखना मोहक होता है, मानों मंथर हेलिकाप्टर.
जवाब देंहटाएंसचमुच चड्ढा जी के प्राण तो जंगल में ही बसते हैं. बहुमुखी प्रतिभा का अनुकरणीय गुणों युक्त व्यक्तित्व.
जवाब देंहटाएंहमारे लिए बिलकुल नई जानकारी है यह "सरई के फूल"। वन्य प्राणी एवं वन सरंक्षण के प्रति चड़ढा जी का प्रयास अत्यंत सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंsal ki lakdi ke inhi guno ko angrejon ne pahchana aur ..prarambhik railway track ke sleepers sal lakdi ke banaye gaye ..iske liye kafi bade paimane par saal vano ka safaya kiya gaya ..ab inhe sanrakshit kar ke paryavarn ko durust kiya ja raha hai ..
जवाब देंहटाएंसाल के बीज भी काम आते हैं , पहली बार जाना !
जवाब देंहटाएंरोचक !
कई बार गुजरे हैं अचानकमार से, एक बार फिर यादें ताज़ा कर दीं आपने
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