अचानकमार
अभ्यारण्य के बीच का सफ़र लगभग 60-65 किलोमीटर का होगा। इतने सफ़र में मैने कहीं पर "पढे, लिखे या डॉ फ़लाँ फ़लाँ से मिले" वाला विज्ञापन नहीं देखा। वनवासियों का इन डॉक्टरों के बिना ही काम चल जाता है। वरना
भारत का कोई गांव शहर नहीं है जहाँ चाँदसी विज्ञापन देखने न मिलें। चाँद सी मेहबूबा मिले या न मिले पर
चाँदसी विज्ञापन जरुर मिल जाते हैं। यहाँ इस तरह के विज्ञापन मिल भी नहीं सकते क्योंकि
बैगा स्वयं परम्परागत चिकित्सक हैं जो
जड़ी-बूटियों से अपना इलाज करते हैं। एक बार मुझे भी जड़ी बूटियों का शौक चढा था और अपने बाड़ा में लगभग 100 तरह की जड़ी-बूटियाँ लगाई थी। जब तक नुस्खे अनुभूत न हों तब तक दवाईयों पर विश्वास करना कठिन होता है। हाँ सिमगा के पास एक ऐसे ही कैंसर चिकित्सक का सूचना फ़लक दिखाई दे गया।
|
फ़ायर वाचर की झोपड़ी |
एक बाँस की झोपड़ी दिखाई दी, जिसके बाहर बांस का ही तख्त सा बना हुआ था। चड्डा साहब ने इसका नामकरण "हनीमून कॉटेज" किया। खैर जंगल में यह स्थान हनीमून के लिए भी उचित लगा। बस छत के उपर नीचे से कोई साँप न लटके। वरना इससे हारर हनीमून कहीं दूसरा न मनेगा। वास्तव में यह बांस की झोपड़ी
अभ्यारण्य के फ़ायर वाचर का ठिकाना है। जहाँ से वह जंगल की रखवाली करता है। कहीं कोई आग न लगा दे। जंगल की आग से बहुत नुकसान होता है। अभी अप्रेल में ही शिकार पकड़ने के लिए लगाई गई आग ने विकराल रुप धारण कर लिया था।
वनवासी एक घेरा बना कर आग लगा देते हैं तथा आग से डर कर खरगोश कोटरी आदि बाहर निकलते हैं तो पता कर लेते हैं। कभी महुआ बीनने वालों की लगाई आग भी विकराल रुप धारण कर लेती है। आग की जानकारी रखने के लिए फ़ायर वाचर नियुक्त किए जाते हैं।
|
रास्ते में स्पेशल डिग्री वाले डॉ की दुकान |
लमनी से केंवची पहुंचने पर पता चला कि टायर की हवा फ़िर कम हो गई है, सोचे कि यहीं पंचर बनवा लें, परन्तु पंचर दुकान वाला नहाने धोने में व्यस्त था। कहने लगा आधे घंटे बाद काम पर लौटुंगा तब पंचर बनेगा। हमने फ़िर हवा भरवा ली और आगे बढ गए। ट्यूब लेस टायर के पंचर भी हर जगह नहीं बनते। नई विधा को सीखने में समय लगता है।
केंवची से एक रास्ता
अमरकंटक जाता है तथा दूसरा रास्ता
गौरेला पेंड्रा। हमें पेंड्रा में थोड़ी देर के लिए आवश्यक काम था। गौरेला पहुंचने पर टायर की हवा फ़िर कम हो गई। वहाँ पंचर दुकान वाले ने बनाने की सहमती दे दी और हमने नए टायर का जोड़ा डालने के लिए दुकान भी ढूंढ ली। परन्तु टायर मिस्त्री ने आधे घंटे में पंचर बना दिया। हम आधे घंटे और बैठे, दुबारा चेक करवाया तो हवा नहीं निकली थी। चलो बन गया काम।
|
केंवची का तिराहा (अमरकंटक एवं रायपुर रोड़) |
अमरकंटक जाने के लिए 3 रास्ते हैं, पहला 44 किलोमीटर का रास्ता पेंड्रा रोड़ से केंवची होकर जाता है तथा दो रास्ते गौरेला पेंड्रा से जाते हैं। गौरेला पेंड्रा से 20 किलोमीटर का रास्ता दुर्गाधारा होकर तथा दूसरा 25 किलोमीटर का रास्ता जलेश्वर महादेव होकर जाता है। हमने दुर्गाधारा वाला मार्ग पकड़ा। आश्रम में फ़ोन करके बता दिए कि हम विलंब से पहुंचेगे इसलिए द्वार खुला रखें। दुर्गाधारा होकर अमरकंटक मार्ग की दुरी लगभग 25 किलोमीटर है। पर रास्ता पहाड़ी होने के कारण समय अधिक लगता है। इस रास्ते पर हमें हाईना (लकड़बग्घा) दिखाई दिया। कार की रोशनी में कुछ देर खड़ा रहा फ़िर जंगल में भाग गया। पहाड़ी पर एक स्थान पर बाबाजी ने डेरा बना रखा है। हमने कुछ देर के लिए यहाँ गाड़ी रोकी। इस इलाके में बाक्साईट की पहाड़ियाँ हैं।
|
दुर्गाधारा में अलाव तापते लोग |
हम रात के अंधेरे में दुर्गाधारा पहुंचे, तो वहाँ 5-6 लोग दिखाई दिए, उन्होंने मंदिर के बाहर आग जला रखी और ताप रहे थे। बाहर ठंडी हवा चल रही थी। रात होते ही यहाँ का तापमान और अधिक गिरने वाला था इसलिए मंदिर में रहने वालों ने रात की व्यवस्था कर ली थी। मंदिर के पीछे पहाड़ी छोटा झरना गिरता है। जिसे दुर्गाधारा कहते हैं। चड्डा जी ने बैग से टार्च निकाल कर हमारा मार्गदर्शन किया, वरना अमावश के बाद की पहली रात को घुप्प अंधेरे में दुर्गाधारा तक पहुंचना संभव नहीं था। हमने अंधेरे में ही दुर्गाधारा देखी। थोड़ी देर खड़े रहने पर ठंड लगने लगी। मैं अंधेरे में फ़ोटो लेने का प्रयास किया, मुझे संदेह था कि मेरे कैमरे का फ़्लेश घुप्प अंधेरे में काम करेगा या नहीं। पर रात्रि के हिसाब से परिणाम अच्छा ही आया। यहां से चलकर हम 9 बजे लगभग कल्याण आश्रम पहुंच गए। वहाँ पर हमारे लिए 2 कमरे खोल दिए गए।
|
दुर्गाधारा का कैमरे के फ़्लेश के साथ चित्र |
विलंब होने से आश्रम में भोजन की व्यवस्था नहीं हो सकी, हम लगभग 11 बजे बाजार की तरफ़ आ गए। बाजार में एक होटल में दाल-चावल, सब्जी रोटी इत्यादि का भोजन मिल गया। किसी ने बताया था कि एम पी टुरिज्म का रेस्टोरेंट भी है जहाँ भोजन मिल जाता है, पर कीमत अधिक होती है। एक सर्वोदय होटल भी है जहाँ भोजन एवं ठहरने की व्यवस्था है। हम भोजन करके आश्रम लौट आए। अमरकंटक में रात का मौसम ठंडा हो जाता है। इसलिए कंबल की आवश्यकता पड़ जाती है। हमें रात को कंबल की आवश्यकता पड़ी। अब कल अमरकंटक भ्रमण करना है इसलिए
बिस्तर के हवाले हो गए।
सफ़र जारी है … आगे पढें
"चांदसी" बिना छुरी के!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया सारगर्वित जानकारी दी है अब अगले हफ्ते मुझे भी अमरकण्टक जाने की इच्छा होने लगी है ...
जवाब देंहटाएंदुर्गाधारा कम लोग ही जाते है जबकि इसका सौन्दर्य निराला है ,,मई-जून में धार सूखने की आशंका रहती है पर इस बार पानी था.. शशिकोंहर और रूद्र अवस्थी जी के साथ यहाँ शरदपूर्णिमा की बिताई रात ,,भूले नहीं भूलती ,, आप भी कभी जाएँ ..
जवाब देंहटाएंmaza aa raha hai sir ,,,wah
जवाब देंहटाएंshayd isi kevchi ke tirahe par rat do baje tak bas ka intajar kiya tha ..ek bahut chhoti yatra ki thi amarkantak ki tab se jane ka soch hi rahe hai ...aapne yade taza kar di ..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रोचक जानकारी … अगले हफ्ते हम भी अमरकण्टक पहुँच रहे हैं, इतनी जानकारियों के बाद घूमने का आनंद कई गुना बढ़ जाएगा … आपके लेखन का लाभ मिलेगा। आभार
जवाब देंहटाएंचकाचक सफरनामा।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन यात्रावृतांत...
जवाब देंहटाएंपहले मैंने पढ़ा MBBS PCO, फिर ध्यान गया BMBS PCO
जवाब देंहटाएंऔर अस्पताल भी रितु , ललित !
ना मुस्कुराऊँ?
:)
rochak jankari ...
जवाब देंहटाएं