आज हमें भगवान जगन्नाथ का प्रसाद ग्रहण करना था। यहाँ प्रतिदिन भगवान को छप्पन भोग लगते हैं और वही प्रसाद के रुप में अन्न सत्र में कुछ दक्षिणा देने के बाद प्राप्त हो जाता है। कहते हैं "जगन्नाथ का भात, जगत पसारे हाथ।" हम होटल से पैदल ही मंदिर तक चल पड़े। थोड़ी देर चलने के बाद एक गली से जगन्नाथ मंदिर के शीर्ष पर स्थापित चक्र एवं ध्वज दिखाई देने लगा। जगन्नाथ मंदिर के पंडे जगत प्रसिद्ध हैं, मंदिर के सामने आते ही एक पण्डा महाराज हमारे सामने आ गए। बिकाश बाबू ने ही उनसे बात की और वे हमें दर्शन कराने के लिए तैयार हो गए। मंदिर के बाहर ही मोबाईल एवं चप्पल जूता स्टैण्ड बना हुआ है, नगद देकर भी वे रखवाली करते हैं और नि:शुल्क भी है। हमने मोबाईल एवं सैंडिल जमा करवाए और पंडा महाराज हमें मंदिर के भीतर ले गए।
मंदिर के सामने की गली |
आज नवकलेवर उत्सव का प्रारंभ था। इसलिए मंदिर में अपार भीड़ थी। पण्डा जी हमें बाईं तरफ़ वाले द्वार से भीतर ले गए। वहां पुलिस की चौकस व्यवस्था थी। मंदिर का पट खुलने में अभी देर थी। जैसे ही पट खुला भीड़ पेलते ढपेलते भीतर जाने को उद्धत हो गई। हम भी भीड़ के साथ पहुंचे। सामने भगवान जगन्नाथ के साथ सुभद्रा एवं बदभद्र दिखाई दिए। धक्का मुक्की में दर्शन हो गए। मुफ़्त दर्शनों के साथ यहाँ वी आई पी दर्शन की सुविधा है। जो 300 रुपए प्रति टिकिट में कराई जाती है। टिकिट दर्शनार्थियों को न देकर पण्डों को दी जाती है और वे उसकी मनमानी कीमत भी वसूलते हैं, इससे उनकी अतिरिक्त कमाई हो जाती है। हम तो मुफ़्त के दर्शनार्थी थी इसलिए दूर से ही दर्शन करके तृप्त हो गए।
पंडा पूरणचंद्र महापात्रा |
द्वार से बाहर निकलने पर सामने ही ब्रह्मा गादी है, जहाँ पण्डा जी लोग विश्रामासन में दिखाई देते हैं। ब्रम्हागादी से हम मंदिर के परिक्रमापथ की ओर चल पड़े। यहाँ पर छोटे छोटे अन्य देवों के मंदिर भी हैं। हमारे पण्डा पुरणचंद्र महापात्र जी हमें प्रसाद वाली जगह पर ले गए जहाँ सूखा प्रसाद ढाई सौ रुपए से लेकर हजारों रुपए तक मिलता है। हमने घर ले जाने के लिए न्यूनतम ढाई सौ रुपए का प्रसाद लिया। यहीं दान के चंदे की रसीदी काटी जाती हैं। यहां से आगे बढने पर अन्न सत्र प्रारंभ होता है। जहां पत्तल और मिट्टी के कुल्हड़ों में भोजन प्रसाद दिया जाता है। भगवान को भोग लगने के बाद यहीं पर पण्डा लोग प्रसाद का वितरण मय दक्षिणा अपने कोटे के हिसाब से करते हैं।
भगवन जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र |
जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहां की रसोई है. यह रसोई विश्व की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है. इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद तैयार होता है जिसके लिए लगभग 500 रसोइए और उनके 300 सहयोगी काम करते हैं. ऐसी मान्यता है कि इस रसोई में जो भी भोग बनाया जाता है, उसका निर्माण माता लक्ष्मी की देखरेख में ही होता है. भोग निर्माण के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता है.यहां बनाया जाने वाला हर पकवान हिंदू धर्म पुस्तकों के दिशा-निर्देशों के अनुसार ही बनाया जाता है। भोग पूर्णत: शाकाहारी होता है। भोग में किसी भी रूप में प्याज व लहसुन का भी प्रयोग नहीं किया जाता। भोग निर्माण के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता है।
मंदिर द्वार पर दर्शनार्थी |
रसोई के पास ही दो कुएं हैं जिन्हें गंगा व यमुना कहा जाता है। केवल इनसे निकले पानी से ही भोग का निर्माण किया जाता है। इस रसोई में 56 प्रकार के भोगों का निर्माण किया जाता है। रसोई में पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी यह व्यर्थ नहीं जाएगी, चाहे कुछ हजार लोगों से 20 लाख लोगों को खिला सकते हैं। कहते हैं कि मंदिर में भोग पकाने के लिए 7 मिट्टी के बर्तन एक दूसरे पर रखे जाते हैं और लकड़ी पर पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में सबसे ऊपर रखे बर्तन की भोग सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकते जाती है। परन्तु इस प्रक्रिया को किसी को दिखाया नहीं जाता।
मंदिर की ध्वजा एवं चक्र |
जगन्नाथ मंदिर के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतया प्रसाद ही कहा जाता है। भगवान जगन्नाथ के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। कहते हैं कि महाप्रभु वल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मंदिर में ही किसी ने उन्हें प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ। इसी महाप्रसाद से छत्तीसगढ़ अंचल में स्थाई मित्रता का संकल्प लेकर "महाप्रसाद" बदा जाता है। फ़िर आजीवन दोनो एक दूसरे का नाम न लेकर महाप्रसाद से ही संबोधित करते हैं।
महाप्रसाद जगन्नाथ मंदिर पुरी |
अन्न सत्र में पहुंचने पर देखा कि यहाँ सब्जी बाजार जैसे प्रसाद का बाजार लगा हुआ है, पण्डा जी ने एक कुल्हड़ चावल और दालमा दिलाया। यही भगवान का श्रेष्ठ प्रसाद माना जाता है। भोजन करने के लिए प्रस्तर निर्मित बड़ी छतरी बनी हुई है। यहीं बैठकर हमने पत्तलों में प्रसाद ग्रहण किया। भूख भी जोर की लगी थी और मंदिर में प्रसाद ग्रहण करने की इच्छा ने स्वाद को बढा दिया। प्रसाद ग्रहण करने के बाद हमसे प्रसाद की दक्षिणा के 120 रुपए लिए। वहीं पर जल ग्रहण करने के लिए नल की व्यवस्था भी है। नल से जल पीकर भोजनोपरांत आत्मा तृप्त हो गई। पण्डा जी हमारे साथ फ़ंस कर छटपटा रहे थे, क्योंकि हम ठहरे घुमक्कड़ के साथ पुरातत्व निरीक्षक, इसलिए उन्हें हमारे साथ अधिक समय लग रहा था। हमें छोड़ कर वे और भी जजमान देखना चाहते थे। बिकाश बाबू ने उन्हें दक्षिणा देकर विदा किया और हम मंदिर परिसर के बाहर आ गए। जारी है … आगे पढें।
नोट - मंदिर परिसर में किसी भी तरह की फ़ोटो लेना वर्जित है, इसलिए सारे चित्र बाहर से ही लिए गए हैं।
जय जगन्नाथ जी .....
जवाब देंहटाएंपुरी के मंदिर दर्शन विवरण अच्छा लगा | हम भी पुरी जा चुके सो फिर से आपके साथ यात्रा कर धन्य हुए....
बहुत रोचक वर्णन।
जवाब देंहटाएंजय जगन्नाथ।
जगन्नाथ का भात और जगत पसारे हाथ
बहुत रोचक वर्णन।
जवाब देंहटाएंजय जगन्नाथ।
जगन्नाथ का भात और जगत पसारे हाथ
जय हो! जानकारी का आभार, मन प्रसन्न हुआ।
जवाब देंहटाएंजय - जय जगन्नाथ .... रोचक जीवंत वर्णन ...
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