दोगला एक ऐसा शब्द है जिसका प्रचलन धड़ल्ले से होता दिखाई/सुनाई देता है। दोगला आदमी, दोगली राजनीति, दोगली बात, दोगला नेता, दोगली स्त्री इत्यादि बहुधा प्रयुक्त होता है। वर्तमान में यह शब्द धोखा देने वाले, दो मुंही बातें करने वाले, अविश्वसनीय व्यक्ति के लिए संदर्भ में लिया जाता है।
जबकि भारत में पानी उलीचने की बांस कमचियों से बने टोकरे लिए दोगला शब्द संज्ञा के तौर पर प्रयुक्त होता है। इसे हिन्दी वांग्मय का शब्द माना जाता है। परन्तु यही शब्द फ़ारसी में पहुंच कर घातक होकर लड़ाई झगड़े की जड़ गाली बन जाता है तथा अर्थ बदलकर वर्णसंकर, जारज (प्रेमी/उपपति/आशिक से उत्पन्न होने वाला) हो जाता है।
शब्द की महिमा अपरम्पार है तथा पूर्व प्रचलित एकार्थी शब्द कालांतर में बहुअर्थी हो जाता है। जिस मानक अर्थ में प्रयुक्त होने के लिए शब्द ने जन्म लिया, कभी कभी तो उसके विपरीत अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगता है। जैसे सम्भ्रांत - सम+भ्रांत। जो दशों दिशाओं से याने सब तरफ़ से विचलित (पागल) हो गया हो (निरुक्त) उसे सम्भ्रांत कहा गया। परन्तु वर्तमान में इसका प्रयोग कुलीन के समानार्थी होने लगा। किसी परिवार या व्यक्ति को सभ्य बताने के लिए इस शब्द का प्रयोग होता है।
लोकप्रचलित हिन्दी भाषा में विभिन्न भाषाओं के शब्दों को सहज स्वीकार किया गया है, वे अब इतने अधिक घुलमिल गए हैं कि पता ही नहीं चलता किस भाषा से इन शब्दों की व्युत्पति हुई है। अरबी, फ़ारसी, उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्द हिन्दी प्रवेश कर इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर गए हैं कि वार्तालाप या लेखन के समय कोई इनके समानार्थी शब्द भी नहीं ढूंढता एवं सहजता के साथ समाज भी स्वीकार लेता है।
दोगले से मिलाजुला एक शब्द और है हरामजादा, इसका प्रयोग भी गाली के तौर पर होता है। इसका शाब्दिक अर्थ है हरम में जन्म लेने वाला। मुगल बादशाहों के हवसगाह होते थे हरम। जिसमें हजारों स्त्रियाँ रखी जाती थी। रखैल (रखी हुई) शब्द भी यहीं की व्युत्पत्ति है। इन स्त्रियों से जन्म लेने वाले हरामजादे कहे जाते थे। हरामजादे शब्द संज्ञा है, जब यही शब्द प्रवृत्ति बन जाता है तो हरामजदगी हो जाता है अर्थात जिसके स्वभाव में ही जन्म से दोगलापन है।
हरामजादा या दोगला शब्द के अर्थ में संस्कृत में जारज: शब्द प्रयुक्त होता है। जार: (जारयति इति जृष् वयोहानौ धातौ: धञ, णिलुक् च) उपपति: (उपमित: पत्या) ये दो पुल्लिंग नाम मुख्य से भिन्न अप्रधान पति (यार) के हैं। अमृते भर्तरि जारज:, मृते भर्तरि जारजो गोलक:। (अमरकोश) जार से उत्पन्न संतान को जारज कहा गया है। इस तरह हम देखते हैं कि संज्ञा के लिए प्रयोग होने वाले शब्द प्रवृत्ति के रुप में प्रयुक्त होते हुए विशेषण बन गये और विशेषता बताने/जताने के लिए प्रयुक्त होने लगे तथा गाली के रुप में प्रतिष्ठित हो गए।
राम मनोहर लोहिया जी का कहा स्मरण हो आता है कि तन का दोगला एक बार चलता है पर मन का दोगला घातक होता है अर्थात मन के दोगले को अधिक घातक बताया गया। मन का दोगला होना व्यक्ति की प्रवृत्ति हो गई। दोगला शब्द वर्तमान में प्रवृत्ति बन गया। वर्तमान समय में दोगले शब्द ने अन्य अर्थ ग्रहण कर लिया। अब इसका अर्थ 1. दो तरह की बातें करने वाला 2. जिसकी कथनी और करनी में विसंगति हो, में बदल गया।
समाज में ऐसे मनुष्य (स्त्री/पुरुष) भी रहते हैं जिनकी कथनी और करनी में विसंगति होती है। ये मुंह के सामने मीठी-मीठी मुंह चोपड़ी बातें करते हैं और पीठ पीछे षड़यंत्र करने से बाज नहीं आते, मौका पाकर खंजर भी चला देते हैं। ऐसा नहीं है कि इनमें कोई दोष है, यह इनकी जन्मजात प्रवृति है, जो दिनचर्या में सम्मिलित है। दोगलई किये बिना ये रह ही नहीं सकते। ये व्यक्ति, समाज, देश, राष्ट्र किसी के साथ भी दोगलाई कर सकते हैं। इनकी दोगलाई की कोई सीमा चिन्हित या तय नहीं है।
मनोवैज्ञानिकों ने अनुभव किया कि कुछ लोग परिस्थितिवश दोगलई करना चाहते हैं, परन्तु कर नहीं पाते। क्योंकि उनकी प्रवृत्ति में नहीं है। प्रवृत्ति में होने के कारण सहजता होती है तथा प्रवृत्ति में न होने के कारण कृत्रिमता असहज कर देती है। और वे अपनी दोगलई को स्वत: ही प्रकट कर देते हैं। क्योंकि कबीर दास जी ने कहा है "सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप। जाके हिरदय सांच हें, वाके हिरदय आप॥" कहीं न कहीं उसके हृदय में आप है जो उसे दोगलई करने से रोक देता है।
इतिहास में देखते हैं कि बहुत सारे राजे-महाराजे, यति-जति दोगलों की भेट चढ़ गए तथा वर्तमान में भी चढ़ रहे हैं। ऐसा नहीं है यह प्रजाति सिर्फ़ भारत में ही पाई जाती है। युरोप का उदाहरण हम ले सकते हैं, यीशु ने मनुष्यों को सन्मार्ग बताने में अपना सारा जीवन व्यतीत कर दिया। जब उन्हें सूली पर चढ़ाया गया तो कहा- हे पिता (ब्रह्म), इन्हें माफ कर दे (जिन्होंने सूली पर चढ़ाया था) क्योंकि इन्हें नहीं मालूम है कि ये क्या कर रहे हैं।
दोगले लोगों को ढूंढने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, वे आस-पास ही पाए जाते हैं, जो निकटस्थ होकर अपनी करनी करने तैनात रहते हैं। यीशु को सूली पर चढाने वाले दोगलई प्रवृत्ति से ग्रसित लोग थे। इसलिए यीशु ने उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना की। पर हर आदमी संत नहीं होता। लौकिक जीवन में दोगली प्रवृत्ति के लोगों को पहचान कर बचना ही श्रेयकर होता है। दोगला मनुष्य कितना भी सोने चांदी का मुलम्मा ओढ़ ले पर उसकी प्रवृत्ति बता देती है कि वह क्या है। इति दोगला शब्दाख्यान।
बहुत बढ़िया वर्णन !
जवाब देंहटाएंसही कहा
जवाब देंहटाएंशानदार लेख
जवाब देंहटाएंशानदार लेख
जवाब देंहटाएंदोगलों की कमी नहीं है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी शब्द चर्चा प्रस्तुति
शानदार बढ़िया वर्णन !
जवाब देंहटाएंवाह.... बहुत सुन्दर वर्णन....
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