मंगलवार, 2 जनवरी 2018

प्राचीन भारतीय मूर्तिकला में केश विन्यास एवं अलंकरण

सौंदर्य के प्रति मानव प्राचीन काल से ही सजग रहा है, देह के अलंकरण में उसने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी एवं नख सिख से लेकर गुह्यांग तक अलंकरण करने के लिए नवोन्मेष किए। सौंदर्य वृद्धि के लिए किए गए भिन्न भिन्न अलंकरण हमें तत्कालीन प्रतिमा शिल्प में दिखाई देते हैं।  
क्या मुखड़ा देखे दर्पण में…… सर्वांग अलंकृत स्त्री - राजा रानी मंदिर भुबनेश्वर उड़ीसा।
पुरुष एवं स्त्री दोनो ही सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। जिनमें केश सज्जा एवं आभुषण अलंकरण प्रमुख है। मोहन जोदड़ो से लेकर वर्तमान तक केश विन्यास की कलाकारी दिखाई देती है। आर्य सभ्यता जब अपने उत्कर्ष पर थी तब से लेकर वर्तमान तक भारतीय कवियों, चित्रकारों एवं शिल्पकारों ने केश विन्यास को प्रमुखता से प्रदर्शित किया है। 

पुरुषों में स्त्रियों की तरह लम्बे केश रखने की प्रथा थी, जिसका वे भिन्न भिन्न प्रकार से अलंकरण करते थे। श्रमशु (दाढी) एवं मूंछ युक्त चेहरे भी शिल्प में दिखाई देते हैं। जिसमें छोटी दाढी एवं लम्बी दाढी का प्रचलन दिखाई देता है, लहरदार तनी हुई तलवारी मूंछे भी प्रचलन में रही है। 
चित्र में दाढी एवं मूंछ युक्त पुरुष ने जूड़ा बांधकर उसे पुष्पादि से अलंकृत किया है। चित्र - खजुराहो।
देवाकृतियों में छोटी एवं लच्छेदार घुंघरवाली दाढी भी दिखाई देती है। पुरुषों में कई प्रकार के केश विन्याश का प्रचलन था। खुले केश, टोपीदार जूड़ा, एवं गेंदनुमा जूड़ा प्रतिमा अलंकरण में दिखाई देता है।  

स्त्रियाँ अपने केशों के प्रति सदा से सजग रही हैं, लम्बे केश सौंदर्य के प्रतिमान माने जाते थे। उन्हें भिन्न प्रकार से जूड़े में गूंथ कर पुष्पादि एवं चिमटियो से अलंकृत किया जाता था तथा बालों के बिठाकर विभिन्न आकृतियां प्रदान करने के लिए मैन (मोम), गोंदादि के प्रयोग का भी उल्लेख मिलता है। 

केश प्रक्षालन के पश्चात उसे सुगंधित धुम्र से सुवासित किया जाता था, उसके बाद जूड़ा गुंथा जाता था। केश संवारने के लिए कई तरह की कंघियों का प्रयोग होता था। उत्खनन में हाथी दांत की कंघियां हमें मिलती हैं। जिन्हें अलंकृत किया जाता था। बिहारी कवि कहते ने केश सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहा है कि 

कच समेटि करि भुज उलटि, खए सीस पट डारि।
काको मन बाँधै न यह, जूडो बाँधनि हारि॥ 
पुष्पादि एवं मैन से अलंकृत केश - खजुराहो
समय के साथ बाल बांधने एवं जूड़े की सजावट में परिवर्तन होता रहा। सिंगारपट्टी झुमर आदि आभुषणों को बालों में गूंथ कर शिरोधार्य करने का चलन भी प्रतिमा शिल्प में दिखाई देता है। 

मौर्यकाल से लेकर गुप्तकाल तक प्रतिमा शिल्प में जूड़ा बांधने का चलन दिखाई देता है। उसके पश्चात गुंथित वेणी का चलन दिखाई देने लगा एवं चोटी अधिक लोकप्रिय हो गई। कवियों ने इसे नागिन की उपमा दे डाली और नायिका सौंदर्य वर्णन में कई स्थानों पर नागिन सी लहराती वेणी का उल्लेख मिलता है… 

लटकति ललित पीठ पर चोटी, बिच-बिच सुमन सँवारी।
देखे ताहि मैर सो आवत, मनहुँ भुजंगिनी कारी॥
कोणार्क की भित्ति में स्थापित पुरुष प्रतिमा का केश विन्यास
उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में केश विन्यास अधिक भव्य दिखाई देता है। प्रतीत होता है कि दक्षिण भारत में केश सज्जा एक कला के रुप में विकसित हुई। प्राचीनकाल में सारनाथ मथुरा सहित उत्तर भारत में अलकावलि, मयुरपंखी आदि प्रकार के केश विन्यास प्रचलित थे। 

अलकावलि विधि में बालों को घुंघराले बनाकर गर्दन एवं माथे पर छोड़ दिया जाता है। मयुरपंखी में बालों को केवड़े इत्यादि के पत्रों से अलंकृत कर इस प्रकार से बांधा जाता था कि मयुर पंख का आभास होता था। अहिक्षत्र का अर्थ है सर्प का फ़न। बालों के जूड़े को शीश के मध्य इस तरह से बांधा जाता था जिससे सर्प के फ़न का भान होता था। 

इन प्रतिमा शिल्पों को देखने ज्ञात होता है कि भारतीय नारियों को केश विन्यास कला का अच्छा ज्ञान था। आप मंदिरों की भित्तियों में जड़ी हुई अप्सराओं एवं देव प्रतिमाओं के केश विन्यास पर ध्यान देंगे तो आपको सभी में भिन्नता दिखाई देगी। परन्तु काल के अनुसार केश विन्यास का चलन एक सा दिखाई देता है। 

वर्तमान में भी केश विन्यास के प्रति स्त्री एवं पुरुषों दोनों में जागरुकता दिखाई देती है। समय एवं काल के अनुसार केश विन्यास एवं अलंकरण में परिवर्तन होता रहता है, परन्तु सलीके से संवारे हुए केश सौंदर्य वृद्धि करने में कोई कसर नहीं रखते। 
सर्वांग सुंदर अलंकरण का पार्श्व - खजुराहो
स्त्री पुरुष सौंदर्य अलंकरण वृहद विषय है, इस पर जितनी चर्चा की जाए कम है। आशा है कि अब आप जब किसी प्राचीन मंदिर के दर्शन करने जाएँगे तो वहाँ स्थापित प्रतिमाओं के केशादि अलंकरण पर अवश्य ध्यान देंगे।

3 टिप्‍पणियां:

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  2. स्त्री और पुरुष के केश विन्यास के विभिन्न पहलूओं का वर्णन बहुत रोचकता से प्रस्तुत किया है आपने.

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