रविवार, 6 अक्तूबर 2013

राजा भृतहरि, रानी झरोखा एवं वध स्थल : चुनारगढ़

चुनारगढ़ का मुख्य द्वार
नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
न्मुक्त द्वार हमें प्रवेश के लिए आकर्षित कर रहा था। प्रवेशाग्रह को स्वीकार कर हमारी "ईको" भी सरसराते-बलखाते हुए उन्मुक्त द्वार से प्रवेश कर गई। भीतर जाने पर खाकी वर्दी वाले दिखाई पड़े तो चौंकना पड़ गया। हमने गाड़ी विश्राम गृह तक चढा दी थी। एक सिपाही दौड़ कर आया तो हमने भीतर का रास्ता पूछा तो उसने गाड़ी गेट पर खड़े करने कहा और बताया कि इस गढ़ में उत्तरप्रदेश पुलिस का दरोगा प्रशिक्षण केन्द्र है। पाबला जी गाड़ी बाहर खड़ी करने गए और मैने आवक पंजी में अपना नाम, पता एवं आने का उद्देश्य दर्ज किया। सामने बनी बैरकों के बीच से गढ़ पर जाने का रास्ता है। द्वार पर भृतहरि शतकम का श्लोक लिखा है।

भवनों का प्रवेश द्वार
हम भवनों ओर जा रहे थे तभी एक व्यक्ति मिला और उसने बताया कि वह गाईड है। मैने सोचा कि रख लिया जाए वरना भवनों पर तो कोई नाम पट्ट लिखा नहीं है, जिससे हमें जानकारी मिल जाए। गाईड ने 150 रुपए पारिश्रमिक कहा और मैने 50 रुपए। वह तैयार नहीं हुआ, मैने फ़िर पूछा तो वह नखरे करता रहा। थोड़ी देर में 50 रुपए में मान गया। गढ़ की पहाड़ी के 90 प्रतिशत भाग पर पुलिस का कब्जा है, सिर्फ़ 10 प्रतिशत भाग ही आम आदमी के दर्शनार्थ खुला छोड़ा गया है। वैसे भी भारत के कई किले और दुर्ग पुलिस एवं सेना के कब्जे में है। सिर्फ़ लाल किले को ही सेना से मुक्त किया गया है। लेकिन ये पता नहीं है कि अब पूरे किले में घूमने दिया जाता है या नहीं।

एड़ी के आकार की गढ़ संरचना एवं गंगा नदी
एड़ी आकार के चुनारगढ़ के उपरी घेरे में प्रवेश करने पर सामने सोनवा मंडप दिखाई देता है। कहा जाता है कि महोबा के उद्भट योद्धा आल्हा का विवाह इसी मंडप में हुआ था। प्रस्तर निर्मित इस मंडप पे चूने की पोताई की हुई है। मंडप के प्रवेश द्वार के अलंकरण में छिद्र दिखाई देते हैं। गाईड ने कहा कि इन छिद्रों में हीरे, मोती, पन्ना, नीलम इत्यादि रत्न जड़े हुए थे तो मैने उसे डांट दिया - "झूठ बोलते हो, यह तो प्रस्तर पर बेल-बूटों का अलंकरण है यहाँ रत्न जड़ने की जगह एवं उखाड़ने का स्थान ही दिखाई नहीं देता। रत्न संगमरमर पर जड़े जाते थे, जिससे उसकी आभा बढ जाती थी तथा बलुए पत्थरों पर भित्तियों में कहीं पर मैने रत्नालंकरण नहीं देखे। पर्यटकों को झूठ बोल कर रोमांचित करने की बजाए सत्य से अवगत कराना चाहिए। यह एक परम्परा ही चल पड़ी है, किसी भी प्राचीन इमारत में जाओ, वहां भित्तियों पर रत्न जड़ने का जिक्र अवश्य ही गाईड करते हैं।" मेरी लताड़ सुनकर वह झेंप गया।

सोनवा मंडप एवं तहखाने का रास्ता
गिरीश भैया एवं पाबला जी अपनी अलग ही दुनिया में व्यस्त थे। धड़ाधड़ फ़ोटो लिए जा रहे थे, लगता था, गढ़ के इतिहास में कुछ विशेष रुचि नहीं है। सोनवा मंडप के पश्चिम मे बारहदरी है, उसके पीछे एक भवन में कुछ लोग दिखाई दिए। वहाँ जाने पर पता चला कि यहाँ राजा भृतहरि की समाधि है तथा वे यहाँ के पुजारी हैं। चुनारगढ़ का प्राचीन नाम चरनाद्रिगढ़ बताया जाता है। राजा विक्रमादित्य ने इसका निर्माण अपने भाई राजा भृतहरि के तप हेतू वनगमन के कारण वन्य पशुओ से रक्षार्थ गंगा नदी के तट पर करवाया था। यह गढ़ धरातल से लगभग 500 फ़ुट की उंचाई पर है दो तरफ़ गंगा नदी प्रवाहित होती है। गढ़ के उपर से गंगा जी की विशाल जलराशि दिखाई देती है। टाईल्स लगा कर समाधि को चमकाया गया है तथा लोग इस स्थान पर मनौतियाँ मानने आते हैं।

राजा भृतहरि की समाधि
इसके पीछे एल आकार की भवन संरचना है, जिसकी खिड़कियों से गंगा नदी दिखाई देती है। खिड़कियों में मोटे सरिए लगे हुए हैं। गाईड ने बताया कि यह विशिष्ट जनों की जेल है। मानो लालू, ए राजा, कन्नीमोझी, आशाराम सरीखे विशिष्ट कैदी रखे जाते थे। यह स्थान खुला-खुला एवं हवादार है। जिससे विशिष्ट कैदियों को हवा-पानी बराबर मिलता रहे और गंगा दर्शन कर अपने पापों का प्रायश्चित कर सकें। इसके साथ ही नीचे तहखाने बताए जाते हैं, मुझे तो कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया पर फ़र्श को ठोकने पर पोली आवाज आती है। इससे स्त्यापित होता है कि अवश्य ही भवन के नीचे तहखाने होगें। क्योंकि तत्कालीन शिल्प में तहखाने महत्वपूर्ण स्थान रखते थे।

कचहरी से दिखाई देता रानी झरोखा
इस हॉल से जुड़ा हुआ एक कक्ष है जिसमें सुरक्षा की दृष्टि से शतघ्नि रखकर संचालित करने के लिए दीवार में मोखे बनाए गए हैं। जहाँ शतघ्नि को रख कर सुविधानुसार चलाया जा सके। गाईड बताता कम था और सुनता अधिक था। वो भी सोच रहा था कि 50 रुपए में कितना सुनना पड़ता है :), अभी तक तो वह कथा सुनाता आया है, आज सुननी पड़ रही है। इस कक्ष की विपरीत दिशा में रानी झरोखा बना हुआ है। इस झरोखे का काफ़ी अलंकरण किया गया है तथा इस झरोखे से कचहरी दिखाई देती है। तत्कालीन समय में कचहरी के काम-काज पर रानी की नजर रही होगी। ये सभी इमारतें बलुए पत्थर से निर्मित हैं। कुछ निर्माण तो प्राचीन एवं कुछ निर्माण 14 वीं 15 वीं शताब्दी के दिखाई देते हैं जिनमें मुगल शैली की झलक दिखाई देती है।

कारागार
इस भवन के दांई तरफ़ कारागार का निर्माण किया गया है। यह कारागार लगभग 80 फ़ुट लम्बा और 30 फ़ुट चौरा होगा। इसमें कई कक्ष बने हैं तथा लोहे के मजबूत किवाड़ों से सुरक्षित किया गया है। गाईड ने बताया कि इस जेल का निर्माण वारेन हेस्टिंग्स ने कराया था तथा इसमें अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने वाले बंदी रखे जाते थे। शिल्प की दृष्टि से मुझे यह कारागार किसी घुड़साल जैसे दिखाई दिए, जिनकी बनावट में कुछ परिवर्तन करके परवर्ती शासकों ने इसे कारागार का रुप दे दिया। किवाड़ों पर लोहे की मोटी एवं मजबूत सलाखें जड़ी हुई हैं। इलेक्ट्रिक वेल्डिंग न होने के कारण ये किवाड़ लोहार द्वारा निर्मित प्रतीत होते हैं। लोहे के ऐसे किवाड़ों का निर्माण अंग्रेजों के काल में होता था। मैने किवाड़ के पीछे खड़े करके गिरीश भैया की तश्वीर ली।

वध स्थल
गढ़ के अन्य भवनों में कचहरी प्रमुख है। गाईड ने बताया कि इसका निर्माण शेरशाह सूरी ने कराया था। कचहरी में तीन कक्ष दिखाई देते हैं तथा एक बड़ा दालान है। जिसमें फ़रियादी और फ़रियाद सुनने वाले अधिकारी स्थान पाते होगें। कचहरी से लगा हुआ कारागार है। सजायाफ़्ता को तुरंत ही कारागार में डाला जाता होगा। कचहरी के साथ कारागार होने के कारण बंदी व्यक्ति के भागने की आशंका नगण्य होती होगी। कचहरी के समक्ष ही दंड स्थल है। जहाँ सिर कलम करके एवं फ़ांसी द्वारा दंड देने की व्यवस्था है। जिसकी जैसी इच्छा होती थी वैसी मृत्यू चुन लेता होगा। कचहरी से गंगा तट की ओर झांकने पर किले की प्राचीर से लगकर वध स्थल बना हुआ है।

सुरंग का मुहाना
गाईड ने एक स्थान पर सुरंग दिखाई, जिसे ईंटों से बंद कर दिया गया है। चंद्रकांता उपन्यास में चुनार गढ़ से आस पास के गढों में जाता हुआ सुरंगों का जाल दिखाई देता है। परन्तु मुझे लगता है कि हकीकत में ऐसा नहीं होगा। जनमानस को रोमांचित एवं भयभीत करने हेतु सुरंग के किस्सों को गढ़ा गया होगा। इस सुरंग के साथ ही सैनिकों के बैरेक बने हुए हैं। जिसमें गढ़ के सुरक्षाकर्मी एवं प्रहरी निवास करते होगें। सारी व्यवस्था चाक चौबंद दिखाई देती है। अनुमान है कि प्रहरियों की संख्या खासी रही होगी। क्योंकि दुश्मन गंगा की दिशा में कमंद डाल कर गढ़ में प्रवेश करने का रास्ता बना सकता था। गंगा की तरफ़ से गढ़ में सीधी चढाई नहीं है। बाहर की ओर निकली हुई चट्टानें दुश्मन के आक्रमण में सहायक हो सकती हैं।

कुंए में काल्पनिक सुरंग का रास्ता
एक कोने में वह प्रसिद्ध कुंआ है, जिसमें सुरंग मार्ग होने का जिक्र हमेशा सुनाई देता है। गाईड ने बताया कि कुंआ 85 हाथ गहरा है। पहाड़ी पर 85 हाथ गहरे कुंए को हम पातालतोड़ कुंआ कह सकते हैं। पत्थरों से बांधे गए इस कुंए में सीढियाँ बनी हुई हैं तथा दो स्थानों पर द्वार जैसी संरचना भी दिखाई देती है। जिसके समक्ष प्रकाश के हेतू मशाल रखने के लिए पत्थर का ठिया भी बना हुआ है। इससे थोड़ा नीचे एक बड़ा द्वार भी है, जिससे पैड़ियाँ एक कक्ष में पहुचती है। कुंए में ऐसी व्यवस्था संकट काल में गुप्त वार्तालाप करने के लिए बनाई जाती थी। जिससे लोगों को इसके सुरंग होने का भ्रम होने लगता था और ऐसी लफ़्फ़ाजियों का जन्म होता था जो अभी तक जनमानस में प्रचलित हैं।
नेपाल यात्रा की आगे की किश्त पढें

20 टिप्‍पणियां:

  1. ऐतिहासिक तथ्य संग यात्रा कथ्य
    है मस्त मस्त

    जवाब देंहटाएं
  2. स्नेही ललित जी
    नमस्ते
    नवरात्रि की शुभकामनाएं ...
    आपको बहुत बहुत धन्यवाद ....विस्तृत जानकारी के साथ चुनारगढ़ की सेर करने के लिए

    जवाब देंहटाएं
  3. एक सुन्दर कथा संग चित्रों की झांकी लिए बेहतरीन यायावर की यात्रा जीवंत करती इतिहास को

    जवाब देंहटाएं

  4. विस्तृत जानकारी और चुनारगढ़ की सैर करने के लिए आपका आभार ....
    नवरात्रि की बहुत बहुत शुभकामनायें-

    RECENT POST : पाँच दोहे,

    जवाब देंहटाएं
  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  6. सजीव, सटीक प्रस्तुति। विदेश यात्रा की बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  7. सादर प्रणाम |
    चुनारगढ़ की सैर आपने करवा दी |आप इको सवार तीनो लोगों किलेखन शैली अदभुत हैं |काठमांडू यात्रा की आपकी तस्वीरो कों वन्दना अवस्थी दुबे के ब्लॉग पर देखा |ब्लोग्गेर्स का वृहत मंच और मान सम्मान देखकर बहुत हर्ष हुआ |

    जवाब देंहटाएं
  8. जीवंत चित्रण हुआ है . ललित शर्मा की इतिहास दृष्टि का कोई भी कायल और उस कारन घायल भी हो सकता है .इतिहास और पुरातत्व के प्रति इतनी गहरी ललक कम देखने में आती है. मैं साथ रहा मगर मैंने उतनी रूचि नहीं दिखाई क्योंकि जब साथ में ललित शर्मा हो तो अतिरिक्त मेहनत क्यों की जाये . हम पाबला जी के साथ घूमते रहे, वे फोटो उतारते रहे, हम उन्हें निहारते रहे. अपने पास कोई कैमरा नहीं था, मगर दो अतिरिक्त आँखे थी -एक बी ए स पाबला जी और दूसरी आँख थी प्रिय ललित शर्मा की। बधाई शानदार और ललित वृत्तांत के लिए

    जवाब देंहटाएं
  9. यात्रा वर्णन अति रोचक, पढ़ पढ़ मन हरषाय। "जीपीएस" का मायने हमरी समझ न आय॥ खोज अरथ बहु कीन्ह प्रयासा। चित इत उत करि सबद तपासा॥ तपासे गये शब्द कुछ इस तरह ……आदरणीय "गिरीश, पाबला, शर्मा" = "जीपीएस"

    जवाब देंहटाएं
  10. वाह !!!! मज़ा आगया ऐसा लगा मानो हम खुद आपके साथ यह किला घूम आए बहुत ही बढ़िया जानकारी पूर्ण यात्रा वृतांत...:-)

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

      हटाएं
  11. सुन्दर वृतान्त
    आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [30.09.2013]
    चर्चामंच 1391 पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें |
    नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाओं सहित
    सादर
    सरिता भाटिया

    जवाब देंहटाएं
  12. क्या बात है..सड़कों औऱ चाय की दुकानों की दास्तां पाबला जी के ब्लॉग पर और इतिहास की जानकारी आपके ब्लॉग पर ...यात्रा इसी तरह होनी चाहिए. वरना अकेला आदमी एक स्थान से दूसरी जगह पहुंचते पहुंचते एक की जगह चार दिन लगा देगा

    जवाब देंहटाएं
  13. आदरणीय अच्छी जानकारी के लिए आपको बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  14. सच में, इसे देखने की इच्छा जाग उठी है।

    जवाब देंहटाएं
  15. जय हो गुरूदेव नेपाल के साथ चुनारगढ का भी भ्रमण करवा दिया।

    जवाब देंहटाएं