सोमवार, 24 जनवरी 2011

इश्क है दरिया प्यार का-जो डूबा सो पार

दिन ढलते ही तुम्हारी यादों का साया घेरने लगता है। मन मानता ही नहीं। बहाना यार का होता है और बह हम जाते हैं। दरिया गहरा है। कदम मानते नहीं, स्वत: बढने लगते हैं। तलाशते हैं तेरा दर मिल भी जाता है।

एक दिन वादा लिया था तुमने दर पे न आने का। फ़िर भी चला आया, वादा तोड़ कर। वैसे भी दुनिया कहती है, वादे तोड़ने के लिए होते हैं। मेरे से भी टूट गया। शर्मिन्दा हूँ, अपराध बोध के साये में डूबता उतराता हुआ।

लौ लगाई थी, उजास के लिए। तम दूर हुआ लेकिन तामस बाकी है। बाधा है मेरी राह की। प्रयास है इस राह के पत्थर को हटाने का पुरजोर। एक छोर पकड़ता हूँ तो दूसरा छूट जाता है।कभी तो दोनों छोर हाथ आएगें आशा है। निराश नहीं हूँ।

रात खिड़की से देखता हूँ बाहर अंधेरा गहरा है। किसी ने बत्तियाँ बुझा दी। झींगुरों की आवाज एक रहस्य हैं, आती कहाँ से हैं कुछ ज्ञात नहीं।

पर सुना है कि ऐसी आवाजे झींगुरों की होती हैं। कभी-कभी सोचता हूँ कि ढूंढ लूँ कुछ झींगुर, कांच कूप्यक में बंद रखुं, जब मन आए, सुनने लगुं उनका शास्त्रीय गान।

आरोह अवरोह का अच्छा अभ्यास हैं इन्हें। दीर्घ-हस्व-प्लूत स्वर में सामवेदी गान करते हैं। जैसे गुरुकुल के बटुक सस्वर पाठ कर रहे हों संध्या वेला में।

कहाँ से सीखा है झींगुरों ने यह गान? स्वत: ही प्रज्ञा जागृत हुइ होगी। डूब कर पाया होगा स्वर और आरोह अवरोह का सामुहिक अभ्यास किया होगा। डूबता हूँ मैं भी। स्वर पकड़ने को।

रात गहराती है, खिड़की खुली है। पारिजात फ़ूलों की खुश्बू का एक झोंका आता है,  गुंजने लगता है “बहुत कठिन है डगर पनघट की”। गला सूखता है और पनघट की याद आती है।

उनींदे बेसुध कदमों से पनघट की ओर चलता हूँ। सामने अंधेरा और पनघट का न मालूम रास्ता। पहुचे कैसे पनघट तक? पनघट को पता है कोई प्यासा राहगीर तलाश में है उसकी।

सहसा पायल की ध्वनि सुनाई देती है। जैसे कहीं रश्क हो रहा हो, दूर कहीं मृदंग की ताल पर रक्काशा थिरक रही हो। चांदी की घंटियाँ मृदंग की ताल पर संगत कर रही हों।

कहीं पनघट से भटकाने की चाल तो नहीं है किसी की। पथिक प्यासा रह जाए। बस एक बार पनघट तक पहुंचना है। दूबारा शर्मिन्दा नहीं होना चाहता पथिक। वादा तोड़ने का अपराध बोध लेकर जीयेगा कैसे?

बस बात एक रात की है, रात कट जाए तो सवेरा हो । यह रात मन बोझ बनती जा रही है। जैसे एक पहाड़ किसी ने मेरे वजूद पर पटक दिया हो।

प्याले में मय तड़फ़ती है, लबों तक आने के लिए बेताब। डूबो देना चाहता हूँ अपने को। लेकिन इस प्याले में नहीं, दरिया में, दरिया जो इंतजार कर रहा है मेरा।

पनघट तक न पहुंच पाया तो कोई बात नहीं। प्यास तो कभी बुझेगी। रात इतनी काली क्यों है? शायद यह एक इम्तिहान है। इम्तिहान कितने भी हों, पर तेरे पथ पर पथिक चलता ही रहेगा। किसी न किसी चौराहे पर मुलाकात तय है।
 

इश्क है दरिया प्यार का ,वा की उलटी धार।
जो उबरा सो डूब गया,और जो डूबा सो पार॥


17 टिप्‍पणियां:

  1. पनिहारी कविता के पहले बैरागी जी सुनाया करते थे-
    तुझसे जितना हो तू कर ले, लेकिन ये भी सुन लेना
    ,
    मैं तो पनघट तक आया था, तू मरघट तक जाएगी.

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  2. apno ke liye kya vaade aur kya sankalp ? agar kiye bhi hain to gahre rishton me fir se judne ke liye na milne ke vaade se mukra ja sakta hai ! mann ki bechaini barkaraar rakhiye,tabhi kuchh baahar nikal kar ayega !

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  3. नाज़ुक भावनाओं की नजाकत भरी अभिव्यक्ति मन को छू गयी. आपने झींगुरों की भी याद दिलायी.आधुनिकता की चकाचौंध में जुगनू तो लगभग लापता हो गए हैं, देखें , झींगुरों का सामूहिक गायन कब तक चलता है ?

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  4. आज तो एक अलग अंदाज़ नज़र आ रहा है भाई ।
    सब खैरियत तो है ना ।

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  5. hats off to you lalitji.. kya likha hai, ishk ka rang jo chadhe to fir kabhi na utre :)

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  6. रात बड़ी गहरी है,
    कोई तो बाहर निकालो।

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  7. रात इतनी काली क्यों है? शायद यह एक इम्तिहान है। इम्तिहान कितने भी हों, पर तेरे पथ पर पथिक चलता ही रहेगा। किसी न किसी चौराहे पर मुलाकात तय है...

    मन की कोमल भावनाये... सुन्दर लेखन.... एक अलग ही अंदाज़... निराला अंदाज़...

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  8. वाह जी बल्ले बल्ले इश्किया सा मामला हो गया :)

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  9. गजब है भाई यह दरिया ....! डूबने वाले ही पार उतरे हैं यह सच्चाई है ....!
    जिन खोजा तिन पाईया गहरे पानी पैठ

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