कान शरीर का महत्वपूर्ण अंग है इसके बगैर जीवन बहुत कठिन है। जो बहरा होता है वह गूंगा भी होता है। मतलब श्रवण शक्ति अकेले नहीं जाती, संग वाक शक्ति को भी ले जाती है। कान की महिमा निराली है। एक बार की बात है, मैं जैसे ही रेल्वे स्टेशन पहुंचा, गाड़ी पार्किंग में लगाने लगा तो जोर से आवाज आई “बजाऊं क्या तेरे कान के नीचे?” पलट के देखा तो दो बंदे जूझ रहे थे…एक-दूसरे का कालर पकड़ कर गरियाते हुए……. मैं आगे बढ़ लिया, ट्रेन का समय होने वाला था, मेहमान आने वाले थे. फालतू में इनके पंगे में कौन पड़े? चलते-चलते कह ही दिया. अरे कान का क्या दोष है? बजाना है तो एक दूसरे को बजाओ.”
दो बंदे लड़ रहे हैं, खिंचाई कान की हो रही है। कान का क्या दोष है? गलती कोई करता है और कान पकड़ा जाता है. माल खाए गंगा राम और मार खाए मनबोध…….. कान पकड़ना बड़ा काम आता था …….. हम जब कोई गलती करते, बदमाशी करते या स्कुल में किसी को पीट देते, जब उलाहना घर पर आता तो दादी के सामने पहले ही कान पकड कर खड़े हो जाते कि अब से कोई गलती नहीं करेंगे………. अब कोई उलाहना लेकर घर नहीं आएगा……… मार से बचने के लिए कान पकड़ना एक हथियार का काम आता और हम बच जाते.
कभी हमारा छोटा भाई दादी के कान भर देता तो फिर मुसीबत ही खड़ी हो जाती थी. बस फिर कोई सुनवाई नहीं होती ….. दादी की छड़ी चल ही जाती……….. लेकिन वो मुझे बहुत ही प्यार करती थी……… सहज ही मेरी खिलाफ किसी की बात पर विश्वास नहीं करती ……. पहले उसकी सत्यता जांचती …….. कान की कच्ची नहीं थी. क्योंकि कान का कच्चा आदमी किसी की भी बात पर विश्वास कर लेता है…….. भले ही वो गलत हो………. और बाद में भले ही उसका गलत परिणाम आये और पछताना पड़े…………. लेकिन एक बार तो मन की कर ही लेता है………. इसलिए कान के कच्चे आदमी विश्वसनीय नहीं होते और इनसे बचना चाहिए…….
कुछ लोग कान फूंकने में माहिर होते हैं……… धीरे से कान में फूंक मार कर चल देते हैं फिर तमाशा देखते है…….. मौज लेते है…….. अब तक की सबसे बड़ी मौज कान फूंक कर मंथरा ने ली थी………. धीरे से माता कैकई का कान फूंक दिया, राम का बनवास हो गया। देखिये कान फूंकने तक मंथरा का उल्लेख है उसके बाद रामायण में सभी दृश्यों से वह गायब हो गई है, कहीं कोने छिपकर मौज ले रही है…………. ऐसे कान फूंका जाता है……
यह एक परंपरा ही बन गई है……. किसी को गिरना हो या चढ़ाना हो………… दो मित्रों या परिवारों के बीच लड़ाई झगड़ा करवाना हो ……… बस कान फूंको और दूर खड़े होकर तमाशा देखो. कान भरने और फूंकने में वही अंतर है जिंतना पकवान और फास्ट फ़ूड में है………. कान भरने के लिए भरपूर सामग्री चाहिए……….. क्योंकि कान इतना गहरा है कि इसे जीवन भर भी भरें, पूरा भर ही नहीं पाता है…. कान भरने का असर देर से होता है तथा देर तक रहता है……… लेकिन कान फूंकने के लिए ज्यादा समय और मगज खपाना नहीं पड़ता चलते-चलते फूंक मारा और अगले की वाट लग गयी…… फ़िर वह इस तरह चक्कर लगाते फ़िरेगा जैसे कान में कीड़े पड़ गए और उसे चैन नहीं दे रहे हों………।
एक कन्फुकिया गुरूजी हैं…………… जो कान में ऐसे फूंक मारते है कि जीवन भर पूरे परिवार को कई पीढ़ी का गुलाम बना लेते हैं ………….. कुल मिला कर कुलगुरु हो गये…….. चेले का कान गुरु की एक ही फूंक से भर से भर जाता है……… बस उसके बाद चेले को किसी दुसरे की बात नहीं सुनाई देती क्योंकि कान में जगह ही नहीं है. अब वह कान उसका नहीं रहा गुरूजी का हो गया……. कान में सिर्फ गुरूजी का ही आदेश सुनाई देगा…………. गुरूजी अगर कुंए में कूदने कहेंगे तो कूद जायेगा…….. इसे कहते हैं कान फूंकी गुलामी………. चेला गुरूजी की सभी बातें कान देकर सुनता है………
कान फूंकाया चेला कुछ दिनों में पदोन्नत होकर कनवा बन जाता है…….. कनवा बनकर योगी भाव को प्राप्त का कर लेता फिर सारे संसार को एक ही आँख से देखता है………….. बस यहीं से उसे समदृष्टि प्राप्त हो जाती है…….. गीता में भी भगवान कृष्ण ने कहा है स्मुत्वं योग उच्चते…… इस तरह चेला समदृष्टि प्राप्त कर परमगति की ओर बढ़ता है …….. कान लगाने से यह लाभ होता है कि एक दिन गुरु के भी कान काटने लग जाता है…… उसके चेलों की संख्या बढ़ जाती है………. गुरु बैंगन और चेला पनीर हो गया ……. गुरु छाछ और चेला खीर हो गया.
कान शरीर का महत्त्व पूर्ण अंग है बड़े-बड़े योगी और महापुरुष इससे जूझते रहे हैं…… आप शरीर की सभी इन्द्रियों पर काबू पा सकते हैं उन्हें साध सकते हैं लेकिन कान को साधना मुस्किल ही नहीं असम्भव है……….कहीं पर भी कानाफूसी होती है, बस आपके कान वही पर लग जाते हैं…….क्योकि कानाफूसी सुनने के लिए दीवारों के भी कान होते हैं……. अब भले ही आपके कान में कोई बात ना पड़े लेकिन आप शक करने लग जाते हैं कि मेरे बारे में ही कुछ कह रहा था…….. क्योंकि ये कान स्वयम की बुराई सुनना पसंद नहीं करते……….. अच्छाई सुनना ही पसंद करते है……… भले ही कोई सामने झूठी प्रशंसा कर रहा हो…. और पीठ पीछे कान के नीचे बजाता हो……. इसलिए श्रवण इन्द्री को साधना बड़ा ही कठिन है……….
आज कल कान के रास्ते एक भयंकर बीमारी शरीर में प्रवेश कर रही है………जिससे लाखों लोग असमय ही मारे जा रहे हैं… किसी ने कुछ कह दिया तथा कान में सुनाई दिया तो रक्त चाप बढ़ जाता है दिल का रोग हो जाता है और हृदयघात से राम नाम सत्य हो जाता है…. हमारे पूर्वज इस बीमारी से ग्रसित नहीं होते थे क्योंकि वे बात एक कान से सुनकर दुसरे कान से निकलने की कला जानते थे. उसे अपने दिमाग में जमा नहीं करते थे……… कचरा जमा नहीं होता था और सुखी रहते थे……. वर्तमान युग में लोग दोनो कानो में हेड फोन लगा लेते हैं और बस जो कुछ अन्दर आता है और वह जमा होते रहता है…… स्वस्थ रहने के लिए एक कान से प्रवेश और दुसरे कान से निकास की व्यवस्था जरुरी है…………
कान महत्व भी समझना जरुरी है…. क्योकि अगर आप कहीं पर गलत हो गये तो कान पर जूता रखने के लिए लोग तैयार बैठे हैं………… ऐसा ना हो आपको खड़े खड़े कान खुजाना पड़ जाये……… इसलिए कान के महत्त्व को समझे और बिना मतलब किसी के कान मरोड़ना छोड़ दें तो आपके स्वास्थ्य के लिए लाभ दायक ही होगा………… महत्वपूर्ण बातों को कान देकर सुनना चाहिए याने एकाग्र चित्त होकर……..अगर कान में तेल डाल के बैठे रहे तो ज्ञान से वंचित होने की आशंका है……इसलिए कान खुले रखने में ही भलाई है………।
॥ इति श्री कर्ण पुराण कथा ॥
कर्ण पुराण कथा ..
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया लिखा !!
कान की महिमा निराली ही हैं इसका प्रयोग संभाल करे अच्छी पोस्ट
जवाब देंहटाएंकान की ऐसी ही महिमा है तभी तो कान पकड़ कर गुरूजी अकल ठिकाने लगाया करते थे , अब तो बेचारे गुरुओं की हिम्मत ही नहीं होती ...
जवाब देंहटाएंकच्चे कान वालों के कान भर कर क्या क्या काण्ड किये जा सकते हैं , ब्लॉग जगत भी कहाँ अछूता है :)
कर्ण कथा अच्छी लगी !
कर्ण पुराण बने रहीस.
जवाब देंहटाएंसर्व प्रथम ब्लोगिग पर वापसी के लिए धन्यवाद ....हम भी परछाई बने जल्दी ही आने वाले हैं ..हमारा भी नशा अब टूटने लगा हैं ...फिर से महफ़िल सजेगी ..परवाने आएगे और अपने -अपने कमेन्ट देकर हमारा स्वागत करेगे ,,,,,वाह .."बहारे फिर भी आएगी ..फेसबुक अब हम तुझे छोड़ चले ......."
जवाब देंहटाएंसच है ... बढ़िया रहा विवेचन
जवाब देंहटाएंकान को इतना महत्व, अभी जाकर कान साफ कर लेते हैं...
जवाब देंहटाएंये हुई न बात. यू टर्न पर स्वागत है. पिछली पोस्ट के लिए आडियो सुनने के परिश्रम का फल है शायद यह.
जवाब देंहटाएंवाह ललित भाई कर्ण पुराण तो सचमुच बहुत ही जानदार है। पढ़कर कान खड़े हो गये...:)
जवाब देंहटाएंकर्ण पुराण के रूप में महाभारत के कर्ण की चर्चा सुनने की अपेक्षा थी मगर यहाँ तो और भी मजेदार कहानी चल रही है. कान से जुड़े कहावतों को दुहरा देने के लिए धन्यवाद. हाँ सिरपुर की कहनी के अगले किस का क्या हुआ?
जवाब देंहटाएंकर्ण पुराण के साथ बढ़िया और जोरदार वापसी...यू टर्न बहुत अच्छा रहा, सबके लिए जरुरी है ये...
जवाब देंहटाएंसबको कानोंकान खबर हो जाये कि फेसबुक में कुछ नहीं धरा, लौट आओ :)
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और हार्दिक धन्यवाद इस पोस्ट के लिये
भौत चौखो सा :)
जवाब देंहटाएंufff... lalit jee apne to kaan hi paka diya.... ;)
जवाब देंहटाएंbehtareen rachna hai.... vyangya kahun ise ya haqiqat....
अरे मेरी टिप्पणी उड़ा दी आपने...दुश्मनी? कब से? गुर्र र र :(
जवाब देंहटाएंकई एइसे धुरंधरी कान होते है जो लेखो मे भी साउंड खोज लेते है :) :) बढ़िया कर्ण पुराण
जवाब देंहटाएंअच्छी कर्ण कथा....बहुत बढिया
जवाब देंहटाएंये सब बातें तो हैं ही ,पर एक महत्वपूर्ण बात और -अगर कान नहीं होते तो हम चश्मा कैसे लगाते - सारा काम-धंधा ठप हो जाता !
जवाब देंहटाएंकुछ लोगों के तो कान पर जूं भी नहीं रेंगती.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंयह कर्ण पुराण नहीं कान की महिमा है. वैसे 'कान सम्मलेन' भी होता है. कान सम्मलेन में कान ये वाला नहीं दूसरा होता है जो न बजता है और न बजाया जा सकता है. ..... मै तो रेलगाड़ी में ही आपका इन्तेजार कर रहा था वह भला हो कि आपकी चिट्ठी मिली तब मै आपकी ड्योढ़ी तक पहुंचा हूँ.... जय हो....... कभी अपने दरबार में भी तशरीफ़ ले आयें.
जवाब देंहटाएंबहुत जोरदार कर्ण पुराण।
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