रविवार, 28 अक्तूबर 2012

गंधर्वेश्‍वर मंदिर..... Sirpur Chhattisgarh ............ललित शर्मा

महानदी के किनारे सुबह 
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प्रभात सिंह की आमद आहट से प्रभात हुई। वे चाय बनाकर ले आए थे। मैंने घड़ी की तरफ देखा, 6 बजा रही थी, मतलब प्रभात सिंह वादे के पक्के हैं, ये तो मानना पड़ेगा। एक रात और गुजर गई सिरपुर में, पर यह न पूछो कैसी गुजरी? रेस्ट हाउस विदेशी गोरों एवं देशी गोरों की ऐशगाह हुआ करते थे। राजीव रंजन "आमचो बस्तर" के पृष्ठ 243 में लिखते हैं ...... 
छोटा सा कॉटेज था। तीन कमरों के इस कॉटेज को अंग्रेज अफसरों के लिए विश्राम गृह बनाया गया था। बाहर कुर्सियां लगी हुई थी। जिस पर थानेदार और उसके चारों सिपाही पसरे हुए थे। आवाज ही बता रही थी कि उन सभी पर नशा हावी है।
"अन्दर अंग्रेज इंजिनियर साहब बैठे हैं। तेरा हिंगा उनके साथ ही काम कर रहा है। जा वो ही तुझे सब कुछ बताएँगे।" थानेदार ने एक कमरे की तरफ इशारा किया। नीरो हिचक गयी, उसने मासा की तरफ देखा, वह नजरें झुकाए खड़ा हुआ था।
'अरे जा ना! इस बार थानेदार ने डांट दिया था। 
नीरो की श्वांस ही रुक गई। उसके डरे हुए कदम कमरे की और बढे। धीरे से उसने कमरे का दरवाजा खोला। भीतर एक विलायती लालटेन जल रही थी, जो शाम के धुंधलेपन से लड़ रही थी। एक और कुर्सी पर अंग्रेज बैठा था। वह दरवाजे पर ही ठिठक गई।
'अन्दर आओ'  अंग्रेज इंजिनियर ने अपना हिंदी ज्ञान बघारा।
'हिंगा .......!' नीरो की आवाज हलक में ही अटक गई।
'अन्दर आओ, मैं जानता हिंगा किधर। अंग्रेज के स्वर में प्रलोभन था।
नीरो टस  से मस नहीं हुई। तभी किसी ने पीछे से उसे कमरे के भीतर ढकेल दिया।दरवाजा बाहर से बंद कर दिया गया।
'झांकता क्या है मिश्रा, इधर  आ जा।' थानेदार ने दरवाजे में आंख लगाये खड़े सिपाही को इशारा किया।
'साले गोरे होते तो जानवर ही हैं'. सिपाही मिश्रा एक कुर्सी पर आकर पसर गया।
नीरो के चीखने की आवाजें सन्नाटे को चीर रही थी। उसके स्वर में रह-रह कर उभर रहा दर्द और कराह यह बता रहे थे कि  अंग्रेज केवल .........को उतारू नहीं है। घंटे भर बाद कमरे का दरवाजा खुला और अंग्रेज ने नीरो को बाहर ढकेल कर दरवाजा बंद कर लिया।--------------------

महानदी के किनारे ब्लॉगर 
ऐसी है कहानी इन रेस्ट हाउसों की। कहाँ नींद आनी थी? पता नहीं कितनो की चमड़ी यहाँ बुलाकर हंटर से उधेडी गयी होगी। कितनो को फांसी पर टांगा गया होगा। कितनो की हड्डियाँ इस धरती के नीचे दफन होंगी जो आज भी कह रही हैं उनका क्या कसूर था। निरपराधों की आत्माएं आज भी चलो छोड़ो, सुबह-सुबह मैं भी क्या लेकर बैठ गया। बहुत काम बचा है, नहाने धोने के साथ नाश्ता पानी भी। लगभग 7 बजे हम तैयार होकर गंधर्वेश्‍वर मंदिर चल पड़े। गंधर्वेश्वर मंदिर महानदी के किनारे पर है। हमने उत्तर के दरवाजे से प्रवेश किया। प्रवेश द्वार के दांयी तरफ एक बड़ा बरामदा है, जिसमे पशुओं ने डेरा जमा रखा है। 

गंधर्वेश्वर मंदिर का स्तम्भ लेख 
परिसर में ढेर सारा गोबर और गंदगी फैली है। इस मंदिर का संचालन ट्रस्ट करता है, जिसमे कलेक्टर भी शामिल होते हैं। यह सतत पूजित मंदिर है। यहाँ से नदी का दृश्य सुहाना दिखाई देता है। किनारे पर नहाते लोग, जल किलोल करते बच्चे, नदी की रेत पर गायों का झुण्ड, नदी पार के जंगल और भी न जाने क्या क्या। प्रकृति का स्वर्गिक आनंद यही पर आकर मिलता है। कुछ देर हमने आम की छाँव में बैठ कर गुजारा। नदी किनारे बैठ कर प्रकृति का आनन्द लिया। हजारों बरसों से महानदी  प्रवाहमान है। प्राणदायिनी बनकर धरा को सिंचित करते हुए किसानो की कोठी को धन धान्य  से भर रही है।

गंधर्वेश्वर मंदिर एवं उर्ध्व लिंग नटराज
मंदिर में प्रवेश करते ही बांयी तरफ उर्ध्व लिंग नटराज की विलक्षण प्रतिमा लगी हुयी है। इसका निर्माण प्राचीन विहारों एवं मंदिरों से प्राप्त स्थापत्य सामग्री से किया गया है। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। स्तम्भों पर कारीगरी की गयी है। दो स्तम्भों पर लेख भी मिलते हैं। ये अभिलेख महाशिवगुप्त बालार्जुन के काल के हैं। यहाँ राजा ने मालियों को आदेश दिया है कि  वे कर के रूप में प्रतिदिन मानवाकर पुष्पाहार भगवान को अर्पित करें। मंदिर के स्थापत्य से पता चलता है कि यह मंदिर भी प्राचीन है। मंदिर के परिसर में बहुत सारी मूर्तियाँ रखी हुयी है, बरसों पहले जब यहाँ आया था तो मूर्तियों का संरक्षण देख कर इसे ही संग्रहालय मान बैठा था।

नास्तिकता और आस्तिकता के बीच उन्मुक्त ठहाका 
मंदिर के परिसर में एक स्थान पर बुद्ध के साथ शिवलिंग भी दिखाई दिया। दो विपरीत विचार धाराएँ एक साथ दिखाई दी। एक पूर्णत: नास्तिक एवं एक पूर्णत: आस्तिक। इस वृक्ष के नीचे बाद में किसी ने दोनों विग्रह एक साथ रख दी होंगे। राजीव इस स्थान पर एक चित्र चाहते थे। हमने चित्र को चित्रित कर लिया, मतलब कैमरे में कैद कर लिया। मंदिर का मुख्यद्वार पूर्वाभिमुख है। जिस पर आधुनिक निर्माण दिखाई देता है। मुख्यद्वार पर नंदी आरूढ़ शिव पार्वती विराजमान है। मंदिर परिसर में पुजारी परिवार भी निवास करता है। कहते है कि यहाँ नागा अखाड़े के कोई संत रहते थे, फिर उन्होंने गृहस्थी डाल ली। ये सभी उन्ही का परिवार है। नदी के किनारे पर पहुच कर चित्र ले रहे थे तभी आदित्य सिंह भी पहुच गए, इनकी गाड़ी 3 घंटे विलम्ब से चलने के कारण नदी प्लेटफार्म पर पहुची। हमे गंधर्वेश्वर मंदिर से अब विशेष क्षेत्र में जाना था। जहाँ जाने पर सिरपुर का वैभव दिखाई देता है। जारी है .... आगे पढ़ें ..................

13 टिप्‍पणियां:

  1. बुद्ध भले ही अनीश्वरवादी रहे हों पर सनातनियों ने तो उन्हें चौबीस अवतारों में शामिल कर लिया है।

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  2. इतिहास के धुँधलके का कारण परतन्त्रता रही है, अब तो सब अपने हैं, तो भी अन्याय क्यों...आप अपनी यात्रा जारी रखें...इतिहास के अध्याय खुलते जा रहे हैं।

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  3. बेबाक कथन के साथ सच्ची कहानी का तानाबना और खुबसूरत चित्र ने महानदी के तट को जीवंत कर दिया .बहुत ही सुन्दर आपके टॉप २० लेखों में से एक ........

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  4. जैसा की रमाकांत जी ने कहा है सुन्दर वर्णन और चित्रों के साथ सच्ची कहानी ने इतिहास को जीवंत कर दिया है...

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  5. वाह!
    आपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को आज दिनांक 29-10-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1047 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ

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  6. महानदी के तीर और वो भी सिरपुर की सुबह, सुहानी तो होनी ही है.

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  7. सुन्दर प्रस्तुति |
    आभार आदरणीय ||

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