रविवार, 27 अक्तूबर 2013

ओस कण से निर्मित मंदिर : स्वयंभूनाथ

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रबार स्क्वेयर से हमारी बस स्वयंभूनाथ मंदिर की ओर चल पड़ी। भूखाग्नि में तो सभी झुलस रहे थे। मंदिर के समीप ही एक रेस्टोरेंट में नाश्ते का कार्यक्रम था। वहाँ पहुंचने पर थोड़ी देर के लिए विश्राम का समय मिल गया। सुशीलापुरी जी हमें दरबार स्क्वेयर में मिली थी। उनका एक ठिकाना काठमांडू में भी है, वे वहीं ठहरी हुई थी। इस रेस्टोरेंट में पहुंच कर जिसे जहाँ जगह मिली वो वहीं टिक गया। नास्ते के बतौर सिर्फ़ 2 ही विकल्प थे, चाऊमीन एवं फ़्राई राईस। किसी ने चाऊमीन का आर्डर दिया तो किसी ने चावल का। मैने चाऊमीन खाने की सोची और आर्डर दे दिया। नाश्ता आते तक हम फ़ोटो ग्राफ़ी करते रहे। पहले चावल दिया गया। हमारी चाऊमीन बाद में आई। नाश्तोपरांत स्मृतियों में संजोने के लिए एक ग्रुप फ़ोटो यहाँ ली गई।

स्वयंभूनाथ स्तूप (शाक्य मुनि मंदिर) का शिखर
दूर से ही स्वयंभूनाथ मंदिर का शिखर दिखाई दे रहा था। साथ ही उसमें बनी हुई बड़ी बड़ी आँखे भी। हमने स्वयंभूनाथ के मंदिर में प्रवेश करने के लिए विदेशियों के लिए 50 नेपाली रुपए का शुल्क है। स्थानीय लोगों के लिए नि:शुल्क प्रवेश है। द्वार से प्रवेश करते ही सामने हिरण्यमय धातू की चमक चढाए जल कुंड के बीच बुद्ध की मूर्ति स्थानक मुद्रा में दिखाई दी। यहाँ पर गिरीश भैया के कुछ चित्र लिया। मुकेश सिन्हा भी चित्र स्पर्धा में कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होने भी खटाखट खटका दबाया। पहाड़ी पर बने हुए स्तूप तक जाने के लिए पैड़ियाँ बनी हुई हैं। पैड़ियों के समीप ही वज्रयान का प्रतीक चिन्ह वज्र रखा हुआ है।  जिसे लोहे की पट्टियों से बांधा हुआ है।
ब्लॉगर्स का सामुहिक छाया चित्र

ऊँची पहाड़ी पर बने इस मंदिर पर जाने के लिए पूर्व की ओर सड़क से सीढ़ियाँ बनी हैं, जिसके दोनों किनारों पर छायादार वृक्ष हैं तथा दस-दस फुट के फासले पर भूमि-स्पर्श मुद्रा में भगवान बुद्ध की कई मूर्तियाँ रखी हुई हैं। इसके साथ ही बीच-बीच में गणेश और कार्तिकेय की मूर्तियाँ भी हैं। इनके दोनों ओर मयूर और गरुड़ की मूर्तियाँ हैं। सीढ़ियों के लगभग मध्य में दो हाथियों की मूर्तियाँ हैं और अंत में वीरासन में बैठे दो सिहों की प्रतिमाएँ। अंतिम सीढ़ी पर धर्मधातुमंडल पर स्वर्णमंडित वज्र बना है। इस चक्र में गाय, सूअर, गेंडा, सिंह, शेर आदि बारह विभिन्न पशु-पक्षियों की सजीव मूर्तियाँ, उत्कीर्ण  मंत्रचक्र हैं। ये बारह पशु-पक्षी तिब्बती वर्ष के बारह महीनों के प्रतीक हैं। इस स्तूप के परिसर में मंदिरों और चैत्यों की भरमार है, जो काठमांडू में हिंदू-बौद्ध समन्वय का बहुत अच्छा उदाहरण है।
स्वयंभूनाथ मंदिर का प्रवेश द्वार एवं टिकिट खिड़की

पैड़ियों से चल कर हम एक विशाल प्रांगण में पहुचते हैं। यहां प्रस्तर निर्मित मनौती स्तूप दिखाई देते हैं साथ ही प्रस्तर निर्मित भूमि स्पर्श मुद्रा में, ध्यान मुद्रा में, स्थानक मुद्रा में बुद्ध की भिन्न भिन्न प्रतिमाएं दिखाई देती हैं। मेरे साथ संपत मोरारका जी भी पहुंच गई धीरे-धीरे टहलते हुए। उनकी हिम्मत को सलाम करना ही पड़ेगा। कई साथी तो सीढियों की चढाई देखकर नीचे रह गए, सम्पत जी को पर्यटन का बड़ा शौक है, जो उन्हें स्वयंभूनाथ तक खींच लाया। सम्पत जी के कैमरे से मैने उनके चित्र लिए। इस प्रांगण में नेपाल के शिल्प विक्रय की कई दुकाने हैं। जहाँ बौद्ध धर्म के वज्रयान से संबंधित तांत्रिक मुद्राओं वाले मुखौटे बेचे जाते हैं। मुझे एक कड़ा पसंद आया था, लेकिन उसका मालिक नहीं था दुकान में। 
दो यायावर - बंदा और बुद्ध

यह स्तूप काठमांडू घाटी का प्राचीनतम बौद्ध स्तूप (चैत्य) है। स्थापत्य-कला की दृष्टि से अद्वितीय होने के साथ-साथ प्राकृतिक स्थल की दृष्टि से भी यह अत्यंत मनमोहक है। स्थानीय लोगों की यह मान्यता है कि स्वयंभू के स्तूप के शिखर पर चारों दिशाओं में बने विशाल एवं दैदीप्यमान नेत्र काठमांडू के हर नागरिक के क्रिया-कलाप को हर पल देख रहे हैं, अतः किसी भी व्यक्ति को कोई बुरा काम नहीं करना चाहिए। स्थापत्य-कला की दृष्टि से स्वयंभूनाथ अद्वितीय है। इस स्तूप का व्यास साठ फुट है और शिखर तक की ऊँचाई लगभग तीस फुट होगी। स्तूप के शीर्ष पर दस फुट ऊँची वर्गाकार कुर्सी बनी है, जिसकी चारों दिशाओं पर धातु और हाथी-दाँत से निर्मित दो विशाल नेत्र हैं। इस वर्गाकार कुर्सी के मुंडेर के ऊपर चारों ओर पंचकोणीय फ्रेम बने हैं। इनमें हरेक में नीचे की पंक्ति में बुद्ध की ध्यान-मुद्रा में चार पीतल की चमकती मूर्तियाँ हैं। इनके ऊपर मध्य में भूमि-स्पर्श मुद्रा में बुद्ध की मूर्ति है।
कांस्य शिल्प

इस मंदिर के निर्माण के पीछे भी एक कहानी है, जिसे बौद्ध पंथी मान्यता देते हैं। यहाँ उपस्थित एक लामा (जिनक नाम भूल गया) कहते हैं कि इस मंदिर का निर्माण ओस के कणों से हुआ है। शांतिवास नामक बौद्ध धर्मावलम्बी राजा था। इस स्थान पर तांत्रिक साधनाएं होती थी, जिसके लिए नर बलियाँ दी जाती थी। वह नर बलि देने को तैयार नहीं था। इसलिए उसने फ़ैसला किया और अपने पुत्र से कहा, ''कल सुबह सूर्य उगने से पहले भोर के अंधेरे में तुम मेरी तलवार लेकर प्याऊ पर जाना। वहाँ मेरी मूर्ति के नीचे एक व्यक्ति सफ़ेद चादर ओढ़े सोया होगा। तुम बिना चादर को हटाए देवी का स्मरण करके उस आदमी की बलि दे देना।''
मनौती स्तूप

आज्ञाकारी राजकुमार ने पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया। लेकिन जब राजकुमार ने उत्सुकतावश मृत व्यक्ति की चादर हटाई, तो उसका कलेजा धक रह गया। वह मृत व्यक्ति और कोई नहीं, स्वयं उसके पिता राजा थे। राजकुमार को असीम दुःख हुआ। एक रात उसे वज्रयोगिनी देवी ने स्वप्न में दर्शन दिये और कहा, ''जहाँ पर तुमने राजा का वध किया है, उसी पहाड़ की चोटी पर तुम शाक्य मुनि (भगवान बुद्ध) का स्तूप बनवाओ। तभी तुम्हें इस पाप से मुक्ति मिल सकती है।''दूसरे दिन राजकुमार ने स्वप्न की बात अपने दरबारियों को बताई। सभी ने मंदिर बनवाने के विचार का अनुमोदन किया। 
पाप नाशक यंत्र और गिरीश भैया

फौरन ही मंदिर बनाने की तैयारियाँ शुरू हो गईं। दूर-दूर से चूना, पत्थर, मिट्टी आदि लाई गई और हज़ारों आदमी उस सामग्री को बांस के टोकरों में भरकर पीठ पर लादकर पहाड़ की चोटी पर पहुँचाने में लग गए। परंतु दुर्भाग्य ने राजकुमार का पीछा नहीं छोड़ा। पूरी घाटी में पानी का भयंकर अकाल पड़ा। एक बूँद वर्षा नहीं हुई। सभी सरोवर, नदी, नाले और तालाब सूख गए। लोगों के घर के कुएँ भी सूख गए। ऐसे संकट में मंदिर बनाने के लिए पानी जुटाना बहुत मुश्किल हो गया। राजकुमार को एक युक्ति सूझी, उसने पहाड़ी के इर्द-गिर्द चारों तरफ़ रात में सैंकड़ों सफ़ेद चादरें बिछवा दीं। सुबह के समय आकाश से पड़नेवाली ओस-बिंदुओं से चादरें गीली हो जातीं, उन्हें निचोड़कर पानी इकट्ठा किया जाता, फिर उससे मंदिर-निर्माण किया जाता।
लेखिका सम्पत मोरारका जी

दिन में मंदिर का निर्माण कार्य होता था, तो रात में कोई राक्षस आकर उसे बिगाड़ जाता था। सभी लोग बहुत परेशान थे। एक रात लोगों ने छिपकर उस दानव को देखा। सैंकड़ों लोग मशालें जलाकर तलवार, बरछा लेकर उस दानव के पीछे भागे और उसे घाटी से दूर पहाड़ के उस पार भगाकर दम लिया। हज़ारों लोगों के रात-दिन के परिश्रम से जब स्वयंभू-मंदिर बनकर तैयार हुआ, तब उस घाटी में वर्षा हुई। पानी आया और यहाँ के निवासी खुशहाल हुए। तब से इस घाटी में कभी भी पानी का संकट नहीं आया है। इस कहानी को सुनकर बौद्ध स्तूप के निर्माण के विषय में ज्ञानार्जन हुआ। मेरे अतिरिक्त गिरीश पंकज, सुनीता यादव, शैलेष भारतवासी, मुकेश सिन्हा, सम्पत मोरारका जी ने ओ3म मणि पद्में हूँ बीज मंत्र लिखे चक्रों को घुमाया। 
इस चित्र में व्यवधान हुआ 

सुनीता यादव जी के साथ कुछ चित्र लिए तथा चित्रों के साथ प्रयोग भी किए। जूम करके चित्र लेते हुए सब्जेक्ट एवं कैमरे के बीच यदि कोई आ जाए और उसी समय क्लिक हो जाए तो दिमाग की बत्ती ही गुल हो जाती है। ऐसे ही एक चित्र खराब होने से मेरा मुड चढ गया सातवें आसमान पर। सुनीता जी ने कई चित्र लिए मेरे। लेकिन सभी चित्रों में भृकुटि तनी हुई है चेहरे से सौम्यता एवं सहजता फ़ना हो गई। यही होता है मेरे साथ, यदि मेरे मन की नहीं हो पाती और मैं कुछ कह या कर न पाऊं तो काफ़ी देर तक मानसिक स्थिति डांवा डोल रहती है। जब उस वाकये की तरफ़ से ध्यान हट जाए और कुछ हँसी मजाक इत्यादि साथियों के साथ हो जाए तब सामान्य स्थिति आती है।
लामा

सांझ हो रही थी, पक्षी अपने घोंसलों की और लौट रहे थे। स्वयंभूनाथ का रमणीय दृश्य हमें स्थान छोड़ने ही नहीं दे रहा था। थोड़ा समय होता तो इस मंदिर के प्रस्तर शिल्प की पड़ताल करता तथा स्मृति आलेख ढूंढता। परन्तु हमारे पास इतना समय नहीं था। पराधीने सपनेहू सुख नाहिं। हमारी काठमांडू यात्रा परिकल्पना के अधीन चल रही थी। हम स्तूप से बाहर आ गए और बस के समीप पहुंच गए। काफ़ी साथी बस में बैठ चुके थे। वहीं पर छोटी सी रेहड़ी पर मालाएं चूड़ियाँ इत्यादि एक लड़की बेच रही थी। उसकी दूकान पर मुझे एक बड़े मनकों वाली माला दिखाई, जिसे गाँव में हम गाय-बैलों को पहनाते हैं। 
वज्रयान का प्रतीक वज्र

ये मालाएं वर्तमान में आधुनिक नारियाँ धारण करती हैं, मनुष्य के फ़ैशन में भी प्रचलन में आ गई है। मैने सोचा कि एक माला ले ली जाए। जल्दबाजी में मोल भाव करके 100 नेपाली रुपए में सौदा पटा। माला लेकर हम बस में आए तो किसी ने देखने लिए मांगी। तो उसने बताया कि माला का लॉकेट टूटा हुआ है। हम दौड़ कर माला वापस करने गए, तो दुकान वाली लड़की को धमकाए कि धोखाधड़ी करती है। वह बोली कि माला टूटी हुई थी इसलिए हमने कम भाव में दी। उससे  पैसे लेकर हम बस में आ कर बैठ गए।
इसी चित्र में हमने कलाकारी की थी-एम एफ़ हुसैन के घोड़े जैसा बादल

सारी सवारियाँ आ चुकी थी, पाबला जी नदारत थे। अब पाबला जी की खोज शुरु हुई, कहीं दिखाई नहीं दिए। तो नेपाल की सीमा पर लिया हुआ नेपाली नम्बर अब काम आया। उन्हें फ़ोन लगा कर पूछा तो वे बोले कि आप बस लेकर आ जाईए, मैं नीचे रास्ते में मिल जाऊंगा कहीं। अब उन्हें भी काठमांडू के स्थान का नाम नहीं मालूम और हमें भी। जैसे कह देते कि राम लाल की आटा चक्की के पास खड़ा हूँ या चुनौटी लाल के पान ठेले के पास मिलुंगा। फ़िर हमने दुबारा फ़ोन मिलाया तो यही जवाब आया। हमने बस ड्रायवर को कह दिया कि चलिए, आगे कहीं रास्ते में पाबला जी मिल जाएगें। रास्ते में पाबला जी मिल गए और हम सांझ का अंधेरा होते होते होटल रिव्हर व्यू में पहुंच गए। लेकिन रिव्हर कहीं दिखाई नहीं दी।

नेपाल यात्रा आगे पढे……… जारी है।

9 टिप्‍पणियां:

  1. nice.........................................................................................

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  2. सबसे पहले तो बहुत दिनों बाद इतनी अच्छी कहानी पढने मिली, खूब अच्छा लगा हमे, उसपर ढेर सारी जानकारियों के साथ सुन्दर-सुन्दर चित्र देखने मिले।और हाँ एम. एफ़ हुसैन के घोड़े जैसा बादल वाली कलाकारी लाज़वाब है। .

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  3. नमस्कार !
    आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [28.10.2013]
    चर्चामंच 1412 पर
    कृपया पधार कर अनुग्रहित करें |
    सादर
    सरिता भाटिया

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  4. बढ़िया जानकारियाँ
    सुंदर चित्र

    फोटो तो हमने भी आपके बहुत लिए, खूबसूरती दिखाते

    बी एस पाबला का ताज़ा लेख है खौफनाक राह, घूरती निगाहें, कमबख्त कार और इलाहाबाद की दास्ताँ

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  5. अहा, घोड़े का चित्र तो पूरा लगा रहा है, सुन्दर वृत्तांत..

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