सुबह हमने होटल छोड़ दिया और रात्रि कालीन सभा में गोलकुंडा भ्रमण के प्रस्ताव के अनुमोदन के पश्चात हमें गोलकुंडा किले के दर्शनार्थ जाना था। सुबह के साढे सात बज रहे थे। हैदराबाद में ट्रैफ़िक सुबह ही शुरु हो जाता है। हमारे होटल से गोलकुंडा तक हमें लगभग 20 किमी शहर के भीतर होकर पहुंचना था। रास्ते में एक स्थान पर नाश्ते का जुगाड़ दिख गया। एक व्यक्ति मोपेड पर बर्तन रखकर इडली उत्तपम बेच रहा था। बस इसी से लेकर हमने नाश्ता किया। गर्मागर्म इडली और उत्तपम खा कर लगा कि दिन बन गया। अब आगे का सफ़र आराम से हो सकता है। कुछ देर के सफ़र के बाद हम पुरानी बसाहट से होते हुए गोलकुंडा के किले के मुहाने तक पहुंच गए।
स्ट्रीट फ़ूड का आनंद, सुबह का नाशता |
किले में सुबह की चहल-पहल प्रारंभ हो चुकी थी। टिकिट खिड़की भी खुल चुकी थी। किले के पास ही पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर हमने टिकिट खिड़की से 10-10 रुपए की टिकेटें खरीदी। टिकिट घर के सामने उद्यान बना हुआ है, कारपेट घास की तराई करते हुए लोग मिले। मैने सोचा कि गाईड ले लिया जाए। एक से चर्चा करने पर उसने 600 रुपए पारिश्रमिक बताया और उससे एक पैसा कम करने को तैयार नहीं था। इसके बदले मैने वहीं बिक रही गोलकुंडा दर्शन का हिन्दी ट्रैक्ट 20 रुपए में खरीद लिया। यह भी गाईड का ही काम करेगा। शुद्ध 580 रुपए की बचत हो गई। बाकी तो देखने दिखाने के लिए अपनी आँखे ही काफ़ी हैं। 30 वर्षों की घुमक्कड़ी के अनुभव से इतना तो समझ आ जाता है कि कहाँ क्या होगा?
गोलकुंडा का प्रवेश द्वार |
गोलकुंडा का जिक्र हो तो सबसे पहले कोहिनूर हीरा ही याद आता है, जो आज ब्रिटेन की महारानी के ताज में जड़ा हुआ है और जिस पर भारत के अलावा पाकिस्तान भी अपना दावा ठोक रहा है। इस विश्वविख्यात हीरे का वास्तविक घर गोलकुंडा है, यह हीरा गोलकुंडा की खदान से ही निकला था। इसका प्राचीन नाम सामंती मणि था, जिसे भगवान सूर्य ने अपने पुत्र कर्ण को उपहार स्वरूप दिया था। गोलकुंडा में एक गरीब मजदूर को यह हीरा खुदाई के समय मिला था। मीरजुमला ने बतौर नजराना इसे शाहजहाँ को पेश किया। जिन्होंने इसे तख्त–ए–ताउस में जड़वा दिया। इसके बाद यह हीरा महाराजा रणजीत सिंह से होते हुए ब्रिटेन के ताज तक पहुंच गया।
बाला हिसार द्वार की ओर जाता मार्ग |
किले के मुहाने पर कड़प्पा पत्थर की स्लेट पर गोलकुंडा का नक्शा बना हुआ है, जिसे एकबारगी देख कर किले राह रस्ते समझ आ जाते हैं। टिकिट घर से मुख्य द्वार बाला हिसार दिखाई नहीं देता। उसके सामने दीवार एक पर्दा बनी हुई है। दांई तरफ़ एक पांच फ़ुट की गली से किले के मुख्यद्वार तक पहुंचा जाता है, इस द्वार को बाला हिसार द्वार कहा जाता है। पाषाण की चौखट पर लकड़ी के किवाड़ चढे हुए हैं। सिरदल पर दोनो ओर सिंह एवं मध्य में पद्मांकन है। द्वार की बनावट देख कर ही लगता है कि यह किसी हिन्दू राजा द्वारा बनाया गया है। सिरदल के उपर दोनो ओर सुंदर मयूराकृतियाँ बनी हुई हैं तथा द्वार बंद होने पर सुरक्षा की दृष्टि से झांकने के लिए एक झरोखा भी बना हुआ है। द्वार को मजबूती प्रदान करने के लिए उस पर लोहे का पतरा मढा होने के साथ हाथियों की टक्कर से बचाने के लिए मोटे कीले भी लगे हुए हैं।
बाला हिसार द्वार, हिन्दू शैली पर इस्लामिक शैली का निर्माण |
द्वार से भीतर प्रवेश करते ही उजड़ा हुआ नगर दिखाई देने लगता है। चारों तरफ़ ईमारतें ही ईमारते दिखाई देती हैं। गोलकुंडा का किला 400 फ़ुट ऊंची (कणाश्म-कड़प्पा) ग्रेनाईट की पहाड़ी पर बना हुआ है। इसके तीन परकोटे हैं और यह 7 मील में फ़ैला हुआ है, इसके चारों तरफ़ 87 बुर्ज बने हुए हैं। बुर्ज युद्ध के समय तोप रखकर चलाने के काम आते थे। साथ ही वाच टावर भी बने हुए हैं। वैसे भी किले पहाड़ी के शीर्ष में बनाए जाते थे, इसके कारण दूर तक दिखाई देता है। यह भग्न नगर हैदराबाद शहर से पाँच मील की दूरी पर है। इस किले की सुरक्षा के लिये उसके चारो तरफ पांच मील पत्थर की चारदिवारी है। चारदीवारी के बाहर खाई है, इसमें 9 दरवाजे, 43 खिड़कियां तथा 58 भूमिगत रास्ते हैं।
किले के शीर्ष से विहंगम दृश्य |
बाला हिसार किले का मुख्याकर्षण यहाँ की दूरसंचार व्यवस्था है। वास्तुकार ने इसे विशेषता से निर्मित किया है और ध्वनि विज्ञान का विशेष ध्यान रखा है। द्वार के समीप षटकोणिय आकृति की परिधि में ही करतल ध्वनि करने पर उसकी आवाज किले के शीर्ष तक पहुंचती है। इस स्थान पर गाईड पर्यटकों को ताली बजवा कर इसका चमत्कार दिखाते हैं। यह व्यवस्था किले की सुरक्षा को ध्यान में रख कर की गई है। ध्वनि की विविधता के आधार पर उपर रहने वालों को पता चल जाता था कि द्वार पर मित्र है, शत्रु है या फ़िर फ़रियादी है । यह ध्वनि मुखबीरों के भी काम आती थी, थोड़ी सी भी आवाज तरंगों में बदल कर दूर तक सुनाई देती थी। वर्तमान जिसे ईको सिस्टम कहा जाता है।
तोप एवं दूर संचार का केन्द्र |
मैं और पाबला जी किले में बने हुए पथ पर आगे बढ़े जा रहे थे। सुबह का सूर्य यौवन की प्राप्ति की ओर बढ रहा था और धूप चमकने लगी थी। कुछ विदेशी यात्री भी किले को परख रहे थे, जिनमें दो युवतियाँ बिंदास अपने कैमरे लेकर बिना किसी गाईड के ही घूम रही थी। मुख्य द्वार पर आगे बढ़ने पर तारामती महल दिखाई देता है। समय की मार के बावजूद भी यह बचा हुआ है खंडहर होने से। किंवदंती है कि तारामती, जो क़ुतुबशाही सुल्तानों की प्रेयसी तथा प्रसिद्ध नर्तकी थी, क़िले तथा छतरी के बीच बंधी हुई एक रस्सी पर चाँदनी में नृत्य करती थी। सड़क के दूसरी ओर प्रेमावती की छतरी है। यह भी क़ुतुबशाही नरेशों की प्रेमपात्री थी।
रानी तारामती का महल |
इस स्थान से सीढियों द्वारा उपर जाने पर एक द्वार और बना हुआ है, इसके बाद मैदान है, जहाँ से पहाड़ी के शीर्ष तक जाने के लिए दांए-बांए दो रास्ते हैं। पाबला जी नीचे ही रह गए और मैं बारहदरी तक उपर चढ गया। धूप बहुत तेज थी और अब उपर चढने में स्वास्थ्यगत समस्याएं सामने आती हैं। भले ही 30-30 पैड़ी चढ़ा, पर उपर पहुंच गया। गला सूखने लगा था। एक घूंट जल कि चाहिए थी। बारहदरी के समीप ही एक कैंटीन है, जहाँ से पानी लेकर पीया और फ़िर बारहदरी का निरीक्षण किया। यह ऊंचे अधिष्ठान पर निर्मित है।
प्रतिक्षारत पाबला जी |
यहाँ पहुंचने के लिए दोनो तरफ़ पैड़ियाँ बनी हुई हैं। यहां से उपर आने पर एक बड़ा हॉल है, जिसके दोनो तरफ़ कमरे बने हुए हैं, यहाँ से दो जीने और बने हैं उपर जाने के लिए। यह जीने दो पार्ट में हैं। इसके बगल से एक जीना सीधे ही उपर दरबार तक पहुंचाता है। इस किले का शीर्ष यही दरबार है। नीचे के मंडप को दीवाने आम कहा जाता है, जहाँ दरबारी बैठकर राजकाज में सम्मिलित होते थे और उपरी मंडप दीवाने खास है, जहाँ बैठ कर सुल्तान खास मंत्रणा करते थे और विशिष्ट जनों से मिलते थे। नीचे बाला हिसार द्वार से की गई हल्की सी आवाज की गूंज यहाँ तक सुनाई देती है। यही वास्तु का चमत्कार है।
बारहदरी का दीवान-ए-आम |
बारहदरी भवन का नक्शा इस तरह बनाया गया है ताकि यह पहाड़ी के शिखर का विस्तार लगे। शिखर पर होने की वजह से यह दूर से ही नज़र आता है और भव्य दिखता है। दो तल की इस ईमारत में एक खुली छत है, जिसमें एक दर्शक दीर्घा है। जहाँ महत्वपूर्ण अवसरों पर शामियाने लगाये जाते थे। बारहदरी भवन के रास्ते में एक गहरा कुआँ है जो वर्तमान में सूखा है, किंतु उस समय सेना को पानी की आपूर्ति इसी कुएँ से की जाती थी। थोड़ी ही दूरी पर जीर्ण–शीर्ण अवस्था में एक भवन है, जिसके कोने में एक गोलाकार सुरंगनुमा रास्ता है। इसकी गहराई लगभग आठ किलोमीटर है। कुतुबशाही शासक आपातकाल में इसका उपयोग करते थे।
दीवान-ए-आम की छत पर मुख्य दरबार दीवान-ए-खास |
किले के निर्माण के समय सबसे महत्वपूर्ण जलापूर्ति के साधन होते हैं। इतिहास गवाह है कि कई बार किलों की जलापूर्ति एवं रसद रोक कर भी राज्यों को हस्तगत किया गया है। किले के दक्षिण में मूसी नदी प्रवाहित होती है और इसी से किले में जलापूर्ति की व्यवस्था की गई थी। यहाँ मोरियों के रुप में जलापूर्ति के चिन्ह दिखाई देने लगते हैं, इस ईमारत में एक फ़व्वारा भी बना हुआ है। किले में सुनियोजित ढंग से जलापूर्ति की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक तलों में जलसंचय की व्यवस्था थी। जो टेरीकोटा पाइपों द्वारा विभिन्न तलों के महलों, बगीचों और झरनों में पहुँचाई जाती थी। पाइपों के भग्नावशेष अब भी दीवारों पर देखे जा सकते हैं। जारी है, आगे पढ़ें…
एक एक स्थल का जीवंत चित्रण...बहुत खूब...
जवाब देंहटाएंवैसे मुझे ऑडियो गाईड ज्यादा पसंद है, आप www.audiocompass.in की एप का भी उपयोग कर सकते हैं, बहुत सी जगहों को इन्होने भी ऑडियो गाईड में सँजो रखा है।
जवाब देंहटाएंगोलकोंडा फोर्ट मेरा भी देखा है, पर यहाँ जा के ऐसा लगा कि यहाँ किसी किसी भी जगह या कमरे में दरवाजे नही थे। इसका क्या कारण रहा होगा।
जवाब देंहटाएंवाह शानदार।
जवाब देंहटाएंवृतांत पढकर किला देखने का मन होने लगा ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंक्या शाम को रोशनी और आवाज़ का कार्यक्रम देखा था। चिट्ठी पढ़ कर मुझे अपनी गोलकुण्डा किले की यात्रा और कोहीनूर हीेरे की चर्चा याद आयी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर है गोलकुंडा का किला व कोहिनूर हीरे की यात्रा का भी पता चला की वह कैसे भारत से गया। कमल जी आपका बहुत आभार।
जवाब देंहटाएंगोलकुंडा के किले का वर्णन अभी तक किताबो में ही पढ़ा था।शानदार वर्णन।
जवाब देंहटाएंचित्र सहित बहुत सुंदर वर्णन
जवाब देंहटाएंकिले का विस्तृत और जीवंत वर्णन......लगा जैसे हम साथ ही घूम रहे हैं .....धन्यवाद..!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
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