मनुष्य एवं प्रकृति का गठजोड़ जन्मघूंटी से हो जाता है। जब वह धरती पर जन्म लेकर पहली सांस लेता है तो प्रकृति से जुड़ जाता है। पशु-पक्षी, वन-पर्वत, नदी-नाले एवं स्वच्छंद पवन जीवन का आधार बन जाती है। भले ही अब मनुष्य सर्व सुविधा युक्त शहरों में बस रहा है, परन्तु प्रकृति के सहवास के लिए तत्पर रहता है। इनमें से मैं भी एक हूँ, जो हमेशा प्रकृति का सामिप्य पाने पहाड़ों, नदियों, वनों की ओर दौड़ लगाता रहता हूँ।
यात्रा के लिए तैयार, ट्रेन के इंतजार में |
इस वर्ष की पहली घुमक्कड़ी बोहनी का सुत्रधार बीनु कुकरेती बने। बीनु कुकरेती का गांव बरसुड़ी उत्तरांचल के गढवाल में हैं। पूर्व में यहाँ जाने का कार्यक्रम बना, परन्तु संयोग नहीं होने के कारण पहुंच नहीं पाया। इस बार पुस्तक मेले से बरसुड़ी जाने का कार्यक्रम बन ही गया। आई एस बी टी से हम रात की बस से कोटद्वार के लिए चले,उत्तर प्रदेश परिवहन की खटारा बस, जिसका गेयर लगाने में ही चालक को आधी ताकत लगानी पड़ती थी। हमारे साथ वैभव एवं धर्मवीर माथुर जी भी थे। इस समय ठंड अधिक पड़ रही थी क्योंकि सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर प्रस्थान कर रहे थे। देवताओं की छ: महीने की रात्रि समाप्ति की ओर थी। इसलिए ठंड भी अधिक थी।
पहाड़ों की सुंदरता |
ठंड को देखते हुए इस बार मेरे साथ पहनने के कपड़े कम एवं ओढने के अधिक थे। बीनु ने भी चेता दिया था कि ठंड से बचने का सामान साथ में होना चाहिए। 221 रुपए प्रति व्यक्ति किराए में दिल्ली से मेरठ, बिजनौर होकर हम चार बजे कोटद्वार पहुंचे। बस ने कोटद्वार तक का 210 किमी का सफ़र पाँच घंटे में तय किया। यहाँ से हमें द्वारीखाल की बस मिलनी थी। कोटद्वार में ठंड अपनी चरम सीमा पर थी। यहाँ बस अड्डे के सामने कुछ अच्छे होटल हैं, जिसमें मिठाईयों के साथ चाय भी मिल जाती है।
ग्रे हेडेड पैराकीट (तोता) |
द्वारीखाल के लिए मिनी बसे चलती हैं। यहां से द्वारी खाल के लिए पहली बस सुबह छ: बजे जाती है। हमने होटल में चाय पीते हुए कुछ समय व्यतीत किया। बीनु ने कहा कि गाँव में सब्जियां नहीं मिलती है, इसलिए कुछ सब्जियाँ हमने कोटद्वार से खरीद ली। कोटद्वार से बस छ: बजे चल पड़ी और मुझे नींद आ गई। गुमखाल पहुंचने पर नींद खुली। यहाँ एक रेस्टोरेंट के सामने यह बस रुकी थी। ठंड भगाने के लिए एक एक चाय पी और आगे बढे। कोटद्वार से द्वारी खाल की दूरी 42 किमी की है। हम यहाँ आठ बजे पहुंच चुके थे।
बरसुड़ी गांव की ओर ट्रेकिंग किशोर वैभव एवं धर्मवीर जी संग |
द्वारीखाल से बरसुड़ी की दूरी लगभग सात किमी है। यह कच्चा रास्ता है, जिस पर कुछ दूरी तक चरचकिया जा सकती है, फ़िर पैदल ही चलना पड़ता है। यहाँ टैक्सी से हम कुछ दूरी तक पहुंचे और फ़िर पैदल यात्रा प्रारंभ की। एक तो पहाड़ी गांव पहुंचने का जज्बा और दूसरा यहाँ की संस्कृति से परिचित होने का जोश कदमों को आगे बढाए जा रहा था। रास्ते में चीड़ के पेड़ों के गिरे हुए पत्तों पर फ़िसलने के खतरा बना हुआ था। आखिर टहलते टहलते बीनु के गाँव पहुंच गए।
बरसुड़ी गाँव का स्वागत द्वार |
गांव में प्रवेश द्वार बना हुआ है, प्रविश नगर कीजै सब काजा, हृदय राखि कोसलपुर राजा। प्रवेश द्वार पर निर्माणकर्ता ग्राम प्रधान भीमदत्त कुकरेती का शिलालेख लगा है। पतली सी पगडंडी आगंतुकों को गांव की ओर ले जाती है। पहाड़ी गाँव की बसाहट ढलान के हिसाब से ऊपर नीचे होती है। घरों की निर्माण सामग्री में लकड़ी एवं पत्थरों का उपयोग होता है। छतें नीची होती हैं, अर्थात मकानों की ऊंचाई अधिक नहीं होती, छ: या सात फ़ुट तक की ऊंचाई की छत से गुजारा चल जाता है।
धूप सेकते हुए बरसुड़ी गांव में |
घर पहुंच कर बीनु ने दरवाजा खोला और हम बाहर छत पर धूप सेवन करने बैठ गए। ताई ने गर्मागर्म चाय पिलाई और बीनु के चाचा भीमदत्त जी माल्टे काटने लगे। पहाड़ में यहाँ माल्टों का सीजन है। छत्तीसगढ़ में हम इन्हें लेटर्रा कहते हैं। खट्टा मीठा स्वाद होने से एकाध ही खाए जा सकते हैं। बहुत अधिक नहीं। ताई हरा नमक बनाकर ले आई (नमक में धनिया, लहसुन और मिर्च पीस दी जाती है) जिसे हमने माल्टे पर लगा कर खाया तो आनंद आ गया। पहाड़ों चिड़ियों की कुछ अलग प्रजातियाँ दिखाई देती हैं। घर के आसपास बहुत सारी चिड़ियां दिखाई दी। बीनु और वैभव चिड़ियों की फ़ोटो ले रहे थे और हम कुछ को पहचानने में लगे हुए थे।
नीरज जाट पहुंच कर माल्टे छील रिया है। |
चाचा ने पुलाव बना लिया था। भाई धर्मवीर जी घर से आधा किलो देशी घी लाए थे। पुलाव में घी डालकर खाया। खाना खाने के बाद नींद आने लगी। मैं घर के भीतर भारी रजाई ओढकर सो गया। ठंड में रजाई में सोने का मजा ही कुछ और है। भले ही हमारी तरफ़ ब्लेंकेट ने रजाईयों को रिप्लेस कर दिया परन्तु मजा तो रजाई में ही है। ठंड के दिनों में अगर सु लग जाए तो बहुत तकलीफ़ होती है, समझ लो मरण तुल्य कष्ट होता है रजाई से बाहर निकल कर मूत कर आना। टंकी फ़ुल होते ही मेरी नींद खुल गई। नीरज जाट, निशा एवं अजय सिंह भी दिल्ली से कार से आ रहे थे। हमारे झपकी लेते तक नीरज लोग भी पहुंच गए और इनका भी स्वागर माल्टे से किया गया।
सुंदर नजारे के बीच भीमदत्त कुकरेती के घर |
इसके बाद हम चाचा के घर की ओर चल पड़े, जो गांव से दो ढाई किमी की दूरी पर था। चढाई उतराई से मुझे बड़ी तकलीफ़ होती है। मैदानी इलाके में तो भले ही बीस किमी चलना पड़ जाए परन्तु पहाड़ी इलाके गोडे तोड़ देता है, पिंडलियों में दर्द भर जाता है क्योंकि हमें पहाड़ में चलने की आदत ही नहीं है। गांव वालों को तो रोज की आदत है इसलिए उन्हें तकलीफ़ नहीं होती। परन्तु मैदान के आदमी पहाड़ में आकर मारे जाते हैं। तीखा ढलान एवं खड़ी चढाई ही दम फ़ुलाने के लिए काफ़ी होती है। आखिर धीरे धीरे चलकर हम चाचा जी के घर पहुंच गए। दोनों पैर चलकर सीधे हो चुके थे। आगे पढें……
नोट यह यात्रा 9 जनवरी से 12 के बीच सम्पन्न हुई।
नोट यह यात्रा 9 जनवरी से 12 के बीच सम्पन्न हुई।
बहुत बढ़िया, गांव की जनसंख्या बहुत कम है क्या?
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया मजेदार
जवाब देंहटाएंआखिर आ ही गई यात्रा ब्लॉग पर :)
जवाब देंहटाएंशानदार और जानदार यात्रा
जवाब देंहटाएंये चरचकिया क्या होता है गुरु ? :-)
जवाब देंहटाएंfore wheeler
हटाएंएक विशिष्ट नजर से देखने को मिला पहाड़ी गाँव ।
जवाब देंहटाएंइस लेख से बरसूडी की यात्रा फिर से ताजा हो गई।धन्यवाद ललित जी।
जवाब देंहटाएंपहाड़ी रास्तों का सफर थकाऊ भले ही होता लेकिन शहरी थकान दूर करने का इससे बेहतर और कोई जगह नहीं मिलेगी दूसरी
जवाब देंहटाएंहमारे उत्तराखंड घूम आये और माल्टा भी खाया, अच्छा लगा यात्रा वृतांत पढ़ना। . आजकल गर्मियों में तो अलग-अलग तरह के फल मिलते हैं खाने को ..
पिछले बरस गर्मियों में कुमाऊँ की सैर की थी। मौसमी फलों का भी आनंद लिया था।
हटाएंबहुत ही सुंदर ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर ...
जवाब देंहटाएंअच्छा काम दे दिया नीरज को..
जवाब देंहटाएंजुड़हर पाग म घुमक्कड़ी के बने बोहनी होय हाबे सर जी फेर अबही घाम घातेच चंचनावत हाबे।
जवाब देंहटाएंबढ़िया यात्रा भाई साहब, हम और बड़ी संख्या में गए तो बरसूडी तो हम शायद ज्यादा आनंद ली आये आपसे....
जवाब देंहटाएंजिसकी जितनी झोली थी उतना ही आनंद मिला 😃
हटाएंलाजवाब लेखन
जवाब देंहटाएंगुरुदेव अब की बार मैं भी जा रहा हूं बहुत बढ़िया यात्रा वृतांत
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