रुमाल वर्तमान में हमारी जरुरत का सामान बन गया है। ऑफ़िस या काम पर जाने से पहले आदमी हो या औरत रुमाल साथ रखना नहीं भूलते। बच्चा भी जब स्कूल जाता है तो उसकी वर्दी पर माँ पिन से रुमाल लगाना नहीं भूलती। रुमाल का कब क्यों और कैसे अविष्कार हुआ यह बता पाना तो कठिन है। पर सुना है कि फ़्रांस के राजा की बेटी से विवाह करने वाले इंग्लैंड के राजा रिचर्ड द्वितीय के मन में प्रथमत: रुमाल बनाने का विचार आया। गद्दीनशीन होने पर उसे हाथ और नाक मुंह पोंछना पड़ता था, उसके लिए तौलिए का काम लिया जाता था, जो कि बहुत भारी था। इसलिए उसने आदेश दिया रंग-बिरंगे कपड़ों के छोटे-छोटे टुकड़े तौलिए के स्थान पर प्रयोग में लाए जाएं। इस तरह रुमाल का जन्म हुआ। रुमाल इंग्लैंड से होते हुए एशिया में भारत तक पहुंच गया। हैंडकरचीफ़ से इसे स्थानीय भाषा के रुमाल, कामदानी, करवस्त्र, उरमाल, सांफ़ी इत्यादि नाम भी मिल गए। रुमाल का सफ़र चल पड़ा अब यह सभ्यता और व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।
भारत में रुमाल की जगह अंग वस्त्रम् उत्तरीय का प्रचलन था, जिसे कालान्तर में अंगोछा या गमछा का नाम दिया गया। गमछा या अंगोछा सभी ॠतुओं में मनुष्य के काम आता है। महीन धागों से बना हुआ वजन में हल्का वस्त्र सर्दी, गर्मी से रक्षा करता है तो वर्षाकाल में भीगे हुए शरीर को पोंछने के काम आता है। बाजार जाने पर थैला नहीं है तो अंगोछा ही सब्जी रखने के काम आ जाता है। भोजन के वक्त थाली के अभाव में भोजन करने के भी काम आ जाता है। अंगोछा का प्रचलन वर्तमान में भी है। लोग प्रदूषण से बचने के लिए मुंह ढंक कर शहर में घूमते-फ़िरते मिल जाते हैं। अंग्रेजों के साथ रुमाल आने पर इसे भारतीय जनमानस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। कोट-पतलून-बुशशर्ट के साथ-साथ रुमाल भी वेशभूषा का आवश्यक अंग बन गया। इस तरह अंग वस्त्रम् उत्तरीय के लघु रुप रुमाल की यात्रा प्रारंभ हो गयी। जो नजले से टपकते नाक, एवं पशीने से लथपथ मुंह पोंछने से चलकर आशिकों की रुह में समा गया। कमाल का रुमाल है।
वो भी क्या दिन थे जब आशिक लड़कियों के रुमाल के लिए मरा करते थे |अगर गलती से किसी लड़की का रुमाल मिल जाए तो खुद को खुशनसीब समझते थे| उस रुमाल को जान से भी ज्यादा प्यार करते| उसे तकिये के नीचे रख के सोते थे। रुमाल प्रेमियों को बहुत भाया। रंग-बिरंगे रुमालों पर विभिन्न प्रकार के चित्र एवं चिन्ह बनाए जाते हैं। किन्ही पर नाम के प्रथम अक्षर वर्णित होते हैं। पंडुक पक्षीयों का जोड़ा रुमाल पर शोभायमान होता है। जिस तरह जीवन पर्यन्त पंडूक पक्षी का प्रेम और जोड़ा बना रहता है उसी तरह प्रेमी-प्रेमिकाओं का भी ताउम्र जोड़ा बना रहे।
नायिका कहीं अपना रुमाल जानबूझ कर या धोखे से भूल जाती तो आशिक की पौ बारह मानिए। नायिका रुमाल पर सूई-धागे से दिल का चिन्ह बनाती तो आशिक समझता कि यह दिल उसी के लिए रुमाल पर निकाल कर रख दिया है। वह इसे सूंघ कर देखता कि चमेली के इत्र की महक है या नहीं और इससे उसके कुल-परिवार के रहन-सहन एवं आर्थिक स्थिति का अंदाजा लगाता। आशिक रुमाल पाकर रोमांचित हो उठता और कह उठता कि-इस तरह के रुमाल तो मसूरी के माल रोड़ पर मिला करते थे। ऐसा ही रुमाल सोहनी ने अपने महिवाल को दरिया-ए-चिनाब के किनारे दिया था और महिवाल ने उसे ताउम्र अपने गले से बांधे रखे था। उस वक्त मान्यता थी कि रुमाल का तोहफ़ा देने से प्रेम सफ़ल हो जाता है। स्थानीय बोलियों एवं भाषाओं में रुमाल को लेकर प्रेम के गीत लिखे गए जिन्हे आज तक ग्रामीण अंचलों में गाया जाता है।
फ़िल्म वालों ने भी रुमाल का प्रचार-प्रसार करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। फ़िल्मों एवं फ़िल्मी गीतों में रुमाल का इस्तेमाल धड़ल्ले से होने लगा। जब प्राण जैसा उम्दा खलनायक गले में रुमाल बांधकर रामपुरी चाकू परदे पर लहराता था तो दर्शक सिहर उठते थे और यही रुमाल देवानंद गले में डाल कर एक गीत गाता था तो सिनेमा हॉल सीटियों से गुंज उठता था। फ़िल्मी गीत भी चल पड़े -"हाथों में आ गया जो कल रुमाल आपका, बेचैन केर रहा है ख्याल आपका" दूंगी तैनू रेशमी रुमाल,ओ बांके जरा डेरे आना, ओ रेशम का रुमाल गले पे डालके, तु आ जाना दिलदार, मै दिल्ली का सुरमा लगा के अरे कब से खड़ी हूँ दरवज्जे पे, उलझे से गाल वाला,लाल लाल रुमाल वाला। इस तरह फ़िल्मों मे रुमाल अब तक छाया हुआ है।
जहाँ एक तरफ़ यह रुमाल प्रेमियों को आकर्षित करता रहा वहीं दूसरी तरफ़ इसने बेरहमी से कत्ल भी किए। इतिहास में जब दुनिया के सबसे खुंखार सीरियल किलर का जिक्र आता है तो पीले रुमाल की क्रूरता भी सामने आती है। बेरहाम नामक इस बेरहम ठग को खून से डर लगता था, यह अपने शिकार की हत्या पीले रुमाल से गला घोंट कर करता था। 1765-1840 तक इस बेरहम खूनी का दौर चला। व्यापारी हो या फिर तीर्थयात्रा पर निकले श्रद्धालु या फिर चार धाम के यात्रा करने जा रहे परिवार, सभी निकलते तो अपने-अपने घरों से लेकिन ना जाने कहां गायब हो जाते, यह एक रहस्य बन गया था। काफिले में चलने वाले लोगों को जमीन खा जाती है या आकाश निगल जाता है, किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था।यह यात्रियों के दल में शामिल होकर उन्हे हत्या करने के पश्चात लूट लेता था और उनकी लाशें दफ़ना देता था जिससे उनका नामो-निशान ही नहीं मिलता था।सन् 1809 मे इंग्लैंड से भारत आने वाले अंग्रेज अफसर कैप्टन विलियम स्लीमैन को ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगातार गायब हो रहे लोगों के रहस्य का पता लगाने की जिम्मेदारी सौपी। तब 10 वर्षों की गुप्तचरी के पश्चात इस पीले रुमाल वाले खूनी को गिरफ़्तार किया जा सका। बताते तो ये भी है कि स्लीमैन का एक पड़पोता इंग्लैड में रहता है और उसने अपने ड्राइंगरुम में उस पीले रुमाल को संजों कर रख रखा है।
भारत में हिमाचल के चंबा का रुमाल अपनी बेमिसाल कढाई के लिए प्रसिद्ध है। सूती के कपड़ों पर जब रेशम के चमकीले रंग-बिरंगे धागों से कलाकार जब अपनी कल्पनाओं की कढाई करते हैं तो वह सजीव हो उठती है। इन रुमालों पर की गयी कलाकारी को देखकर ऐसा लगता है मानो चित्र अब बोल पड़ेगें। लोग कढाई की इस बारीक कला को देख कर आश्चर्य चकित हो जाते हैं। चम्बा में बनने वाले रुमालों पर न केवल रामायण, महाभारत, श्रीमदभागवत, दूर्गासप्तशती, और कृष्ण लीलाओं को भी काढा जाता है बल्कि राजाओं के आखेट का भी सजीव चित्रण किया जाता है। यह रुमाल एक वर्ग फ़ीट से लेकर 10 वर्ग फ़ीट तक के आकार में होते हैं। चम्बा की रुमाल कढाई प्राचीन हस्तकला का नमूना है बल्कि एतिहासिक महत्व भी रखती है। इसका पंजीयन बौद्धिक सम्पदा अधिनियम के तहत करा लिया गया है। जिससे रुमाल निर्माण की हस्तकला को संरक्षण देकर बचाया जा सके।
वर्तमान ने कागज के नेपकीन बाजार में आ गए हैं। इनका प्रचलन रुमालों को बाजार से बाहर नहीं कर पाया है। रुमाल की अपनी अलग ही महत्ता है। आज भी हस्त निर्मित रुमाल बनाए जा रहे हैं। सूती एवं रेशमी वस्त्र पर विभिन्न माध्यमों से कढाई एवं प्रिंटिग हो रही है। जिनमें हाथों से किए गए बंधेज के काम में लगभग 150 तरह के डिजाईन बनाए जाते हैं तथा मशीन एवं कम्प्युटर की सहायता से हजारों डिजाईन बनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त बुटिक प्रिंट, टैक्स्चर प्रिंट, फ़ैब्रिक पेंटिंग, क्रोशिया वर्क, ब्लॉक प्रिंट, सैटिंग, वेजीटेबल प्रिंट, स्क्रीन प्रिंट, थ्री डी कलर, ग्लो पैंटिंग, स्प्रे पेंटिंग, थ्रेड पैंटिंग, मारबल पैंटिग, स्मोक पैंटिग, गोदना पैंटिंग, एवं फ़ैंसी रुमाल भी बनाए जा रहे हैं। समय कितना भी बदल जाए लेकिन रुमालों का चलन रहेगा और जनमानस को अपने नए-नए रुपों में आकर्षित करता रहेगा।
भारत में रुमाल की जगह अंग वस्त्रम् उत्तरीय का प्रचलन था, जिसे कालान्तर में अंगोछा या गमछा का नाम दिया गया। गमछा या अंगोछा सभी ॠतुओं में मनुष्य के काम आता है। महीन धागों से बना हुआ वजन में हल्का वस्त्र सर्दी, गर्मी से रक्षा करता है तो वर्षाकाल में भीगे हुए शरीर को पोंछने के काम आता है। बाजार जाने पर थैला नहीं है तो अंगोछा ही सब्जी रखने के काम आ जाता है। भोजन के वक्त थाली के अभाव में भोजन करने के भी काम आ जाता है। अंगोछा का प्रचलन वर्तमान में भी है। लोग प्रदूषण से बचने के लिए मुंह ढंक कर शहर में घूमते-फ़िरते मिल जाते हैं। अंग्रेजों के साथ रुमाल आने पर इसे भारतीय जनमानस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। कोट-पतलून-बुशशर्ट के साथ-साथ रुमाल भी वेशभूषा का आवश्यक अंग बन गया। इस तरह अंग वस्त्रम् उत्तरीय के लघु रुप रुमाल की यात्रा प्रारंभ हो गयी। जो नजले से टपकते नाक, एवं पशीने से लथपथ मुंह पोंछने से चलकर आशिकों की रुह में समा गया। कमाल का रुमाल है।
वो भी क्या दिन थे जब आशिक लड़कियों के रुमाल के लिए मरा करते थे |अगर गलती से किसी लड़की का रुमाल मिल जाए तो खुद को खुशनसीब समझते थे| उस रुमाल को जान से भी ज्यादा प्यार करते| उसे तकिये के नीचे रख के सोते थे। रुमाल प्रेमियों को बहुत भाया। रंग-बिरंगे रुमालों पर विभिन्न प्रकार के चित्र एवं चिन्ह बनाए जाते हैं। किन्ही पर नाम के प्रथम अक्षर वर्णित होते हैं। पंडुक पक्षीयों का जोड़ा रुमाल पर शोभायमान होता है। जिस तरह जीवन पर्यन्त पंडूक पक्षी का प्रेम और जोड़ा बना रहता है उसी तरह प्रेमी-प्रेमिकाओं का भी ताउम्र जोड़ा बना रहे।
नायिका कहीं अपना रुमाल जानबूझ कर या धोखे से भूल जाती तो आशिक की पौ बारह मानिए। नायिका रुमाल पर सूई-धागे से दिल का चिन्ह बनाती तो आशिक समझता कि यह दिल उसी के लिए रुमाल पर निकाल कर रख दिया है। वह इसे सूंघ कर देखता कि चमेली के इत्र की महक है या नहीं और इससे उसके कुल-परिवार के रहन-सहन एवं आर्थिक स्थिति का अंदाजा लगाता। आशिक रुमाल पाकर रोमांचित हो उठता और कह उठता कि-इस तरह के रुमाल तो मसूरी के माल रोड़ पर मिला करते थे। ऐसा ही रुमाल सोहनी ने अपने महिवाल को दरिया-ए-चिनाब के किनारे दिया था और महिवाल ने उसे ताउम्र अपने गले से बांधे रखे था। उस वक्त मान्यता थी कि रुमाल का तोहफ़ा देने से प्रेम सफ़ल हो जाता है। स्थानीय बोलियों एवं भाषाओं में रुमाल को लेकर प्रेम के गीत लिखे गए जिन्हे आज तक ग्रामीण अंचलों में गाया जाता है।
फ़िल्म वालों ने भी रुमाल का प्रचार-प्रसार करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। फ़िल्मों एवं फ़िल्मी गीतों में रुमाल का इस्तेमाल धड़ल्ले से होने लगा। जब प्राण जैसा उम्दा खलनायक गले में रुमाल बांधकर रामपुरी चाकू परदे पर लहराता था तो दर्शक सिहर उठते थे और यही रुमाल देवानंद गले में डाल कर एक गीत गाता था तो सिनेमा हॉल सीटियों से गुंज उठता था। फ़िल्मी गीत भी चल पड़े -"हाथों में आ गया जो कल रुमाल आपका, बेचैन केर रहा है ख्याल आपका" दूंगी तैनू रेशमी रुमाल,ओ बांके जरा डेरे आना, ओ रेशम का रुमाल गले पे डालके, तु आ जाना दिलदार, मै दिल्ली का सुरमा लगा के अरे कब से खड़ी हूँ दरवज्जे पे, उलझे से गाल वाला,लाल लाल रुमाल वाला। इस तरह फ़िल्मों मे रुमाल अब तक छाया हुआ है।
जहाँ एक तरफ़ यह रुमाल प्रेमियों को आकर्षित करता रहा वहीं दूसरी तरफ़ इसने बेरहमी से कत्ल भी किए। इतिहास में जब दुनिया के सबसे खुंखार सीरियल किलर का जिक्र आता है तो पीले रुमाल की क्रूरता भी सामने आती है। बेरहाम नामक इस बेरहम ठग को खून से डर लगता था, यह अपने शिकार की हत्या पीले रुमाल से गला घोंट कर करता था। 1765-1840 तक इस बेरहम खूनी का दौर चला। व्यापारी हो या फिर तीर्थयात्रा पर निकले श्रद्धालु या फिर चार धाम के यात्रा करने जा रहे परिवार, सभी निकलते तो अपने-अपने घरों से लेकिन ना जाने कहां गायब हो जाते, यह एक रहस्य बन गया था। काफिले में चलने वाले लोगों को जमीन खा जाती है या आकाश निगल जाता है, किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था।यह यात्रियों के दल में शामिल होकर उन्हे हत्या करने के पश्चात लूट लेता था और उनकी लाशें दफ़ना देता था जिससे उनका नामो-निशान ही नहीं मिलता था।सन् 1809 मे इंग्लैंड से भारत आने वाले अंग्रेज अफसर कैप्टन विलियम स्लीमैन को ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगातार गायब हो रहे लोगों के रहस्य का पता लगाने की जिम्मेदारी सौपी। तब 10 वर्षों की गुप्तचरी के पश्चात इस पीले रुमाल वाले खूनी को गिरफ़्तार किया जा सका। बताते तो ये भी है कि स्लीमैन का एक पड़पोता इंग्लैड में रहता है और उसने अपने ड्राइंगरुम में उस पीले रुमाल को संजों कर रख रखा है।
भारत में हिमाचल के चंबा का रुमाल अपनी बेमिसाल कढाई के लिए प्रसिद्ध है। सूती के कपड़ों पर जब रेशम के चमकीले रंग-बिरंगे धागों से कलाकार जब अपनी कल्पनाओं की कढाई करते हैं तो वह सजीव हो उठती है। इन रुमालों पर की गयी कलाकारी को देखकर ऐसा लगता है मानो चित्र अब बोल पड़ेगें। लोग कढाई की इस बारीक कला को देख कर आश्चर्य चकित हो जाते हैं। चम्बा में बनने वाले रुमालों पर न केवल रामायण, महाभारत, श्रीमदभागवत, दूर्गासप्तशती, और कृष्ण लीलाओं को भी काढा जाता है बल्कि राजाओं के आखेट का भी सजीव चित्रण किया जाता है। यह रुमाल एक वर्ग फ़ीट से लेकर 10 वर्ग फ़ीट तक के आकार में होते हैं। चम्बा की रुमाल कढाई प्राचीन हस्तकला का नमूना है बल्कि एतिहासिक महत्व भी रखती है। इसका पंजीयन बौद्धिक सम्पदा अधिनियम के तहत करा लिया गया है। जिससे रुमाल निर्माण की हस्तकला को संरक्षण देकर बचाया जा सके।
वर्तमान ने कागज के नेपकीन बाजार में आ गए हैं। इनका प्रचलन रुमालों को बाजार से बाहर नहीं कर पाया है। रुमाल की अपनी अलग ही महत्ता है। आज भी हस्त निर्मित रुमाल बनाए जा रहे हैं। सूती एवं रेशमी वस्त्र पर विभिन्न माध्यमों से कढाई एवं प्रिंटिग हो रही है। जिनमें हाथों से किए गए बंधेज के काम में लगभग 150 तरह के डिजाईन बनाए जाते हैं तथा मशीन एवं कम्प्युटर की सहायता से हजारों डिजाईन बनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त बुटिक प्रिंट, टैक्स्चर प्रिंट, फ़ैब्रिक पेंटिंग, क्रोशिया वर्क, ब्लॉक प्रिंट, सैटिंग, वेजीटेबल प्रिंट, स्क्रीन प्रिंट, थ्री डी कलर, ग्लो पैंटिंग, स्प्रे पेंटिंग, थ्रेड पैंटिंग, मारबल पैंटिग, स्मोक पैंटिग, गोदना पैंटिंग, एवं फ़ैंसी रुमाल भी बनाए जा रहे हैं। समय कितना भी बदल जाए लेकिन रुमालों का चलन रहेगा और जनमानस को अपने नए-नए रुपों में आकर्षित करता रहेगा।
बहुत जानकारीपूर्ण रही रुमाल गाथा....
जवाब देंहटाएंआज तो रूमाल पर यह रूमानी पोस्ट बड़ी शानदार रही. एक थ्रिलर फिल्म में रूमाल पर कढ़े इनीशियल के चलते कातिल को फिल्म के अन्त में ही पकड़े जाने में कामयाबी मिल पाती है...
जवाब देंहटाएंvaah lalit bhaai rumaal ki mhimaa rumaal kaa itihaas pdh kar mzaa aa gyaa ab rumaal ka striling kaa bhi koi itihaas btaaiye nyi janakari ke liyen dhnyvaad . akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंवाह, मानों रुमाली रोटी की पूरी दावत.
जवाब देंहटाएंरुमाल मचाए धमाल
जवाब देंहटाएंलेखनी में अजब जमाल
ताजगी का उड़ाते गुलाल
ललित जी करें कमाल
देखकर कर लेखनी की चाल
हम भी ठोकने आए ताल
जय हो!
देगी तैनू रुमाल ...और फिर रुमाल से हत्यारों की चर्चा ..
जवाब देंहटाएंखबरदार कर ही दिया रुमाल लेने वालों को ..:)
बढ़िया रुमाली चर्चा !
ज्ञानवर्धक आलेख. खूबसूरत प्रस्तुति . आभार .
जवाब देंहटाएंरोचक तथ्यों से भरे सुन्दर पोस्ट
जवाब देंहटाएंशानदार..जानदार.. वजनदार..पोस्ट !
जवाब देंहटाएंभैया, लेडिस रुमाल और जेन्टस रुमाल का विभाजन किसके शासनकाल में हुआ था ☺ ☺ ☺ ☺
सिर पर टोपी लाल, हाथ में रेशम का रुमाल...
जवाब देंहटाएंओ ललित भाई तेरा क्या कहणा...
जय हिंद...
रोचक लेख!
जवाब देंहटाएंएक समय ऐसा भी था जब ठगों के गिरोह रेशमी रूमाल को अस्त्र बना कर बगैर रक्तपात किए सैकड़ों लोगों की हत्या कर दिया करते थे।
@हेमन्त वैष्णव
जवाब देंहटाएंलेडिस रुमाल और जेन्टस रुमाल का विभाजन राजा फ़ोकलवा के शासन काल में हुआ था।:)
रुमाल के विषय में विस्तार से जानकर अच्छा लगा....आभार !!
जवाब देंहटाएंललित जी , रुमाल का ज़िक्र एक अन्य गीत " आते जाते खूबसूरत आवारा सड़कों पे ..........." में भी आया है. परन्तु रुमाल utility item होने के साथ साथ रोमांस का हिस्सा या साधन तो है ही . Shakespeare के "Othello " नाटक में रुमाल ही Desdemona के दुखद अंत का कारण बनता है क्योंकि रुमाल के माध्यम से ही Iago जो नाटक का खलनायक है , Othello के ह्रदय में Desdemona की वफादारी के प्रति संदेह उत्पन्न करने में सफल होता है .
जवाब देंहटाएंरोचक लेख !
रूमाल का इतिहास बहुत रोचक लगा....
जवाब देंहटाएंअंग्रेज अफसर कैप्टन विलियम स्लीमैन ने जिन ठग पिंडारियों का सफ़ाया किया था वे भी रूमाल से गला घोंट कर हत्या करते थे।
रोचक तथ्यों से भरे सुन्दर आलेख के लिए हार्दिक बधाई।
छा गए गुरू |
जवाब देंहटाएंजीवन के बहुत से पहलुओं के साक्षी रुमाल के बारे में रोचक आलेख के लिये साधुवाद
जवाब देंहटाएंबेरहम शब्द क्या बेरहाम से ही बना है या हत्यारे को बेरहम कहा जाता था जो अंग्रेजो के उच्चारण फ़र्क के कारण बेरहाम हो गया
जवाब देंहटाएंरोचक तथ्यों से भरा सुन्दर आलेख...
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक जानकारी ...रूमाल का इतिहास और उसकी महत्ता जान कर अच्छा लगा ...
जवाब देंहटाएंवाह अथ श्री रुमाल कथा बहुत रोचक रही.एक रोटी भी होती है रूमाली बहुत स्वादिष्ट.
जवाब देंहटाएंललित सर,नमस्कार.
जवाब देंहटाएंआपने तो रूमाल का इतिहास ही सामने रख दिया.पहली बार आया हूँ,पर मजा आ गया.
रूमाल पर इतना सुन्दर शोधपरक लेख .....वास्तव में मज़ा आ गया
जवाब देंहटाएंरुमाल पर इतनी सार्थक, ज्ञानवर्धक, रोचक चर्चा... वाह भईया...आनंद आ गया... सादर....
जवाब देंहटाएंवाह...
जवाब देंहटाएंek roomal par angochhe jitani jankariyan bahut khoob....
जवाब देंहटाएं....ज्ञानवर्धक, रोचक चर्चा
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर जानकारी जी,जब तक नाक हे रुमाल तो रहेगा ही तब तक:)
जवाब देंहटाएंरोचक जानकारी।
जवाब देंहटाएंछत्तीसगढ़ी में रुमाल को ‘उरमाल‘ भी कहते हैं। यह अपभ्रंश मूल शब्द से कहीं ज्यादा सार्थक और सटीक हो गया है। देखिए- उरमाल बराबर उर धन माल अर्थात गले में लटकने वाली माला जो हृदय में धारण की गई हो।...नकारात्मक और सकारात्मक, दोनों अर्थों में फिट।
खूब.. एक छोटी सी ज़रूरत की चीज़ पर सुन्दर आलेख..
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