रतनपुर दुर्ग का मोतीपुर द्वार |
बिलासपुर से रतनपुर होते हुए अंबिकापुर जाने वाले मार्ग पर ५० किलोमीटर दूरी पर उत्तरपूर्व में पाली स्थित है। वेरना सर्पीले रास्ते को नयी-नवेली दुल्हन की तरह बलखाते बड़ी सफ़ाई से नाप रही थी और पंकज कुशलता से हांक रहा था। गाड़ीवाले गाड़ी धीरे हांक रे……जिया उड़ा जाए लड़े आँख रे…… गाड़ी हांकने में जोर भी बहुत पड़ता है और आँख लड़ने के बाद तो आँख आने का खतरा कई गुना हो जाता है। जिनके आँख नहीं उनके भी आ जाती है। आलोक धरती से लेकर अंबर तक फ़ैल जाता है। सम्पूर्ण चराचर जगत प्रकाशमान होकर उमंगों से भर जाता है। हरियाली और मौसम बेईमान बनने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा।
ढाबा शेरे पंजाब पाली और पंकज सिंह |
उत्तर से उमड़ती-घुमड़ती घटाएं प्रभावोत्पादक बन रही थी। वो आँख ही क्या जो कभी लड़े न, लड़ गयी तो आए न। आए तो फ़िर जाए न और फ़िर कभी लड़ने के काबिल रहे न। आंखे भी बड़े कमाल की हैं न। हमारी आँखें तो अब लड़ने-झगड़ने लायक बची नहीं। काला चश्मा लगाने के बाद दीदे फ़ाड़ कर देखने से भी दिखाई नहीं देता। काला चश्मा बड़ा कारगर होता है आँखों की बीमारी के लिए पास फ़टकने ही नहीं देता। गाड़ी पाली की ओर चली जा रही है और आँखे अपने काम में लगी है। दोपहर को आलस आ ही जाता है, पाली पहुंचने तक भूख लग चुकी थी।
पाली का शिव मंदिर और यायावर |
हम वहाँ खाने का कोई अच्छा ढाबा ढूंढ रहे थे, मुझे याद आया कि एक ढाबे में कई वर्ष पूर्व भोजन किया था। वहीं चला जाए, लेकिन वह ढाबा दिखाई नहीं दिया, ढाबे की खोज में हम पाली की बाऊंड्री से पार हो चुके थे। आखिर फ़िर गाड़ी लौटा कर ढाबा ढूंढना शुरु किया। आखिर मनपसंद शेरे-पंजाब ढाबा मिल ही गया। शेरे पंजाब ढाबे हर जगह कमो-बेश मिल ही जाते हैं। जब से पंजाब के जंगलों का सफ़ाया हुआ सारे शेर जंगलों की तरफ़ आ गए। इधर जंगलों में कोई शिकार न मिला तो ढाबे ही खोल लिए। आम के आम और गुठली के दाम। खाने-खिलाने और पीने-पिलाने का इंतजाम तो हो गया। हमने यहीं खाने का आर्डर दिया। तंदूरी रोटियों के साथ करी का भरपूर स्वाद लिया। अब हम चल पड़े पाली मंदिर के दर्शनावलोकन करने।
शिव मंदिर का गर्भ गृह |
पाली का मंदिर अपनी शिल्पकला के लिए जग प्रसिद्ध है। केन्द्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अंतर्गत इसे चार दीवारी से घ्रेरा गया है। लोहे के बड़े प्रवेश द्वार से हमने मंदिर परिसर में प्रवेश किया। परिसर में मखमली घास बिछाकर सुंदर हरे गलीचे के साथ ही बगीचा तैयार किया गया है। मुख्यद्वार के समीप ही मंदिर के केयर टेकर का निवास है। मंदिर के समीप ही एक सुंदर जलाशय है। अनुमान है कि यहाँ पूर्व में और भी मंदिर होगें जो काल की भेंट चढ गए। यहाँ आवाज देने पर संतोष त्रिपाठी जी अपने दो सहयोगियों के साथ मिले। इन्होने बताया कि ये पहले बारसुर के मंदिर में थे। अभी कुछ महीनों से ही स्थानांतरित होकर पाली आए हैं। रेड सेंड स्टोन से तैयार पाली के शिव मंदिर की कारीगरी मनमोहक एवं नयनाभिराम है। मंदिर के भीतर और बाहर प्रस्तर मूर्तियां उत्कीर्ण की गयी हैं। मंडप एवं जगती का पुनर्निर्माण हुआ है तथा पुरातत्व विभाग की देख-रेख में मंदिर अपनी पुरानी शानौ शौकत के साथ आकाश से टक्कर लेता हुआ अडिग, अविचल विद्यमान है।
मंदिर के भीतर शिलालेख |
मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करने पर शिल्पकारी दिखाई देती है। मन श्रद्धा से भर जाता है उन शिल्पकारों के प्रति जिन्होने अनगढ पत्थरों को अपनी छेनी-हथौड़ी से तराश कर जीवंत कर दिया। नयनाभिराम शिल्प मन को मोह लेता था। गर्भ गृह का द्वार सुंदर लता वल्लरियों से अलंकृत है। बांई तरफ़ की दीवार पर ब्रह्मा विराजमान तथा चौखट के बाई तरफ़ दशावतार उपस्थित हैं। मंदिर के वितान पर मनमोहक अंकन विशिष्टता प्रदान करता है। गर्भ गृह का यह अलंकरण अनुपम है। दाईं तरफ़ स्तंभ पर उत्कीर्ण "श्रीमद जाजल्लादेवस्य कीर्ति रिषम" शिलालेख दिखाई देता है। पाली के प्राचीन शिव मंदिर की हरिहर प्रतिमा, इसका निर्माण 11वीं सदी में कलचुरी शासनकाल में राजा श्री मल्लदेव के पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय ने कराया था। शिलालेख द्वारा अनुमान है कि इसका जीर्णोद्धार बारहवीं शताब्दी में रतनपुर के हैहयवंशीय राजा जाज्जल्वदेव प्रथम ने करवाया।
हरिहर की अद्भुत प्रतिमा |
मंदिर के बाहरी परकोटों पर देवी-देवताओं के साथ व्यालाकृति, अप्सराओं की मूर्तियां अंकित हैं। व्याघ्र व्याल, हस्ति व्याल, वराह व्याल के साथ अन्य प्रकार के व्याल भी अंकित हैं। मंदिर के बांए तरफ़ की दीवार पर एक अद्भुत प्रतिमा है,जिसे हरिहर कहते हैं। इस मूर्ति में शिव और विष्णु के अर्धांग बने हुए हैं। दोनो अर्धागों से यह प्रतिमा पूर्ण हुई है। बाईं तरफ़ शिव एवं दायीं तरफ़ विष्णु का अंकन शिल्पकार ने किया है। शिव को त्रिशूल,डमरु एवं नदी के साथ अंकित किया है और विष्णु का शंख एवं गदा के साथ अंकन है। इस तरह की शिल्पाकृति मुझे अभी तक अन्य स्थान पर देखने नहीं मिली। अनुपम शिल्प का निर्माण हुआ है इस प्रतिमा के रुप में। शिल्पकार की कल्पना को नमन करना चाहिए।
पाली का शिव मंदिर |
मंदिर के दाएं तरफ़ प्रेमासक्त,कामासक्त आलिंगनबद्ध अप्सराओं एवं गंधर्वों का अंकन है। प्रतिमाएं सुंदर एवं सुडौल होने के साथ आकर्षित भी करती हैं। खजुराहो का शिल्प भी यहां देखने मिलता है। एक मूर्ति में संभोग से समाधि की ओर जाते हुए गंधर्व एवं अप्सरा दिखाई दिए। मंदिरों में मिथुन मूर्तियाँ उत्कीर्ण करने की परम्परा से प्रतीत होता है कि यौनशिक्षा का माध्यम कभी मंदिरों का शिल्प रहा होगा। हमने प्रतिमाओं के चित्र लिए, मंदिर के चारों तरफ़ इतनी मूर्तियाँ हैं कि चित्र लेने में आधा दिन निकल जाए। हमारे पास समय की कमी थी इसलिए मंदिर की एक परिक्रमा कर पुन: मूर्तियों को देखा और उन्हे बनाने वाले अनाम शिल्पकारों को नमन करके बाहर आ गए। इस बीच संतोष त्रिपाठी ने कहा, आप पुरी जाएं तो आपके रहने और खाने का पूरी जिम्मेदारी लेने को तैयार हूँ। हमने संतोष जी को धन्यवाद दिया और विदा लेकर हम चैतुरगढ की ओर चल पडे। मौसम यथावत बना हुआ था…॥ आगे पढें……
सुन्दर पाषाण अभिलेख !
जवाब देंहटाएंमिथुनरत मूर्ति को गन्धर्व , अप्सरा क्यों कहा आपने ?
इस मामले में मनुष्य / देव / दानव / गन्धर्व वगैरह वगैरह को 'काम'रेड कह सकते हैं क्या ? :)
@अली सैयद
जवाब देंहटाएं@लेखक के मन की मौज,समझने वाले समझ जाएं, न समझे वो अनाड़ी हैं:)
@वहाँ लालझंडी नही लगी है। :)
@ लेखक के मन की मौज ,
जवाब देंहटाएंमुझे लगा कि वो बात आपने सीरियसली कही है :)
@अली सैयद
जवाब देंहटाएंगंभीरता से दिल पर बोझ होने का खतरा है, इसलिए हल्के-फ़ुल्के में ही लेना प्रियकर है। :)
उस समय के अन्य स्थापत्य शैलियों में कितनी गहरी समानता है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया परिचय कराया पाली का...
जवाब देंहटाएंआभार !
इतनी लंबी यात्रा मुफ्त में करवाने के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंस्वास्थ्य से सम्बंधित कभी भी किसी भी जानकारी के लिए आप फोन भी कर सकते हैं.
खजुराहो का शिल्प भी यहां देखने मिलता है। एक मूर्ति में संभोग से समाधि की ओर जाते हुए गंधर्व एवं अप्सरा दिखाई दिए। मंदिरों में मिथुन मूर्तियाँ उत्कीर्ण करने की परम्परा से प्रतीत होता है कि यौनशिक्षा का माध्यम कभी मंदिरों का शिल्प रहा होगा..............पर खुजराहों ,अजंता एलोरा और अब पाली ...हर जगह इस तरह की ही मूर्ति निर्माण क्यों किया गया ?
जवाब देंहटाएंइस के पीछे शिल्पकारों की क्या सोच रही होगी ????
अभिलेख में कलचुरि शासक जाजल्लदेव द्वारा जीर्णोद्धार कराने का जिक्र है. मिथुन मूर्तियों की भाषा तो आपने बेहतर पढ़ी है, अन्य पाठक भी समझदार हैं.
जवाब देंहटाएं@इस मामले में मनुष्य / देव / दानव / गन्धर्व वगैरह वगैरह को 'काम'रेड कह सकते हैं क्या ? :)
जवाब देंहटाएंक्या बोल दिया आपने....
वामपंथियों ने सुन लिया तो गज़ब हो जाएगा.
@ अभिलेख में कलचुरि शासक जाजल्लदेव द्वारा जीर्णोद्धार कराने का जिक्र है.
जवाब देंहटाएंअर्थात् यह मन्दिर 11 वीं शताब्दी से भी प्राचीन सिद्ध होता है।
अद्भुत शिल्प है इन प्राचीन मूर्तियों का, एक शिल्पकार ने शिल्पकार की कल्पना को अच्छी तरह समझा है.... सुन्दर आलेख के लिए आभार
जवाब देंहटाएंसटीक व सजीव वर्णन...
जवाब देंहटाएंकभी छायाचित्रकार को भी याद कर लिया करो.
जवाब देंहटाएंमिथुन मूर्तियों और अभिलेख का सुन्दर वर्णन साथ ही आपके यायावर जीवन को प्रणाम
जवाब देंहटाएंसजीव वर्णन
जवाब देंहटाएंआज भी हमारी शिल्प धरोहर सही सलामत है ...और आपके द्वारा हम ऐसी जगहों की तफरीह कर लेते है जहाँ जाने की हम सोच भी नहीं सकते ..बहुत ही गंभीर विषय है की उस समय ऐसी शिल्पकारी का बोल- बाला क्यों था ..? क्यों सभी जगह शिल्पों ने ऐसी मिथुन मूर्तियों का निर्माण करवाया ? जहाँ हम सभी व्यक्ति अपने बच्चो को साथ लेकर नहीं जा सकते...? क्यों उस युग में योन शिक्षा का माध्यम मंदिर थे ..? जब मैने खोजा तो मुझे मालुम हुआ की उस समय जब सभी लोग भक्ति के रंग में रंग गए थे और आगे की पीढ़ी उत्पन्न न होने की शंका से चिंतको ने विचार किया और ऐसी भोग विलास की शिल्प बनवाई और उन्हें मंदिरों के माध्यमों से जन साधारण में प्रचलित करवाई जिससे उस समय की जनता जो भक्ति के रंग में रंगी थी वो वापस भोग की दुनियां में लौट आई....इसी कारण आज ज्यादातर मंदिर में ही मिथुन की तस्वीरे होती है ....
जवाब देंहटाएंपुरातत्व से आपका रोमांस दिनों-दिन परवान चढ़ रहा है
जवाब देंहटाएंजब-जब समाज में निवृत्ति की प्रधानता होने लगी समाजिक जीवन की वास्तविकताओं से पलायन का माहौल बन गया तब ,प्रवृत्ति मार्ग की ओर आकर्षित करने के लिये,सामाजिकता और सांसारिकता के निर्वाह के लिये तत्कालीन विचारकों को यही उपाय समझ में आया .
जवाब देंहटाएंअद्भुत स्थान का सजीव चित्रण।
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है भारत के प्राचीन मंदिर प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों पक्षों की वास्तविकता का आभास कराते थे।मंदिर की परिकल्पना मानव शरीर के अनुरूप की गयी थी जिसके बाह्य भाग में भौतिक वासनाएं, कामनाएं हैं जबकि आंतरिक तल पर गर्भगृह में देवरूप आत्मा स्थित है। स्वयं को तभी जाना जा सकता है जब हम बाहरी भौतिक संसार की वास्तविकताओं को जान कर अपने अंतर में आत्मिक धरातल पर उतर जाएं।
जवाब देंहटाएंवो काल व्यक्ति के उन्मुक्त व स्वतंत्र विचारों का रहा होगा।दूसरा तथ्य ये भी हो सकता है की काम अर्थ मोक्ष ही जीवन का सही उपक्रम है।तो मंदिर में मोक्ष से पूर्व काम की प्राप्ति का गुप्त सन्देश इन मूर्तियों के माध्यम से दिया गया हो।
जवाब देंहटाएंज्योति जी, इस विषय में अन्य जानकारियाँ इस ब्लॉग़ पर हैं…… http://chhattisgarhturism.blogspot.in/2014/06/blog-post_29.html
हटाएंNICE information sir g
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