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काली दास का मेघदूत |
28 जुलाई 2012 का दिन तय हुआ दो दिन की घुमक्कड़ी के लिए।
पंकज सिंग ने नयी वेरना कार ली, तब से चलभाष और लिखचित पर बिलासपुर से घूमने के लिए चलने की तारीखें छ: माह से तय हो रही थी। पर संयोग नहीं बन रहा था। 27 जुलाई को पंकज ने फ़िर लिखचित की तो मैने बिलासपुर पहुंचने के लिए हाँ कर दी। बारिश लगातार जारी थी और वह बारिश में ही घूमना चाहता था। साथ ही हमें भी लपेटे में लेने की चाह थी। 28 को बिलासपुर पहुंचना तय हुआ। सुबह से घनघोर बारिश हो रही थी। मेरा मन, चौधरी अजित सिंग हो गया था। कभी इधर डोल रहा था कभी उधर। 11 बजे तक मन नहीं बना जाने के लिए,
स्नानाबाद से आते ही मन बन गया और दोपहर 1 बजे की लोकल से बिलासपुर जाने का मुहूर्त निकल ही गया। मतलब यू पी ए हो या एन डी ए अपने को तो केबिनेट मंत्री बना दो बस। बाकी किसी से कोई लेना देना नहीं। पंकज को फ़ोन आने का समाचार दिया और चल पड़े बिलासपुर की ओर।
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लोकल की सवारी |
रिमझिम वर्षा के बीच स्टेशन पहुंचे, ट्रेन समय पर आ गयी थी। बैठने के लिए सीट भी मिल गयी आराम से, अब नो टेंशन, चिंता नको। तीन घंटे आराम से बीत जाएगें बरसाती फ़ुहारों के बीच। मेरी सामने की सीट पर एक बिहारी युवा दो-दो चलभाष लिए चुहल कर रहा था। उसने अपने पास कई सिम रखे थे। कभी ये सिम तो कभी वो सिम। मैं आराम से बैठ कर उसकी गतिविधियाँ देख रहा था। पहले तो वह किसी को मिस कॉल करता, फ़िर जवाब आने पर 10-20 मिनट खूब बतियाता। उसकी बातें सिर्फ़ उसके काम को लेकर थी। बातें भी ऐसी कि जैसे पूरी कम्पनी का काम उसने ही संभाल रखा हो। छुटका बाबू से लेकर बड़का बाबू सबकी मानसिक हलचल उसने पढ़ रखी थी। किसका व्यवहार कैसा है? सभी की जानकारी दे रहा था। सीट पर पैंतरा बदलने के साथ चलभाष का सिम भी बदल रहा था। लोकल गाड़ी का मजा यह है कि सभी तरह की मूर्तियाँ इसमें मिल जाती हैं। दूध वाले स्टेशनों पर अपने डिब्बे चढा उतार रहे थे। साथ ही किन्नर भी चिकनों पर हाथ फ़ेर रहे थे। चिकने भी हाथ फ़ेरते ही डरकर 10-20 का नोट निकाल कर उनके हवाले करने लगे। कितना आतंक होता हैं किन्नरों का, चिकनों के चेहरे पर। उनकी दशा देखते ही बनती थी।
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शिवनाथ नदी |
खरामा-खरामा ट्रेन चलते हुए अपने गंतव्य की ओर बढ रही थी। मांढर, सिलयारी, बैकुंठ, तिल्दा, भाटापारा, निपनिया के बाद शिवनाथ नदी का पुल आ जाता है। शिवनाथ भी पानी से भरी लबालब चल रही है, कुछ नाविक डोंगी लेकर नदी में मछली मारने में लगे थे। उफ़नती नदी के बीच मछली मारना दुस्साहस ही काम है। बिल्हा स्टेशन पहुंच कर पंकज को फ़ोन लगाया और बिलासपुर पहुचने के समय की सूचना दी। बिलासपुर जाओ और
अरविंद झा से न मिलो, ऐसा नहीं हो सकता। वे बिलासपुर के ब्लॉग कोतवाल हैं। उन्हे नमस्कार तो कहना ही पड़ता है, अगर यात्रा की खैर चाहते हो तो। उन्होने बताया कि वे शनि मंदिर गए हैं। लेकिन ट्रेन के समय तक स्टेशन पहुंच जाएगें। ट्रेन बिलासपुर पहुंच गयी। पंकज को एक बार फ़िर फ़ोन लगाया। वह स्टेशन पहुंच गया था। अपनी काली घोड़ी पर शिरस्त्राण लगाए मुख्य द्वार पर तैयार था। हम स्टेशन के समीप स्थित अरविंद झा के घर गए, वहाँ चाय के साथ साहित्य चर्चा चलते रही। साथ ही आज मुझे
संज्ञा जी से भी मिलना था। उन्हे भी फ़ोन कर दिया था। चर्चा के दौरान उनका फ़ोन दो बार आ चुका था। हमने अरविंद से कल पुन: मिलने का वादा किया और संज्ञा जी के दौलतखाने की ओर चल पड़े।
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संज्ञा टंडन |
बिलासपुर के लिए पंकज उतना ही नया है जितना मैं। कॉलेज के प्रथम वर्ष में बिलासपुर में आयोजित राज्य स्तरीय व्हाली बाल टूर्नामेंट में खेलने के लिए पहली बार रायपुर संभाग की टीम से बिलासपुर पहुंचा था प्रतियोगिता के साप्ताहिक कार्यक्रम में। लाल बहादुर शास्त्री स्कूल में डेरा था हम लोगों का। उन दिनों की यादें चलचित्र सी चलने लगी दिमाग में। साथ ही कोतवाली के सामने का सिट डाऊन हेयर कंटिग सेलून भी याद आ गया। प्रतिदिन अरपा नदी में नहाते और तैयार होकर प्रतियोगिता स्थल पर पहुंच जाते थे। बिलासपुर के रास्तों को पहचानने की कभी कोशिश ही नहीं की। क्योंकि कोई न कोई स्थानीय बंदा हमेशा साथ होता था। संज्ञा जी से चलभाष पर संपर्क में थे। उन्होने जिस मंदिर का लोकेशन दिया, उसे पंकज ने कुछ और समझा तथा किसी दूसरे मंदिर में ले गया। आखिर हम आधे घंटे चक्कर लगाने के बाद ठिकाने पर पहुंच गए। संज्ञा जी बालकनी में खड़ी हमारी राह देख रही थी। घर में प्रवेश करते ही सीधे अपने स्टूडियों में ले गयी। यह स्टूडियो कम ब्लॉगर हाऊस भी हैं। यहीं से अपने ब्लॉग के द्वारा ग्लोबल होती हैं।
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संज्ञा टंडन स्टुडियो में |
संज्ञा जी की आवाज हमेशा हवा में गुंजती रहती है। उनके फ़ैंस की कोई कमी नहीं, बिलासपुर से उनकी आकाशवाणी सभी सुनते हैं और सी जी स्वर के माध्यम से हम। उनके पीसी से हम ओन लाईन हो गए। रेडियो पर चर्चा चालू थी। उनके कम्पोज किए कार्यक्रम सुन रहे थे। साथ ही उनके फ़ैंस के फ़ोन भी चल रहे थे, चिट्ठी-पत्री एवं फ़रमाईशी कार्यक्रमों में पत्रों को शामिल न करने की नाराजी को लेकर। ग्रामीण अंचल में रेडियो का जलवा आज भी कायम है। निठल्लों से लेकर कार्य में व्यस्त रहने वाले सभी लोग रेडियो सुनते हैं। एफ़ एम के आने के बाद रेडियो का चलन बढ चुका है। रेडियो खरीदना भी आसान और सस्ता हो गया। प्रत्येक चलभाष में रेडियो है। बस ट्यून कीजिए और सुनिए मनपसंद गीत और कार्यक्रम। चर्चा के बीच सही समय पर पकोड़े भी आ जाते हैं, इनकी मुझे जरुरत थी, साथ ही शुगर फ़्री चाय भी। पकोड़ों और चाय के बीच आगामी प्रोजेक्ट पर चर्चा होते रही। पंकज चलभाष पर चर्चारत था। उसके आते तक पकोड़े गायब हो गए। शाम ढलने लगी, अंधेरा होने लगा था। हमने संज्ञा जी से विदा ली और चल पड़े पंकज के दौलत खाने की ओर।
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चलो भाई, खाना हुआ तैयार |
पंकज का कहना था कि रात का खाना किसी होटल में खाया जाए क्योंकि उसका कुक छुट्टी पर था। मैने होटल में खाने से मना कर दिया और कहा कि घर चल कर दोनो मिलकर खाना बना लेगें। मेरे प्रस्ताव पर वह राजी हो गया। मनपसंद सब्जी ली। लेकिन बनाना दोनों को नहीं आता था। पंकज ने कहा कि मसाले के पैकेट पर रेसिपी लिखी है। उसे पढ कर बना लेगें, यह भी आईडिया कोई बुरा नही। घर पहुंच कर लिफ़ाफ़े में आ गए और भोजन की तैयारी करने लगे।
रोहतक के बाद खुद बना कर नहीं खाया था। पंकज ने चिकन साफ़ किया और हमने
विशेषज्ञ को फ़ोन लगा कर बनाने का तरीका पूछा। चिकन बनने लगा, पंकज का कहना था उसे आटा गुंथना नहीं आता तो हमने ही आटा गुंथा और पंकज ने रोटियाँ सेकी। दूसरी तरफ़ के चूल्हे पर थोड़े चावल भी चढा लिए। इस तरह सम्पूर्ण डाईट का इंतजाम हो गया। भोजन करते हुए तय हुआ कि रतनपुर होते हुए चैतुरगढ एवं तुमान चला जाए। साथ में
बाबू साहब भी रहेगें। उन्होने सुबह 9 बजे नेहरु चौक पहुंचना तय किया था। भोजन करके 12 बजे तक नेटियाते हुए अगले दिन की यात्रा के लिए भरपूर नींद लेने चले गए।
आगे पढें ……
इस तरह शुरू हुआ सिलसिला.
जवाब देंहटाएंसंज्ञा जी और पंकज के दौलत खाने या दौलतखाने?
@Rahul Singh - दौलतखाने पर दौलत खाने :)
जवाब देंहटाएंआना तो होगा एक दिन आपके दौलत खाने पर....शानदार!! बधाई!
जवाब देंहटाएंघुमक्कड़ी जिंदाबाद चल रही है . मांस भक्षण के बिना दौलत खाना खाना नहीं खिला सकता क्या !!:)
जवाब देंहटाएं@वाणी गीत
जवाब देंहटाएंमन रुचे भोजन और पर रुचे श्रृंगार
चलो भाई, खाना हुआ तैयार
जवाब देंहटाएं@ खाना तैयार है हम भी तैयार है जी
मेघदूत का फोटो बहुत ही सुंदर है। संज्ञा जी और रेडियो की चर्चा अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंनेटियाने के बाद आपका निंदियाना और मेरा टिपियाना.....अच्छा है।
कभी हमें भी तो ले चलो साथ में भाया !!
जवाब देंहटाएंसाथ न चल पाने का सदा अफसोस रहेगा
जवाब देंहटाएंआपको खाना बनाते देख तो भूख लग आयी..
जवाब देंहटाएं@ चिकन बनने लगा, पंकज का कहना था उसे आटा गुंथना नहीं आता तो हमने ही आटा गुंथा और पंकज ने रोटियाँ सेकी। दूसरी तरफ़ के चूल्हे पर थोड़े चावल भी चढा लिए। इस तरह सम्पूर्ण डाईट का इंतजाम हो गया
जवाब देंहटाएंअब आगे :
बस खाने वाले की कमी थी, दीपक बाबा दूर दिल्ली में बैठे थे, अत: मन मार अपना बनाया खाना खुद ही खाना पड़ा.
:)
देर आये दुरुस्त आये .
जवाब देंहटाएंहम भी कुछ बना खा आते हैं वापस
जवाब देंहटाएंचलभाष, लिखचित, "लाईक भिक्षाम देहि" , "कमेंट भिक्षाम देहि" जैसे अविष्कारों को आपका ही इंतज़ार था...........
जवाब देंहटाएंइन अविष्कारों साथ में एक नया बाद आबाद हो गया "स्नानाबाद"....
जवाब देंहटाएंयायावर के सुहाने सफ़र में हम सब साथ हैं चलते जाइये ...
रोचक प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा यात्रा वृत्तांत
जवाब देंहटाएंAcha lagta he apke soch ko padne me
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है सर जी!
जवाब देंहटाएंईद की ढेरों मुबारकबाद क़ुबूल फरमाइए!
सुहानी यायावरी जारी रहे ..
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं !!
यात्रा जारी रहे और लेखन भी । बारिश में घूमने का अपना ही मज़ा है । बिलासपूर के आसपास घूमने की जगहे भी खूब हैं ।
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