मंगलवार, 28 अगस्त 2012

चैतुरगढ से लाफ़ागढ की ओर --------- ललित शर्मा

पहाड़ की सुंदरता
चैतुरगढ से लौटते हुए रास्तों की ढलान से सामने सीना ताने खड़े विशालकाय पहाड़ अनुपम दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे। पहाड़ का जो दृश्य मेरे सामने था, कमाल का था, वह पहाड़ चोटी से लेकर तराई तक सीधा खड़ा था अर्थात कोई ढलान नहीं थी, जैसे किसी ने इसे चोटी से लेकर नीचे तक आरी से काट दिया हो। बंजी जम्पिंग या रॉक क्लाईम्बिंग करने वालों के आदर्श स्थान लगा। रॉक क्लाईम्बर्स के लिए तो चुनौती भी हो सकता है। इसकी ऊंचाई पर विशाल गुफ़ानुमा आकृति बनी हुई दिखाई दे रही थी। इस सुहाने दृश्य को कैमरे में कैद करने से स्वयं को रोक न सका। पंकज से कार रुकवाई और पहाड़ का चित्र लेने जंगल में घुस गया। जीवन चक्र सही चलता रहे तो पहाड़ सी जिंदगी भी कट जाती है खेलते कूदते। कहीं विघ्न हो जाए तो पल भी नहीं कटता। जीवन का फ़लसफ़ा यही है, पहाड़ को काटते रहो, छांटते रहो, चढते रहो ऊपर, बिना विश्राम के। एक दिन अवश्य ही विजय मिल जाएगी।


कृष्ण कुमार गोंड और ब्लागर जेमरा गांव में
रास्ते में आदिवासी गाँव जेमरा आया, तो यहाँ रुकने का मन हो गया, जैसे हारा हुआ सिपाही कहीं छांव में बैठ कर विश्राम कर ले और आगे की लड़ाई के लिए शक्ति विश्राम से शक्ति अर्जित कर फ़िर दुगनी शक्ति से जीतने के लिए युद्ध के मैदान में अग्रसर हो। रास्ते पर ही मुझे कृष्ण कुमार घ्रुव मिल गए। उनसे गाँव का नाम पूछो तो उन्होने जेमरा का नेवरिया पारा (जेमरा गाँव नया बसा मोहल्ला) बताया। उससे चर्चा होने लगी, आदिवासी गाँव में महुआ की दारु की चर्चा न हो ये तो हो ही नहीं सकता। परन्तु कृष्ण कुमार ने बताया कि उनके गाँव में कोई दारु नहीं बनाता। जिन्हे पीना होता है सरकारी भट्ठी से ही लाकर पीते हैं। हो सकता है कि वह हमारे रौब-दाब को देखकर झूठ बोल रहा होगा। क्योंकि आदिवासी गाँवों में स्वसेवन के लिए प्रति घर 5 लीटर तक महुआ की दारु बनाने की छूट है।

 चैतुरगढ की महामाया गाँव में 
मुख्य मार्ग से एक गली सामने के मोहल्ले में जाती है। वहाँ बने तिराहे पर एक पत्थर गड़ा है। उस स्थान को साफ़ सुथरा देखकर मैने कृष्ण कुमार से जिज्ञासावश पूछ लिया। तो उसने बताया कि इन्होने यह पत्थर चैतुरगढ की महामाया के नाम पर गड़ाया है। हम यहाँ पर महामाया का ही स्थान मानते हैं। क्योंकि त्यौहारों के अवसर पर चैतुरगढ दूर होने के कारण जाना कठिन हो जाता है। इसलिए इसी स्थान पर सभी पूजा-पाठ करके बकरों या अन्य जानवरों की बलि देते हैं। जहाँ मान लो वहीं देवी-देवता उपस्थित हैं। हमें चैतुरगढ की पहाड़ी पर दर्शन नहीं हुए महामाई के तो यहीं दर्शन कर लिए। मेरे पूछने पर उसने बताया कि यहाँ से थोड़ी दूर आगे जाने पर आदिवासी हास्टल है। वहाँ के गुरुजी के पास मोटरसायकिल है। हमने सोचा कि यह मिल जाए तो अधूरी यात्रा पूरी हो जाएगी। हम दुविधा में थे कि जाएं या नहीं। मन हमेशा जाने के पक्ष में ही रहता था।

ढेकी (प्राचीन यंत्र)
आस-पास धनकुट्टी या आटा चक्की नहीं दिखने पर मैने कृष्ण कुमार से गाँव में ढेकी के बारे में पूछा। तो उसने बताया कि गाँव में बहुत सारे घरों में ढेकी है। बस मेरा काम बन गया क्योंकि ढेकी की फ़ोटो मैं बहुत दिनों से लेना चाहता था पर मेरे गाँव में भी अब किसी के घर में ढेकी नहीं रही। सिर्फ़ फ़ोटो के लिए ही 5-7 गाँवों में चक्कर लगाना पड़ता। तब कहीं जाकर एकाध घर में धूल मिट्टी खाती हुई ढेकी मिलती। ढेकी सम्पन्न गृहस्थ का प्रतीक प्राचीन यंत्र हैं। लोग मुसल से कूट कर धान का छिलका निकालते थे। जिसमें समय और श्रम अधिक लगता था। इसके बाद ढेकी का अविष्कार हुआ, इसे सिर्फ़ एक आदमी खड़े-खड़े अपने पैरों से चलाता है और एक घंटे में दो-तीन बोरा धान से चावल निकाल लेता है। इसे चलाने के लिए बिजली की आवश्यकता नहीं होती। घर गृहस्थी खेती किसानी के प्राचीन यंत्रों को संजोने के क्रम मुझे यहाँ ढेकी का मिलना सुखद लगा। कृष्ण कुमार के घर में हमने जाकर जी भर ढेकी के फ़ोटो खींचें।

जेंजरा का आदिवासी छात्रावास
यहां से अगला पड़ाव था, आदिवासी आश्रम के गुरुजी का घर। आगे बढने पर कुछ ईमारतें दिखाई दी। हमने कार उधर ही मोड़ ली। जहाँ कार रुकी, उसी कमरे के सामने मोटर सायकिल खड़ी थी। झांकने पे पीछे टेबल कूर्सी डाल कर दो-तीन खाकी बर्दी धारी दिखाई दिए। लग रहा था संध्या वंदन की तैयारी है। ये फ़ारेस्ट के अधिकारी कर्मचारी थे, जंगल में इनका रोल किसी पुलिस से कम नहीं होता। जिसे चाहे धर ले, जिसे चाहे छोड़ दे। हमें देख कर एक बंदा बाहर आया। पंकज के पूछने पर उसने गुरुजी का घर दूसरी जगह बताया। वहाँ पहुंचने पर पता चला कि गुरुजी नहीं हैं, पाली गये हैं।

हम वहाँ से आगे बढे तो एक बाईक वाले ने हमारे से आगे निकाल कर हमें रोका। मैने सोचा कि यह बाईक देने आया होगा। उसका कहना था कि यहां से तीन किलोमीटर उसका गाँव है। वहाँ ठेकेदार घटिया निर्माण सामग्री का उपयोग कर पुल बना रहा है। आप फ़ोटो खींच कर अखबार में छाप दीजिए। मैने सिर हिलाया और हम आगे बढे। यहाँ पत्रकारी करने थोड़ी आए हैं। सरकार में बैठे लोग लाखों करोड़ खा जाते हैं। एक ठेकेदार लाख-दो लाख भी खा लेगा तो क्या फ़र्क पड़ने वाला है? यह मुकदमा हमने बाबा रामदेव की एवं अन्ना की सेना के लिए छोड दिया।

चलो भाई ढेकी कुरिया में
तिराहे पर पहुंचने पर जिस दुकानदार की बाईक की आस लगा कर यहां तक आए थे उससे बाईक मांगी तो उसने मना कर दिया। बोला कि बाईक इंजन खराब है लोड नहीं ले रहा है। मैने कहा - यार अभी तो बाईक बदले कार रख ले। हमारे चैतुरगढ से लौटते तक तुझे कार का मालिक बना देते हैं। इतने पर भी लेकिन वह नहीं माना। आखिर में हमें वापस ही पाली की तरफ़ लौटना पड़ा। चैतुरगढ जाने के सारे रास्ते हमारे लिए बंद हो चुके थे। मन मार कर सोचा कि आज नहीं जा पाए तो कोई बात नहीं, मौसम खुलने के बाद फ़िर कभी आएगें चैतुरगढ के लिए। रात तक हमें बिलासपुर भी पहुंचना था। झा जी ने फ़ोन पर निर्देश देकर खाने की व्यवस्था अपने बंगले पर कर ली। पंकज और हमको उनके घर का निमंत्रण था। यहाँ से थोड़ी दूर पर पुरानी जमीदारी लाफ़ागढ है। जिसका नाम मैने सुना था। अब फ़ैसला लिया गया कि चैतुरगढ न सही तो लाफ़ागढ ही सही। वहीं चला जाए, अपने पास अभी एक-डेढ घंटा और था बिताने के लिए। आगे पढें………

7 टिप्‍पणियां:

  1. प्रकृति का एकान्तवास, संस्कृतियों की धरोहर सम्हाले।

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  2. समय का बढि़या सदुपयोग. दोनों सहयात्री उपेक्षित तो नहीं हो रहे.

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  3. बहुत सुंदर स्थान की सुंदर तस्वीरें।

    जिसे जितना मौका मिलता है बेईमानी कर ही लेता है।

    अब लाफागढ की सैर का इंतजार है।

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  4. प्राकृतिक सौन्दय के साथ प्राचीन घरेलू यन्त्र और भी काफी कुछ देखने और पढने को मिला आगे चैतुरगढ न सही तो लाफ़ागढ ही सही...

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  5. बहुत सुंदर जगह घूमने का शुक्रिया ....थोडा पुन्य भी कमा लेते तो तुम्हारा क्या जाता ..वो ठेकेदार तुम्हारा सगा था क्या ?

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  6. @दर्शन कौर धनोय

    यह मुकदमा हमने बाबा रामदेव की एवं अन्ना की सेना के लिए छोड दिया।

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