गगल का गूगल हुआ |
आरम्भ से पढ़ें कांगड़ा फोर्ट का काफी नाम सुना था, देखने की इच्छा बहुत दिनों से प्रबल थी. सकोह से हम कांगड़ा के लिए बस में चढ़े. पहला स्टाप था गगल. स्थानीय लोग इसका उच्चारण गग्गल भी करते हैं. गगल तिराहे पर बसा एक गाँव है, जहाँ से हम एक तरफ पठानकोट और दूसरी तरफ कांगड़ा होते हुयी दिल्ली जा सकते हैं. तीसरी सड़क धर्मशाला को गयी है. गगल नाम देखते ही मुझे गूगल याद आया. अमेरिकियों ने यह नाम चुरा लिया और होशियारी से नाम में थोडा परिवर्तन कर गूगल कर दिया. जिस तरह लेख चुराने वाले महानुभाव सिर्फ इंट्रो बदल कर अपनी पत्रिका या अखबार में किसी का लेख छाप देते हैं. कादम्बिनी के अप्रेल अंक में पेज नंबर २१ पर "नदी भी सिसकती है "नामक लेख में मेरे द्वारा ली गयी राजिम मेले की एक तश्वीर छाप दी. जिसमे मेरा नाम ही नहीं है. जैसे इनके बाप का मॉल हो. लखनऊ से प्रकाशित एक दैनिक ने भी गत दिनों मेरे लिट्टी चोखा वाली पोस्ट से रायपुर स्टेशन के बाहर बैठने वाले दुकानदार की फोटो छाप दी. इस तरह की चोरी अब आम सम्माननीय कर्म हो गया है.
देशी अमिताभ बच्चन |
गगल से हम कांगड़ा पहुचे तो लग-भग २ बज रहे थे. धर्मशाला से कांगड़ा १८ किलो मीटर है. बस स्टैड से हमें फोर्ट तक जाना था. ऑटो वाले से पूछा तो उसने १०० रुपये बताये. बहुत ही अधिक किराया बता रहा था.आखिर हमने फिर बस से जाना तय किया. बस स्टैंड से निकलकर बस कांगड़ा तहसील के स्टाप पर रूकती है सवारियों के लिए. यहाँ बहुत सारी फलों की दुकाने हैं, एक व्यक्ति को लोग अमिताभ बच्चन कह रहे थे. उसने एक बोरी में बहुत सारे तरबूज भरकर बस में लाकर रखे. पंजाबी से मिलती जुलती होने के कारण कांगड़ी मेरी समझ में आ रही थी. वह कह रहा तह ८ रूपये किलो लिए हैं १५ रूपये किलो बेचूंगा तो आज की दिहाड़ी(मजदूरी) ३०० रुपया निकल आएगी. फिर बिल-बुक निकाल कर हिसाब लिखने लगा. कंडेक्टर जब उसे छेड़ने लगा तो वह भनभना गया."अरे यार फालतू पंगा मत करो. मुझे हिसाब करने दो".
बरगद बाबा |
बस चली, १० मिनट बाद हम दोनों खड्ड (बाणगंगा और मांझी) के बीच बने पुल के पास उतर चुके थे. अब यहाँ से हमें पहाड़ पर चढ़ना था. चढ़ाई शुरू की. सामने ही एक पुराना बरगद का पेड़ था. जिसकी जटाएं विशाल रूप ले चुकी थी. मैं कल्पना कर रहा था कि इस बरगद ने जाने कितने राजा-महाराजाओं के वैभव को देखा होगा. इस सड़क पर गुजरते हुए उनका लाव-लस्कर कभी इसकी छाँव में भी रुका होगा. कुछ पल हम भी यहीं विश्राम कर लेते. बूढ़े बाबा का आशीर्वाद ले लेते. कुछ तत्व ज्ञान ही मिल जाता. जिसके लिए ऋषि-मुनि-संत यहाँ भटकते रहे होंगे. जहाँ कही भी जाता हूँ वहां के बरगद-पीपल मुझसे बतियाते हैं, मैं उनकी सुनता हूँ. झोली में उनका अनुभव भर कर लाता हूँ और अपने कोष में जमा कर लेता हूँ.
यहीं से कांगड़ा फोर्ट के लिए पैदल रास्ता है. |
सडक पर सामने से कुछ स्कूली बच्चे आ रहे थे. आस पास कहीं भी स्कूल नहीं दिख रहा था न ही कोई गाँव. तभी मैंने ऊपर पहाड़ी पर दृष्टि डाली तो सीधी चढाई से बच्चे उछलते-कूदते नीचे उतर रहे थे. मैंने स्कूल के बारे में पूछा तो पता चला कि उनका स्कूल पहाड़ी के ऊपर है. रोज वहीँ पढने जाते हैं. हम चढ़ते जा रहे थे ऊपर, घुटनों पर जोर पद रहा था. कोई साधन नहीं था. इसलिए पैदल तो जाना ही पड़ेगा, मज़बूरी जो थी. सामने पहाड़ी पर किला दिख रहा था. नीचे पुरातत्व वाले टिकिट बेच रहे थे. भारतियों के लिए १० रूपये और विदेशियों के लिए २ डालर. हमने टिकिट ली और परिसर के भीतर पहुचे. वहां एक चश्मा बह रहा था.उसके नीचे एक पुरानी बावड़ी थी. चश्मे से लोग पानी भर रहे थे. हमने भी अपनी बोतल मिनरल वाटर से भरी.
किले का सिंह द्वार |
किले के सिंह द्वार पर लकड़ी के बड़े किवाड़ चढ़े थे. किले में लगने वाले पत्थर लाइम स्टोन ही थे. जैसे हमारे यहाँ बासिंग और नदी मोड़ पर मिलते हैं. शाम होने वाली थी. क्योंकि वादियों एवं जंगलों में रात जल्दी हो जाती है. घडी के हिसाब से चलें तो धोखा खाने की संभावना रहती है. कुछ पर्यटक और मिले. किले के स्वागत द्वार के आगे एक ढही हुयी दीवार थी. देख कर सोचा कि इतनी विशाल दीवार कैसे ढह गयी? ढही हुयी दीवार के बीच से रास्ता है. इसके नीचे एक रास्ता और दिखाई दे रहा था. जिसके ऊपर चीड तख्ते लगे हुए थे. इस पर चल कर हम ऊपर पहुंचे. वहां भी खंडहर ही दिखाई दिए. एक भी भवन सलामत नहीं था.मुझे आशंका हो गयी थी कि इस किले के साथ कुछ अनहोनी हुई है. भीतर जाने पर सामने एक बड़े मंदिर के भग्नावेश एवं सलामत दो छोटे मंदिर दिखाई दिए.
मुझे तेरा इंतजार आज भी है. |
किले की प्राचीर में बने झरोखे से हम विशाल खड्डों को देखने लगे. दृश्य मनमोहक था. किला लगभग 4 किलो मीटर के दायरे में हैं. इसके ३ तरफ वाणगंगा एवं मांझी नामक नदियाँ हैं जिन्हें स्थानीय लोग खड्ड ही कहते हैं. इनकी गहराई बहुत अधिक है. झरोखे में बैठ कर हमने तश्वीरें ली. तभी दो युवतियां पहुची, मुझसे उन्होंने झरोखे पर तश्वीर लेने को कहा. मुझे लगता है कि वे किले से पहले जा चुकी थी. हमें झरोखे में बैठ कर तश्वीर लेते देखा होगा तो याद आया होगा कि यहाँ पर भी तश्वीर लेनी चाहिए. मैंने उनकी दो बढ़िया तस्वीरें खींच दी. वे भी खुश और केवल भी खुश :))) मंदिर के आमलक यत्र-तत्र बिखरे पड़े थे. हम सलामत मंदिर के पास पहुचे तो अन्दर से बतियाने की आवाज आ रही थी. वापसी में इनसे चर्चा करेंगे सोच कर हम आगे बढ़ लिए.
कांगड़ा किले की पेंटिंग |
पूछ ताछ करने पर पता चला कि कांगड़ा को नगरकोट भी कहा जाता है. इतिहासकारों के अनुसार इस स्थान पर पाषण कालीन मानव सभ्यता के प्रमाण मिलते हैं. इस क्षेत्र की प्राचीनता 5०००० से 2०००० वर्ष पुरानी सिद्ध हुई है.जब मानव शिकारी और संग्रहकर्ता का जीवन व्यतीत कर रहा था. ढेर नामक स्थान से २०००० से १०००० वर्ष पुराने नव पाषण कालीन उपकरण प्राप्त हुए हैं. यहाँ से प्राप्त प्राचीन अभिलेखीय साक्ष्यों में प्रथम एवं दितीय सदी ई.पू. के तीन शिलालेख मिलते हैं. जो पठयार और कनियारा नामक स्थानों से मिले हैं. इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में कुषाण, त्रिमर्त, इंडो-ग्रीक, कुनिंद, औदुम्बर, कांगड़ा राजाओं के अलावा दिल्ली के मुस्लिम शासकों के ताम्बे एवं चांदी के सिक्के मिले हैं. जिन्होंने यहाँ समय-समय पर शासन किया था. कांगड़ा राज्य सतलुज, रावी एवं व्यास नदियों के बीच के पठारी भू भाग से लेकर जालन्धर के मैदानी इलाके तक था.
केवल नीचे बैठे मित्रों की प्रतीक्षा में |
कहा जाता है कि कांगड़ा राज्य की स्थापना राजा सुसर्मा चंद ने महाभारत की समाप्ति के तुरंत बाद की. यहाँ के विषय में प्राप्त अभिलेख १००९ में गजनी के महमूद की विजय के प्राप्त होते हैं.उसने यहाँ पर अपना एक गवर्नर जैसा प्रतिनिधि रखा था. जिसे बाद में दिल्ली के तोमर शासकों ने पराजित कर निकाल दिया और किले का नियंत्रण कटोच शासकों के हाथ में दे दिया. इसके बाद मुहम्मद तुगलक ने १३३७ में और उसके उत्तराधिकारी ने १३५१ में किले पर राज किया. १६२१ में १५ महीने के घेरे के बाद जहाँगीर ने इसे जीता.इसके गवर्नर सैफ अली की मृत्यु के पश्चात् शातिशाली पहाड़ी राजा संसार चंद ने अधिकार कर लिया. संसार चंद की महत्वकांक्षाओं के कारण उसका युद्द अमरसिंह थापा एवं महाराजा रणजीत सिंग के साथ हुआ. यह किला १८०९ में सिक्खों के अधिकार में चला गया.१८४६ से यह किला अंग्रेजों के अधिकार में आ गया.४ अप्रेल १९०५ को कांगड़ा में भीषण भूकंप आया. जिसमे यह किला तबाह हो गया.१९२० में इस किले का जीर्णोद्धार किया गया. तब से लेकर यह आज तक उसी स्थिति में है.
विष्णु मंदिर की सलामत एक दीवार |
देवी के मंदिर में पुरातत्व विभाग का एक चौधरी पूजा करता है. यहाँ सभी धर्मों के मंदिर हैं. जैन मंदिर और बौद्ध मंदिर भी. विशाल विष्णु मंदिर के भूकंप में तबाह होने के बाद इसकी पीछे की दीवार ही खड़ी है. जिस पर मूर्तियाँ खुदी हुई हैं. पहले मेरी समझ में नहीं आया क्या बला है. फिर गौर से देखने से पता चला कि मंदिर की दीवार है. अब हम देवी के मंदिर में बैठे लोगों से मिले. उनसे चर्चा हुयी. उसने भूकंप की भयानकता के विषय में बताया. जो बाबा-दादा से सुना था. कहने लगा कि - बाबा बताते थे, जब भूकंप आया तो खड़े पेड़ धरती तक झुक गए. इस मंदिर का पत्थर कलश नीचे जंगल में एक पेड़ पर अभी तक लटका है. मैंने वहां जाने के लिए पूछा तो उसने कहा कि- जंगल में अभी जाना ठीक नहीं है. शाम हो रही है. हम किले से नीचे उतर आये. समय धीरे-धीरे बीतते जा रहा था. हमें धर्मशाला भी पहुचना था.७ बजे के बाद बस नहीं मिलती.
शिला लेख |
संग्रहालय टिकिट खिडकी के पास ही है. यहाँ कुछ प्रस्तर प्रतिमाएं रखी हैं, कम ही हैं. इससे कई गुनी तो हमारे छत्तीसगढ़ अंचल में बिखरी पड़ी हैं,जिन्हें अभी सहेजना है. प्रस्तर मूर्तियों के संग्रह के हिसाब से छत्तीसगढ़ का संग्रहालय बहुत समृद्ध है. कुछ चित्र भी लगा रखे है. एक चित्र भूकंप से पहले का और भूकंप के बाद का भी था. दोनों चित्रों से हम भूकंप की भयावहता का अंदाजा लगा सकते है. मैं चित्र लेना चाहता था. लेकिन संग्रहालय कर्मी ने मना कर दिया. फिर भी हम एक दो चित्र तो ले चुके थे. संग्रहालय के सामने पठयार और कनियारा में मिले शिलालेखों की प्रतिलिपि बनी हुयी है और विद्वानों ने लिपि को क्या पढ़ा. इसका भी उल्लेख बोर्ड में किया गया है.
किले से खड्ड का नजारा |
हमने चश्मे से एक बार फिर पानी पिया और बस पकड़ने के लिए चल पड़े नीचे की ओर. कुछ देर बाद मैं पीछे मुड कर देखता हूँ तो मंदिर का पुजारी और एक बंदा उसके साथ चले आ रहे है. नीचे आते-आते उनसे चर्चा होने लगी. उसने एक राजा के बारे में कमाल की बात बताई. इस बात को मैंने सेंसर कर दिया. मेल से पूछ सकते हैं. नीचे सड़क पर पहुँच कर हमें बस का इंतजार करना पड़ा. दो बस वालों ने तो बैठाया ही नहीं. तीसरी बस चंडीगढ़ से आ रही थी. उसने हमें लिफ्ट दी. आगे चलने पर सकरे मोड़ पर सफारी वाले ने अपनी गाड़ी घुसेड दी. बस वाले ने गाड़ी रोक दी. दोनों की तू-तू मैं-मैं होने लगी. दोनों में से कोई भी अपनी गाड़ी बैक करने को तैयार नहीं था. दोनों तरफ जाम लग गया. बस ड्राईवर ने इंजन बंद कर दिया. येल्लो गयी भैंस पानी में. अब दो-चार घंटे खड़ा रहना पड़ेगा. फिर किसी बुद्धिमान ने इनकी सुलह करायी और गाड़ी आगे बढ़ी.
दो गेयर लीवर की बस |
हम ड्राईवर की पीछे वाली सीट पर ही बैठे थे. अचानक मेरी निगाह बस के गेयर के पास रखे हुए एक सुन्दर खरादी लठ पर पड़ी. मैंने तश्वीर उतार ली. केवल ने भी देखा और मुझे फोटो लेने को कहा. लेकिन मैं तो अपना काम मुस्तैदी से कर चूका था. मैंने ड्राईवर से पूछ ही लिया कि तुम्हारी गाड़ी में दो-दो गेयर लीवर कैसे हैं? वह कहने लगा कि जब इस गेयर से गाड़ी नहीं चलती तो दुसरे स्पेशल गेयर लीवर से चल जाती है. गाड़ी में बढ़िया पंजाबी गाने बज रहे थे और उसके साथ-साथ एक सरदार जी भी बज रहे थे. हमारा बढ़िया टाइम पास हो रहा था. धर्मशाला पहुँच रहे थे. लाल किला आ चूका था. वहीं बस रुकी और हम चल पड़े.... लाल किले से डेरे की ओर......लौट कर। आगे पढें
बढ़िया जानकारी देने वाला यात्रा वृतांत
जवाब देंहटाएंबढ़िया एवं रोचक वृत्तांत...इतना सब कुछ याद कैसे रख लेते हैं?
जवाब देंहटाएंबहुरंगी सफर.
जवाब देंहटाएंहम भी साथ है बिना टिकट पर इस बार आपने कुछ खिलाया नही
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया यात्रा वृत्तांत... यात्रा की तिथि भी अंकित किया करें तो शायद बेहतर रहेगा
जवाब देंहटाएंवहाँ की यात्रा आज भी याद है हमें, आनन्द आया था।
जवाब देंहटाएंपर्यटक स्थलों को घूमने का आनंद तभी है , जब उसके इतिहास से भी परिचित हों ...
जवाब देंहटाएंहिमाचल यात्रा में आपका यह वृतांत बहुत काम आएगा ...!
कांगडा का इतिहास और किले के बारे में जानना बड़ा अच्छा लगा। आभार।
जवाब देंहटाएंइसे ईमेल ही मानो और राजा की कहानी ईमेल से भेजो :)
जवाब देंहटाएंमस्त जानकारीपूर्ण वृतांत.
बहुत बढ़िया यात्रा वृत्तांत....
जवाब देंहटाएंवाह, सफर के बारे में सुन्दर वृतान्त ...
जवाब देंहटाएंमस्त यात्रा विवरण जी, लेकिन १० रुप्ये मै आप को टूटा फ़ूटा किला दिखा दिया... यह तो लुट हे जी :) एक सुन्दर खरादी लठ हे राम ताऊ का लठ यहां भी पहुच गया?
जवाब देंहटाएंकांगडा का बहुत नाम सुना था .आज आपकी बदोलत सैर भी कर ली.
जवाब देंहटाएंकांगड़ा फोर्ट का विस्तृत विवरण शानदार रहा । बहुत रिसर्च की है आपने । अच्छा लगा जानकर ।
जवाब देंहटाएंअभी तो अखबार इसमें से भी छापेंगे, बोलो क्या कर लोगे । जब इतनी अच्छी फोटो खींचते हो तो क्या उन्हें छापा नहीं जाएगा, छापा इसलिए जाता है कि छिपी न रह जायें।
जवाब देंहटाएंवे भी खुश और केवल भी खुश :)))
जवाब देंहटाएंआपको खुशी नहीं हुई क्या ??
खैर.. किला और यात्रा का सम्पूर्ण विवरण बहुत ही बढ़िया है, सोचते हैं जब कभी उधर जाने का प्रोग्राम बनेगा तो किला भी देख लिया जाए.
बहुत ही रोचक और जानकारीपूर्ण वृत्तांत.
जवाब देंहटाएंबढ़िया तस्वीरें हैं.
ये अखबार वाले तो बिना परमिशन लिए छाप देते हैं...और लोगो को ये बात पता ही नहीं.
हाल में ही एक बड़े पत्रकार ने आश्चर्य जताया कि ब्लॉग से सामग्री लेकर छापने पर उसका कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता. उनकी तरह बहुत लोगों को ये बात पता नहीं होगी.
अद्भुत "अनसेंसर्ड़" जानकारी।
जवाब देंहटाएंपता नहीं सेंसर की गयी कैसी होगी :-)
अच्छी जानकारी
जवाब देंहटाएंहिमाचल यात्रा खासकर कांगडा यात्रा की यादें ताजा कर दी आपने ललित जी
जानकारी तो बहुत से लोग देते है मगर रोचकता बनाते रखने में आपका जबबा नहीं ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर वर्णन...
जवाब देंहटाएंरोचक वृत्तांत...कांगडा का इतिहास और किले के बारे में जानना बहुत अच्छा लगा...
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