बुधवार, 17 अप्रैल 2013

भानगढ़ की रत्नावती और सिंधु शेवड़ा

बाजार से आगे बढने पर पीपल के वृक्ष के पत्ते सरसराहट की आवाज के साथ इस गढ के वैभव की गाथा कहते हैं।मुख्य मार्ग के सुनसान बाजार के खंडहर बेबस स्तब्ध खड़े थे। समय की मार से कुछ भी नहीं बचा। सारी रौनक और वैभवता नष्ट हो गई है। जो बसा है उसे एक दिन उजड़ना भी होता है ये संसार का नियम है। धरा पर कोई स्थायी नहीं रह सका। किसी को प्रतिद्वंदिता ने उजाड़ दिया तो किसी को प्रकृति के कोप का सामना करना पड़ा। पूरी धरती को मानव ने पग पग नाप कर अपनी उपस्थिति के चिन्ह छोड़ दिए। इनकी बातें सुनने के लिए ध्यान लगा कर उस काल खंड में जाना होगा जब यहाँ प्रतिहार, अनुचर, दंडधारी विचरण करते थे। खड्गधारी एक आवाज में ही किसी का प्राण हरण करने के लिए तत्पर रहते थे। समय गुजर गया लेकिन पीपल आज भी उन गाथाओं को सुनाता है। 
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सुनसान भानगढ़ नगर
मैं पीपल की छांव में जाकर बैठ गया। मुझे बैठे देख कर उसने पत्ते फ़ड़फ़ड़ाए और कहने लगा। थक गए पथिक, चलते-चलते। तनिक विश्राम करो, तुम्हारी जिज्ञासा मुझ पर प्रगट है। तुम्हे वही कहानी सुनाता हूँ, जिसे सुनने की आकांक्षा लिए यहाँ आए हो। यह कहानी है, रानी रत्नावती की। हाँ! वही रानी रत्नावती, जिसके सौंदर्य के चर्चे वर्तमान में भी विद्यमान हैं। अप्रतिम सौंदर्य की स्वामिनी थी वह। उसके पिता ने विवाह के लिए स्वयंवर रचाया था। इस स्वयंवर में दूर देशों के नरेश तथा राजा आए थे। एक से बढ कर एक पराक्रमी, धनुर्धारी बल पौरुष के धनी रत्नावती का वरण करने की आकांक्षा से पधारे थे। स्वयंवर समारोह की चमक - दमक देखते ही बनती थी। स्वयंवर के मध्य व्यवधान की आशंका से राजा ने अपने सुदृढ़ एवं उद्भट सैनिकों को सुरक्षार्थ तैनात कर रखा था।

चलते फ़िरते प्रेत
मैने जम्हाई ली, चेहरे पर थोड़ी थकान दिख रही थी। उसने बोलना जारी रखा … तुम सुन रहे हो न राहगीर, अगर तुम्हारा ध्यान भटका तो वंचित रह जाओगे इस कथा से। मैने सिर हिला कर सहमति दी……वह कहने लगा… इन राजाओं में सिंधू देश का राजा भी रत्नावती के वरण की आकांक्षा लेकर आया था। स्वयंवर प्रारंभ हुआ, सभी राजाओं के चेहरे पर यह गुमान का भाव था कि रत्नावती उसका ही वरण करेगी। रत्नावती ने स्वयंवर सभा का एक चक्कर लगाया, सभी राजाओं पर भरपूर दृष्टि डाली और भानगढ़ नरेश के गले में वरमाला डाल दी। दूदूंभि बज उठी, पुष्प वर्षा होने लगी, हर्ष मिश्रित ध्वनियाँ परदों के पीछे से सुनाई देने लगी। ब्राह्मणियाँ मंगल गान करने लगी। साक्षात राम एवं सीता के स्वयंवर का दृष्य सजीव हो उठा। सभी राजा विवाह की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने स्थानों को प्रस्थान कर गए। इधर दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया।

विश्राम के पल - सिंह त्रयी (भरत सिंह, प्रदीप सिंह, रतन सिंह)
स्वयंवर स्थल पर ही भानगढ के विनाश के बीज पड़ गए… समझ रहे हो न? उसने मुझसे प्रश्न किया। आगे बताओ कहानी रोचक होती जा रही है, मैने कहा। तो सुनो- सिंधु देश का राजा रत्नावती की  सुंदरता पर मोहित था, उसने रत्नावती के सौंदर्य के चर्चे पहले ही सुन रखे थे। लेकिन भानगढ़ के राजा जैसा सामरिक दृष्टि से सक्षम नहीं था। रत्नावती से विवाह करने की आकांक्षा को लेकर वह उससे युद्ध नहीं कर सकता था। क्योंकि युद्ध में उसकी हार निश्चित थी। वह मन मसोस कर रह गया। लेकिन रत्नावती को पाने की उसकी कामना प्रबल होती गई। वह सिंधु देश में जाकर सिर्फ़ यही चिंतन करने लगा कि रत्नावती को कैसे प्राप्त किया जाए। उसे अपने महल की शोभा कैसे बनाए? शारीरिक बल काम न आने पर व्यक्ति तंत्र बल-छल की ओर प्रयाण करता है। यही सिंधु राजा ने भी किया।

शिवालय एवं शेवड़ों का धूणा
कुछ इतिहास में घटी घटनाओं का जिक्र करना चाहुंगा। जो इस गाथा से जुड़ी हुई हैं। एक बार राजा भगवंत दास यहाँ शिकार खेलते हुए आए। उन्हे यह स्थान अपनी राजधानी बनाने लिए सुरक्षित और उपयुक्त लगा। इस स्थान पर एक प्राचीन शिवालय था जहाँ कुछ शेवड़े अपनी तांत्रिक साधना करते थे। यह स्थान शेवड़ों के धूणे के नाम से प्रसिद्ध था। राजा ने अपना विचार शेवड़ों के गुरु को बताया। उसने राजा से कहा कि - तुम यहाँ राजधानी बना सकते हो, हमें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन तुम्हारा महल इतनी दूर होना चाहिए कि उसे धूणे की धुंवा छू न पाए। राजा ने सहमति दे दी एवं यहाँ गढ का निर्माण किया। राजा अपने राज काज में लग गया और शेवड़े अपने धूणे में मस्त हो गए। एक दिन खूब आँधी आई और धूणे की धुंवा राजमहल तक पहुंच गई। बस इसी दिन से भानगढ़ के विनाश की नींव पड़ गई।

पहाड़ी पर सिंधु शेवड़े की छतरी (चित्र पर क्लिक करके देखें)
प्यास लगने लगी थी, मैने एक घूंट पानी की ली और आगे सुनने लगा। सुन रहे हो न … सिंधु राजा रत्नावती को भूल नहीं पा रहा था। अब उसने तांत्रिकों का सहारा लेना शुरु किया। उसने सोचा कि रत्नावती को प्राप्त करने का सिर्फ़ तंत्र मंत्र का ही एक रास्ता बचा है। उसने भानगढ़ की पहाड़ी पर डेरा जमा लिया। वो देखो उपर छतरी … दिखाई दे रही है न। वहीं सिंधु राजा रहने लगा। उसने डेरे के शेवड़ों से तंत्र मंत्र सीखे और उन्हे सोधने में लगा रहा। मनुष्य की कामना प्रबल होती है, वह उसका उत्कर्ष भी कर सकती है तो पतन भी। बस यही कुछ भानगढ़ पर भी मंडरा रहा था। मंत्र सोधते सोधते एक दिन सिंधु राजा सिद्ध हो गया और सिंधु शेवड़ा कहलाने लगा। बस अब समय आ गया था रत्नावती पर तंत्र मंत्र का प्रयोग करने का। 
कभी इन गलियारों में रौनक थी
उपर पहाड़ी पर बैठा सिंधु शेवड़ा गढ की भीतर हो रही सारी गतिविधियों को जानता था। रत्नावती की एक दासी सुंगधित तेल लेने बाजार तक आती थी जिसे उसके बालों में लगाती थी। सिंधु शेवड़ा नगर में प्रवेश कर गया और दासी कटोरे में तेल लेकर महल की ओर जा रही थी। उसने तेल देखने लिए अपने हाथ में लेकर तंत्र-मंत्र का प्रयोग किया और पहाड़ी पर पुन: चढ गया। इधर दासी को विलंब होने का कारण रत्नावती ने पूछा। तो उसने रास्ते में एक शेवड़े के मिलने का कारण बताया। रानी ने दासी के हाथ से कटोरा लेकर देखा तो उसमें तेल घूम रहा था। उसे कुछ भान हुआ और उसने तेल का कटोरा एक बड़ी शिला पर फ़ेंक दिया। शिला पर तेल गिरते ही वह शिला उड़ने लगी। रानी समझ गई कि तेल में शेवड़े ने तंत्र का प्रयोग किया है।

गढ के झरोखे से
जैसे ही तेल शिला पर गिरा, उधर शेवड़े को मंत्र शक्ति से पता चला कि तेल का प्रयोग हो गया है। उसने आदेश दिया कि उपर आ जाओ, आदेश मिलते ही शिला पहाड़ की ओर उड़ चली। सिंधु शेवड़ा शयन मुद्रा में था, शिला देख कर उसने सोचा कि रानी शिला पर बैठी है, उसने आदेश दिया कि मेरी वक्ष पर ही बैठो। शिला जब नीचे उतरने लगी तो उसे रानी दिखाई नहीं दी और सिंधु शेवड़ा समझ गया कि शिला उसकी छाती पर गिरेगी और उसकी मृत्यु निश्चित है। तो उसने मंत्र से शिला के दो टुकड़े कर दिए और श्राप दिया कि रात दूसरे पहर तक यह नगर नष्ट हो जाएगा यहाँ कुछ भी नहीं बचेगा। इस नगर में आज के बाद कोई भी आबाद नहीं पाएगा। आधी शिला सिंधु शेवड़े के वक्ष पर गिरी और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। आधी शिला नगर के उपर भ्रमण करने लगी। रत्नावती को अनिष्ट का अहसास हो गया और उसने नगर वासियों को अर्ध रात्रि तक नगर खाली करने का आदेश दे दिया।

खंडहर हुआ रानी रत्नावती का महल
नगर खाली हो गया सिंधु शेवड़े के श्राप से। कथा कहते हुए पीपल ने एक लम्बी सांस ली, तब से लेकर आज तक यह नगर फ़िर कभी आबाद नहीं हुआ। कईयों ने कोशिश की लेकिन श्राप के भय से कोई भी इस नगर में पुन: बसने को तैयार नहीं हुआ। खजाने के चोरों ने पूरा गढ़ खोद डाला। जो कुछ मिला सब उठा ले गए। घरों एवं महल के दरवाजों को भी नहीं छोड़ा। सब उखाड़ ले गए। वीरान पड़ा है यह नगर। इसे देख देख मैं खून के आँसू रोता हूँ। कितना वैभव था इस नगर का। कभी यह स्वर्ण नगरी से कम नही था। आज जंगली जानवरों का बसेरा हो गया। मैं ही बूढा बच गया हूँ इसकी गाथा कहने को, मेरे बाद शायद कोई और गाथा कहने वाला न मिले। इस नगर का इतिहास समय की गर्त में दफ़न हो जाए। तुम सुन रहे हो न…  मैने हुंकारु भरी, आँसूओं की दो बूंदे मेरी पेशानी पर टपकी। पीपल सुबक रहा था……… आगे पढें

15 टिप्‍पणियां:

  1. समय की मार के आगे सब विवश है . भानगढ़ का वैभव पल में तिरोहित हो गया , खँडहर रह गए . खौफनाक इतिहास है भानगढ़ का जो भयभीत करता है , मगर उत्सुकता भी की कैसे के पल में ही सब समाप्त हो गया ! इतिहास के सिवा इस किले का आपका अनुभव कैसा रहा , जानने की उत्सुकता थी .

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  2. इसे कहते हैं शब्दों की जादूगरी. सचमुच शायद ही कोई इस अंदाज़ में एक ऐतिहासिक गाथा लिख सके... भानगढ़ का इतिहास अमर हो गया...अद्भुत शैली

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  3. किसी रोचक कहानी की तरह आपने सारा संस्मरण लिखा ...आश्चर्य और विस्मित हूँ ..और आपकी खोजी और पारखी नजरों की भी दाद देती हूँ ....क्या आप अपने इन अनुभवों की कोई पुस्तक निकाल रहे हैं ....?

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  4. इतनी रोचकता थी कि क्या कहूँ - पीपल ने तो बहुत विस्तार से सब सुनाया - सारी थकान हर कर अपनी छाँह में बहुत कुछ दे गया ....

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  5. @हरकीरत ' हीर'

    आपकी सिफ़ारिश पर निकल सकती है :)

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  6. thanks sharma ji aapne hame kafi jankari di ham aapke sada aabhari rahenge or ek din ham bhi dekhne jayenge

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  7. अत्यंत दिलचस्प लगातार तीन बार पढ़ गया ललित भाई.सिरपुर की तरह आपकी भ्रमण यात्राओ के संकलन का इंतज़ार रहेगा.

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  8. बहुत ही दिलचस्प, आगे का इंतजार है.

    रामराम.

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  9. पीपल के ध्वनि संकेतों की बेहद रोचक प्रस्तुती

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  10. वाह.... पेड़ को गवाह बनाकर उसके मुख से कल्पना करके बहुत अच्छी तरह भानगढ़ की कहानी को बया किया आपने

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  11. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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