रविवार, 28 अप्रैल 2013

जमा गढ़ी नौ लाख की

दुरंतो

आखिर अमरावती-जबलपुर एक्सप्रेस का हार्न बज गया और चल पड़ी। 24 नवम्बर की रात के 11 बज रहे थे, हल्की हल्की ठंड सुहानी लग रही थी। थोड़ी देर तक ट्रेन ने रेंग कर अपनी गति पकड़ ली और हम चल पड़े जाबालिपुरम याने जबलपुर की ओर। ट्रेन के खटकों के बीच नींद आ जाती है और सुबह जब आँख खुलती है तो जबलपुर का मदनमहल स्टेशन दिखाई देता है और थोड़ी देर में जबलपुर जंक्शन पहुंच जाते हैं। यहाँ से त्रिचक्रवाहिनी से घर पहुंचते और स्नानोपरांत प्रात:राश लेकर मित्र को फ़ोन लगाया जाता है। उन्होने मजबूरी बताते हुए साथ जाने से मना कर दिया। किस्सा यहीं खत्म हो गया। कोई किस्सा जन्म लेने से पहले ही गर्भपात हो गया। खाया पीया कुछ नहीं गिलास तोड़ा बारा आना। उन्हे भी हम कुछ नहीं कह सकते थे क्योंकि मित्रता का बंधन जो था। हो सकता है उनकी भी मजबूरियों को उसी वक्त आना था। किसी ने कहा है न कोई तो मजबूरियाँ रही होंगी वरना कोई यूँ ही बेवफ़ा नहीं होता। उनने कह दिया और हमने मान लिया। अब हमारे समक्ष दो दिवस का समय था और उसका सदुपयोग करना था। सोचा क्यों न जबलपुर के आस-पास ही आवारगर्दी कर ली जाए।

द्वार
जबलपुरिया महाब्लॉगराधीश आदरणीय गिरीश दादा को फ़ोन लगा कर बता दिया कि हम पहुंच गए हैं तो उन्होने कहा कि "हमाए घर पे ही गोष्ठी रखते हैं शाम को, आप सब आईए" और त्वरित कार्यवाही करते हुए सभी ब्लॉगर मित्रों को संदेश भेज दिया कि "घुमंतू प्रजाति के ब्लॉगर ललित शर्मा नगर में प्रवेश कर गए हैं" तथा इस मेसेज की एक प्रति मुझे भी भेजी। भोजनोपरांत हम गढा घूमने गए, जिसे रानी दुर्गावती का दुर्ग बताया जाता है। आज मोहर्रम का दिन था, जबलपुर की सड़कों पर "बाबा" लोग ही दिखाई दे रहे थे। संवेदनशील इलाका होने के कारण पुलिस ने व्यवस्था कर रखी थी और चौकस होकर घुड़सवार भी तैनात कर रखे थे। मुख्य मार्ग को प्रतिबंधित कर देने के कारण हम पतली गलियों से निकल कर आखिर दुर्ग तक पहुंच ही गए।

चेतावनी
दुर्ग तक जाने के लिए पहाड़ी पर पैड़ियाँ बनाई गई हैं। साथ ही युवा भजनियों को चेतावती देते हुए स्लोगन जगह जगह लिखे हैं। चेताया गया है कि चट्टानों की आड़ में बैठकर कोई आपत्तिजनक हरकत न करें जिससे पर्यटकों को नजर नीची करनी पड़े। सीढियों से चढते हुए दांई तरफ़ जिन्नात की मस्जिद बनी हुई है। चट्टानों के बीच के खोल में इसे व्यवस्थित किया गया गया है। इसके आगे बढने पर शिवालय भी है। गढ में पहुंचने पर सामने चट्टानों पर बना आवास दिखाई देता है। एक बड़ी चट्टान का सदुपयोग करके बनाया गया। तत्कालीन वास्तुकार ने निर्माण कौशल का अद्भुत परिचय दिया। यह रानी दुर्गावती का किला कहलाता है। यहाँ की ईमारतें ढह चुकी हैं, उनके भग्नावशेष अभी तक विद्यमान हैं। कुछ पर्यटक हमें यहाँ दिखाई दिए। 

जिन्नातों की मस्जिद
चट्टान पर बनी बड़ी ईमारत के समक्ष एक घुड़साल दिखाई देती है। यहाँ पर पुरातत्व विभाग का कोई भी कर्मचारी दिखाई नहीं दिया। घुड़साल में चूने की कुछ बोरियाँ रखी दिखाई दी। समीप ही पानी का कुंड भी बना है, अवश्य ही यह किले में जलापूर्ति  के काम आता होगा। कुछ लोगों का कहना है कि घुड़साल के प्रवेश द्वार के शीर्ष पर खजाने का मानचित्र बना है। लेकिन मुझे वह कहीं से खजाने का मानचित्र नहीं लगा। मैने छत पर चढ़ कर उसे सुक्ष्मता से देखने का प्रयास किया। चित्र लेने के लिए नीचे झुकना पड़ा। पर सही चित्र नहीं ले पाया। अधिक झुकने पर सिर के बल गिरने का खतरा था। छत से उतर कर हमने किले का भ्रमण किया और कुछ चित्र खींचे। किले की मुख्य ईमारत का पुनर्निर्माण भवनाशेष से किया गया प्रतीत होता है। क्योंकि जगह जगह पर कुछ नक्काशीदार पत्थरों का प्रयोग भी हुआ है। 

घुड़साल
रानी दुर्गावती का नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से उसकी अदम्य वीरता को देखते हुए लिखा गया है। गढ़ा-मंडला में आज भी एक दोहा प्रचलित है - मदन महल की छाँव में, दो टोंगों के बीच . जमा गढ़ी नौ लाख की, दो सोने की ईंट"। रानी दुर्गावती कालिंजर के चंदेल राजा कीर्तिसिंह की इकलौती संतान थी। नवरात्रि में अष्टमी के दिन जन्म लेने के कारण कन्या का नाम दुर्गावती रखा गया।रूपवती, चंचल, निर्भय वीरांगना दुर्गा बचपन से ही अपने पिता जी के साथ शिकार खेलने जाया करती थी। ये बाद में तीरंदाजी और तलवार चलाने में निपुण हो गईं। गोंडवाना शासक संग्राम सिंह के पुत्र दलपत शाह की सुन्दरता, वीरता और साहस की चर्चा धीरे धीरे दुर्गावती तक पहुँची परन्तु जाति भेद आड़े आ गया। फ़िर भी दुर्गावती और दलपत शाह दोनों के परस्पर आकर्षण ने अंततः उन्हें परिणय सूत्र में बाँध ही दिया।

रानी दुर्गावती गढ़ मंडला
दुर्भाग्यवश विवाह के 4 वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था. अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया. उन्होंने अनेक मंदिर,मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया। दुर्गावती ने 16 वर्ष तक जिस कुशलता से राज संभाला, उसकी प्रशस्ति इतिहासकारों ने की। आइन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने लिखा है, "दुर्गावती के शासनकाल में गोंडवाना इतना सुव्यवस्थित और समृद्ध था कि प्रजा लगान की अदायगी स्वर्णमुद्राओं और हाथियों से करती थी। मंडला में दुर्गावती के हाथीखाने में उन दिनों 1400 हाथी थे।"

गढ़ और ब्लॉगर
गोंडवाना के उत्तर में गंगा के तट पर कड़ा मानिकपुर सूबा था। वहाँ का सूबेदार आसफखां मुग़ल शासक अकबर का रिश्तेदार था। वह लालची और लुटेरे के रूप में कुख्यात भी था। अकबर के कहने पर उसने रानी दुर्गावती के गढ़ पर हमला बोला परन्तु हार कर वह वापस चला गया, लेकिन उसने दुबारा पूरी तैयारी से हमला किया जिससे रानी की सेना के असंख्य सैनिक शहीद हो गए। उनके पास मात्र 300 सैनिक बचे। जबलपुर के निकट नर्रई नाला के पास भीषण युद्ध के दौरान जब झाड़ी के पीछे से एक सनसनाता तीर रानी की दाँई कनपटी पर लगा तो रानी विचलित हो गई. तभी दूसरा तीर उनकी गर्दन पर आ लगा तो रानी ने अर्धचेतना अवस्था में मंत्री आधारसिंह से अपने ही भाले के द्बारा उन्हें समाप्त करने का आग्रह किया. इस असंभव कार्य के लिए आधार सिंह द्बारा असमर्थता जताने पर उन्होंने स्वयं अपनी तलवार से अपना सिर विच्छिन्न कर वीरगति पाई।

खजाने का नक्शा और एक ब्लॉगर दो सिविलियन
वे किसी भी कीमत पर जिन्दा रहते हुए दुश्मन के आगे समर्पण नहीं करना चाहती थीं और मरते दम तक शेरनी की तरह मैदान में डटी रहीं। उनके शासन काल में प्रजा सुखी और संपन्न थी। राज्य का कोष समृद्ध था जिसे आसफखां लेकर वापस लौट गया। जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां देशप्रेमी जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं. जबलपुर मे स्थित रानी दुर्गावती युनिवेर्सिटी भी इन्ही रानी के नाम पर बनी हुई है। गोंडवाना साम्राज्य के गढ़ा-मंडला सहित 52 गढ़ों की शासक वीरांगना रानी दुर्गावती ने अपना सम्मान अक्षुण्ण रखा। अपने सम्मान की रक्षा करते हुए कर्तव्य की बलिवेदी पर वह चढ गई और इतिहास में अमर हो गई।

वास्तुकार की अनोखी कृति
मदनमहल से हम लौट कर बाजार की तरफ़ आ गए। मोहर्रम का जुलूस होने के कारण भीड़ भाड़ के साथ गहमा गहमी भी अत्यधिक थी। इधर जाबालि ॠषि का फ़ोन आना शुरु हो गया। अब हमें गढ़ ब्लॉगर की तरफ़ जाना था। समाचार था कि जाबालिपुरम के नामी गिराम ब्लॉगरों के दर्शन के साथ फ़ुरसतिया ब्लॉगर का दर्शन एवं श्रवण लाभ प्राप्त होगा। कहने का तात्पर्य है कि अब वह घड़ी समीप आ गई थी जब बड़े ब्लॉगरों का लघु सम्मिलन तय था। जाबालि ॠषि घड़ी-घड़ी घड़ी की तरफ़ देख रहे थे। जब से मोबाईल में घड़ी हो गई है, तब इंतजार कठिन हो गया है। घड़ी की तरफ़ देखते हुए बंदा दो चार कॉल कर ही देता है। वही घड़ी ठीक थी जिससे फ़ोन नहीं होता था, सिर्फ़ इंतजार होता था।  आगे पढें जारी है……

20 टिप्‍पणियां:

  1. वीरांगनाओं ने सदा ही भारतीय इतिहास को चमत्कृत किया है।

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  2. सुंदर ऐतिहासिक जानकारी ...कितना कुछ गर्वित होने को

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  3. पलक झपकते आप कहां प्रकट हो जाएं...

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  4. हम भी बहुत पहले जबलपुर हो आये हैं जब सिविलियन थे ब्लॉगर नहीं थे.. रानी दुर्गावती के बारे में सुना बहुत था, आज आपने उनके बारे में बता भी दिया.. धन्य हो गये हम..

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  5. जबालीपत्तन का यात्रा वृत्तांत अच्छा लगा. नीचे देवताल रोचक है.

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  6. आपके घुमंतु बनने से विविध जगहों की नायाब जानकारियां मिल रही हैं, आभार.

    रामराम.

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  7. बढ़िया आलेख ... जबलपुर के नामी ब्लागरों से आपकी मुलाकात और एक ब्लागर दो सिविलियन का विवरण रोचक लगा ... फोटो जोरदार हैं ....

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  8. बताइये दो तीन बार जबलपुर जाना हुआ, पर अपने शूट काम निपटाया और होटल में आराम..

    अगली बार कोशिश होगी इस एतिहासिक स्थल को देखा जाए। बढिया जानकारी..

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  9. वाह, जाबालिपुरम् का रोचक और जीवंत चित्रण।

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  10. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (29-04-2013) के चर्चा मंच अपनी प्रतिक्रिया के लिए पधारें
    सूचनार्थ

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  11. जबलपुर और रानी दुर्गावती के बारे में जानकार अच्छा लगा
    डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest postजीवन संध्या
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  12. बड़ा ही गौरवशाली इतिहास रहा है संस्कारधानी के नाम से प्रसिद्ध जबलपुर का ... हमारे लिए विशेष महत्व रखता है, मायका जो है हमारा... बढ़िया वृत्तान्त के लिए आपका आभार

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  13. ज्ञानवर्धक एवं रोचक ऐतिहासिक जानकारी के लिए धन्यवाद .......!

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