सोमवार, 20 अप्रैल 2015

रथचक्र में कालचक्र : कलिंग यात्रा


विशाल रथ के विशाल पहिए, हाँ भई विशाल्र रथ को खींचने के लिए विशाल पहियों की योजना की आवश्यकता थी। अधिष्ठान की ऊंचाई को ध्यान में रख कर पहियों की ऊंचाई भी तय की गई थी। प्रत्येक पहिया तीन मीटर का है अर्थात नौ फ़ुट नौ इंच ऊंचाई होगी। पहिए भी साधारण नहीं है, किसी भी गहने को महीनता से निर्मित करने में एक स्वर्णकार जितना श्रम करता है, उससे अधिक श्रम एवं अलंकरण प्रत्येक पहिए में बिसु (विष्णु) महाराणा के कारीगरों ने किया है। धातु पर कार्य करने अपेक्षा शिलाओं पर कार्य करना अत्यधिक कठिन है। शिलाओं पर जो भी कार्य होता है वह पूर्णता की ओर ही बढ़ता है। एक छेनी गलत चल जाने पर सुधार की गुंजाईश नहीं रहती। फ़िर वह दोष सहस्त्राब्दियों तक के लिए स्थाई हो जाता है।

मैं चक्र का निरीक्षण कर रहा था और बिकाश का ध्यान चक्र के साथ फ़ोटो लेने में था। यह वही स्थान है जहाँ अधिकतम पर्यटक एक चित्र जरुर लेते हैं। बिकाश मेरे सुक्ष्म निरीक्षण में व्यवधान उत्पन्न कर रहा था। कहते हैं "लौंडों की दोस्ती, जी का जंजाल"। बस कुछ ऐसा ही मामला था। उसकी रुचि कोणार्क के सतही दर्शन में थी और मेरी इच्छा गहन अध्ययन करने में। बस अपनी आंखो से देख कर समझने पर विश्वास है। जो देखा उसके विषय में मंतव्य अपनी मंत्रणा के हिसाब से देता हूँ। बिकाश की ईच्छा पूर्ण करनी पड़ी। वर्तमान में एक नई समस्या का सामना भी करना पड़ रहा है। कैमरे से फ़ोटो खींचने के साथ वही दृश्य मोबाईल से भी खींचना पड़ता है। एक ही दृश्य को दो-दो बार कैद करना पड़ता है। डिजिटल युग ने फ़ालतु के काम बढ़ा दिए। 

सूर्य रथ समस्त चक्र (पहियों) की परिकल्पना एक जैसी है। प्रत्येक में 8 आरे है और इन आरों के मध्य इतने ही लघु आरे भी हैं। अगर थोड़ा सा दिमाग लगाए और खोपड़ी खुजाएं तो निर्माणकर्ता ने प्रत्येक पहिए को 24 घंटे का बनाया और इस 24 घंटे को 8 बड़े एवं 8 छोटे आरों में विभक्त किया है। अब बड़े आरे 24 घंटे को आठ भागों में विभक्त करते हैं तो प्रत्येक आरा मध्य के हिस्से तीन घंटे आते हैं। इसी तरह छोटे आरे मध्य के हिस्से नब्बे मिनट आते हैं। इन नब्बे मिनटों को पाठे के 30 लघु गोलकों  में बांटा गया है इस तरह प्रत्येक लघुगोलक के हिस्से तीन मिनट आते हैं और लघु गोलक पर पड़ने वाली छाया को तीन हिस्से में बाटने पर एक मिनट का समय होता है। जो घंटे की प्रथम इकाई है। यह सूर्य घड़ी न्यूनतम इकाई मिनट तक का समय बता सकती है।  इससे तय होता है कि यह एक सूर्य घड़ी है। जो सूर्य की परछांई के हिसाब से समय बताती है। 

सूर्य रथ के इन चक्रों में जीवन स्पंदित होता है, जिस तरह हम वर्तमान के चलचित्र देखते हैं और उसमें जीवन से संबंधित सभी कारक एवं कारण दिखाई देते हैं, उसी तरह इन चक्रों में उत्कीर्ण वृक्ष, वल्लरियाँ, वन चर, जल चर, थलचर, नभचर एवं मानवों के साथ देवताओं को स्थान दिया गया है। प्रतीत होता है स्वर्ग यहीं उतर आया है। प्रथम चक्र में अवतारों को स्थान दिया है। सूर्योदय के समय व्यक्ति की दिनचर्या में ईश्वर स्तुति उपासना प्रमुख कार्य होता है, जो देवताओं के स्मरण के बगैर संभव नहीं है। जिस तरह लौकिक परम्परा में गणपति का प्रथम स्थान है, उसी तरह शिल्पकार भी छेनी और हथौड़ी उठाता है तो सर्वप्रथम स्वमान्य, कुलमान्य ईष्टदेव का स्मरण कर कार्य को प्रारंभ करता है। 

चक्र के प्रत्येक भाग को महीनता से अलंकृत किया गया है, अलंकरण देख कर ऐसा लगता है कि शिल्पकार दत्तचित्त होकर प्रस्तर पर आभुषणों का निर्माण कर रहा हो। चक्र की धूरी पर अलंकृत कील अत्यधिक महत्वपूर्ण है, भले ही इसका निर्माण अलंकरण की दृष्टि से किया है परन्तु इस पर रथ संचालन का समस्त भार है। सूर्य रथ का चालक अरुण रथ हांकने से पहले एक दृष्टि तो अवश्य धूरी की कील पर डालता ही होगा। धूरी पर पद्मांकन किया गया है जो इसके सौंदर्य में वृद्धि कर रही है। चक्र के पार्श्व में गज, नर, वानर, सिंह इत्यादि को उत्कीर्ण किया गया है। जैसे की सम्पूर्ण वनांचल ही अर्क रथ का स्वागत करने चला आया हो। 

अगले चक्र में सांझ का वर्णन दिखाई दे रहा था। सांझ के समय सूर्य अस्ताचल को जाता है और दिन भर के कार्य सम्पादन के पश्चात मनुष्य को आलस घेर लेता है और वह रात की प्रतीक्षा करता है, या फ़िर सांझ ढ़लते ही दिवस भर से नायिका प्रियतम की प्रतीक्षा में उकता कर उबासियाँ और अंगड़ाईयाँ लेते हुए द्वार आहट को सुनने के लिए व्यग्र रहती है। इन भावों का प्रभावोत्पादक ढ़ंग से इस चक्र आठों आरों पर चित्रण किया गया है। किसी चित्र में नायिका आ उत्तरीय हवा से उड़कर उसके पुष्ट सौंदर्य को प्रदर्शित कर रहा है तो कहीं वह चौकी पर बैठी हुई व्यग्रता से प्रतीक्षारत दिखाई देती है।  … जारी है, आगे पढ़ें……।

1 टिप्पणी: