शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

पारो - भूटान यात्रा 8

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यहाँ बहने वाली पारो चू के कारण ही इस स्थान का नाम पारो पड़ा। भूटान का एकमात्र हवाई अड्डा पारो में ही है। फ़िर यहाँ से ही लोगों को सड़क मार्ग से थिम्पू जाना पड़ता है। विश्व के प्रथम दस सबसे खतरनाक हवाई अड्डों में से एक है तथा स्थान कम होने के कारण यहाँ का रन वे भी काफ़ी छोटा है। यात्री जहाज को यहाँ पर उतारने के लिए काफ़ी कुशल पायलेट की आवश्यकता होती है। यहाँ पहुचने हमें 2 जहाज खड़े दिखाई दे गए। घाटी के रास्ते के साथ साथ चलते हुए रन वे भी दिखाई दे रहा था। यदि फ़्लाईट का समय होता तो हमें यहाँ के जहाज की उड़ान भी देखनी थी, कैसे पायलट दो पहाड़ों के बीचे से जहाज को उड़ा कर ले जाता है।
पारो भूटान की हवाई पट्टी के साथ बहती पारो नदी
पारो पहुंचने के बाद हमे गाईड सातवी संदी के बने बौद्ध मठ क्यीचू ल्हाखांग में ले गया। इसे तिब्बत के राजा सोङ्ग्त्सेन गेंपो द्वारा बनवाया गया था। सातवीं सदी के प्राचीन इस प्राचीन मठ में बुद्ध के अवतार पद्मसंभव की बड़ी प्रतिमा स्थापित की गई है। पद्म संभव एवं बुद्ध की प्रतिमा सिर्फ़ मूंछों का अंतर पाया जाता है। इसकी मूंछे तिब्बतियों के जैसी पतली होती हैं। इस स्थान पर मैने भी तंत्र के देवता को भूटानी मुद्रा में 20 रुपए अर्पित किए। जब किसी के घर जाते हैं तो परम्परा से उसे नजराना पेश करना ही पड़ता है। यह बौद्द मठ परम्परागत चटक रंगों में ही संवारा गया है।
क्यीचू ल्हाखांग मठ 
यहाँ हमें पेलरी कॉटेज रिसोर्ट ले जाया गया। मौसम शाम होने से बिगड़ रहा था कुछ बूंदे माथे पर से टकरा कर अपनी उपस्थिति का अहसास दिला रही थी। यहां पहुंचने पर पता चला कि कॉटेज में रुकना है। बारुद फ़ैक्टरी जैसे सभी मैग्जिन अलग-अलग बनी हुई थी। अच्छा ही था, कवि, लेखक जैसे अति ज्वलनशील और ब्लॉगर फ़ेसबुकिए जैसे अत्यंत विस्फ़ोटक पदार्थ ही थे। इन्हें अलग-अलग रखने में ही भलाई थी। खैर भ्रमण के बाद अब देह विश्राम करना चाहती थी। काफ़ी लम्बा सफ़र तय करके आए थे। हमारी चौकुटिया में पड़ोसी बने डॉ नित्यानंद पाण्डे एवं शुभदा पाण्डे जी, पिछवाड़े में प्रकाश हिन्दूस्तानी कृष्णकुमार यादव, सुनीता यादव एवं कुसुम वर्मा थे। 
पेलरी कॉटेज पारो
रुम में पहुंचने पर पता चला कि खिड़कियों से ठंडी हवा आ रही है, वैसे भी तापमान माईनस 8-9 चल रहा था और मौसम देखते हुए रात में 13-14 तक पहुंचने की आशंका थी। मैने खिड़कियों की झिरियों में टेप चिपकवाया तब कहीं जाकर ठंडी हवा आनी बंद हुई। कॉटेज बहुत ही सुंदर स्थान पर था। सामने पर्वतों पर जमी हुई बर्फ़ एवं बहती हुई पारो चू सुंदर दृश्य उत्पन्न कर रही थी। चाय की चुस्कियां लेते हुए हमने बरामदे में ही कुछ समय गुजार दिया। थोड़ी देर बाद कृष्णकुमार यादव की अपना लेपटाप लेकर आ गए, उन्हें फ़ोटोएं चाहिए थे तथा सभी मित्र चाहते थे कि वहीं पर अपने-अपने कैमरे की फ़ोटुओं का आदान-प्रदान हो जाए तो ठीक ही रहेगा। सभी फ़ोटोएं उनके पेनड्राइव में डालकर सुपुर्द कर दिया। और भोजन करके अपनी रजाई गर्म की।
कॉटेज में सांझ की चाय की चुस्कियां लेते प्रकाश हिन्दुस्तानी
सुबह नास्ते के बाद फ़्लाईट की सवारियों को यहीं से एयरपोर्ट जाना था और ट्रेन वाली सवारियों को जलपाईगुड़ी या सिलीगुड़ी तक। इस मौके हमें अलग होना था, सभी ने एक दूसरे को भावभीनी विदाई दी और चल पड़े अपनी-अपनी मंजिल की ओर। लौटते हुए हमने पारो एयरपोर्ट से हवाई जहाज की उड़ान देखी और उसे कैमरे में कैद करने की भी कोशिश की। बस में फ़िर से गजल और कविताओं की महफ़िल प्रारंभ हो गई। सफ़र कटता जा रहा था। धीरे-धीरे चलते हुए हम फ़्यूशलिंग पहुंच गए। सीमा पार करते ही कोलाहल सुनाई देने लगा। समझ आ गया था कि हम भारत में पहुंच गए। यहाँ से हमें फ़िर दो हिस्सों में बंटना था। छत्तीसगढ़ से जाने वाले अलग एवं उत्तर प्रदेश जाने वाले अलग हो गए। 
जय गाँव में अलग होते यात्री, पप्पू अवस्थी जी, डॉ रामबहादूर  मिश्र जी, डॉ अशोक गुलशन जी, मनोज पाण्डे जी
उन्हें बड़ी गाड़ी में बैठाया और हमें सूमो दे गई। हम सुमो से सिलीगुड़ी पहुंचे। वहां काफ़ी देर तो हमें होटल ढूंढने में लग गया। रात हो गई थी, इसलिए शीघ्र ही होटल ढूंढ कर आराम करना था। आखिर एक होटल मोल तोल करके जम ही गया और हम उसमें शिफ़्ट हो गए। होटल वाले मैनेजर ने सभी की फ़ोटो ली और पहचान पत्र की फ़ोटो कापी कराई। उसने बताया कि होटल में ठहरने वाले सभी ग्राहकों की फ़ोटो आई डी यहाँ के पुलिस विभाग को रात तक मेल करना पड़ता है। जिससे उनके पास भी जानकारी उपलब्ध रहे कि होटल में कौन रुका हुआ है। खैर सुरक्षा के लिहाज से यह ठीक भी था। रात दही पराठा खा कर हम स्लीपिंग मोड में आ गए। जारी है, आगे पढ़ें 

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