दीवाली से दो चार दिन पहले सुवा नाचने वाली बालिकाओं एवं महिलाओं के दल आने शुरु हो जाते हैं। साहित्य जो स्थान कोयल को प्राप्त है, वही स्थान छत्तीसगढ में सुवा को मिला हुआ है, विरहणी सुवा के माध्यम से अपना प्रेम संदेश परदेशी पिया तक पहुंचाती है, एक टोकरी में धान के उपर मिट्टी के सुवा (तोते) बना कर रखकर सुवा गीत गाते हुए उसके ईर्द गिर्द परम्परागत नाच किया जाता है। गेट पर सुवा नाचने वाली बालिकाएं उसे बंद देखकर वापस जाने लगती लगती है, अचानक मेरी निगाह उन पर पड़ती है और उन्हे भीतर बुलाता हूँ- "बने असीस देवो भई, कैईसे जात हव", सुनकर वे खुश हो जाती हैं, और अपनी टोकरी जमीन पर रख कर होम धूप देकर सुवा गीत के साथ नाच प्रारंभ करती हैं। घर से उन्हे उपहार स्वरुप चावल और नगद पैसे दिए जाते हैं और हमारी दीवाली शुरु हो जाती है, सुवा नृत्य के साथ। सब तरफ़ आधुनिकता की मार से परम्पराएं घायल हो रही हैं,वर्तमान में परम्पराओं को जीवित रखना भी कठिन हो गया है। जब तक चल रहा है तब तक अपनी परम्पराओं के साथ जीने का आनंद लिया जाए।
एक तरफ़ नकली खोवे के हल्ले ने बाजार की मिठाईयों की वाट लगा दी, दूसरी तरफ़ ड्रायफ़्रूट वाले चाँदी काटते रहे। दीवाली के गिफ़्ट के रुप में ड्रायफ़्रूट का लेन-देन फ़ैशन बन गया है। मंत्रियों-संत्रियों के यहाँ तो इतना माल जमा हो गया कि एक दुकान ही खुल जाए, चचा बोले कितना खाओगे यार, डायबिटिज से लेकर हायपरटेंशन तक हाऊस फ़ुल है, अधिक होने पर हौसखास होकर हौस गायब हो सकता है। लेकिन क्या करें दिल मानता ही नहीं है, मामला सात पुश्तों का है, हमारी संस्कृति में पूण्य,पाप एवं कमाई सात पीढी तक चलने की मान्यता है, अब नेता भी इसमें पीछे क्यों रहें, एक बार कूर्सी पाओ और सात पुश्तों तक दीवाली पर तर माल का इंतजाम हो जाना चाहिए, नहीं तो आने वाली औलादें कोसेंगी। सात पुश्तों तक का इंतजाम करने के कारण चौराहे पर मुर्ती लगने की गारंटी रहती है, मुर्ती से प्रेरणा पाकर आदर्शों पर चलने की लोग कोशिश करते हैं, कोई एकाध बंदा ही इसमें सफ़ल हो पाता है। वही सच्चा अर्हत कहलाता है जिसने पिता की उपसम्पदा प्राप्त कर ली।
रेल्वे ब्रिज पर चढ रहा था, मेरे से दो पैड़ी पहले सफ़ेदपोश नेता जी भी चढ रहे थे। उपर से आने वाले दो लड़कों ने उन्हे देख कर "पाय लागी भैया, बने बने" कहा। नेता जी ने खुश हो कर उन्हे बड़ा लम्बा आशीर्वाद दिया,"खुस राह, बने बने, अउ तोर बाबू के का हाल-चाल है, लड़कों ने कहा -"जम्मो हां बने हे। वार्तालाप होते-होते नेताजी उपर की पैड़ी पर पहुंचे और दोनो लड़के मेरे बराबर में। लड़के ने कहा -" साले नेता बने हे :)" क्या जमाना आ गया, सफ़ेदी कभी शुचिता की परिचायक थी, उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, वहीं अब भ्रष्ट्राचार का प्रतीक बन गयी है, जनता के दिल में अब इसके प्रति सम्मान का भाव नहीं रहा। अगर सामने तारीफ़ तो पीठ पीछे गालियों प्रसाद मिलना तय है। इसका कारण नेताओं के झूठे वादे और सात पीढी तक का इंतजाम करने की प्रवृत्ति है। ये नहीं सुधरेगें और हम भी नहीं बदलेगें।
झंगलु सुबह से ही मालिक के दरवाजे पर मड़िया कर (घुटने मोड़े) बैठा है, मालिक पूजा पाठ करके बाहर आएं तो वह भी मजदूरी के रुपयों से कुछ बच्चों के लिए खरीदे, त्यौहार तो सबके लिए हैं। दोपहर को मालिक के दर्शन होते हैं, मालिक ने बैठक में आते ही झंगलु के आने के कारण पूछा तो झंगलु ने मजदूरी के बारे में कहा। मालिक का कहा- आज तो लक्ष्मी पूजन है, इसलिए किसी को आज रुपया पैसा देने का विधान नहीं है और कल गोवर्धन पूजा, इसलिए परसों आकर ले जाना। झंगलु ने गरीबी बता कर असमर्थता जतायी, अगर रुपए नहीं देगें तो वह त्यौहार कैसे मनाएगा? मालिक उठकर भीतर गए और कागज में लपेट कर एक बोतल लेकर आए, बोतल देखते ही झंगलु की आँखों में चमक आ गयी, अब उसकी दीवाली तो मन गयी, बीबी-बच्चे जाएं भाड़ में। वह मालिक की जै-जै कार करके चला गया घर की ओर।
गोवर्धन पूजा से मुटरु यादव का गाड़ा बाजा शुरु हो जाता है, सोहाई बांधने से लेकर जोहारने तक चलता है, जो राऊत दल अधिक मंहगा बाजा लगाता है उसे बड़ा समझा जाता है, जब से मैने देखा है तब से मुटरु का दल बड़ा और बजनियों की संख्या भी अधिक होती है, तीन-तीन मोहरी वाले साथ चलते हैं। घरों घर जब जोहारने का सिलसिला चलता है तो रंग देखते ही बनता है। सभी मस्ती में मस्त रहते हैं, इन दिनों दूध मंहगा और दारु सस्ती होती है क्योंकि पीएगें नहीं तो नाचेगें कैसे? मुटरु शेर-मसाला का इंतजाम देवारी के पहले से ही कर लेता है, दूध की गंगा की जगह दारु की श्यामा बहने लगते है। फ़िर चलता है दोहा बोलने के साथ जोहारने का सिलसिला, जितना मंहगा बाजा, उतनी बड़ी बख्शीश की मांग मालिक से की जाती है, मनवांछित बख्शीश मिलने पर मुटरु खुश होकर असीस देने लगता है, "जैइसन तोर लिए दिए वैसे देबो असीस, रंग महल में बैईठो मालिक जियो लाख बरीस" फ़्रिर चलते-चलते छानी के कवेलु में एक लाठी मार ही देता है, 10-20 कवेलु फ़ूट जाते हैं।
दीवाली धीरे-धीरे आई और गुजर गई, जैसे एक तूफ़ान गुजर गया हो। फ़ुलझड़ी की रोशनी जैसे लगता है सब, दो पल की चकमक और फ़िर वही अंधियार। दीवाली सदा नहीं होती, कुछ पल के लिए आकर खुशियों का अहसास कराती है भले ही खुशियाँ कृत्रिम हों। हँसना, मुस्कुराना, खिलखिलाना तभी होता है जब जेबें भरी हों, वरना मुस्कुराहट भी दर्द भरी हो जाती है। दीवाली चली गयी, हर आदमी से औकात से अधिक खर्च करा गयी। अब समेटने हैं यत्र-तत्र बिखरे हुए अवशेष। बदलते हुए परिवेश ने दीवाली को दीवाला बनाकर रख दिया। दीवाली अब सिर्फ़ अमीरों का वैभव प्रदर्शन बन कर रह गया है। सोने-चांदी से लेकर गाड़ी-मोटर तक सब अमीर ही खरीदते हैं। गरीब को तो जिस दिन पेट भर खाना खाकर फ़ुटपाथ पर चैन की नींद आ जाए उस दिन को ही वह दीवाली समझ लेता है। जिस दिन जनता हवलदार एक-दो डंडे मारकर पिछवाड़ा गर्म न करे तो दीवाली मना लेता है। किसी ने लाख रुपए के पटाखे चलाए कोई एक फ़ूलझड़ी के लिए तरस रहा है, दीवाली फ़िर भी दीवाली है, जब तक दीए में तेल रहेगा तब तक दीवाली भी चलती रहेगी।
सुवा नाच जैसी परंपरा के बारे में पहली बार ही जाना ...ये तथाकथित छोटे लोंग ही संकृति के सच्चे वाहक है , अनजाने में हम इनकी अनदेखी कर जाते हैं ...
जवाब देंहटाएंसफ़ेद वस्त्र जहाँ शुचिता और गर्व करने लायक व्यक्तित्व की निशानी होते थे , आजकल दहशत फैलाते हैं !
रोचक पोस्ट ...
शुभकामनायें !
सतरंगी दीवाली.
जवाब देंहटाएंदीवाली सदा नहीं होती, कुछ पल के लिए आकर खुशियों का अहसास कराती है ....और ....अब समेटने हैं यत्र-तत्र बिखरे हुए अवशेष....
जवाब देंहटाएंइन दो लाईनों में ही बहुत कुछ कह दिया है...आभार एक अच्छी सचेत करती पोस्ट के लिए ,सुवा नॄत्य -- आज ही जाना..
तरह तरह के रंग सजे हैं, दीवाली के।
जवाब देंहटाएंवर्तमान में परम्पराओं को जीवित रखना भी कठिन हो गया है। जब तक चल रहा है तब तक अपनी परम्पराओं के साथ जीने का आनंद लिया जाए।
जवाब देंहटाएंxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
गरीब को तो जिस दिन पेट भर खाना खाकर फ़ुटपाथ पर चैन की नींद आ जाए उस दिन को ही वह दीवाली समझ लेता है।
दिवाली के बहाने आपने बहुत से सन्दर्भों को समेटने की जो बेहतर कोशिश की है निश्चित रूप से आपकी पैनी दृष्टि का ही यह कमाल है .....! विचारणीय पोस्ट ..!
दीवाली पर जब दूसरे फूंकते हैं
जवाब देंहटाएंहम मुफ्त में तमाशा देखते हैं ।
कभी कभी सोचता हूँ --क्या करते हैं ये नेता लोग इतने उपहारों और मिठाइयों का ।
सुवा नाच छत्तीसगढ़ की प्राचीन परम्परा है, किन्तु अब यह, कम से कम शहरों में तो, लुप्त-सी हो चली है। कितना रस मिलता है जब बालिकाएँ गोल घूम घूम कर सुवा नाच नाचते हुए गाती हैं -
जवाब देंहटाएंमहादेव दुलरू बन आइन, घियरी गौरा नाचिन हो,
मैना रानी रोये लागिन, भूत परेतवा नाचिन हो।
चन्दा कहाँ पायेव दुलरू, गंगा कहाँ पायेव हो,
साँप कहाँ ले पायेव ईस्वर, काबर राख रमायेव हो।
गौरा बर हम जोगी बन आयेन, अंग भभूत रमायेन हो,
बइला ऊपर चढ़के हम तो, बन-बन अलख जगायेन हो।
महादेव और गौरी के विवाह से, जो कि आश्विन माह की अमावस्या को सम्पन्न हुआ था, सम्बन्धित सुवा नाच के विषय में विस्तृत जानकारी देने वाली एक पोस्ट की आपसे अपेक्षा है।
@जी.के. अवधिया
जवाब देंहटाएंजो आज्ञा गुरुदेव, आपके आदेश का शीघ्र ही पालन किया जाएगा :)
सारे रंग दिख गये दीपावली के.. और बात सही है कि कोई लाखों के पटाखे फ़ोड़ रहा है तो कोई एक फ़ुलझड़ी के लिये तरस रहा है।
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंabhi Diwali ke chaar-paanch din pahle hi Mummy ne Suwa dance ke bare mei bataya tha... mujhe to itna jyada nahi yaad hai, par Maa ko har baat, har tradition yaad hai CG ka... jaise ye "bane-bane", "kaa saag banai", aur bhi na jane kya kya yaad keen hain, aur sunati rahti hain... balki Diwali ke din jab wahan ke friends se baat hui tab bhi ham log unhe yahi bata rahe the\, aur Mummy Aunty se yahi baat kar rahi thi...
par aapne aakhiri mei emotional kar diya... wakai sab aisa hi to hota hai... parantu yaadon mei ijafa har saal hota hai...
नेता जी को दीपावली में मिले तोहफे गरीबों के मुहल्ले में बांट दिए जाते तो बेचारों की भी दीपावली मन जाती .. हमारे यहां तो ऐसा अंधविश्वास फैलाया गया है कि जिनके यहां पकवान बच गए हों उनके यहां लक्ष्मी नहीं दरिद्रा आता हैं .. भय से लोग बचे पकवान गरीबों में बांट देते हैं !!
जवाब देंहटाएंसुवा नाच की परंपरा को पहली बार ही जाना अच्छा लगा जानकर ... महंगाई के इस दौर में परम्पराएँ निभाना आजकल कठिन सा होता जा रहा है, फिर भी जब तक निभाया जा सकता है तब तक तो इनका आनंद लेना ही चाहिए... आगे तो ईश्वर ही मालिक है...
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने...
"किसी ने लाख रुपए के पटाखे चलाए कोई एक फ़ूलझड़ी के लिए तरस रहा है, दीवाली फ़िर भी दीवाली है, जब तक दीए में तेल रहेगा तब तक दीवाली भी चलती रहेगी।"
ise sanyog hi kaha jayega..uttarakhand me suwa shbd ka prayog premi ya premika ke liye kiya jata hai aur suwa nach bhi usi se sambandhit....
जवाब देंहटाएंapki lekhan shaili bahut badiya hai...
इंद्र धनुषी पोस्ट....
जवाब देंहटाएंसादर बधाई....
सुवा नाच की परंपरा को पहली बार ही जाना.....हम ग्रामीण परिवेश से अनजान है ..इस लिए आपके लेख रोचक लगते है और ज्ञान पूर्वक ...
जवाब देंहटाएंग्रामीण परिवेश और गरीबी का दर्द समते हुए आपका लेख .....आभार
जवाब देंहटाएंnai baaten janne ko mili......achcha laga.
जवाब देंहटाएंबिल्कुल ठीक बात है दीवाली तो अमीरों की होती है गरीब की दिवाली तो बहुत सीमित है।
जवाब देंहटाएंरोचक विवरण।
जवाब देंहटाएं