मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

13 दिसम्बर का दिन भुलाया नहीं जा सकता -- ललित शर्मा

मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं, जिन्हें वह चाह कर भी नहीं भूल पाता. इन घटनाओं की छवि मस्तिष्क में स्थायी रूप से जगह बना लेती हैं और जीवन भर याद रहती हैं. ऐसी ही एक घटना मेरे साथ भी घटी थी. 13  दिसंबर का वह दिन आज भी मुझे याद है. इसके कुछ दिन पहले नरेश शर्मा ने मुझे कहा कि दिल्ली चलना है. उसके जीजाजी के ट्रांसफर का काम था. नीतिश जी जानते हैं, यदि आप कह देंगे तो जीजाजी की समस्या को देखते हुए उनका ट्रांसफर हो जाएगा. मैंने उनसे मिलने का समय लिया, तो पता चला कि वो १३ को दिल्ली में रहेंगे, अब उनसे निवेदन करना हमारा काम था, सही लगा तो ट्रांसफर हो ही जायेगा. 
12 को नरेश और मैं गोंडवाना एक्सप्रेस से दिल्ली के लिए रायपुर से निकले, दुसरे दिन जब दिल्ली पहुचे तो बड़ी ठण्ड थी, कोहरा छाया हुआ था. तो सबसे पहले हम अपने होटल पहाड़गंज में पहुंचे. स्नान करने के पश्चात् नरेश ने कहा कि उसे संसद भवन देखना है. मैंने कहा चल दिखा देता हूँ, बाद में नीतिश जी से मिल लेंगे. अब हम ऑटो करके संसद भवन के पास पहुंचे. सामने पहुंचे ही थे तभी अचानक कुछ भगदड़ सी होने लगी खाकी वर्दी वाले सब हरकत में आ गये थे. मुझे लगा कि कुछ अनहोनी घट रही है. अब अचानक कुछ घट जाये नए शहर में तो सर छुपाना भी मुस्किल हो जाता है. हम लोग गोल चक्कर से जल्दी जल्दी यु.एन.आई. के आफिस तक पहुंचे. तभी गोलियां चलने की आवाज आने लग गयी थी. 
हम लोग वी.पी. हॉउस के पास यु.एन.आई पहुँच गए. नए शहर में आदमी सबसे पहले अपनी सुरक्षा देखता है, उसके बाद खाना और समाचार. इसके हिसाब से यु.एन.आई का आफिस सुरक्षित था. क्योंकि वहां पर कैंटीन भी थी. जब हम पहुंचे तो पता नहीं था क्या हो रहा है. फिर किसी ने कहा की संसद भवन में कोई घुस गया है और बम फोड़ रहा है. गोली चला रहा है. नरेश बोला कि अब हम फँस गए. मैंने कहा कि जल्दी से पेट भर नाश्ता कर ले बाद में फिर मिले या ना मिले. कम से कम पेट तो भरा रहेगा, शाम तक के लिए. इस बीच हमने जल्दी-जल्दी नाश्ता किया. और उसके बाद मेरा मोबाईल बजने लग गया, उस समय दिल्ली में रोमिंग के २५ या २८ रूपये मिनट रोमिंग चार्ज लगता था. मित्रों के फोन आने शुरू हो गये, एक घंटे में ही मेरा 1000 बैलेंस ख़तम होगया.मैंने सुबह ही होटल से निकलते हुए रिचार्ज करवाया था. 
घर से फोन था कहाँ पर हो ? घर वाले जानना चाहते थे. तो मैंने पूछा क्या हो गया? तो उन्होंने कहा कि जी टीवी पर संसद भवन में हमले का सीधा प्रसारण कर रहा था. तो हमने सोचा कि अब यहाँ से चला जाये. यु.एन. आई के बगल में वी.पी.हॉउस में समता पार्टी का दफ्तर था जिसमे तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कृष्णा राव जी रहते थे. मैंने कहा कि वहां चलने पर शरण मिल जाएगी, कृष्णा राव जी मुझसे अच्छी तरह परिचित थे. हम लोग वहां से निकल कर वी.पी हॉउस ले लिए चल पड़े, उस समय शायद 11.30  या 12 बज रहे होंगे. जब हम समता पार्टी के कार्यालय पहुचे तो सब टी.वी. पर झूमे हुए थे. बस हमने भी वहां बैठ कर संसद में होने वाली आतंकवादी कार्यवाही को देखा. नरेश की बोलती बंद थी. वो बोला कहाँ फँस गए? अब फँस गए तो फँस गए जो होगा सो देखा जायेगा. 
शाम को 3  बजे के बाद हालत कुछ सामान्य लगे. तो हम लोग वहां से होटल के लिए निकले. उसी समय हमारे पास खलीलपुर वाले महाराज सतबीर नाथ जी का फोन आया की आश्रम में आ जाओ मैं गाड़ी भेज रहा हूँ, मेरे मना करने के बाद भी जिद करके उन्होंने अपनी गाड़ी दिल्ली भेज दी.लेकिन मुझे तो सुबह नीतिश जी से मिलना था इसलिए बाबा के यहाँ नहीं जा सकता था. तो बाबाजी की गाड़ी से एस्कार्ट हास्पिटल गया, वहां पर हमारे तत्कालीन राज्यपाल महामहिम दिनेश नंदन सहाय जी की बाइपास सर्जरी हुयी थी, उससे मिलने जाना था. हम एस्कार्ट में सहाय जी से मिले, आधा घंटा हमारी बात-चीत हुयी. उसके बाद हम होटल वापस आ गये. 
सुबह जल्दी उठ कर हमने सोचा की जार्ज साहब से मिल लेते हैं कई दिन हो गये थे उनसे मिले, सुबह कोहरा छाया हुआ था. ठंड भी गजब ढा रही थी. हम 9 बजे जार्ज साहब के यहाँ पहुँच गए, कृष्ण मेनन रोड  कोठी  नंबर 3 पर, वहां हमें एक घंटा लगा. उसके बाद हम उनकी कोठी से निकल कर पैदल-पैदल सुनहली बाग़ स्टैंड तक पहुँचने के लिए निकल पड़े, जार्ज साहब की कोठी और उस इलाके में अब पुलिस ही पुलिस थी. कदम-कदम पर गन लेकर तैनात थे. तभी पुलिस वाले बोले सड़क पर मत चलो साईड में दीवाल की तरफ चलो, हम दीवाल की तरफ सरकते गए. तो फिर बोले दीवाल की तरफ चलो.हम तो पहले ही फुटपाथ के साथ की दीवाल से चिपक लिए थे. तो मैंने कहा कि अब दीवाल में घुस जाएँ क्या? 
इतने एक स्कूल का बच्चा आ गया कंधे पर बैग लटकाए. अब पुलिस वालों ने हमें दो कोठियों के बीच की संकरी सी गली में घुसेड दिया और एक पुलिस वाला हमारे तरफ एके 47  तान कर खड़ा हो गया जैसे हम ही आतंकवादी हों. फिर बोला अपने बैग नीचे जमीन पर रख कर चुपचाप खड़े हो जाओ. हमने बेग नीचे रखा दिया, उस बच्चे ने भी अपना स्कुल बेग नीचे रख दिया,  मैंने उससे पूछा कि ये क्या हो रहा है? तो वह बोला प्वाईंट आया है की अभी महामहिम राष्ट्रपति जी संसद भवन जाने वाले हैं. उनके यहाँ से निकलने के बाद आपको छोड़ दिया जायेगा. इतनी मुस्तैद थी उस दिन दिल्ली की पुलिस. अब इन्हें हर आदमी और यहाँ तक स्कुल का बच्चा भी आतंकवादी दिखाई दे रहा था. अरे! इतनी मुस्तैद पहले रहती तो संसद पर हमला ही क्यों होता? 
इसके बाद महामहिम राष्ट्रपति  जी का काफिला निकला,उसके बाद हमें वहां से जाने दिया गया. नरेश बोला कि हमें अब दिल्ली में नहीं रुकना है, चलो जल्दी से निकल चलो, नहीं तो क्या पता?  इनकी गोलियों का शिकार हम ही हो, हमारे मारे जाने बाद ये श्रद्धांजलि दे कर बोल देंगे कि गलती से मारे गए. चलो और अभी चलो. दिल्ली में अफरा-तफरी का माहौल था, हमने भी वहां से टलने में ही अपनी भलाई समझी. इसके बाद हम जहानाबाद के संसद अरुण कुमार जी के यहाँ वापसी की टिकिट बनवाई तत्काल कोटे से  और २.३० को निजामुद्दीन आकर गोंडवाना एक्सप्रेस में सवार हो गए. यह घटना आज भी आँखों के सामने चलचित्र सी घूमती है, अगर हमारा तन्त्र पहले से ही मजबूत होता तो देश के स्वाभिमान पर हमला नहीं होता. संसद की सुरक्षा अपनी जान पर खेल करने वाले सिपाहियों मेरा सैल्युट।

24 टिप्‍पणियां:

  1. मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं, जिन्हें वह चाह कर भी नहीं भूल पाता. इन घटनाओं की छवि मस्तिष्क में स्थायी रूप से जगह बना लेती हैं और जीवन भर याद रहती हैं...
    Very True........ Nice Post....

    जवाब देंहटाएं
  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  3. पढते हुए रोंगटे खड़े हो गए ... कसाब और अफज़ल गुरु आज भी सरकारी दामाद बने हुए हैं .

    जवाब देंहटाएं
  4. अरे! इतनी मुस्तैद पहले रहती तो संसद पर हमला ही क्यों होता?
    सच्ची खरी बात!
    शहीद हुए सिपाहियों को अश्रुपूरित आँखों से नमन/श्रद्धांजलि!

    जवाब देंहटाएं
  5. वीरों को प्रणाम, प्रत्यक्ष देखना रोंगटे खड़े कर देता होगा।

    जवाब देंहटाएं
  6. Z TV pe news to dekhi hi thi... par na jane ye baatein TV mei kyon nahi dikhate...
    aur shradhhanjali dena shayad sabse zyada aasan kaam hai...

    जवाब देंहटाएं
  7. उफ़ आप भी न ..कहाँ कहाँ कब कब पहुँच जाते हैं.
    घटना के समाप्त होने पर पुलिस का आना हमारे यहाँ का रिवाज़ है जी.पहले से आकर क्या करेंगे भला.

    जवाब देंहटाएं
  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  9. असामयिक घटनाओं का कोई समय निश्चित नहीं होता है ... बेहद दुखद ... फिर कभी ऐसा न हो ...

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत खौफनाक नज़ारा था ।
    हम तो टी वी पर ही देख रहे थे ।

    जवाब देंहटाएं
  11. कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं,जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता

    जवाब देंहटाएं
  12. वाकई कभी-कभी कुछ ऐसी घटनायें घट जाती है जिनहे भुलाया नहीं जा सकता ....

    जवाब देंहटाएं
  13. सोच ही नहीं पा रही हूँ क्या हालत हुई होगी......

    जवाब देंहटाएं
  14. सच है, कुछ घटनाएं भूले नहीं भूलतीं।
    शहीदों को नमन....

    जवाब देंहटाएं
  15. सच में रोंगटे खड़े देने वाली पोस्ट

    जवाब देंहटाएं
  16. महाराज आप भी वहीं थे ये पता ना था. बहुत बेचैन कर देने वाला दिन था वो.. आपका कहना सच है उस रोज़ इन्हें हर आदमी और यहाँ तक स्कूल का बच्चा भी आतंकवादी दिखाई दे रहा था. अरे! इतनी मुस्तैद पहले रहती पुलिस तो संसद पर हमला ही क्यों होता? उस घटना के बाद तो दिल्ली छावनी बन गयी तीन दिन . मै भी बुरा फंसा था. -रमेश शर्मा//sharmaramesh .blogspot .com

    जवाब देंहटाएं
  17. बहुत खौफनाक मंजर रहा पर आपने नाश्ता नही छोड़ा☺��

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. ऐसी स्थिति में नाश्ता छोड़ना महाबेवकूफ़ी, फ़िर मिले न मिले। पेट तो भरा होना चाहिए।

      हटाएं