लोथल के प्रवेश द्वार पर विनोद गुप्ता जी और लेखक |
प्राथमिक पाठशाला में पढते थे तो एक पाठ सिंधुघाटी की सभ्यता पर था। पाठ के आलेख में मोहन जोदड़ो एवं हड़प्पा, से प्राप्त खिलौने में चक्के वाली चिड़िया, मुहर और पुरुष का रेखा चित्र भी था। साथ ही उस समय के लोगों के रहन-सहन, नगर विन्यास के विषय में भी बताया गया। लोथल (લોથલ) का जिक्र भी हड़प्पा कालीन सभ्यता के साथ ही होता है, तब से मेरा मन इन स्थानों को देखने का था। मोहन जोदरो तो पाकिस्तान में चला गया। लोथल (લોથલ) भारत में मिला। आज समय आ गया था प्राचीन इतिहास से रुबरु होने का। सुबह से ही मन में उत्साह था। जाने को तैयार हो चुका था। पराठे और छाछ का प्रात:राश ले कर चल पड़े। विनोद गुप्ता जी को घर से लिए और साथ ही कुशवाहा जी भी थे। लगभग साढे नौ बजे लोथल के लिए चल पड़े। किसी भी पुरास्थल की जानकारी के लिए वहाँ पर उपस्थित व्यक्ति ही आपकी सहायता कर सकता है, अन्यथा सभी स्थल एक जैसे ही हैं। हम डेढ घंटे में लोथल के गेट तक पहुंच चुके थे।
चिरचिरा (अपामार्ग) |
जनसुविधा के लिए रुकने पर घास में एक पौधा दिखाई दिया। इसे हमारे यहाँ स्थानीय भाषा में "चिरचिरा" और आयुर्वेद की भाषा में "अपामार्ग" कहते हैं। यह पौधा बड़े काम का है, अब इस पर नजर पड़ गयी तो चर्चा करते चलें। इस पौधे के कांटो वाले फ़ल को कूटने के बाद कोदो के दाने जैसे दाने निकलते हैं। इन 50 ग्राम दानों की खीर बनाकर खाने के बाद सप्ताह भर तक भूख प्यास नहीं लगती, शौच और लघु शंका भी नहीं होती। इसका प्रयोग हठयोगी करते हैं या नवरात्र पर शरीर पर नौ दिन तक जंवारा उगाने वाले भक्त भी। कहते हैं कि इसकी जड़ को किसी प्रसूता स्त्री की कमर में प्रसव के वक्त बांध दिया जाए तो प्रसव बिना किसी दर्द के निर्विघ्न हो जाता है। प्रसवोपरांत इस जड़ को तुरंत ही खोलना पड़ना है, अन्यथा नुकसान होने की भी आशंका रहती है, इसलिए इसका उपयोग किसी कुशल वैद्य की देख रेख में ही होना चाहिए। वरना लेने के देने भी पड़ सकते हैं। कुछ और भी जड़ी-बूटियाँ दिखाई दी पर हमें तो लोथल का स्थल देखना था, इसलिए बोर्ड के पास से पैदल ही आगे बढ लिए।
संग्रहालय की वर्तमान स्थिति (नो साईन बोर्ड) |
इस स्थान के इर्द - गिर्द एक "रसोड़ा" (टीन शेड की रसोई) भी बना हुआ है। पर्यटक इस स्थान पर अपना खाना बनाने का सामान साथ लाते हैं। यहाँ भ्रमण करने के बाद पिकनिक मनाकर चले जाते हैं। हम सामने दिख रही एक ईमारत की बाउंड्री तक पहुंचे तो वहां के गेट पर लिखा था "वाहनो का प्रवेश वर्जित है"। हमने वाहन बाहर ही लगा लिया। भीतर जाने पर पता चला कि यह पुरातत्व सर्वेक्षण का संग्रहालय है। इस ईमारत पर कहीं पर भी संग्रहालय होने का चिन्ह नहीं लगा है। कोई साईन बोर्ड नहीं, वहां मिले लोगों से पूछने पर उन्होने बताया कि यह संग्रहालय है। संग्रहालय के भीतर पहुंचने पर कुछ लोग बैठे दिखे, सामने टीवी पर लोथल की डाक्युमेंट्री फ़िल्म का प्रदर्शन हो रहा था। उनसे पूछने पर पता चला कि यह फ़िल्म सिर्फ़ अग्रेंजी और गुजराती में ही उपलब्ध है, अब हिन्दी भाषा गुजरातियों के लिए विदेशी भाषा हो गयी है तो हिन्दी में अब आगे मिलना संभव नहीं है। वहाँ पर 4 लोगों का स्टाफ़ दिखाई दिया। एक मकवाना जी थे उन्होने हमें संग्रहालय की सैर करवाई।
ए एस आई कर्मचारी मकवाना एवं गुप्ता जी |
लोथल (લોથલ) से उत्खनन में प्राप्त वस्तुएं अद्भुत हैं, एक हिसाब से देखा जाए तो यह समृद्ध संग्रहालय है। इस संग्रहालय में बांयी तरफ़ उत्खनन से प्राप्त माला के मोती, टेराकोटा के गहने, मुद्रा, मुहर, सीप, तांबे और कांसे के औजार एवं वस्तुएं, हाथी दांत की बनी वस्तुएं एवं मिट्टी के बर्तन प्रदर्शित हैं तथा दूसरी तरफ़ जानवरों एवं मनुष्यों की छोटी मुर्तियाँ, चित्रित मिट्टी के बर्तन, तोलने का बांट, तथा कब्रिस्तान से प्राप्त मानव कंकाल की प्रतिकृति भी रखी हुई है। मकवाना ने बताया कि उत्खनन से प्राप्त लगभग 5 हजार वस्तुओं में से संग्रहालय में 800 वस्तुएं प्रदर्शित की गयी है। एक मृदा भांड पर मैने प्यासे कौवे द्वारा मटकी में कंकर डालते हुए अंकन देखा अर्थात प्यासे कौंवे की कहानी भी बहुत पुरानी है। पंचतंत्र की कथाओं में वर्णित चालाक लोमड़ी की कहानी भी रेखांकन द्वारा प्रदर्शित की गयी है। मृतकों के साथ रखे जाने वाला सामान भी संग्रहालय में रखा है।
प्राचीन खेल, आप प्रांत के हिसाब से नाम देने में स्वतंत्र हैं |
हाथी दांत की कलम, तीर के फ़लक, सोने के हार, एव एक स्थान पर मिले मनके इतने बारीक हैं कि उन्हे देखने के लिए पावर कांच का उपयोग किया गया है। सूई से लेकर चौपड़ तक यहां मौजूद है, बचपन में हम तीरी-पासा नामक खेल खेला करते थे, फ़र्श पर लाईन खींच कर। कौड़ी नहीं मिलती थी तो ईमली के बीज को फ़ोड़ कर दो हिस्सों में करने के बाद उसके पाँच हिस्से लेकर पासे में उपयोग करते थे। एक पट पासे का मान 5 होता था और चित पासे का मान एक। फ़िर इसी मान से सभी अपनी गोटियाँ चलते थे। लोथल एक व्यापारिक नगर होने के कारण यहाँ समय बिताने के लिए लोग इस खेल का ही प्रयोग करते थे। यहाँ मिले टेराकोटा के चौपड़ से पता चलता है। तब से लेकर आज तक यह खेल जारी है। इससे जाहिर होता है कि तीरी-पासा या चौपड़ का खेल बहुत प्राचीन है। आज हमारे यहाँ ग्रामीण अंचलों में यह खेल खेला जाता है। पशु चराने वाले चरवाहे कहीं पर भी लाईन खींच कर जंगल में उपलब्ध सामग्री से इस खेल को खेलकर मनोरंजन कर लेते हैं।
उत्खनन में प्राप्त कंकालों की प्रतिकृति |
संग्रहालय मध्य में लोथल के उत्खनित स्थल का एक माडल बना कर रखा गया है। हम माडल के द्वारा उत्खनित नगर की जानकारी ले सकते हैं। साथ ही मुद्राओ एवं मुहरों का प्रदर्शन किया गया है। सभी व्यापारियों का अपना पृथक व्यापार चिन्ह हुआ करता था। जिसे मुहर कहते थे, आज हम मुहर का प्रयोग करते हैं, किसी अधिकारी के पदनाम की मुहर की मान्यता है। अधिकारी को बदलते रहते हैं पर मुहर नहीं बदलती। उसी तरह व्यापारी अपने माल और हुंडी इत्यादि पर मुहर का प्रयोग करते थे। एक साबुत मृदा पात्र दिखाई दिया जिसमें बहुत सारे छेद बने हुए थे। यह पात्र रोशनी के लिए उपयोग में लाया जाता रहा होगा। पात्र के भीतर दिया रखने पर पुष्कल प्रकाश प्राप्त हो सकता है। कुछ कुल्हाड़ियाँ भी दिखाई दीं। उतखनन से प्राप्त पुरावस्तुओं से जाहिर होता है कि जब इस नगर का विनाश हुआ होगा तब यहाँ सभ्यता अपनी चरम सीमा पर होगी।
मुद्राएं एवं मुद्रांक (मुहर) |
सीप का दिकसूचक यंत्र भी यहाँ से उत्खनन में प्राप्त हुआ है। मानव के लिए भ्रमण के दौरान दिशा जानना भी आवश्यक था। अगर सूरज दिखाई नहीं दे रहा है दिशाओं का भान नहीं होता। ऐसी दशा में दिशाओं को जानने के लिए चुम्बक की आवश्यकता होती है। चुम्बक ही उत्तर-दक्षिण दिशाएं बताता है। इसके लिए हम लोहे की सुई का प्रयोग कर सकते हैं। पीपल जैसे वृक्ष का हल्का पत्ता, थाली या कटोरे जैसे बर्तन एवं एक लोहे की सुई। हम सुई को ऊनी कपड़े या सिर के बालों से रगड़ कर आवेशित करने के पश्चात पत्ते पर रख कर पानी में डाल दें तो वह हमें उत्तर दक्षिण दिशा बताता है। प्राचीन काल में दिशा जानने के लिए इसी तरह के यंत्रों का उपयोग किया जाता था और आवश्यकता पड़ने पर आज भी किया जा सकता है। इन सब पुरावस्तुओं के प्राप्त होने से ज्ञात होता है कि हमारी सभ्यता पृथ्वी की अन्य सभ्यताओं से पीछे नहीं थी। वरन आगे ही चल रही थी।
उत्खनन स्थल का माडल |
लोथल के उत्खनन स्थल पर जानकारी प्राप्त करने के लिए किसी जानकार आदमी की जरुरत थी। मैने प्रवीण मिश्रा जी को फ़ोन लगाया तो वे दिल्ली में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के 150 वर्ष पूर्ण होने पर आयोजित कार्यक्रम में थे। कुछ देर बाद उन्होने फ़ोन लगा कर जानकारी दी। लेकिन जिनके बारे में जानकारी दी वे वहाँ उपस्थित नही थे। हमारे आग्रह करने पर मकवाना ने कहा कि विकुल नाम का एक लड़का वहां पर काम कर रहा है मैं उसे फ़ोन लगा देता हूँ। विनोद भाई चाय पीने की इच्छा जाहिर कर रहे थे पर संग्रहालय में चाय का कोई इंतजाम नहीं था। न ही आस पास कोई चाय की दूकान। पूछने पर बताया कि चाय की दूकान यहाँ से 4 किलोमीटर दूरी पर मिलेगी। हमने चाय पीने के ईरादे को त्याग देना ही उचित समझा, पर्यटक एवं पुरातत्व प्रेमियों को सलाह है कि यहाँ चाय नाश्ता इत्यादि साथ लाएं। संग्रहालय में लोथल से संबंधित जानकारी देने वाली कुछ किताबें उपलब्ध हैं जो क्रय की जा सकती है। विनोद भाई ने दो-तीन किताबें ली और उत्खनित स्थल की ओर चल पड़े। ---- आगे पढें
जानकारी का आभार। लोथल के बार में तो पहले भी पढा सुना था परंतु चिरचिरा की जानकारी पहली बार देखी।
जवाब देंहटाएंभारतीय इतिहास के इस रूप में दस्तावेजीकरण का एक अद्भुत प्रयास , आने वाले समय के लिए यह यात्रा वृतांत एक आधार होंगे इतिहास पर काम करने वालों के लिए ....आप स्वस्थ रहें और यात्राएं जारी रखें .....!
जवाब देंहटाएंयात्रा वृतांत के साथ अच्छी एतिहासिक जानकारी भी मिली
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक वर्णन.
जवाब देंहटाएंयात्रा वृत्तान्त के साथ बहुत सारी ऐतिहासिक जानकारियों का खजाना है आज का लेख... आभार और शुभकामनाएं....
जवाब देंहटाएंजानकारी पूर्ण आलेख. आभार.
जवाब देंहटाएंभारत पुरामहत्व का खज़ाना है . ऐसे स्थानों पर पूर्ण जानकारी या गाईड के बिना जाने का कोई फायदा नहीं है ...इस सिलसिले में आपकी रोचक श्रृंखला भी बहुत उपयोगी है !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद एवं कोटि कोटि नमन
जवाब देंहटाएंरोचक जानकारी।
जवाब देंहटाएंमै पहले ही यहाँ जा चुका हुं। पास में ही हमारा एक आश्रम है और गौशाला भी। मै बहुत बार सोचता था कि इसके बारे मे कुछ करूँ लेकिन व्यस्तता या समयाभाव के कारण कुछ न लिख सका न कर सका । धन्यवाद ललित जी । जब मै अहमदाबाद जाऊंगा तो जरूर इस बारे मे वहां के मंत्री मण्डल से बात करूंगा ताकि राज्य सरकार वहां के सुधार के लिए कुछ कदम उठाये ।
जवाब देंहटाएंयह श्रृंखला तो मैं सहेज लुंगी.आभार आपका.
जवाब देंहटाएंबचपन में तिरी पासा तो हमलोग भी खेलते थे .. पर नाम कुछ और था .. लोथल पर पोस्ट का इंतजार था .. अच्छी जानकारी मिली !!
जवाब देंहटाएंबचपन में तिरी पासा तो हमलोग भी खेलते थे .. पर नाम कुछ और था .. लोथल पर पोस्ट का इंतजार था .. अच्छी जानकारी मिली !!
जवाब देंहटाएंइस आलेख की प्रतीक्षा थी, बडा ही रोचक वृतांत है। अगले अध्याय का भी इन्तज़ार रहेगा।
जवाब देंहटाएंरोचक आलेख, यह खेल तो बहुत खेला है बचपन में..
जवाब देंहटाएंबहुत अजीब लगता है विकसित सभ्यता किस तरह जमींदोज हो जाती है!
जवाब देंहटाएंलोथल को देखने की बचपन की कामना पूरी हुई। बधाई।
आगे भी सभी कामनाएं पूरी हों शुभकामनाएं।
आपका उत्साह सदैव बना रहे।
अपामर्ग के बारे में रोचक जानकारी।
बचपन के खेल की याद दिल दी।
VAPAAS KUCH DIN PAHLE LE GAYA AAPKAA LIKHA LOTHAL: GUJARAT KA SAFARNAMA
जवाब देंहटाएंNice..wah
रोचक वर्णन के साथ ऐतिहासिक जानकारी
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंचिरचिटा का प्रयोग जो आपने बताया है वह तो अवश्य होता है ....पर आपके इस लेख से मुझे यह लगता है की अवश्य ही बात बात पर अनशन करने वालों के लिए तो यह रामबाण है.
जवाब देंहटाएंरोचक लेख
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रोचक वर्णन के और ऐतिहासिक जानकारी
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