एक पुरानी रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ, इस रचना के जन्म के पीछे एक कहानी है, खेती का काम चाचा जी देखते थे। उनके देहावसान पश्चात खेती का काम मुझे करवाना पड़ा। खर्च अधिक और फ़सल कम, हर साल घाटा ही घाटा। एक बरस आस-पास के किसानों ने अपनी फ़सल काटी, फ़सल कटते ही दो दिन बरसात हुई और सारा धान खेतों में पड़े पड़े ही उग गया। मैने सबके बाद बरसात बंद होने पर धान कटाई करवाया। जैसे ही धान कटा, बरसात फ़िर शुरु हो गयी और लगातार 5 दिन पानी गिरा। सारी पकी पकाई फ़सल चौपट हो गयी। 6 एकड़ से 32 बोरा (एक बोरे में 75 किलो की भरती) धान हुआ। साल भर की मेहनत पर पर पानी फ़िर गया।
एक बीज से आस लगी थी, मृगतृष्णा सी प्यास जगी थी,
सारा चौपाल सूना-सूना था, जैसे गांव में आग लगी थी,
चारों तरफ़ सन्नाटा-ही सन्नाटा,जैसे सन्निपात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे गर्भपात हो गया।
तेरे इस विशाल नीले आँचल में, पंख फैलाये उड़ता था मै,
प्रगति के नए सोपानों में, नित्य सितारे जड़ता था मै,
ऐसा क्या अपराध हो गया, मुझ पर क्यों आघात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे गर्भपात हो गया,
पहले भी मै तडफा-तरसा था, तू कभी न समय पर बरसा था,
लिए हाथ में धान कटोरा मै, दु:ख में भी बहुत - बहुत हर्षा था,
नई सुबह की आशा में था, सहसा ही वज्रपात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे गर्भपात हो गया,
गीली मेड़ की फिसलन पर, मै बहुत दूर जा फिसला हूं,
तेरी किरपा की आस लिए मै, नित तुझको ही भजता हूँ,
डोला गगन आया विप्लव,जैसे कोई उल्का पात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे गर्भपात हो गया,
असमय बरसा तो क्यों बरसा,चारों ओर हा-हा कार हो गया,
जिस पर अभी यौवन छाना था,वो जीवन से बेजार हो गया,
तू ही बता असमय वर्षा पर, रोऊँ या मै जान लुटा दूँ,
लूटा-पिटा बैठा हूँ अब मै ,जैसे कोई पक्षाघात हो गया,
उगे बीज को मरते देखा,
जैसे गर्भपात हो गया।
ललित एक रूप अनेक.......बहूतेच सूंदर रचना...
जवाब देंहटाएंफसल के नुकसान को उगे बीज के गर्भपात से जोड़ एक नया आयाम दिया ...
जवाब देंहटाएंदुःख बहुत दुःख होता है ऐसी घटना से लेकिन जीवन है धूप-छाँव आती जाती रहती है... प्रकृति का नियम है सुख-दुःख फिर सुख.... आशा पर दुनिया कायम है... शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबेहतर शिल्प और भाव को जिन शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है वह ...निश्चित रूप से प्रासंगिक है ..... " गर्भपात " शब्द ने कविता को कालजयी बना दिया ....और एक नया बिम्ब गढ़ दिया ..!
जवाब देंहटाएंकिसान मन ही ठीक-ठीक समझ सकेगा यह भाव.
जवाब देंहटाएंकभी -कभी इंसान कुदरत के आगे मजबूर हो जाता हैं ....पर वो मायूस हो बैठता नहीं,अपने काम पर दुबारा दुने जौश से लग जाता हैं --
जवाब देंहटाएंयही जीवन -चक्र हैं ..यही जिन्दगी का सच हैं....
यह पीड़ा इससे अधिक संवेदनात्मक अभिव्यक्ति नहीं पा सकती थी।
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर रचना हैं
जवाब देंहटाएंयही जिन्दगी का सच हैं
जिंदगी की वास्तविकता को करीब से समझाती रचना।
जवाब देंहटाएंगर्भपात सा ही हुआ अनुभव होता है जब ऐसी स्थिति हो जाती है तो..... जो भी कष्ट आपकी आत्मा ने सहा उसको ज्यो का त्यों आपने शब्दों में ढाल लिया...ये भी अनुपम साहस है.....
जवाब देंहटाएंकुँवर जी,
बेहद संवेदनशील अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ढंग से मन:व्यथा कह डाली आपने! जिस तरह एक नौकरी पेशा वाला इन्सान प्रोमोशन और वेतन वृद्धि की आश लगाये रहता है, एक कृषक के लिए यही सबकुछ उसका खेत होता है, उसकी फसल होती है !
जवाब देंहटाएंएक खेतिहर की दर्दभरी दास्ताँ. बहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंउगे बीज को मरते देखना कितना यातनादायक है, इसे कविता में बहुत ही मार्मिकता से उभारा है। किसान की व्यथा को कविता के जरिये सबके सामने लाने के लिये आभार।
जवाब देंहटाएंकिसानों के साथ अक्सर ऐसा होता रहता है :(
जवाब देंहटाएंएक किसान की ऐसी बढ़िया रचना पढ़कर , फिर कभी बरसात की ऐसी हिम्मत नहीं हुई होगी । :)
जवाब देंहटाएंकिसान की विपदा वही जान सकता है.
जवाब देंहटाएंअद्भुत रचना ..
जवाब देंहटाएंआशा के टूटने को ..
सही अभिव्यक्ति दी है !!
great lalitji.. loved it !!
जवाब देंहटाएंमन को मंत्रमुघ्द करने वाली रचना.
जवाब देंहटाएं"उगे बीज को मरते देखा,
जवाब देंहटाएंजैसे गर्भपात हो गया,"
वाह ! करूण रस जगाती सूंदर रचना ।