सोमवार, 11 जून 2012

महेशपुर ---------- ललित शर्मा

बड़े देऊर मंदिर, के पी वर्मा,ललित शर्मा, राहुल सिंह
महेशपुर की ओर बढ रहे हैं, उदयपुर रेस्टहाउस से आगे जाकर दायीं तरफ़ के कच्चे रास्ते पर गाड़ी मोड़ने का आदेश मिलता है। यह रास्ता आगे चलकर एक डब्लु बी एम सड़क से जुड़ता है। थोड़ी दूर चलने पर जंगल प्रारंभ हो गया जहां सरई के वृक्ष गर्व से सीना तान कर खड़े हैं जैसे सरगुजा के वैभव का बखान कर रहे हों। सरगुजा है ही इस लायक रमणीय और मनोहारी, प्राकृतिक, सांस्कृतिक एवं पुरासम्पदा से भरपूर्। जिस पर हर किसी को गर्व हो सकता है। गर्मी के इस भीषण मौसम में भी सदाबहारी वृक्षों से हरियाली छाई हुई है। महुआ के वृक्षों के पत्ते लाल से अब हरे हो गए हैं। फ़ूल झरने के बाद अब फ़ल लगे हुए हैं, जिन्हे कोया, कोवा, टोरी कहते हैं। इनका तेल निकाला जाता है। तेल निकालने के बाद खल भी कई कार्यों में ली जाती है। पेड़ों पर परजीवी लताएं झूल रही हैं। जंगल का जीवन मनुष्य से लेकर वन्यप्राणियों एवं पेड़ पौधों से लेकर पशु पक्षियों तक एक दूसरे पर ही निर्भर है। कह सकते हैं कि सभी एक दूसरे पर ही आश्रित हैं। तभी जीवन गति से आगे बढ रहा है। वरना किसी की क्या बिसात है जो दो पल भी जीवन का सुख या दु:ख झेल ले। शाम होने को है, कच्ची सड़क के 5 किलोमीटर की एक पक्की सड़क आती है जो सीधे महेशपुर के पुरावशेषों तक ले जाती है। कुल मिलाकर उदयपुर से महेशपुर की दूरी 12 किलोमीटर है।

मंदिर की ताराकृति प्रस्तर जगती
महेशपुर रेण नदी के तट पर बसा है, यह क्षेत्र में 8 वीं सदी से लेकर 11 वीं सदी के मध्य कला एवं संस्कृति से अदभुत रुप से समृद्ध हुआ। इस काल के स्थापत्य कला के भग्नावेश महेशपुर में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। उपलब्ध पुरासम्पदा की दृष्टि से महेशपुर महत्वपूर्ण पुरातत्वीय स्थल है। यहाँ शैव, वैष्णव एवं जैन धर्म से संबंधित पुरावशेष मिलते हैं। रियासत कालीन प्रकाशित पुस्तकों में महेशपुर प्राचीन स्थल एवं शैव धर्म के आस्था स्थल के रुप में उल्लेखित है।अभी भी कई बड़े टीलों का उत्खनन होना है। जिससे इस स्थान  के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलेगी तथा इसका इतिहास प्रकाश में आएगा। सड़क मार्ग से जुड़ा यह पुरास्थल अम्बिकापुर से 45 किलोमीटर की दूरी पर है। इस रास्ते से ही भगवान राम का दण्डकारण्य में आगमन हुआ और उन्होन वनवास का महत्वपूर्ण समय यहाँ पर व्यतीत किया। दण्डकारण्य सरगुजा के लेकर भद्राचलम तक के भू-भाग को कहा जाता है। जनश्रुति के अनुसार जमदग्नि ॠषि की पत्नी रेणुका ही इस स्थान पर रेण नदी के रुप में प्रवाहित है। रेण नदी का उद्गम मतरिंगा पहाड़ है और यह अपने आंचल में प्रागैतिहासिक काल से लेकर इतिहास के पुरावशेषों को समेटे हुए है।

विध्वंस कथा:विशाल वृक्ष की जड़ में फ़ंसा मंदिर का आमलक
हमारी कार सबसे पहले बड़का देऊर कहे जाने वाले शिव मंदिर के सामने रुकती है। सन 2008 में पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग छत्तीसगढ द्वारा पुराविद जी एल रायकवार के निर्देशन में यहाँ उत्खनन प्रारंभ हुआ। उत्खनन से विभिन मंदिरों की संरचनाएं सामने आई और दक्षिण कोसल की एतिहासिक शिल्पकला प्रकाश में आई। हम शिव मंदिर का निरीक्षण करते हैं, मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है। पत्थरों से बनी ऊंची जगती पर स्थापित यह मंदिर ताराकृति में बना हुआ है। पुराविद कहते हैं कि ताराकृति मंदिर की बनावट बहुत कम देखने मिलती है। शिल्पकारों के बनाए नाप जोख के निशान अभी भी पत्थरों पर निर्माण की मूक कहानी कहते हैं। हम मंदिर की जगती के चारों तरफ़ घूम कर देखते हैं। मंदिर का सिंह द्वार पश्चिम की ओर है अर्थात मंदिर पश्चिमाभिमुख है। आस-पास मंदिरों के प्रस्तर भग्नावेश बिखरे पड़े हैं। मंदिर की पश्चिम दिशा में रेण नदी प्रवाहित होती है। मंदिर के प्रांगण में सैकड़ो वर्ष पुराने वृक्ष इन मंदिरों की तबाही की गाथा स्वयं कहते हैं। किसी कारण वश जब इनकी मंदिरों की देख रेख नहीं हो रही होगी तब इन वृक्षों की जड़ों ने मंदिरों को तबाह किया। 

वामन और राजा बली
यहाँ से हम आगे चल कर दायीं तरफ़ स्थित टीले की ओर जाते हैं वहाँ सैकड़ो प्रस्तर मूर्तियाँ खुले में रखी हुई हैं। जिन्हे देख कर महेशपुर के वैभवशाली अतीत की एक झलक मिलती है। हमने मुर्तियों के चित्र लिए तथा बायीं तरफ़ स्थित मंदिरों की देखने गए। यहां भी सैकड़ों मुर्तियां एवं मंदिरों के विशाल आमलक पड़े हैं। एक आमलक तो वृक्ष की विशाल जड़ में फ़ंसा हुआ दिखाई दिया। मंदिरों की जगती एवं दीवारों को अपनी जड़ों से जकड़े विशाल वृक्ष खड़े हैं। कुछ टीलों का पुरातत्व विभाग ने उत्खनन कर मुर्तियों को बाहर निकाला है। अभी भी सैकड़ों टीले कई किलोमीटर में जंगल के भीतर फ़ैले हुए हैं जिनका उत्खनन करना बाकी है। इन मंदिरों को त्रिपुरी कलचुरी काल में निर्मित बताया गया है। त्रिपुरी कलचुरी राजाओं की राजधानी जबलपुर में स्थित थी। महेशपुर की विशालता से पता चलता है कि यहां तीर्थयात्री आते थे तथा यह स्थान दंडकारण्य में प्रवेश करने का द्वार रहा होगा। यहीं से होकर यात्री रतनपुर एवं रायपुर ओर बढते होगें।

आदिनाथ
इस स्थल के पास से आदिनाथ की प्रस्तर प्रतिमा प्राप्त हुई है। पुराविद कहते हैं कि आदिनाथ की यह प्रतिमा कहीं अन्य टीले से लाकर यहाँ रखी गयी होगी। इस स्थल पर रखी हुई मूर्तियों में विष्णु, वराह, वामन, सू्र्य, नरसिंह, उमा महेश्वर, नायिकाएं एवं कृष्ण लीला से संबंधित मूर्तियां प्रमुख हैं। इस स्थान से 10 वीं सदी ईसवीं का भग्न शिलालेख भी प्राप्त हुआ है। उत्खनन से प्रागैतिहासिक काल के कठोर पाषाण से निर्मित धारदार एवं नुकीले उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। उत्खनन से महेशपुर की कला संपदा का कुछ अंश ही प्रकाश में आया है। महेशपुर की प्राचीनता का प्रमाण प्राचीन टीलों, आवसीय भू-भागों, तथा सरोवरों के रुप में वनांचल में 2 किलोमीटर तक फ़ैले हैं। महेशपुर की शिल्पकला को देखकर दृष्टिगोचर होता है कि वह समय शिल्पकला के उत्कर्ष दृष्टि से स्वर्णयुग रहा होगा। महेशपुर से उत्खनन में प्राप्त दुर्लभ शिल्प कलाकृतियाँ हमारी धरोहर हैं। इन्हे संरक्षित करना सिर्फ़ शासन का ही नहीं नागरिकों का कर्तव्य भी है। इस स्थान को देख कर मन रोमांचित होकर कल्पना में डूब गया कि आज से हजारों वर्ष पूर्व यह स्थल भारत के मानचित्र में कितना महत्वपूर्ण स्थान रखता होगा। जो आज खंडहरों में विभक्त हो धराशायी होकर मिट्टी के टीलों में दबा पड़ा है।

नृसिंह  
महेशपुर के विषय में शोध होना अभी बाकी है। यहां के मंदिरों एवं भवनों का निर्माण कराने वालों के नाम उल्लेख अभी प्रकाश में नहीं आया है। निर्माणकर्ताओं का नाम प्रकाश में आने के पश्चात छत्तीसगढ की गौरवमयी विरासत में एक कड़ी और जुड़ जाएगी। मंदिर के समीप ही उत्खनन में प्राप्त प्रतिमाओं एवं सामग्री को रखने के लिए संग्रहालय का निर्माण अपने अंतिम चरण में है। संग्रहालय की छत टीन की चद्दरों की है, चौकीदार ने बताया कि बिजली लगने पर संग्रहालय में प्रतिमाएं रख दी जाएगीं जिससे प्रतिमाओं का क्षरण एवं चोरियाँ न हो। मूर्ती तस्करों निगाह खुले में पड़ी मूर्तियों पर रहती है। जिसे चोरी करके वे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बड़ी कीमत में बेचते हैं। सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा है, आदिनाथ टीले के पार्श्व में बने एक मकान में फ़लदान (सगाई) का कार्यक्रम चल रहा है। सगे-संबंधी महुआ रस के साथ नए संबंधों के जुड़ने का गर्मजोशी से स्वागत कर रहे हैं। खंडहर हुए महेशपुर में भी कभी ढोल नगाड़े बजते होगें तीर्थयात्रियों, पर्यटकों, पथिकों की चहल-पहल रहती होगी। दुकाने एवं बाजार सजते होगें। वर्तमान दशा को देखकर लगता है कि संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है। चाहे बनाने वाले ने कितना ही मजबुत और विशाल निर्माण क्यों न किया हो? हम समय के साथ अपने आश्रय स्थल पर पहुचने के लिए चल पड़ते है।   

16 टिप्‍पणियां:

  1. 'राहुल सिंह' जी जैसी विषय विशेषज्ञ शख्सियत के साथ ऐसी जगहों पर जाना वाकई रोमांचक रहा होगा|

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  2. आपकी नजर से देखना हमेशा नई दृष्टि देता है, बढि़या लेखा.

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  3. रोचक यात्रा वृतांत में अद्भुत पुरासंपदा से परिचय हो रहा है ...
    आभार !

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  4. आपका पुरासंपदाओं की शोध व खोज यात्राएं और जानकारी प्रदान करना स्तुत्य है। चाव से पढते है आपके वृतांत!!

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  5. अपना वैभवशाली इतिहास - खंड खंड बिखरा पड़ा है ...


    साधुवाद - सुंदर पोस्ट के लिएय.

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  6. अद्भुत पुरासंपदा, दुर्लभ शिल्प कलाकृतियाँ, सुन्दर चित्र, आपका शोध और इन सबका बारीकी से किया रोचक वर्णन ब्लॉग जगत की बहुमूल्य धरोहर है... वर्तमान के साथ -साथ आने वाला भविष्य भी इनसे लाभान्वित होगा... बधाई और ढेर सारी शुभकामनायें...

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  7. ,
    अद्भुत पोस्ट और सुन्दर लेखन विधा को पढ़कर मुझे यह समझ कभी नहीं आया कि साथ चलकर भी मेरी दृष्टि इतनी सुक्ष्म क्यों नहीं बन पाती,
    शायद ये आपके खोजी और जिज्ञासु निगाहों का असर है ....खुबसूरत अक्षरशह वर्णन ..........

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  8. अद्भुत है हमारी पूरा संपदा....
    जय छत्तीसगढ़/जय भारत
    जानकारी वर्धक, रोचक आलेख....
    सादर आभार।

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  9. आपके यात्रा वृतांत लाजवाब होते हैं।
    हर एक पेड, सडक, पक्षी का नाम, रास्ते का नाम, बहुत सूक्ष्म अवलोकन और वर्णन करते हैं।
    जैसे
    "महुआ के वृक्षों के पत्ते लाल से अब हरे हो गए हैं। फ़ूल झरने के बाद अब फ़ल लगे हुए हैं, जिन्हे कोया, कोवा, टोरी कहते हैं। इनका तेल निकाला जाता है।"
    कहीं कहीं दार्शनिक भाव जैसे "किसी की क्या बिसात है जो दो पल भी जीवन का सुख या दु:ख झेल ले।"
    उस जगह का इतिहास भी अछूता नहीं रहता।
    हमें आप बहुत सारी जगहों की यात्रा अपने साथ करवाते हैं।
    आपकी खोज पूर्ण यात्राओं में हमें अपना सहभागी बनाने के लिये आभार।

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  10. सच कहा इस ब्रह्माण्ड में कुछ भी स्थिर नहीं ...सब चलत हैं ,जो आज हैं वो कल रहेगा नहीं ,पर इतिहास अपने निशान तो छोड़ ही जाएगा ...
    यह कोया, कोवा, टोरी क्या महुआ के ही नाम हैं इनके तेल का क्या उपयोग हैं ?
    मजेदार यात्रा हैं गर्मियों का लुत्फ़ उठाते रहे ...

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  11. आपके माध्‍यम से बहुत सारी नई नई जानकारी मिलती हैं .. यह भी हमेशा की तरह ही ज्ञानवर्द्धक आलेख है!!

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  12. इतिहास के न जाने कितने अनसुलझे अध्याय छिपे हैं यहाँ..

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  13. बढ़िया रोचक यात्रा वृतांत ...
    आभार आपका !

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  14. A nice post and blog, Lalit. Thank you for your comment on my post and following. I'm now following you too! Plz do come again:)

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  15. ललितजी, आपके विवरण से मैंने गूगल मैप में इस जगह को अंकित किया है, कृपया इसकी पुष्टि करें. लिंक - http://goo.gl/maps/U0j2Z

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