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रेल के यात्री |
मालकिन कई दिनों से मायके जाने की कह रही थी। वैसे इनका मायके जाना 30 अप्रेल के बाद तय है। अब मई के प्रथम सप्ताह में ही कोई तारीख तय होती है जाने की। इस समय 6 मई की तारीख तय हुई। 4 मई को
नामदेव जी ने फ़ोन करके बताया कि अमरकंटक चलना है। वहाँ कोई धार्मिक कार्यक्रम है। हमने मालकिन से कहा कि उन्हे भाटापारा पहुंचाते हुए चले जाएगें। संवाद होते रहा, पर कैसे जाना है यह तय नहीं हुआ। आखिर सालिगराम जी के फ़ोन से तय हुआ कि दोपहर को एक नयी पैसेंजर चली है। उससे ही आना ठीक रहेगा। 6 मई को हम दोपहर 1 बजे की ट्रेन में इन्हे बैठाने रायपुर स्टेशन पहुंचे। तभी नामदेव जी ने बताया कि शाम को 5 बजे अमरकंटक चलेगें। मैने उन्हे घर से कपड़े और दैनिक उपयोग की सामग्री साथ लेने कहा और रायपुर में उनके आने की प्रतीक्षा करने लगा।
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रेल्वे क्रासिंग |
शाम 5 बजे नामदेव जी रायपुर पहुंच गए। साथ में उनके अग्रज और मदन लाल साहू भी थे। हम चलने के लिए कारारुढ हुए। बैग के विषय में पूछा तो उन्होने कहा कि अम्मा से मांग कर ले आए हैं। मैने पीछे रखा हुआ बैग देखा तो माथा खराब हो गया। वह बैग तो मेरे दैनिक उपयोग की सामग्री के साथ रहने वाला था। उसमें पेन-पैड छोड़ कर कुछ भी नहीं था। मैने जाने से मना कर दिया। नहीं जाऊंगा अब तीन-चार दिन बिना कपड़ों के एक ही जोड़ी में गुजारा नहीं हो पाएगा और इस तरह का वाकया पहली बार हुआ है मेरे साथ। मदन लाल साहू ने सफ़ाई दी कि अम्मा से बैग मांगने पर उन्होने यही दिया है। अरे कम से कम इतना तो स्वविवेक होना चाहिए कि 3-4 दिन के लिए जा रहे हैं तो बैग में कपड़े तो होने चाहिए। अब कपड़े लेने अभनपुर आते तो एक घंटे का फ़टका लग जाता। मैने जाने से मना कर दिया और कहा कि-जहां से मुझे लिया है वहीं छोड़ दो। आप लोग जाईए, मुझे नहीं जाना है।
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लल्लन प्रसाद नामदेव जी (साबरमती आश्रम गुजरात) |
नामदेव जी कहने लगे कि कार तो आपके कहने से ही लाए हैं। नहीं तो हम ट्रेन से ही चले जाते। चलिए दैनिक उपयोग के कपड़े वहीं ले लेगें। नाराज काहे होते है भाई, छोटी-मोटी चूक हो जाती है। इनकी सलाह जंच गयी, हमने सोचा कि एक बार ऐसी भी यायावरी का तजुर्बा ले लिया, चला जाए बिना किसी तैयारी के। आज बुद्ध पूर्णिमा भी थी। हमने एक बार फ़िर कार मोड़ कर रास्ते पर डाल ली। अब याद आया कि हमारी गोली दवाई भी नहीं है और मुझे उनका नाम भी याद नहीं है। डॉ सत्यजीत को फ़ोन लगाया तो उसने फ़ोन नहीं उठाया। हम क्लिनिक के पास के मेडिकल स्टोर्स में पहुंचे कि उसे तो याद होगा क्या दवाई मै लेकर जाता हूँ उसे भी नाम याद नहीं था। येल्लो लग गयी वाट्। तभी याद आया कि मेरे बैग में दवाईयों की पर्ची पड़ी है। बस काम बन गया। दवाईयों की पर्ची से दवाई खरीदी, अब जाना पुख्ता हो गया। हम अमरकंटक की ओर चल पड़े। आशा थी कि रात तक अमरकंटक पहुंच जाएगें।
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पंकज सिंह और लेखक अयोध्या के होटल में |
सड़क मार्ग से रायपुर से बिलासपुर 110 किलीमीटर की दूरी पर है, एक्सप्रेस ट्रेन से 36 रुपए की दूरी पर। बिलासपुर से पेंड्रा रोड़ होते हुए अमरकंटक 120 किलीमीटर पर है। कुल मिला कर हमें 230 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। रायपुर से 45 किलोमीटर सिमगा पहुंचने पर भूख लगने लगी। क्योंकि आज दोपहर में भी भोजन नहीं किया था। मारी बिस्किट से ही काम चलाना पड़ा। डॉ ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि खाने पीने में कोताही नहीं बरतना अन्यथा भ्रमण छोड़ कर घर पर ही मौज करिए। क्योंकि 2 मई को शुगर का लेबल मीटर की सुईयाँ तोड़ कर HI बोल चुका था। हमने खाने-पीने में कोताही नहीं बरतने का वादा किया। तब कहीं जाकर उसने बाहर जाने की इजाजत दी। अब मामला कंट्रोल में था। सिमगा पहुंच कर हमने तरबूज लिए। बाकियों ने कुछ अड़बड़गम नाश्ता किया। हमने चलती कार में ही तरबूज उदरस्थ किए। बिलासपुर पहुंचने पर अंधेरा हो चुका था। पंकज के घर पर पहुंचने तक 8 बज चुके थे।
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तुलसी बाबा |
पंकज के यहाँ मैने एक गिलास लस्सी पी और बाकियों ने चाय। पंकज आज ही छत्तीसगढ पीएससी का एक्जाम देकर आया था और किसी एक्जाम की तैयारी में लगा था। हम थोडी देर के बाद बिलासपुर से अमरकंटक की ओर निकल लिए। अंधेरा गहराता जा रहा था साथ ही हमें अचानकमार का जंगल भी पार करना था। इस जंगल की सर्पिली सड़कों पर रात को गाड़ी संभाल कर चलानी पड़ती है। इस जंगल में शेर की उपस्थिति भी देखी जा चुकी है। अचानकमार जंगल के प्रारंभ होने पर फ़ारेस्ट के नाके में जानकारी देनी पड़ती है। ड्रायवर एवं गाड़ी मालिक सहित जाने का सबब भी बताना पड़ता है। फ़िर इस गेट पर एक टोकन दिया जाता है। जिसे अंतिम निकासी गेट पर देना पड़ता है। तब कहीं जाकर इस जंगल की यात्रा सम्पूर्ण होती है। टोकन का सिस्टम अभी शुरु हुआ है, पहले नहीं था। हमने भी यही प्रक्रिया अपनाई। जंगल में जिस नाले के पास शेर देखा गया वहीं पर हम गाड़ी से बाहर निकले। हो सकता है हमारी किस्मत में भी देखना लिखा हो।
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बुद्ध पूर्णिमा का चाँद |
चाँदनी रात थी, और खास बात यह थी कि आज के दिन ही बुद्ध पूर्णिमा का चाँद पृथ्वी के सबसे समीप था। इसलिए बड़ा दिखाई दे रहा था। याद आया, इस आशय की
एक पोस्ट संगीता जी ने लगाई थी। मैने संगीता पुरी जी से रास्ते में चर्चा भी की थी। चाँद की रोशनी में नदी बड़ी सुंदर दिखाई दे रही थी। पानी कम ही था, पर जंगली जानवरों की निस्तारी के लिहाज से काफ़ी था। वरना गर्मी में पानी कहाँ मिलता है? सभी नदी-नाले सूख जाते हैं। शेर या अन्य कोई जानवर नहीं दिखने पर हम आगे बढते हैं। जंगल के भीतर के गावों में बिजली नहीं है। अभ्यारण्य घोषित होने के कारण यहाँ कुछ भी निर्माण नहीं किया जा सकता। सोलर लाईट गांव में चमक रही थी। पहले तो सड़क के किनारे कई लाईटें लगी थी। पर अब दो चार ही जल रही थी। पहले हमने जिस छोटे से होटल में चाय पी थी अब वह बंद मिला। यहाँ मौसम में ठंडक आ जाती है। वैसे भी अमरकंटक का मौसम गर्मी के दिनों में खुशनुमा हो जाता है।
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रामसजीवन चौरसिया |
रास्ते में पता चला कि हमारे परम सखा
आर एस चौरसिया (जिन्हे मैं स्वामी जी कहकर संबोधित करता हूँ) रींवा से सीधे ही अमरकंटक पहुंच रहे हैं। रात को उन्होने मृत्युंजय आश्रम में रुम बुक करवा रखा है। हम रात 12 बजे के लगभग अमरकंटक पहुंचे। मृत्युंजय आश्रम में दरवाजा खटखटाने पर भी किसी ने नहीं खोला। हमने स्वामी जी को फ़ोन करके जगाया। पर चौकीदार ने उनकी भी नहीं मानी। कहा कि 10 बजे के बाद आश्रम का गेट किसी के लिए नहीं खुलता। मरते क्या न करते। नामदेव जी सामने स्थित गुरु जी के आश्रम में चले गए। उन्होनें वहीं सोने का जुगाड़ लगाया । हाँ! एक खास बात देखने मिली कि अमरकंटक में नर्मदा जी के किनारे एक भी मच्छर नहीं था। रामघाट पर हमने गाड़ी लगाई और कार में ही सीट लम्बी करके सो गए। दो-चार घंटे की ही तो रात काटनी थी। सुबह आश्रम गेट खुल जाना था। …… यात्रा जारी है……
आगे पढें
पेंड्रा रोड, अमरकंटक, देखिये मैं कब जा पाता हूँ. आपका यात्रा विवरण बहुत मस्त होता है ललित जी, ऐसा लगता है की हम भी सहयात्री ही हैं|
जवाब देंहटाएंbahut sundar barnan... yatra jaari rakhen...
जवाब देंहटाएंएक एक नए पैसे के हिसाब केसाथ दवाई दारू लेकर तीर्थ यात्रा का बारीक़ लेनदेन संग वर्णन मज़ा आ गया ..
जवाब देंहटाएंइन यात्राओं के वर्णन पढ़ने में मन रम जाता है !
जवाब देंहटाएंयात्रा जारी रहे
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी की प्रतीक्षा
सुन्दर यात्रा विवरण. लेकिन पेंड्रा तो बीच में पड़ी ही नहीं होगी.
जवाब देंहटाएं@P.N. Subramanian
जवाब देंहटाएंकेंवची से कबीर चौरा होते हुए गए थे, इसलिए पेंड्रारोड़ नहीं आया।
अमरकंटक हम भी सड़क यात्रा से गये थे, उसकी यादें ताजा हो रही हैं।
जवाब देंहटाएंबढ़िया यात्रा वृत्तांत.....
जवाब देंहटाएंघूमते रहिये...लिखते रहिये...
सादर
अनु
बहुत बढ़िया रहा आज का सफ़र ...सुबह -सुबह कच्छी लेने बाजार भागना पड़ा होगा हा हा हा हा
जवाब देंहटाएंबगैर कपड़े और दैनिक उपयोग की सामग्री साथ लिए जाने से बड़ी मुश्किल हो गई होगी यात्रा, वहां तो ठण्ड भी होती है. ये भी एक खास तजुर्बा है. अगली कड़ी का इंतजार है... रोचक यात्रा विवरण
जवाब देंहटाएंपेंड्रा रोड हमारे यहाँ से २७ कि०मी० दूर है
जवाब देंहटाएंरोचक विवरण,के इन्तजार में ,,,,,
RECENT POST काव्यान्जलि ...: आदर्शवादी नेता,
गुस्साना मना है ...............:-)
जवाब देंहटाएंफुलटू घुमक्कडी...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रहा आज का सफ़र.
जवाब देंहटाएंअमरकंटक के प्राकृतिक सौंदर्य के बारे में बहुत सुना है। आंखों देखा व महसूस किया हाल फोटो सहित जानने के लिये अगली पोस्ट का इंतजार है।
जवाब देंहटाएंतमाम मुश्किलों को पार कर यात्रा शुरू हो ही गयी ...
जवाब देंहटाएंअगली किश्त का इंतज़ार !
सुन्दर यात्रा वृत्तांत...
जवाब देंहटाएंSadar naman aapki lekhni ko, mai dusre bhag ke bad aage nahi ja pa raha hu jaha likha hota hai ,aage padhe ,agar koi samasya hai to use dur kare pls
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