बुधवार, 8 अप्रैल 2015

शिल्पियों का पराक्रम और कपार फ़ोड़ गर्मी - कलिंग यात्रा

विक्रम, विक्रम दास। हाँ उसने अपना नाम विक्रम ही बताया था। वाह! कितना सुंदर नाम है, विक्रम। लगा कि अर्कसाल में पहुंच कर साक्षात विष्णु ही प्रकट हो गए हैं हमारा मार्ग दर्शन करने के लिए। पान चबाते हुए हाथों से भंगिमा बना कर जब विक्रम मुझसे अपनी बात कह रहे थे तो लग रहा था कि कोई बहुत बड़ा पुराशास्त्री मुझ नासमझ को समझा रहा हो। सच तो यही था, उस स्थान से मैं अपरिचित था, अस्तु नासमझी भी थी। अर्करथ सिर पर पहुंच चुका था, उसकी रश्मियाँ सीधे ही हमला कर कपार फ़ोड़े दे रही थी। श्वेद बिंदू चूह कर आँखों टपकने लगे। नमकीन जल जलन पैदा कर रहा था। रुमाल निकाल कर चेहरे को पोंछा और बोतल से जल निकाल कुछ छींटे मारे, तब विक्रम से पराक्रम से परिचित होने लायक उर्जा आई। विकम, कोणार्क स्मारक का शासकीय रक्षक है और वही अब हमारा गाईड बन गया था। 
विक्रम दास 
कोणार्क परिसर में ही एक विशाल वट वृक्ष है, जिसकी जड़ों ने सैकड़ों नए वट तैयार कर लिए, मूल वृक्ष लगभग गायब ही हो चुका है। इसकी उम्र देख कर लगता था कि यह कोणार्क के निर्माण एवं पतन का साक्षी है। कुछ देर के लिए हम इसकी छाया में बैठ गए और बिकास बाबू कैमरे से धड़ाधड़ चित्र लेने लगे। दोपहर के दो बज रहे थे और यह समय किसी स्थान पर भ्रमण के लिए उपयुक्त नहीं था। उपयुक्त न होने पर भ्रमण तो कर सकते थे, परन्तु प्रकाश संयोजन अनुकूल न होने से फ़ोटोग्राफ़ी के समस्या उत्पन्न हो जाती है। फ़ोटोग्राफ़ी के लिए सुबह एवं शाम का समय ही सर्वथा उपयुक्त होता है। प्रकृति अपनी लय ताल पर चलती है और आदित्य राजा को कौन रका है? कौन थाम सका है उनके अश्वों की लगाम। त्रिभुवन में ऐसा कोई न हुआ फ़िर हम तो क्षुद्र मानव है, जिन्हें जन्म से ही हर उस वस्तु के आगे सिर झुका कर चलना सिखाया है जो उसकी पहुंच के बाहर है। 
भुबनेश्वर स्टेशन 
प्रारंभ से ही विलंब हो गया था। हमारी ट्रेन सुबह साढे सात बजे भुवनेश्वर स्थानक पर पहुच चुकी थी और हमें गेस्ट हाऊस के आरक्षण के विषय में बता दिया गया था, साथ ही संबंधित अधिकारी का मोबाईल नम्बर भी दे दिया गया था। उनसे हमने ट्रेन में सवार होते ही पता पूछ लिया था और निश्चिंत हो गए थे। कलिंग भ्रमण का कार्यक्रम हमारा अन्य कार्यक्रमों की तरह अचानक ही बना था। बिकाश ने साप्ताहिक छुट्टी ले रखी थी और मैं भी कहीं जाने के मुड में था। मैं चाहता था कि 2-3 हजार किलोमीटर का बाईक से ही सफ़र किया जाए। पर बिकाश इसके लिए तैयार नहीं हुआ। तो हमने ट्रेन से ही पुरी जाने की सोची। रायपुर से शाम सवा पाँच बजे दुर्ग - पुरी इंतरसिटी एक्सप्रेस पुरी के लिए प्रस्थान करती है। हमने सोचा कि ट्रेन में ही स्लीपर का आरक्षण मिल जाएगा इसलिए सामान्य टिकिट लेकर टीटी से सम्पर्क किया। पता चला कि स्लीपर में एक भी सीट खाली नहीं है। तो हमें वातानुकूलित बोगी की ओर जाना पड़ा। वहां सीट खाली मिल गई और अतिरिक्त 17 सौ रुपए की चपत भी लग गई।
भुबनेश्वर शहर 
भुवनेश्वर पहुंचने पर हमने 4 दिन बाद का आरक्षण पहले करा लिया। उसके बाद आटो वालों से सम्पर्क कर पता बताया तो कोई सामतापुर, कोई सामतारायपुर कोइ सांतरापुर कहता था। अब इसके ही फ़ेर में हम पड़ गए। मुझे पता चला था कि लिंगराज मंदिर के समीप ही यह गेस्ट हाऊस है। एक बंदा 70 रुपए में वहाँ तक जाने को तैयार हुआ और खुद न जाकर उसने दूसरा आटो वाला हमारे लिए भेज दिया। हमने लिंग राज मंदिर पहुंच कर पता पूछा तो पुलिसवाली ने दूसरी जगह बता दिया। अब आटो वाला कहने लगा कि वहाँ ले जाने का डबल किराया लुंगा। जबकि वह मुस्किल से 2 किलोमीटर ही आया होगा। मुझे ऐसा लगने लगा कि हिन्दीभाषी होने और उड़िया न समझने के कारण लूटना चाहता है। घड़ी का कांटा सरकते जा रहा था और हमें विलंब हो रहा था। पुलिस वाली के बताए स्थान पर भी वह गेस्ट हाऊस नहीं मिला। तो फ़िर उस अधिकारी को फ़ोन लगाया जिससे कल बात हुई तो पता चला कि वह सांतरापुर है। फ़िर हम सांतरापुर गेस्ट हाऊस पहुंच और आटो वाले पंडे का पूजन कर सुबह सुबह 150 की दक्षिणा देनी पड़ी।
भूभनेश्वर में ऑटो की सवारी 
नहाते-धोते नाश्ता करते 11 बज गए, अब हमने तय किया कि पहले कोणार्क चला जाए। हमें बताया गया कि सांतरापुर से थोड़ी दूर कल्पना चौराहे से कोणार्क के लिए बस मिल जाएगी। साढ़े ग्यारह बजे हमें एक ठसाठस भरी हुई बस मिली और उसमें हम चढ़ गए। उड़ीसा में बसों का किराया हमारे प्रदेश की अपेक्षा काफ़ी कम है। लगभग 65 किलोमीटर के सफ़र के लिए हम दोनो से 70 रुपए किराया लिया गया तो आश्चार्य हुआ। पब्लिक ट्रांसपोर्ट इतना सस्ता है, वैसे बंगाल में भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट बहुत सस्ता है। हमारे छत्तीसगढ़ में दुगना और तिगुना किराया है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट वालों ने तो लूट मचा रखी है। खैर बिकाश बाबू के अथक प्रयासों के माध्यम से हमें बैठने लिए सीट मिल गई और लगभग डेढ बजे हम कोणार्क पहुंच गए।  कोणार्क के मेडिकल चौक पर बस ने हमें उतार दिया और वहाँ से पैदल-पैदल हम मंदिर तक पहुंच गए। मंदिर में प्रवेश करने के लिए भारतीयों से प्रति वयस्क 10 रुपए शुल्क लिया जाता है। मैने 2 टिकिट खरीद ली और उससे पुरातत्व के आफ़िस का पता पूछा तो एक गार्ड हमें आफ़िस तक पहुंचा आया।
नवग्रह शिला कोणार्क 
कोणार्क के कंजरवेटर आफ़िसर महापात्रा भुवनेश्वर गए हुए थे और हमें मंदिर भ्रमण कराने की जिम्मेदारी विक्रम पर डाल दी गई। यह वही विक्रम है जिसका जिक्र मैने पहले किया है। भूख तो लगने लगी थी पर सोचा कि पहले मंदिर भ्रमण भ्रमण किया जाए। कोणार्क का प्रसिद्ध सूर्य मंदिर। जिसके चित्र ही हम देखते आए थे, भारत में दूर-दूर तक खूब भ्रमण किया परन्तु पड़ोसी राज्य उड़ीसा के इन प्रसिद्ध समारकों तक पहुंच न सका। आज वह समय आ ही गया था। जब सूर्य मंदिर को अपनी आखों से देखुंगा। वट वृक्ष की राह में एक बड़ा ग्रेनाईट का तराशी हुई शिला पड़ी है। जिसकी लम्बाई लगभग बीस फ़ुट होगी एवं चौड़ाई और ऊंचाई 3X3 फ़ुट। इसके विषय में पूछने पर विक्रम ने बताया कि इस शिला में नवग्रह का निर्माण किया गया था। जिसे काट कर जगन्नाथ मंदिर में लगा दिया गया। इस शिला को देखने से ही मंदिर निर्माण करने वाले शिल्पियों के पराक्रम की एक झांकी दिखाई दे गई। जारी है, आगे पढ़ें। 

11 टिप्‍पणियां:

  1. କଲିଙ୍ ପ୍ରଡେଶ୍ ରେ ଆପଣ୍କ୍ ସ୍ବଗତ୍...
    कलिंग में आपका स्वागत है...
    ललित भाई: आपके साथ ऐसी ही किसी जगह में घूमना है, उस जगह को आपके नजरिये से देखने समझने को...

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  2. स्वागत है देव। बाईक से भ्रमण का मुड बन रहा है। कहां जाना है अभी तय नही है।

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  3. शिल्पियों के ज्ञान और श्रम की जितनी भी प्रशंसा की जाये , कम है!

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  4. रविराज के नगर से लाइव … सुन्दर वर्णन

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  5. बेहतरीन तराशे गए शब्द ललित जी !
    वैसे ट्रांसपोर्टेशन किराया हमारे हरियाणा में भी कम ही है ! पचास किमी जाईये तीस रू से ज्यादा नहीं लगेगा !

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  6. कही बहार घूमने जाओ तो सबसे बड़ी समस्या ठहरने की ही आती है फिर स्थानीय लोगो का झुंड उसको मुड़ने में लग जाता है । पर क्या करे घुमक्डो को तो घूमना ही है।

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  7. बहुत सुन्दर यात्रा वृत्तांत।ललित सर आपके लेखन का लालित्य इसमें लरज़ते चश्मे सा ध्वनित होता है।प्रणाम।

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