यह विदित है कि हमारी मातृभाषा हिन्दी है, सभी जानते हैं लेकिन कुछ नही मानते। भारत की आम सम्पर्क भाषा हिन्दी ही है। सरकारी कार्यालयों में काम काज अभी भी अंग्रेजी में होता है। क्योंकि अंग्रेजी पढे लिखे समझदार लोगों एवं अभिजात्य वर्ग की भाषा है। जो अंग्रेजी में बात करता है वह बहुत ही पढा लि्खा समझा जाता है।
अंग्रेजी में की गई गिटपिट उसे आम आदमी से अलग बनाती है। गोरे अंग्रेज चले गए लेकिन काले अंग्रेज बना गए। जो अभी तक अंग्रेजी को सर पर ढोए चले जा रहे हैं। मेरा अंग्रेजी से कोई बैर नहीं है, आज यह विश्व की सम्पर्क भाषा के रुप में काम कर रही है।
पिछले दिनों चीन में हुए ऑलम्पिक के दौरान चीनियों को भी अंग्रेजी सीखनी पड़ी थी। लेकिन मेरा यह कहना है कि भारत में तो हिन्दी का प्रयोग होना चाहिए।
अंग्रेजी में की गई गिटपिट उसे आम आदमी से अलग बनाती है। गोरे अंग्रेज चले गए लेकिन काले अंग्रेज बना गए। जो अभी तक अंग्रेजी को सर पर ढोए चले जा रहे हैं। मेरा अंग्रेजी से कोई बैर नहीं है, आज यह विश्व की सम्पर्क भाषा के रुप में काम कर रही है।
पिछले दिनों चीन में हुए ऑलम्पिक के दौरान चीनियों को भी अंग्रेजी सीखनी पड़ी थी। लेकिन मेरा यह कहना है कि भारत में तो हिन्दी का प्रयोग होना चाहिए।
जब मै दक्षिण भारत जाता हुँ तो वहाँ हिन्दी भाषी को बहुत ही कठिनाई का सामना करना पड़ता है। कोई हिन्दी बोलने को तैयार ही नही है। कई अधिकारी मैने ऐसे देखे जो सेवानिवृत्त हो गए लेकिन उन्हे हिन्दी सीखने की कभी कोशिश ही नही की।
बिना हिन्दी बोले ही उन्होने अपनी सेवा पूरी कर ली। आजादी के 62 वर्षों के बाद भी हम हिन्दी को सर्वग्राह्य और सर्वमान्य भाषा के रुप में स्थापित नही कर पाए। ये कैसी विडम्बना है कि भारत में ही हिन्दी दोयम दर्जे की भाषा बनी हुयी है।
बिना हिन्दी बोले ही उन्होने अपनी सेवा पूरी कर ली। आजादी के 62 वर्षों के बाद भी हम हिन्दी को सर्वग्राह्य और सर्वमान्य भाषा के रुप में स्थापित नही कर पाए। ये कैसी विडम्बना है कि भारत में ही हिन्दी दोयम दर्जे की भाषा बनी हुयी है।
भारत विविधताओं से भरा देश हैं। यहां के लोगों की मातृ भाषा (माँ बोली) अलग हो सकती है लेकिन सम्पर्क भाषा के रुप में हिन्दी को भी अपना स्थान मिलना चाहिए। क्योंकि मातृ भाषा का सीधा सम्बंध जीवन से है।
मातृभाषा से ही व्यक्ति अपने विचारों का संप्रेषण कर सकता है। अपनी बात कह और समझ सकता है। लेकिन दैनिक जीवन में हम विदेशी भाषा का उपयोग कर अपने आप को समाज में प्रतिष्ठित करने में लगे हुए हैं।
हिन्दी भाषा में अंग्रेजी के शब्दों का जबरन प्रयोग कर अपने को शिक्षित बताने का प्रयास करते हैं, इसी प्रक्रिया में कभी-कभी उपहास का भी पात्र बनना पड़ता है।
मातृभाषा से ही व्यक्ति अपने विचारों का संप्रेषण कर सकता है। अपनी बात कह और समझ सकता है। लेकिन दैनिक जीवन में हम विदेशी भाषा का उपयोग कर अपने आप को समाज में प्रतिष्ठित करने में लगे हुए हैं।
हिन्दी भाषा में अंग्रेजी के शब्दों का जबरन प्रयोग कर अपने को शिक्षित बताने का प्रयास करते हैं, इसी प्रक्रिया में कभी-कभी उपहास का भी पात्र बनना पड़ता है।
हमारे एक मित्र हैं जो अंग्रेजी उनके सामने बोलते हैं जिनको बेचारों को अंग्रेजी नही आती। मसलन किसान, मजदुर, देहाती गंवई गांव के लोग । जब उनके सामने अंग्रेजी बोलते हैं तो वे बेचारे उनके मुंह को ताकते रहते रहते है कि गुरुजी बहुत पढा लि्खा है। इन पर मित्र का रुवाब चल ही जाता है।
लेकिन एक बार लंदन से कोई एन जी ओ गांव में आया तो मुझे भी बुलाया गया। तब पता चला कि गुरुजी की अंग्रेजी कितनी शुद्ध है?
भई थोड़ी बहुत तो हमारे को भी समझ में आती है। उस दिन उनकी पोल खुली कि सारी अंग्रेजी ही गलत बोलते हैं।
ऐसे कई उदाहरण सामने आते हैं। एक दिन मैने उनसे कहा कि भैया क्या हिन्दी बोलने में शर्म आती है? जहां जरुरत हो वहां तो कम से कम हिंदी बोल लिए करो।
लेकिन एक बार लंदन से कोई एन जी ओ गांव में आया तो मुझे भी बुलाया गया। तब पता चला कि गुरुजी की अंग्रेजी कितनी शुद्ध है?
भई थोड़ी बहुत तो हमारे को भी समझ में आती है। उस दिन उनकी पोल खुली कि सारी अंग्रेजी ही गलत बोलते हैं।
ऐसे कई उदाहरण सामने आते हैं। एक दिन मैने उनसे कहा कि भैया क्या हिन्दी बोलने में शर्म आती है? जहां जरुरत हो वहां तो कम से कम हिंदी बोल लिए करो।
ऐसा नही है कि सरकार हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए कुछ नही कर रही है। प्रतिवर्ष सरकारी खर्चों पर विदेशों में हिन्दी भाषा प्रचार सम्मेलन रखे जाते हैं। जिसमें कुछ चाटुकार किस्म के तथाकथित हिन्दी विद्वान अपनी उपस्थिति सरकारी खर्च पर देते रहते हैं। बस वही शक्ल हर जगह देखने मिल जाती है।
हिन्दी के मानस पुत्र जो माने जाते हैं और जो बेचारे कलम घिस घिस के हिन्दी की सेवा कर रहे हैं उन्हे कोई सेवक मानने को तैयार ही नही है।
कुछ हमारे साहित्यकार तो एकदम सरकारी साहित्यकार हैं जब भी कोई सरकारी सरकारी कार्यक्रम होता है वही गिनी चुनी मूर्तियां नजर आती हैं। अगर कोई नए लोग चले जाते हैं तो पुछने को ही राजी नही कि भैया तुम कौन हो? पुछ देंगे तो कु्र्सी खाली करनी पड़ेगी।
हिन्दी के मानस पुत्र जो माने जाते हैं और जो बेचारे कलम घिस घिस के हिन्दी की सेवा कर रहे हैं उन्हे कोई सेवक मानने को तैयार ही नही है।
कुछ हमारे साहित्यकार तो एकदम सरकारी साहित्यकार हैं जब भी कोई सरकारी सरकारी कार्यक्रम होता है वही गिनी चुनी मूर्तियां नजर आती हैं। अगर कोई नए लोग चले जाते हैं तो पुछने को ही राजी नही कि भैया तुम कौन हो? पुछ देंगे तो कु्र्सी खाली करनी पड़ेगी।
जब तक हम कटिबद्ध होकर निस्वार्थ भाव से हिन्दी की सेवा के लिए पुरे समर्पण के साथ आगे नहीं आएंगे तब तक हिन्दी का यही हाल रहेगा।
अब तथाकथित हिन्दी दां लोगों से मुक्ति पाने का समय आ गया है। नए लोगों को आगे आना चाहिए। लेकि्न चाटुकारिता और गोड़ लागी, पाय लागी इस हद तक हो गयी है कि इससे मुक्त होना असम्भव तो नहीं पर कठिन जरुरी है।
हिन्दी को आगे बढाने प्रयास होते रहने चाहिए, मार्ग अवश्य ही कंटकाकीर्ण है लेकिन ईमानदारी से किया गया प्रयास अवश्य ही सफ़ल होगा, ऐसा मेरा मानना है।
अगर कोई नए लोग चले जाते हैं तो पुछने को ही राजी नही कि भैया तुम कौन हो? पुछ देंगे तो कु्र्सी खाली करनी पड़ेगी।
जवाब देंहटाएं......आपसे सहमत, प्रभावशाली अभिव्यक्ति!!!
दोहरी राजभाषा नीति समाप्त कर दी जाए तो हिन्दी को भारत के भाल की बिन्दी बनते देर नहीं लगेगी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक व अनुकरणीय बात आपने यहाँ कही है
जवाब देंहटाएंमैं भी हिंदी का जबरदस्त पक्षधर हूँ. पर करूं क्या
केंद्र शासन ने तो हिंदी को "विशेष दिवस" मनाकर
इतिश्री करने को ठान लिया है. दरअसल अदालती
कार्रवाइयों में अंग्रेज जो कानून बनाकर छोड़ गए हैं
वही प्रचलन में है. नहीं तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है.
अभी तक तकनीकी शब्दावलियों को अमल में नहीं लाया
जा रहा है. यही विडम्बना है.
अपनी मां , मातृभाषा और मातृभूमि की हम खुद उपेक्षा करेंगे .. तो दूसरे इसे क्या महत्व देंगे .. हम आज प्रण कर लें कि भले ही अपना ज्ञान बढाने के लिए हम अंग्रेजी लिख पढ लें .. पर अपना ज्ञान दूसरों को हिंदी में ही देंगे .. पूरे विश्व को हिंदी सीखने को मजबूर होना होगा !!
जवाब देंहटाएंलगे रहो बस!! बन ही गई समझो!!
जवाब देंहटाएंविडम्बना तो यह है कि हम लोग बातें हिन्दी की करते हैं किन्तु बढ़ावा अंग्रेजी को ही देते हैं। आज हम अपने बच्चों का दाखिला सिर्फ अंग्रेजी माध्यम वाले शैक्षणिक संस्थाओं में ही कराना चाहते हैं, परिणाम यह होता है कि हमारे बच्चे हिन्दी सीख ही नहीं पाते।
जवाब देंहटाएंहिंदी तो भाल बिंदी बन चुकी है भाई...आज के तीन साल पहले ब्लोग प्रारंभ करते समय मैंने संकल्प किया था कि मैं हिंदी के अलावा इंटरनेट पर नहीं लिखूंगा....और आज भी कायम हूं....बङा आसान काम है....
जवाब देंहटाएंकोशीश करते रहना पडेगा.
जवाब देंहटाएंरामराम.
जिस तरह हिन्दुस्तान के अन्य भाषाभाषी लोग अपनी अपनी मां की सेवा में लगे हैं उसी तरह मुझे आपको हिंदी की सेवा करनी होगी.
जवाब देंहटाएंसस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
हर महीने कम से कम एक हिन्दी पुस्तक खरीदें !
मैं और आप नहीं तो क्या विदेशी लोग हिन्दी
लेखकों को प्रोत्साहन देंगे ??
http://www.Sarathi.info
बच्चों के स्कूल में दाखिले का फार्म देखकर कहा था कि दूसरी साईड हिन्दी में भरने का विकल्प भी होना चाहिये। जिन्हें अंग्रेजी नही आती वो अपने बच्चों के दाखिले का फार्म कैसे भरेंगें।
जवाब देंहटाएंसरकारी कार्यालयों में काम काज अभी भी अंग्रेजी में होता है।
प्रणाम
हम चाहे हिंदी में बोल लें , लिख लें पुस्तक खरीद लें...ब्लोग्स बना लें लेकिन जब तक हिंदी भाषा को जीविकोर्पाजन से नहीं जोड़ा जायेगा तब तक हिंदी के साथ यही व्यवहार होता रहेगा...बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में इसी लिए डाला जाता है कि उसको अच्छी नौकरी मिल सके...जीवन में अच्छे पद पर आसीन हो सके....
जवाब देंहटाएंअगर हम मै आत्म विशवास हो तो हिन्दी को हमीं आगे ले जा सकते है, सब से पहले हमे यह निश्छय करना है कि हम सिर्फ़ हिन्दी ही बोलेगे, जब कोई भारतिया आप से अग्रेजी मओ बात करे तो उसे डांट दो कि भाई बात तो हिन्दी मै ही करुंगा करनी हो तो करो, मेरे बच्चो मै यह गुण है,वो भारत मै आ कर सिर्फ़ हिन्दी मै ही बात करते है, यानि जब तक हम अपनी मां की इज्जत नही करेगे तो कोई दुसरा केसे करेगा? वेसे दुनिया मै हमीं एक नमुने है जो अग्रेजी बोल कर अपने आप को पढा लिखा कहते है...एक मुर्ख की यही पहचान है
जवाब देंहटाएंहिंदी . का भविष्य कोई बहुत उज्जवल तो नज़र नहीं आता . आज छोटे शहरों, कस्बों के गली कूचे में भी अंग्रेजी स्कूल खुल रहें हैं और सबलोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में ही पढ़ा रहें हैं,यहाँ तक कि ऑटो चलाने वाले और घर में काम करने वाली बाई भी दुगुनी मेहनत कर के अपने बच्चों को उन स्कूलों में पढ़ा रहें हैं. हिंदी की अच्छी पत्रिकाएं नहीं हैं. टी.वी. पर अधकचरी हिंदी बोली जाती है...तो नयी पीढ़ी को कहाँ से मिलेगी,प्रेरणा अच्छी हिंदी बोलने समझने की .
जवाब देंहटाएंनागरिकों को ही जागना होगा और सदैव अच्छी हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए प्रयत्न करना होगा.
इसी विषय पर एक लेख मैंने भी लिखा है।
जवाब देंहटाएंयहां से उसकी पीडीएफ़ प्रति डाउनलोड की जा सकती है:-
http://www.mediafire.com/file/zmn1enttdgy/धीमा जहर.pdf
आपकी हिंदी के बारे में ये चिंतन सही है,एक जमाना था जब अंग्रेजी को हिंदी की सहायता से समझाया जाता था पर आज के दौर में हिंदी को अंग्रेजी की सहायता से समझाया जाता है. वैसे अंग्रेजी का प्रयोग करना बुरा नहीं पर परेशानी तब है जब हिंदी को बिलकुल उपेक्षित कर दिया जाता है. पहले सम्मान अपनी मात्रभाषा को फिर दूसरी को
जवाब देंहटाएंआपका चिन्तन सही है...हिन्दी प्रेमियों द्वारा किए जा रहे प्रयासों को देखते हुए ये उम्मीद तो की जा सकती है कि चाहे देर से ही सही, लेकिन ऎसा समय जरूर आएगा जब कि हिन्दी राष्ट्र के भाल की बिन्दी बन सकेगी।
जवाब देंहटाएंओर हाँ...हैडर के लिए धन्यवाद देना तो भूल ही गया...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद महाराज :-)
हिंदी तो भाल बिंदी
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