आरम्भ से पढ़ें
सुबह जय ने कहा वीरु भाई आज चित्तौड़गढ़ की सैर पर चलते हैं, बस फ़िर वीरु भी तैयार हो गए अपना अद्धा लेकर गढ़ की सैर करने।
गन भी साथ रख ली कहीं गब्बर दिख जाए तो इनाम के पैसे वसुल हो जाएं, आम के आम गुठली के भी दाम, गन तो वीरु ने शाम को ही देख भाल ली थी। कहीं गब्बर का सामना हो और गन धोखा दे जाए तो फ़ेंक कर मारने के ही काम आएगी। इसलिए साज-ओ-सामान तो चौकस रहना चाहिए।
गढ़ जाने के लिए घोड़ा धो पोंछ कर चकाचक किया गया। जब घोड़े को पता चला कि आज जय और वीरु सवारी करने वाले हैं तो उसकी हवा बंद हो गयी, लगता है पिछले जन्म का सूरमा भोपाली था। मुफ़्त में मारे जाएगें सोचकर उसका खोपड़ा गर्म हो गया, सईस ने ठंडा करने के लिए एक बार फ़िर नहलाया धुलाया।
क्योंकि चित्तौड़गढ़ जाना हो और घोड़े की सवारी न हो गन के साथ, तो बहुत नाइंसाफ़ी होगी, बहुत नाइंसाफ़ी। रानी पद्मिनी भी सोचेंगी कि ये कैसे जय वीरु हैं जिनके पास घोड़ा भी नहीं और गन भी नहीं। सो तैयारी पूरी कर ली गयी।
चित्तौड़ के गढ में प्रवेश के लिए 7 दरवाजे हैं। इन दरवाजों को अपने कार्यकाल में अलग-अलग राजाओं ने बनाया था। इन्हे पोल कहा जाता है। इन सात दरवाजों से चित्तौड़ के गढ में प्रवेश किया गया।
अंतिम दरवाजे पर पार्किंग की टिकिट कटाई जाती है। 15 रुपए खर्च किए और घोड़े समेत अंदर हुए। छोटी, नेहा और इनकी मम्मी (अनिता सिंग) भी साथ थी। सबसे पहले सवारी रुकी फ़तह प्रकाश महल में, जिसे अब संग्रहालय का रुप दे दिया गया है।
हमने संग्रहालय की सैर की और काफ़ी चित्र लिए। संग्रहालय में उस जमाने के सभी हथियार करीने से सजाए गए हैं। जिसमें भरमार और तोड़ेदार बंदुक प्रमुख है, और भी हथियार थे जिनमें छुरी, तलवार, कटार, क्रीसेंट कुल्हाड़ी, गुर्ज, दस्ता इत्यादि थे। तलवारें भी उम्दा किस्म की थी।
अंतिम दरवाजे पर पार्किंग की टिकिट कटाई जाती है। 15 रुपए खर्च किए और घोड़े समेत अंदर हुए। छोटी, नेहा और इनकी मम्मी (अनिता सिंग) भी साथ थी। सबसे पहले सवारी रुकी फ़तह प्रकाश महल में, जिसे अब संग्रहालय का रुप दे दिया गया है।
हमने संग्रहालय की सैर की और काफ़ी चित्र लिए। संग्रहालय में उस जमाने के सभी हथियार करीने से सजाए गए हैं। जिसमें भरमार और तोड़ेदार बंदुक प्रमुख है, और भी हथियार थे जिनमें छुरी, तलवार, कटार, क्रीसेंट कुल्हाड़ी, गुर्ज, दस्ता इत्यादि थे। तलवारें भी उम्दा किस्म की थी।
एक बंदुक को चलाने के लिए चार आदमियों की जरुरत पड़ती थी। एक गोलची बंदुक में सीसा भरता था, दुसरा उसे निशानची के पास लेकर जाता था, जब निशानची निशाना लगा कर फ़ायर कर लेता था तो चौथा उसे भरने के लिए गोलची के पास लेकर आता था। एक भरमार बंदुक को चलाने की यह प्रक्रिया होती थी।
तोड़े दार बंदुकों की नाल बड़ी होती थी। नाल जितनी बड़ी होगी निशाना उतनी दूर तक सटीक जाएगा और सीसा भी उसमें उतनी अधिक मात्रा में भरा जाएगा। इसके छर्रे दूर तक उड़ कर दुश्मनों को घायल कर देते थे। इसमें जहर बुझे छर्रों का भी प्रचलन था।
8-12 फ़ुट लम्बी तोड़े दार बंदुकों को चलाने के लिए बहुत ही कुशलता की आवश्यकता पड़ती थी। तोड़े दार इसे इसलिए कहा जाता था कि इसके हत्थे को अलग करके ले जाया जाता था तथा आवश्यकता पड़ने पर ही नाल फ़िट की जाती थी, जिससे लाने ले जाने में आसानी हो। संग्रहालय में भी 5 रुपए की टिकिट लगती है।
तोड़े दार बंदुकों की नाल बड़ी होती थी। नाल जितनी बड़ी होगी निशाना उतनी दूर तक सटीक जाएगा और सीसा भी उसमें उतनी अधिक मात्रा में भरा जाएगा। इसके छर्रे दूर तक उड़ कर दुश्मनों को घायल कर देते थे। इसमें जहर बुझे छर्रों का भी प्रचलन था।
8-12 फ़ुट लम्बी तोड़े दार बंदुकों को चलाने के लिए बहुत ही कुशलता की आवश्यकता पड़ती थी। तोड़े दार इसे इसलिए कहा जाता था कि इसके हत्थे को अलग करके ले जाया जाता था तथा आवश्यकता पड़ने पर ही नाल फ़िट की जाती थी, जिससे लाने ले जाने में आसानी हो। संग्रहालय में भी 5 रुपए की टिकिट लगती है।
इसके बाद हम विजय स्तंभ पहुंचे। इसके आस पास बहुत लंगूर हैं। जो कि पर्यटको का खाने पीने का सामान ताकते रहते हैं और मौका पाकर हमला ही कर देते हैं। शरीफ़े की कहानी तो जय ने आपको बता ही दी है। लेकिन हमने भी एक शरीफ़े का इस्तेमाल कर ही लिया। चाहे लंगूर कितने ही बदमाश ठहरे। हम भी उनके बाप ठहरे।
विजयस्तंभ की फ़ोटुएं ली गई। यह स्तंभ तो हमने कोर्स की किताबों में ही देखा था। बरसों के बाद अब प्रत्यक्ष देख लिया। यह वही धरती है जहां राणा सांगा ने 80 घाव खाने के बाद भी युद्ध का मैदान नहीं छोड़ा।
बड़ी जीवटता है यहां के पानी में। यहां का पानी तीन दिनों तक हमने पीया। शायद कुछ असर हो। वैसे भी चंबल का पानी पीकर आए ही थे कोटा से। कहिए तो युद्ध भूमियों की सैर हो रही थी। जहां अंतिम में पहुंचा जाता है समर के बाद, वहां हम पहले ही हो आए थे।
विजयस्तंभ की फ़ोटुएं ली गई। यह स्तंभ तो हमने कोर्स की किताबों में ही देखा था। बरसों के बाद अब प्रत्यक्ष देख लिया। यह वही धरती है जहां राणा सांगा ने 80 घाव खाने के बाद भी युद्ध का मैदान नहीं छोड़ा।
बड़ी जीवटता है यहां के पानी में। यहां का पानी तीन दिनों तक हमने पीया। शायद कुछ असर हो। वैसे भी चंबल का पानी पीकर आए ही थे कोटा से। कहिए तो युद्ध भूमियों की सैर हो रही थी। जहां अंतिम में पहुंचा जाता है समर के बाद, वहां हम पहले ही हो आए थे।
इसके बाद हम पहुंचे रानी पद्मिनी के महल में। उनके निमंत्रण पर तो हम चित्तौड़गढ़ आए थे। उनके महल में प्रवेश करते ही तीन चार कमरे बने हैं जिनकी अभी छत नही है। समय की मार ने उसे धराशाई कर दिया।
रानी पद्मनि का महल कोई वास्तु की सुंदर कारीगरी तो नहीं है जैसे उदयपुर, आमेर या जोधपुर के महलों में देखने को मिलती है। बस दो चार चौक थे और एक झरोखा उसके बाद एक तालाब में दो कमरे और एक छतरी थी, बस हो गया रानी पद्मिनी का महल।
सामने सैनिको के रहने के लिए एक बारह दरी थी, जिसमें उनके सुरक्षा सैनिक रहते थे। एक जगह सिंटैक्स की टंकी फ़ूटी हुई दिखी जिससे लगा कि रानी पद्मिनी के जमाने से इन टंकियों का उपयोग होते आ रहा है।
साथ ही लगा हुआ एक टायलेट था अंग्रेजी स्टाईल का। लेकिन उन कमरों में देशी स्टाईल के टायलेट भी नजर आए। मतलब रानियों की सुख सुविधा का पूरा ख्याल रखा जाता है।
रानी पद्मनि का महल कोई वास्तु की सुंदर कारीगरी तो नहीं है जैसे उदयपुर, आमेर या जोधपुर के महलों में देखने को मिलती है। बस दो चार चौक थे और एक झरोखा उसके बाद एक तालाब में दो कमरे और एक छतरी थी, बस हो गया रानी पद्मिनी का महल।
सामने सैनिको के रहने के लिए एक बारह दरी थी, जिसमें उनके सुरक्षा सैनिक रहते थे। एक जगह सिंटैक्स की टंकी फ़ूटी हुई दिखी जिससे लगा कि रानी पद्मिनी के जमाने से इन टंकियों का उपयोग होते आ रहा है।
साथ ही लगा हुआ एक टायलेट था अंग्रेजी स्टाईल का। लेकिन उन कमरों में देशी स्टाईल के टायलेट भी नजर आए। मतलब रानियों की सुख सुविधा का पूरा ख्याल रखा जाता है।
महल में मुझे कुछ विचित्र सा लग रहा था। एक बार इस तरह की घटना मेरे साथ नाहरगढ के किले में भी हो चुकी थी। ऐसा लग रहा था कि यहां मेरा सब देखा भाला है।
नाहरगढ में मुझे उपर की मंजिलों से नीचे भागना पड़ा, वहाँ मैं अकेला ही था, जब वहां से निकलने का रास्ता ढूंढने लगा तो रास्ते ही गायब हो गए, बहुत देर तक अकेला भटकता रहा। फ़िर कहीं जाकर रास्ता मिला।
यहाँ रास्ता भटकने की बात तो नहीं थी। पर कुछ तो था जो मेरे करीब से गुजर रहा था। दीमाग में एक चित्र पट चल रहा था। उसमें किसी की तश्वीर उभर रही थी। लेकिन पहचान नहीं पा रहा था वह कौन है और कहां देखी या मिली थी। मैं काफ़ी देर तक उस स्थान पर रहा और पद्म सिंग को भी बताया।
मुझे इस जगह फ़िर कभी आना पड़ेगा। शायद कुछ अवचेतन के साथ जुड़ा हो। तभी वह दिख गयी, पद्मसिंग को इशारा किया तश्वीर लेने के लिए। पद्मसिंग ने तश्वीर ली, जब तश्वीर देखी तो उसका चेहरा उसमें नहीं था। इस “मिली” की कहानी विस्तार से लिखुंगा।
नाहरगढ में मुझे उपर की मंजिलों से नीचे भागना पड़ा, वहाँ मैं अकेला ही था, जब वहां से निकलने का रास्ता ढूंढने लगा तो रास्ते ही गायब हो गए, बहुत देर तक अकेला भटकता रहा। फ़िर कहीं जाकर रास्ता मिला।
यहाँ रास्ता भटकने की बात तो नहीं थी। पर कुछ तो था जो मेरे करीब से गुजर रहा था। दीमाग में एक चित्र पट चल रहा था। उसमें किसी की तश्वीर उभर रही थी। लेकिन पहचान नहीं पा रहा था वह कौन है और कहां देखी या मिली थी। मैं काफ़ी देर तक उस स्थान पर रहा और पद्म सिंग को भी बताया।
मुझे इस जगह फ़िर कभी आना पड़ेगा। शायद कुछ अवचेतन के साथ जुड़ा हो। तभी वह दिख गयी, पद्मसिंग को इशारा किया तश्वीर लेने के लिए। पद्मसिंग ने तश्वीर ली, जब तश्वीर देखी तो उसका चेहरा उसमें नहीं था। इस “मिली” की कहानी विस्तार से लिखुंगा।
यहां से हम पूरे किले का चक्कर काटते रहे। रास्तें छोटी,छोटी झरबेरियाँ लगी थी, और शरीफ़े का तो पुरा बाग ही था। यूँ ही पूरे किले में बिखरे पड़े थे। कुछ हमने भी तोड़े, लेकिन उनकी आँखे नहीं खुली थी। पकने के चांस कम ही थे।
गढ में एक जैन मंदिर भी है, जिसे जैनियों ने बनाया होगा। खातन रानी का महल भी है, जो कि एक प्रसिद्ध रानी थी। समय बीतता जा रहा था।
एक जगह हमें पहुंच कर बहुत ही सुंदर दृश्य दिखाई दिया। ऐसा लगा की जैसे यह अमेजान की घाटी में आ गए, उसी तरह से पहाड़ों का आकर्षक कटाव था। हमने उतर कर वहां का नजारा देखा। मैने पद्मसिंग और अनिता की तश्वीर ली। बहुत ही सुंदर लगी। तश्वीर के रंग भी अद्भुत हैं।
गढ में एक जैन मंदिर भी है, जिसे जैनियों ने बनाया होगा। खातन रानी का महल भी है, जो कि एक प्रसिद्ध रानी थी। समय बीतता जा रहा था।
एक जगह हमें पहुंच कर बहुत ही सुंदर दृश्य दिखाई दिया। ऐसा लगा की जैसे यह अमेजान की घाटी में आ गए, उसी तरह से पहाड़ों का आकर्षक कटाव था। हमने उतर कर वहां का नजारा देखा। मैने पद्मसिंग और अनिता की तश्वीर ली। बहुत ही सुंदर लगी। तश्वीर के रंग भी अद्भुत हैं।
गढ यात्रा करके हमें 4 बजे तक घर (निम्बाहेड़ा) पहुंचना था। क्योंकि उसके बाद शादी में शामिल होना था। गढ में हमने वहां के प्रोफ़ेशनल फ़ोटोग्राफ़रों से चित्र भी खिंचाए। यहां पोशाके और जेवर मिलते हैं किराए पर, आप अपनी पसंद की मेवाड़ी पोशाक पहन कर चित्र ले सकते हैं।
यहां शिव को समर्पित परमार शासक भोज द्वारा ग्याहरवीं सदी में निर्मित समाधीश्वर मंदिर दर्शनीय है। मंदिर में सुंदर विग्रह है, लेकिन सारे लंगूर यहीं पर मंडराते रहते हैं इसलिए आप सावधानी अवश्य बरतें, नहीं तो घायल करने से भी नहीं चूकेंगे। बस पब्लिक ही तमाशा देखेगी।
हमारे पास समय कम होने से एक चूक हो गयी, मीरा रानी की धरती पर आकर मीरा मंदिर नहीं जा पाए। मीरा जी के दर्शन नहीं कर पाए। इसका बहुत ही अफ़सोस है। शायद फ़िर कभी आना होगा, इसलिए हम गढ में जाकर मीरा रानी को भूल गए। मीरा रानी भरोसा रखो अबकि बार सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही आएंगे और बिना मिले नहीं जाएंगे। ये जय - वीरु का वादा रहा। आगे पढ़ें
यहां शिव को समर्पित परमार शासक भोज द्वारा ग्याहरवीं सदी में निर्मित समाधीश्वर मंदिर दर्शनीय है। मंदिर में सुंदर विग्रह है, लेकिन सारे लंगूर यहीं पर मंडराते रहते हैं इसलिए आप सावधानी अवश्य बरतें, नहीं तो घायल करने से भी नहीं चूकेंगे। बस पब्लिक ही तमाशा देखेगी।
हमारे पास समय कम होने से एक चूक हो गयी, मीरा रानी की धरती पर आकर मीरा मंदिर नहीं जा पाए। मीरा जी के दर्शन नहीं कर पाए। इसका बहुत ही अफ़सोस है। शायद फ़िर कभी आना होगा, इसलिए हम गढ में जाकर मीरा रानी को भूल गए। मीरा रानी भरोसा रखो अबकि बार सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही आएंगे और बिना मिले नहीं जाएंगे। ये जय - वीरु का वादा रहा। आगे पढ़ें
यानि हुआ कुछ यूं कि गब्बर से तो सामना हुआ नहीं मिली ने भी मुंह फेर लिया.
जवाब देंहटाएंतो आखिर वीरों की पावन तीर्थ स्थली में आप भी डूबकी लगा ही आये :)
जवाब देंहटाएंयानी कि आपने ये तो पूछा ही नहीं कि बसंती तुम्हारा नाम क्या है?
जवाब देंहटाएंबसंती पर आपकी फोटो एकदम मस्त लग रही है..
हो सकता है पद्मिनी के महल से आपका कोई पुराना रिश्ता हो...
और उस घोड़ी से भी जो आपके बैठते ही मुस्कुरा रही थी :P
और हाँ! नेहा को आजतक अफ़सोस है कि अंकल ने शरीफे और ज्यादा क्यों नहीं तोड़ने दिए... क्योकि सारे शरीफे बाद में पक गए
थे और लखनऊ पहुँच कर खूब खाए गए...
मेरा ब्लॉग -पद्मावलि
भाई शर्मा जी आप का सानिध्य हमारे लिए अविस्मरणीय रहेगा...
इन क्रूर मूंछों के पीछे एक ज्ञानवान सहृदय इंसान रहता है शायद किसी को सहज विश्वास न हो :)
ललित भाई !
जवाब देंहटाएंशरीफ पद्म सिंह के साथ, बिलकुल डाकू लग रहे हो :-)
यह फोटो बच्चों को डराने के काम आएगा ...
हा...हा...हा....हा.....
:-)
रोचक संस्मरण .... पढ़कर आनंद आ गया .... फोटो में आपकी मूंछे तो सवा नौ बजा रही हैं ......हा हा हा .... काश हम भी वहां होते . ...
जवाब देंहटाएंमजेदार रहा..
जवाब देंहटाएंशानदार!
जवाब देंहटाएंरोचक संस्मरण ।
जवाब देंहटाएंइस अन्जाने से अहसास ने तो डरा ही दिया । वो कौन था या थी ?
इस पोस्ट को आपने अपने घुमक्कडी ब्लॉग पर क्यों नहीं लगाया?
जवाब देंहटाएंआनन्द आ गया चित्तौड घूमकर।
क्या ललित भाई मीरा मन्दिर ही नहीं गए? और माताजी का मन्दिर? चलिए आपने चित्तौड़ की सैर कर डाली। बढिया रहा वर्णन।
जवाब देंहटाएंक्या पोस्ट है और क्या तस्वीरें...जबर्दस्त्त.
जवाब देंहटाएंवीर भूमि की बन्दूकें देखकर आश्चर्य हुआ। बड़ा सुन्दर चित्रण।
जवाब देंहटाएंसतीश सक्सेना जी - मैंने शरीफे खा लिए थे... ललित जी के शरीफे बन्दर खा गया था :)
जवाब देंहटाएंपढ़कर आनंद आ गया ..
जवाब देंहटाएंजबर्दस्त्त
जवाब देंहटाएंजबर्दस्त्त
जबर्दस्त्त
जबर्दस्त्त
जबर्दस्त्त
जबर्दस्त्त
ललित जी मस्त लगी आप की यह अति सुंदर रचना,मजा आ गया, आप को घोडे पर देख कर मुझे सुलताना डाकू याद आ गया, वोही मुछें वोही घोडी, वोही बंदुक, वोही बंदा......
जवाब देंहटाएंरोचक संस्मरण
जवाब देंहटाएंchhhhhhhhh...... ab ki bar jayenge to aapko padmini mira aur basanti sb mil yaye......... dua hai hamari........... waise yeti woti bhatke ke jarurat nai ye... .. ??????????
जवाब देंहटाएंAGAR AAPNE AAGE LIKHA HO VO KAUN THA YA THI ...TO KRIPYA USKI LINKE DE
जवाब देंहटाएंवही मैं सोचूँ ये पोस्ट कैसे चूक गई निगाहों से ?
जवाब देंहटाएंध्यान आया तब मैं घरेलू हादसों के मोर्चे पर तैनात था
मजेदार रहा इतने दिनों बाद पढ़ना
गुरूदेव थक गया मैं तो इसकी शुरूआत ढूंढते ढूंढते😥😥
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