रास्ते का मैप, धर्मशाला से नूरपुर |
आरम्भ से पढ़ें आज 6 मई है, हम जा रहे हैं नूरपुर। सुबह से ही अक्षय तृतीया की बधाई के मैसेज आने शुरु हो गए थे। यह दिन विशेष इसलिए भी है कि परशुराम जयंती के साथ मेरी शादी की देशी सालगिरह भी है। हम साल में दो बार वैवाहिक वर्षगांठ मना लेते हैं। दोनो तिथियों में जब भी घर पर रह गए। शादी की वर्षगाँठ मना ली। हमने धर्मशाला बस स्टैंड से गगल के लिए बस पकड़ी। गगल पहुंच कर पठानकोट वाली बस। बस कन्डक्टर कह रहा था-"लोकल सवारी मत बैठणा भई। गड्डी रुकेगी नहीं। हमने भी सोचा कि बढिया नान स्टाप बस मिल गयी अब जल्दी पहुंच जाएगें। हमारे बस में बैठने के बाद यह खुशी थोड़ी ही देर की रही। ड्राईवर ने अगले गाँव में ब्रेक लगा दिए। उसके बाद तो हर गांव और अड्डे पर उसने ब्रेक लगाए। सवारी चढाई और उतारी। हमसे दो सवारियों के 120 रुपए लिए गगल से नूरपुर तक के।
वादियों की निराली छटा |
बस खचाखच भरी थी। मेरे और केवल को सीटें अलग-अलग मिली थी। उसके बाजु एक मेडम थी और हमारे बाजु दो छोरे-छिछोरे। सामने एक सरदार जी थे। जब मैं बैठने लगा तो उसने कहा कि-सीट खाली नहीं है।" थोड़ी देर बाद किसी और को बैठा लिया। अगले गाँव में बस रुकी एक मैडम और चढी, गले में पट्टा बांध रखा था। कन्डेक्टर ने उसे बैठाने के लिए सरदार जी को सीट से उठा दिया। ले भाई मजा आ गया। सरदार जी को अपनी करनी का फ़ल मिल गया। अब वे खड़े थे बस में और हम बैठे आनंद ले रहे थे। सरदार जी एक घंटे खड़े रहे तब कहीं जाकर उनको सीट मिली। पहले ही हमें बैठा लेते तो सजा नहीं मिलती ना। यहां के रास्ते घुमावदार और पहाड़ियों में बड़े-बड़े कटाव हैं।
पहाड़ों में गोल पत्थर और रेत मिट्टी |
गगल से हम शाहपुर पहुंचे रास्ते में द्रम्मण, कोटला, नागणी होते हुये नूरपुर पहुंचे। रास्ते में बड़े-बड़े खड्ड और घाटियाँ थी, घुमावदार रास्ते में ड्राईवर कुशलता से गाड़ी हांक रहा था। सड़क के किनारे की कई पहाड़ियाँ सीधी कटी हुई थी। जिन पर पेड़ पौधे या घास नहीं थी। इन पहाड़ियों में मुझे नदी के गोल पत्थर और रेत मिट्टी दिख रही थी। मैं सोच रहा था कि नदी के गोल पत्थर पहाड़ियों पर कैसे पहुंच गए? हिमाचल क्षेत्र में इसी तरह के पत्थर सभी पहाड़ियों में पाए जाते हैं।भूस्खलन का मुख्य कारण भी यही गोल पत्थर और रेत मिट्टी हैं।
पहाड़ बनने की दास्तान एवं काल गणना के स्तर |
मैनें देखा कि पहाड़ियों पर मिट्टी के जमे हुए स्तर अपने बनने की कहानी आप ही कह रहे थे।भू विज्ञानियों के अनुसार हिमालय क्षेत्र पहले समुद्र था। समुद्र में नदियां अपने साथ रेत मिट्टी और गोल पत्थर लेकर आती हैं। जो समुद्र के तल में जमा हो जाती हैं। धरती की जब दोनो प्लेट टकराई तो हिमालय क्षेत्र का निर्माण हुआ। उसमें से समुद्र का यह भू-भाग पहाड़ों में बदल गया। इसलिए यहाँ के पहाड़ों में नदी के गोल पत्थर पाए जाते हैं। लाहौल स्पिति क्षेत्र में तो समुद्री जीव जंतुओं के बहुत सारे फ़ासिल्स पाए जाते हैं। पुरातत्वविद अतुल प्रधान ने वहाँ फ़ासिल्स की खुदाई की है। वे बता रहे थे कि उन्होने चीन की सीमा पर स्थित क्षेत्र में 6 माह गुजारे हैं। यहाँ फ़ासिल्स बहुतायत में पाए जाते हैं।
नूरपुर के किले का सिंहद्वार |
हम नूरपुर पहुंचे। रास्ते में पहाड़ी के किनारे बस रुक गयी, वहीं से हम पैदल ही नूरपुर के किले की ओर चल पड़े। इसी बहाने यहाँ का बाजार भी हमें देखने मिला। वैसे पठानकोट से नूरपुर की दुरी 25 किलोमीटर है। हम धर्मशाला से आए थे इसलिए हमें लगभग 66 किलोमीटर आना पड़ा। बताते हैं कि पहले इस जगह का नाम धमड़ी था। राजा जगत सिंह के शासन काल में एक बार जहाँगीर और नूरजहाँ कांगड़ा जाते समय यहां रुके थे। फ़िर उनके ही नाम नुरुद्दीन से धमड़ी का नाम नूरपुर हो गया। यह किला 11 वीं शताब्दी में भी मौजुद था तथा दिल्ली के शासक जेतपाल के छोटे लड़के ने इसे बसाया था। हम किले के की ओर चल रहे थे। बाजार से बाहर निकलने पर दो लाईम स्टोन के बने बुर्ज दिखाई दिए। मुझे लगा कि बस अब किले तक पहुंच गए। सोच रहा था कि किले के साथ नूरजहाँ की कुछ विशेष यादें जुड़ी होगीं। लेकिन ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया।
किले के भीतर बड़ा तालाब-कभी इसका भी वैभव था |
प्रवेश द्वार के अगल बगल में किले के परकोटे के अंदर दो स्कूल हैं। एक प्रायमरी एवं एक 10 जमा 2 तक का स्कूल है। दो शिक्षिकाएं पढा रही थी। किले अंदर भग्नावेश बिखरे पड़े हैं। पहले एक बड़ा तालाब दिखाई दिया। इसके बाद एक परकोटा और था। मुझे एक द्वार लिपा-पुता सलामत दिखाई दिया। हम उसमें प्रवेश करने लगे तो भीतर एक कार्यक्रम चल रहा था। बहुत से नर-नारी भीतर आ जा रहे थे। मुझे अंदर जाने में संकोच हुआ। बिना जान पहचान के किसी के कार्यक्रम के बीच हम कैसे जा सकते थे। वहाँ से वापस आकर हमने बगल वाले द्वार से अंदर गए। अंदर एक बहुत बड़ा चौक था। उसके बायें तरफ़ एक सलामत इमारत थी। वहां पुरातत्व विभाग की तरफ़ से जीर्णोद्वार हो रहा था। किले में अंदर एक तालाब और था। बहुत सारे कुंए बने हुए थे।
किले के परकोटे के भीतर देवी मंदिर |
बीच के चौक में सीमेंट का बना हुआ मंदिर था। जो उस प्राचीन बनावट से बिलकुल अलग था। जैसे मखमल में टाट का पैबंद लगा हो। यह देवी का मंदिर है और नव निर्माण सा लगता है। वर्तमान में तो पुरातत्व विभाग ने किले आसपास 100 मी तक सभी निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी है। हम किले का निरीक्षण करते रहे। इसके पिछले परकोटे की तरफ़ एक बड़ा गहरा खड्ड है। उसका नाम मुझे पता नही चला। लेकिन चित्र में गोल चक्कर लगा कर आती दिखाई दे रहा है। राजस्थान के किलों को देखने के बाद इन खंडहरों में आनंद नहीं आता। इन पर काल का प्रहार कुछ अधिक हुआ है। राजस्थान के सभी किले सलामत हैं और आकाश से जुगलबंदी करते हुए उसी रौब-दाब से अभी तक खड़े हैं। यहाँ के किले जीर्ण शीर्ण अवस्था में है। भीतर के सभी निर्माण ध्वस्त हो चुके हैं। सिर्फ़ परकोटे ही खड़े है।
ताऊ जी की सेना-हमारी आगवानी में |
किले के पीछे से हम मंदिर तक पहुंचे। ब्रजराज स्वामी मंदिर का वास्तु मुझे अलग ही दिखाई दिया। इसमे दो तरफ़ बुर्ज बनी हुयी हैं। हम मंदिर की ओर चले तो ताऊओं की फ़ौज दिखाई दी। पता चला कि नूरपुर के लोग इन ताऊओं से बहुत परेशान हैं।10,000 आबादी वाले इस कस्बे में इनकी बदमाशी का असर स्थानीय चुनाव और विधानसभा चुनाव पर भी पड़ा। किसी का भी सामान उठाकर ले जाते हैं। मंदिर में आने वाले दर्शनार्थियों का सामान उठा ले जाते हैं। हमें जाते ही यह शिकायत मंदिर में मिल चुकी थी और इनकी फ़ौज भी दिखाई दे गयी। अब सावधान होना जरुरी था। अगर नुकसान करते तो ताऊ जो फ़ोन करके शिकायत करते कि संभालो अपनी सेना को। यहाँ भी चैन नही लेने दे रहे।
ब्रजराज स्वामी मंदिर के पुजारी |
मंदिर में अगती या अक्षय तृतिया का कार्यक्रम चल रहा था। नूरपुर ब्राह्मण समाज द्वारा भगवान परशु राम जयंती मनाई जा रही थी। हमें भी रायपुर में कार्यक्रम में सम्मिलित होना था। यहाँ बटुकों का सामुहिक जनेउ संस्कार हो रहा था। कोट पैंट में सेहरा बांधे बटुक अपने रिश्तेदारों के साथ फ़ोटो खिंचवा रहे थे। केवल ने मुझसे पूछा था कि यहां शादी हो रही है क्या? यज्ञोपवीत संस्कार का कार्य शादी जैसा ही हो जाता है। हम मंदिर में पहुचे। मंदिर उपरी तल पर है। जहां काले पत्थर की ब्रजराज स्वामी की मूर्ती रखी है। मेरे पुछने पर पुजारी ने बताया कि मुर्ती यहाँ 400 साल से स्थापित है। दान पेटी में दान चढा एवं प्रसाद लेकर हम नीचे आ गए।
भक्त केवल और भगवान |
नीचे फ़लक पर लिखा था-हिमाचल प्रदेश का प्रवेश द्वार समुद्र तल से 2125 फ़ीट की उंचाई पर बसा नगर नूरपुर आज भी एतिहासिक पृष्ठों को अपने में समेटे हुए है। राजा जगत सिंह ने दरबार-ए-खास को मंदिर का रुप दिया और कृष्ण लीला के भित्ति चित्रों से इसे सजाया।1619-1623 के बीच राजा जगत सिंह चितौड़ के राणा के निमंत्रण पर पुरोहित के साथ चित्तौड़ गए थे। उन्हे रहने के लिए जो कमरा दिया गया था उसके साथ एक मंदिर भी था। आधी रात के वक्त मंदिर से घुंघरुओं की आवाजें एवं संगीत की धूनें राजा के कानों में सुनाई पड़ी। राजा ने दरवाजा खोलकर देखा तो एक औरत बंद कमरे में गाते हुए नाच रही थी। उसने पुरोहित को जगाया और उसे भी वह दृश्य दिखाया।
नूरपुर ब्राह्मण सभा |
राजा जगत सिंह को अपने राज्य वापस आना था। चित्तौड़ के राणा उन्हे विदाई स्वरुप कोई न कोई उपहार अवश्य देगें। पुरोहित ने राजा से कहा कि जाते वक्त उपहार के रुप में इस मंदिर में स्थापित मूर्ति राजा से मांग लेना। यहा मूर्ति साक्षात कृष्ण एवं मीरा का रुप है। राजा जगत सिंह ने ऐसा ही किया। विदाई के वक्त राणा से यही मुर्ती मांगी। राणा ने सम्मान पुर्वक यह मुर्ती और एक मौलसरी का पेड़ उपहार में दिया। जिसे राजा जगत ने किले में लाकर स्थापित करवाया। दरबार-ए-खास में स्थापित राजस्थानी शैली की काले संगमरमर की इस मुर्ती के हम दर्शन कर आए थे। साथ में चित्र भी लिए। इस एतिहासिक स्थान पर हमारा आना सार्थक रहा।
किले के पीछली ओर नदी |
नीचे पहुंचने पर एक सज्जन ने हमसे कहा कि बिना प्रसाद लिए आप यहाँ से नहीं जाएगें। आपको प्रसाद लेना ही पड़ेगा। केवल और मैने दरी में स्थान ग्रहण कर लिया। हिमाचली धाम जैसा ही मामला यहां भी था। पेट भर कर प्रसाद ग्रहण किया। सामने पंडित लोग रसीद बुक लेकर बैठे थे। आने वाले सदस्यों की वार्षिक सदस्यता को रीनिवल कर रहे थे। प्रसादोपरांत हम उनसे आज्ञा लेकर वापस चल पड़े। रास्ते में कुछ और सज्जन भी मिले। लेकिन किले के विषय में चाहत के अनुसार जानकारी नहीं दे सके। पुरातत्व विभाग का भी कोई कर्मचारी वहाँ पर नही था। मैने भी सोच लिया कि चलो कोई यह तो नहीं कहेगा कि नूरपुर का किला देखा ही नहीं। हम पुन: पैदल बस स्टैंड की ओर चल पडे। जैसा की स्थान का नाम नूरपुर है वैसी यहाँ की नारियाँ सुदर्शन और सुशील हैं। पुरुष भी पुरुषार्थी और मेहनती नजर आए। समय होता तो कुछ करीब से जानने समझने का मौका मिलता।
बंदुक मरम्मत की दुकान |
डुन्गा बाजार में पहुचे तो महाबीर जी का मंदिर दिखाई दिया। येल्लो भाई, हम तो गद-गद हो गए। भगवन यहाँ भी मिल गए। मैने एक चित्र लिया बजरंगबली का और जैसे ही मुड़ा ठीक सामने एक दुकान दिखाई दी। जिसमें एक कारीगर बंदुक के हत्थे बना रहा था। मैं उसकी दुकान में घुस गया। चलो एक काम का बंदा मिला। वह टाली की लकड़ी के हत्थे बना रहा था। कई बंदुके उसके पास रखी थी। मैने पुछा कि हत्थे की कीमत क्या है? तो उसने जवाब दिया कि बंदुक के दाम देखकर हत्थे की कीमत होती है जी। मजदूरी का यह पैमाना भी बढिया था। 10 हजार की बंदुक का 1500 सौ का हत्था। क्योंकि बन्दुक में लोहे के पाईप के अलावा हत्था ही होता है जो उसे बंदुक का रुप देता है। वह हत्थे की घिसाई कर रहा था। केवल फ़ोटो लेने लगा तो उसने बुसशर्ट के बटन बंद किए।
बंदुक का निरीक्षण चल रहा है तसल्ली से |
मैने उसकी जाति पूछी तो उसने सुनार बताया। मैने जीवन में पहली बार किसी सुनार को लकड़ी का काम करते देखा था। उसने बताया कि पहले वह भी सुनारी का काम करता था लेकिन वह काम रास नही आया। मजदूरी कम मिलती थी।मशीनी युग एवं महंगाई के जमाने में घर चलाना कठिन हो जाता है। यह एक कटु सत्य था। भारत के सभी परम्परागत शिल्पकारों की यही स्थिति है। इनके व्यवसाय को बड़ी व्यवसायी जातियों ने अपना लिया है। ये सिर्फ़ मजदूरी कर शोषण का ही शिकार हो रहे हैं। सुनार ज्वेलरी शॉप के पाटे पर बैठा चिमनी फ़ूंक-फ़ूंक कर टीबी का शिकार हो जाता है। बड़ी मुस्किल से उसका घर चल पाता है। अच्छा किया मंजीत कुमार वर्मा ने समय रहते अपना धंधा बदल लिया। यही समय की मांग है। वैसे उसके पास मुझे अधिक भरमार बंदुके ही दिखाई दी। एक दो 12 बोर और प्वाईंट 22 की थी।
वापस धर्मशाला की ओर |
बस स्टैंड पहुंच कर हमने धर्मशाला के लिए बस ली। लक्जरी बस थी और ड्रायवर भी सपाटे के साथ बस चला रहा था। पुशबैक सीट पर यात्रा करने का आनंद मुझे इस पहाड़ी इलाके में ही आया। हमारे यहाँ भी एक से बढकर एक लक्जरी बसें चलती हैं लेकिन उनमे स्वारी करने का मौका कभी लगता ही नहीं। शाम साढे पाँच बजे हम गगल पहुंच चुके थे। गगल से धर्मशाला के लिए व्हाया यौल वाली बस में चढे। 1849 में ब्रिटिश भारतीय सेना ने योल में छावनी स्थापित की थी। इस स्थान का नाम योल YOL (Young Officers Leave camp) छावनी होने के कारण ही पड़ा। रास्ते में एक सवारी जानी पहचानी मिली। वह मोटी मोटी कजरारी आँखों वाली दक्षिण भारतीय। शायद किसी कम्पनी में नौकरी कर रही थी। उसके साथ एक लड़का और एक लड़की भी थी। तभी एकतारा और डफ़ली लेकर दो गाने बजाने वाले बालक चढे, हम धर्मशाला के लाल किले तक उनके गाने बजाने का मजा लेते रहे। मैने उनकी धुन रिकार्ड करना चाही लेकिन रिकार्ड नही कर सका। 7 बजे तक हम नूरपुर का किला देख कर घर पहुंच चुके थे। आगे पढें……
बढ़िया रही नूरपुर यात्रा...बढ़िया जानकारी देते हुए वृतांत के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंसुन्दर चित्रों के साथ बढ़िया यात्रा वृतांत
जवाब देंहटाएंकुछ नई जानकारी ....सुंदर चित्र और जीवंत विवरण..... अच्छा यात्रा वृतांत
जवाब देंहटाएंबन्दुक का निरिक्षण ही था की खरीदने का विचार ? रोचक वृतांत ....
जवाब देंहटाएंखूब रही ये यात्रा ललित भाई !पहले से पता होता तो जब पठानकोट गए थे तब आपकी नूरजहाँ से भी मिल लेते ...
जवाब देंहटाएंरोचक यात्रा विवरण....
जवाब देंहटाएंताऊ है कहां आजकल... उनके बारे में बताईये... कुछ अधूरा अधूरा सा लग रहा है...
वाह जी वाह! आपके साथ-साथ हम भी नूरपूर के नूर से सरोबार हो गए... :-)
जवाब देंहटाएंइतिहास , भुगोल , विज्ञानं और पुरातत्त्व विभाग से सम्बंधित जानकारी भरा रोचक यात्रा संस्मरण ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया चल रही है धर्मशाला की यात्रा ।
रोचक यात्रा वर्णन ...बहुत सी बातों की जानकारी को समेटे हुए है आपकी यह पोस्ट
जवाब देंहटाएंरोचक व्रुतांत प्रसाद का स्वाद न मिला जायका जरूर बताते चलें
जवाब देंहटाएंअरे अरे ललित भाई आप नुरपुर गये हमे बताया ही नही यहां नुरपुर मुकेरिया भी तो आता हे, टांडे के आसपास पठान कोट से पहले, इसी के पास एक गांव पडता हे जहां मेरे नाना मामा रहते थे, मै इस इलाके मे दो बार गया हुं, यहां एक गुरु दुवारा भी हे गर्ना साहिब के नाम से, मै बचपन मे यहां भी गया था...
जवाब देंहटाएंगणना पहाड़ों की और पहाड़ों की गणना।
जवाब देंहटाएंkya baat hai bhaai ghr bethe hme nurpur ki nurjahaan ki ser kraane or mulaaqaat kraane ke liyen shukriyaa ... akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंरोचक यात्रा वर्णन ...बहुत सी ऐतिहासिक जानकारियों के साथ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर चित्रों के साथ बढ़िया यात्रा वृतांत|
जवाब देंहटाएंसदा की तरह उत्तम जानकारी, बढिया पारदर्शियां, सुंदर 'पेज मेकिंग"।
जवाब देंहटाएंअच्छा सरदार ने खड़े हो कर आंख मिलाई थी क्या ?
badiya yatra vrutant sath me chitra ise jeevant bana rahe hai...
जवाब देंहटाएंललित भाई, किले के अंदर हम नहीं गये थे,
जवाब देंहटाएंहम भी नौ देवी की यात्रा के समय आपके ही रुट से गये थे, फ़र्क बस वाहन का था, हम तो अपनी उसी पे सवार थे,
thanks for noorpur visit mine also thru yours
जवाब देंहटाएंबढ़िया लग रही है नूरपुर की यात्रा.आधी ही पढ़ी है अभी फुर्सत से आउंगी पूरा पढ़ने.
जवाब देंहटाएंनूरपुर की यात्रा रोचक रही।
जवाब देंहटाएंसही है भैय्या,जब तक पैर सलामत हैं घूमे जाओ और हमारी जानकारी बढ़ाते जाओ.
जवाब देंहटाएंकुछ नई जानकारी ....सुंदर चित्र और जीवंत विवरण..... अच्छा यात्रा वृतांत...
जवाब देंहटाएंबन्दुक का निरिक्षण ही था की खरीदने का विचार ?